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मूलभूत आय (Basic Income) की अवधारणा

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Date:27-03-17

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गत माह संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 में सार्वभौमिक आधार पर भारत में मूलभूत आय (Basic Income) की शुरूआत करने की बात कही गई है। बिना किसी शर्त के समस्त नागरिकों को बेसिक आय की सुविधा देने से गरीबी और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से निपटने में निश्चित रूप से आसानी होगी।

  • विदेशों में मूलभूत आय की अवधारणा

हाल के कुछ वर्षों में मूलभूत आय के विचार की वकालत कई देशों में की जा रही है। इस विचार के प्रवर्त्तक वामपंथी विचारक फिलिप वेन रहे हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘रियल फ्रीडम फॉर ऑल ‘ में लिखा है कि किसी व्यक्ति के अच्छे जीवन के विचार को मूलभूत आय के द्वारा उसे वास्तविक स्वतंत्रता प्रदान करके साकार किया जा सकता है। मूलभूल आय का अभिप्राय यह है कि सरकार अपने नागरिकों को किसी तरह की जाँच और काम के बिना एक निश्चित राशि उपलब्ध कराए।

इसी तर्ज पर फिनलैण्ड ने 25 से 58 वर्ष तक के 2000 बेरोज़गारों को चुना है, जिन्हें वह प्रयोग के तौर पर 560 यूरो की राशि हर महीने प्रदान कर रहा है।यूरोप में इसे लोगों के रोज़गार की स्थिति को देखते हुए देने की बात कही जा रही है। बेसिक आय की अवधारणा को दूसरे शब्दों में नकारात्मक आयकर के नाम से व्याख्यायित किया जा सकता है। यह एक ऐसी योजना है, जिसमें किसी व्यक्ति की आय पर कर लगाने की बजाय उसे कर लाभ दिया जा सकेगा। यह राशि मूलभूत आय एवं कर-देयता के बीच का अंतर होगी।बेसिक आय की वकालत करने वाले बुद्धिजीवी, नकारात्मक आयकर से बेहतर विकल्प मूलभूत आय को मानते हैं। उनका कहना है कि नकारात्मक आयकर वहीं लागू किया जा सकता है, जिस देश के सभी नागरिक आयकर का भुगतान करते हों।

  • मूलभूत आय के भारतीय प्रस्ताव की विकृतियां
    • आर्थिक सर्वेक्षण के मूलभूत आय के प्रस्ताव में जनकल्याण योजनाओं पर आघात किया गया है। इसके अनुसार गरीबी उन्मूलन और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों की सूची में मूलभूत आय को जोड़ने की जगह इसे विकल्प की तरह प्रयोग में लाया जाएगा।
    • मूलभूत आय को वैकल्पिक योजना की तरह प्रयोग में लाया जाना ठीक नहीं माना जा सकता। विचारकों के मत में बेसिक आय की अवधारणा मुफ्त शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का विकल्प नहीं है, बल्कि उनका पूरक है।
    • भारतीय संदर्भ में खाद्य सामग्री वितरण को जनकल्याण का बेहतर साधन समझा जाता है। विचारकों के अनुसार खाद्य एवं पोषण सब्सिडी के विकल्प के रूप में बेसिक आय को लाया जाना कहीं से भी उचित नहीं है।
    • आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस प्रकार की आय दिए जाने के बाद वस्तु या धनराशि के रूप में दी जाने वाली अन्य प्रकार की सहायता समाप्त की जानी चाहिए।
    • आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वैश्विक मूलभूत आय की अवधारणा में धनराशि का हस्तांतरण धनी वर्ग से निर्धन वर्ग को न होना गलत है।

बेसिक आय की अवधारणा को सफल बनाने के लिए संसाधनों की आवश्यकता होगी। इस अवधारणा के प्रवर्तक फिलिप वेन ने माना है कि अगर हम बेसिक आय को वर्तमान कर लाभ के ढांचे से ही जोड़ दें, तो धनी वर्ग को अपनी मूलभूत आय पर कर देने के साथ-साथ अपेक्षाकृत निर्धन वर्ग की आय पर भी कर देना होगा। उनकी पुस्तक में अनेक संसाधनों को तलाशा गया हैं। लेकिन निष्कर्षतः धनी वर्ग पर ही बेसिक आय का दारोमदार होगा।

  • आर्थिक सर्वेक्षण में मूलभूत आय के लिए तलाशे गए संसाधन

सर्वेक्षण में बेसिक आय के संसाधन के तौर पर किसी तरह के नए कर या अन्य संसाधन जुटाने की कोई बात  नहीं कही गई है। इसके अनुसार “मूलभूत आय का भार वहन करने के लिए सरकार को अपने कार्यक्रमों और खर्च की प्राथमिकताएं निर्धारित करनी होंगी।” इसका सीधा सा अर्थ यही है कि सरकार को अपनी अन्य योजनाओं के खर्च में कटौती करके इस योजना को साकार करना होगा।आर्थिक सर्वेक्षण में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे यह लगे कि इसका भार किसी भी तरह से धनी वर्ग पर डाला जाएगा।

  • निष्कर्ष
  • मूलभूत आय की अवधारणा सार्वभौमिक होनी चाहिए।
  • यह समूह या वर्ग विशेष तक सीमित न हो।
  • इसके लिए कार्य या रोज़गार की कोई शर्त न हो।
  • इसे धनराशि के रूप में दिया जाए।

विश्व में सार्वभौमिक मूलभूत आय को एक तरह से रोज़गार या आय की गारंटी के रूप में दिया जा रहा है या दिए जाने पर विचार किया जा रहा है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो, इसके माध्यम से सरकार धनी से निर्धन को संसाधनों का पुनर्वितरण कर सकती है। इसके माध्यम से प्रत्येक नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य और खाद्य-सुरक्षा जैसी मौलिक सुविधाओं के बाद एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिल सकेगा।मजे की बात यह है कि आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 में मूलभूत आय के इन समस्त लक्ष्यों को ताक पर रख दिया गया है। अन्य जन कल्याणकारी योजनाओं के साथ मनरेगा जैसी योजना के स्थान पर मूलभूत आय उपलब्ध कराने की स्थिति में भारत को दस गुना ज़्यादा खर्च करना होगा। जब तक हमारी सरकार कर-संसाधन नहीं जुटा पाती है, मूलभूत आय की अवधारणा दूर की सोच लगती है।

हिंदू में प्रकाशित मधुरा स्वामीनाथन के लेख पर आधारित।

 

 

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Life Management: 27 March 2017

27-03-17 (Daily Audio Lecture)

27-03-2017 (Important News Clippings)

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Date:27-03-17

Unruly Gaikwad

Politicians are not above the law and Air India is not their personal property

Shiv Sena MP Ravindra Gaikwad’s alleged assault on an Air India staffer last week has led to a nationwide outcry – against how politicians with a bloated sense of entitlement expect to be treated as much more special than the public they serve. Delhi Police has filed an FIR against Gaikwad under sections 308 and 355 of IPC. It’s very important that the police probe be expeditious, rigorous and free from political interference. A clear message must go out that no politician can flout the country’s rules or demand special services at will, and with violence.

After the incident, the unapologetic Sena MP from Osmanabad could be seen on TV boasting about how he hit the airline employee with his sandal 25 times. It seems he was angry because he had been made to fly in an all-economy flight from Pune to Delhi. Whatever the merits of his complaint, Gaikwad should know he has no right to assault anyone. Afterwards, IndiGo, Jet Airways, SpiceJet, GoAir, AirAsia and Vistara closed ranks with Air India to stop Gaikwad from flying on their aircraft. He was forced to travel back to Pune by train.

Government must respect that the airline industry has the right to safeguard its passengers and crew. After all the Union civil aviation ministry is working on creating institutional mechanisms to check undesirable flight behaviour or unruly passengers. Current rules of India’s aviation regulator DGCA are unclear on the concept of a no-fly list, whereby passengers on such a list can be denied issuance of tickets. The provision that comes closest is section 3 of DGCA’s Civil Aviation Requirements, which was invoked by the airlines in the case of Gaikwad. Under this, passengers who are likely to be unruly can be off-loaded or refused embarkation if they pose a threat to the safety and security of the flight, fellow passengers or staff while on board aircraft.

The more it has been fed taxpayers’ money the more Air India has allowed elected representatives to treat it as their personal handmaiden. The more they throw their weight about, the more the remaining passengers shun Air India. It’s unusually bold of it to send a message that it will treat politicians the same as the people they represent. Government must recognise that only this kind of independent thinking can get the airline out of its dismal financial state.


Date:27-03-17

Making Ganga and Yamuna a legal person can help

Last week, the Uttarakhand high court ruled rivers Ganga and Yamuna to be legal persons, in a public interest case on pollution. When any person commits bodily violence on another person, it is a crime that the state can take cognizance of, without waiting for a complaint. So, after this judicial pronouncement, any harm done to these two giant rivers of North India can become a cognizable offence. The state can initiate criminal proceedings on its own, without waiting for a complaint by some environmentalist. This is a welcome development, given that Yamuna has been declared a dead river and the waters of the Ganga are carcinogenic in some parts, given the volumes of effluents discharged into the river.

The Uttarakhand high court was following the example of a recent New Zealand law that made that country’s third longest river, Whanganui, a legal person. This law followed in the wake of a 2014 law that made an entire forested slope, TeUrewera, held sacred by the Maoris, a legal person. Of course, it is not just live humans who are persons in a legal sense — anywhere in the world, companies, trusts, etc and juridical persons, who can sue and be sued. In India, thanks to a colonial convention, even gods are juridical persons.

Lord Ram was a party to the Ayodhya dispute in the Allahabad high court and was represented by Union minister Ravishankar Prasad in his capacity as a lawyer. In India, the tradition has been to deem rivers to be feminine. In Mahabharata, Ganga was married to Shantanu and gave birth to the son who grew up to become Bhishma, the most accomplished warrior of his time, who bowed to convention and stood mute witness to vile acts of treachery and dishonour by his grand-nephews.This feminine attribute perhaps plays a role in Indians doing to rivers that are wont to go through lonely stretches unattended, clad, primarily, in their beauty, trusting and without a care about the time of the day, what many of them feel compelled to do to women in similar circumstances. Indian men have to learn to treat rivers and women a whole lot better. The law might help.


Date:27-03-17

जवाबदेही से दूरी

गत सप्ताह लोक सभा ने वित्त विधेयक 2017 को मंजूरी दे दी। अब यह राज्य सभा के समक्ष जाएगा। लेकिन चूंकि यह एक धन विधेयक है इसलिए उच्च सदन इसे न तो ठुकरा सकता है और न ही कोई संशोधन करने का दबाव डाल सकता है। सरकार ने इसमें कुछ अतिरिक्त सुझावों का प्रस्ताव रखा है जो कुल 40 से अधिक मौजूदा कानूनों में हो रहे बदलाव के सिलसिले की एक कड़ी है। इनमें से कई संशोधन ऐसे कानून पारित करने से संबंधित हैं जहां मसले की प्रकृति वित्तीय नहीं है। ऐसे कानूनों के लिए राज्य सभा की मंजूरी ली जानी चाहिए। यह देश की संवैधानिक व्यवस्था का आधार है। लेकिन उनके लिए धन विधेयक की राह चुनकर सरकार ने इस आवश्यकता को दरकिनार कर दिया है। यह सरकार द्वारा धन विधेयक का दुरुपयोग कर राज्य सभा से बचने का एक और उदाहरण है। राज्य सभा में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को बहुमत नहीं हासिल है। अतीत में सरकार ने इस प्रावधान का इस्तेमाल कर आधार अधिनियम पारित किया था। ऐसा लगता है कि अब उसका इरादा इसका अक्सर प्रयोग करने का है। ऐसा करने से संवैधानिक व्यवस्था पर बुरा असर ही नहीं होगा बल्कि इन नए कानूनों की वैधता पर भी सवाल खड़े होंगे।
वित्त विधेयक 2017 में जो संशोधन सुझाए गए हैं उनमें कई अत्यंत बहसतलब मुद्दों से जुड़े हैं। उदाहरण के लिए राजनीतिक दलों को कारोबारी चंदे से संबंधित कई प्रावधानों में अहम बदलाव किए गए हैं। इसका सरकारी वित्त से क्या लेनादेना है यह स्पष्टï नहीं है लेकिन चुनाव सुधार से यह जरूर जुड़ा है। धन विधेयक का चुनाव सुधार से भला क्या संबंध? इससे पहले राजनीतिक दलों को कंपनियों का चंदा उनके शुद्घ लाभ के 7.5 फीसदी तक सीमित किया गया था। यह पिछले तीन साल के औसत के समान था। इससे भी बुरी बात यह है कि यह चंदा आखिर कहां जा रहा है, यह जानने की जरूरत तक समाप्त कर दी गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में अब ऐसी व्यवस्था है जहां असीमित, अपारदर्शी राजनीतिक चंदा दिया जा सकता है। संसद में इस पर व्यापक बहस होनी चाहिए थी और विपक्ष को संशोधनों पर चर्चा करने और बदलाव की कोशिश का मौका मिलना चाहिए था जो नहीं मिला। अपील पंचाट की व्यवस्था में बदलाव भी दिक्कतदेह है। वित्त विधेयक 2017 ने कई पंचाटों को बदल दिया है और उनका विलय कर दिया है। उदाहरण के लिए प्रतिस्पर्धा अपील पंचाट जो प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 के उल्लंघन के मामलों पर निर्णय देता था अब राष्टï्रीय कंपनी कानून अपील पंचाट ने उसका अधिग्रहण कर लिया। यह पंचाट कंपनी अधिनियम से जुड़े विवादों की सुनवाई करता आया है।
जाहिर सी बात है कि इन दोनों अधिनियमों का काम और उनका उद्देश्य दोनों अलग हैं। इनके लिए जरूरी विशेषज्ञता भी अलग है। सबसे बुरी बात यह है कि नये संशोधन के तहत सरकार को पंचाट सदस्यों के रोजगार और नियुक्ति की शर्तें निर्धारित करने का अधिकार रहेगा। ऐसा तब है जबकि अक्सर सरकार इन पंचाटों के समक्ष आने वाले मामलों में पक्षकार रहती है। इस व्यवस्था में स्वाभाविक तौर पर दिक्कतें हैं। अद्र्घ न्यायिक संस्थाओं पर सरकारी अधिकारियों का नियंत्रण मूलभूत संवैधानिक सिद्घांतों का उल्लंघन है। इसके बावजूद सरकार ने इसे धन विधेयक के रूप में भेजा। इससे न केवल राज्य सभा की भूमिका को सीमित किया जा रहा है बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही को भी कमतर किया जा रहा है। लोक सभा अध्यक्ष का यह तय करने का अधिकार अंतिम मान लिया गया है कि धन विधेयक किसे माना जाएगा? अगर यह रवैया लोक  सभा अध्यक्ष को अदालती मामलों में घसीटता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा।


Date:26-03-17

जहां बच्चे उपेक्षित हैं

मानव संसाधन विकास की हमारी परिकल्पना में बच्चों का विकास, बच्चों का स्वास्थ्य और बच्चों का पोषण शामिल नहीं है। ‘मानव संसाधन विकास’, वास्तव में, ‘शिक्षा’ का नया नाम है। सब कुछ से वास्ता रखने वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय की राजीव गांधी की परिकल्पना उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद ही छोड़ दी गई और आज इस नाम का मंत्रालय, पुराने शिक्षा मंत्रालय का ही दूसरा नाम है।

लगता है हम इस सच्चाई को भुला बैठे हैं कि शिक्षा बच्चे के लिए होती है। शिक्षा बच्चे की सारी संभावनाओं को तभी खोल सकती है जब वह सुपोषित और स्वस्थ हो। यह सही है कि हमने बच्चों को शिक्षित करने की खातिर कई पहलकदमियां की हैं, लेकिन उस बच्चे की दशा क्या है जिसे हम शिक्षित करना चाहते हैं और जिससे हम अच्छे नागरिक के रूप में विकसित होने की आशा करते हैं?राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 इस सर्वेक्षण-शृंखला की चौथी कड़ी है। यह सर्वेक्षण देश और प्रत्येक राज्य की आबादी, स्वास्थ्य और पोषण पर व्यापक जानकारी ( तथा आंकड़े) मुहैया कराता है। यह रिपोर्ट कुछ मायनों में उत्साहजनक और कई मामलों में निराशाजनक है।
स्तब्धकारी नतीजे

निश्चय ही, भारत ने आजादी से अब तक मानव विकास के कई मानकों पर उल्लेखनीय प्रगति की है। उदाहरण के लिए, 1947 से, जीवन प्रत्याशा 32 साल से 66 साल और साक्षरता 12 फीसद से 74 फीसद हो गई। कई मानकों पर, स्त्री-पुरुष विषमता कम हुई है। इस प्रगति के बावजूद, हमारे बच्चों की दशा लज्जा का विषय है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 के कुछ महत्त्वपूर्ण संकेतकों पर नजर डालें:
एनएफएचएस 2015 एनएफएचएस 2005-06
पिछले पांच वर्षों में जन्म के समय लिंगानुपात
(बालिकाएं प्रति 1000 बालकों पर) 919 914
शिशु मत्यु दर 41 57
पांच साल से छोटे बच्चों में मृत्यु दर 50 74
12 से 23 महीनों के बच्चों में पूर्ण टीकाकरण (प्रतिशत) 62.0 43.5
पांच वर्ष से छोटे बच्चे, जिनका विकास बाधित है 38.4 48.0
(जिनका कद उम्र के मुताबिक नहीं है)
पांच साल से छोटे बच्चे जो कमजोर हैं 21.0 19.8
(जिनका वजन कद के मुताबिक नहीं है)
पांच साल से छोटे बच्चे जो अत्यधिक दुर्बल हैं 7.5 6.4
पांच साल से छोटे बच्चे जिनका वजन उम्र के लिहाज से कम है 35.7 42.5
6 से 59 माह के बच्चे जो खून की कमी से पीड़ित हैं 58.4 69.4
स्वास्थ्य विज्ञान मानता है कि किसी बच्चे के प्रथम पांच वर्ष ही सामान्यत: यह निर्धारित करते हैं कि बाकी जीवन में उसका स्वास्थ्य और शारीरिक तथा मानसिक विकास कैसा होगा। भारत के बच्चों की दशा कैसी है? दो बच्चों में से एक खून की कमी से पीड़ित है, तीन में से एक का विकास बाधित है और वजन कम है, और पांच में से एक दुर्बल है। इसकी वजहें हैं अपर्याप्त भोजन, अल्प पोषण, खराब पेयजल और साफ-सफाई की बुरी हालत।
खाद्य सुरक्षा की उपेक्षा

संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार घोषणापत्र के बच्चों से संबंधित अधिकारों को मंजूरी देने वाले देशों में भारत भी है। घोषणापत्र के अनुच्छेद 24 (2) में कुछ अन्य बातों के अलावा, यह बात भी शामिल है:
‘‘संबंधित देश बीमारियों तथा कुपोषण से लड़ने के लिए उपयुक्त कदम उठाएंगे… जिनमें पर्याप्त पोषक आहार तथा साफ पेयजल मुहैया कराना शामिल है।’’
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 ‘पुसाने वाली कीमतों पर गुणवत्तायुक्त खाद्य की पर्याप्त मात्रा तक पहुंच सुनिश्चित करने के उद््देश्य से’ लागू किया गया था। इसमें हर व्यक्ति को प्रतिमाह पांच किलो अनाज देने का वादा किया गया था। गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली माताओं, छह महीने से छह साल तक के बच्चों और कुपोषण से पीड़ित बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। एक साधारण ही सही, पोषण-मानक तय किया गया: विभिन्न श्रेणियों के लिए 500 से 800 कैलोरी और 12 से 25 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन। खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन पर नजर रखने के लिए हर राज्य में एक सरकारी खाद्य आयोग का गठन कानूनन अनिवार्य किया गया। 21 मार्च तक की स्थिति के मुताबिक, खाद्य सुरक्षा अधिनियम में किए गए वादे अब भी अधर में हैं; और नौ राज्य सरकारों ने खाद्य आयोग का गठन नहीं किया है। इस सूची में महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य भी शामिल हैं और छत्तीसगढ़, झारखंड तथा ओड़िशा जैसे गरीब राज्य भी। इस घोर उदासीनता के आरोपों का जवाब देने के लिए संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को सर्वोच्च न्यायालय ने तलब किया है।
प्रतिबद्धता पर संदेह
हालांकि प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, पर बच्चों के प्रति केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता भी संदेहास्पद है। देखिए, महत्त्वपूर्ण मदों में केंद्र सरकार कितना कम खर्च करती है:
कुल व्यय के अनुपात (प्रतिशत) में
2013-14 2014-15 2015-16 2016-17
मानव संसाधन विकास मंत्रालय
4.57 4.24 3.75 3.65
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय
1.89 1.90 1.90 1.97
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
1.16 1.11 0.96 0.88
कुल 7.62 7.25 6.61 6.50
2013-14 में खर्च का जो स्तर था अगर बाद के वर्षों में सरकार ने उसे बनाए रखा होता, तो पिछले तीन साल में 6155 करोड़ रुपए, 18,087 करोड़ रुपए और 22,561 करोड़ रुपए की अतिरिक्तराशि खर्च की गई होती।
देश के बच्चों की देखभाल में सरकारें, खासकर राज्य सरकारें, एक के बाद एक, बुरी तरह नाकाम रही हैं। मेरे खयाल से, यह मसला, कानून व्यवस्था केबाद, सरकार के लिए सबसे महत्त्व का मसला है। उपेक्षा के चलते ही, हमारे मानव संसाधन की गुणवत्ता बेहद शोचनीय है। आर्थिक वृद्धि से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक, हर चीज हमारी मानव पूंजी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। जिस जनसंख्यात्मक शक्ति की हम डींग हांकते हैं, उसके एक जनसंख्यात्मक बोझ में बदल जाने का खतरा है।तमिल में इस आशय की एक कहावत है कि ‘बच्चे और देवता वहां रहते हैं जहां उनकी पूजा होती है।’ यह अफसोसनाक है कि हम देवताओं की पूजा भले करते हैं, मगर एक राष्ट्र के तौर पर, बच्चों के प्रति हमारा व्यवहार घोर उपेक्षा का है।

पी. चिदंबरम


Date:26-03-17

उदारवाद बनाम कट्टरपंथ

सामान्य व्यक्ति और बौद्धिकों की विश्व दृष्टि में अपाट खाई नजर आ रही है। हो सकता है कि यह खाई मुझे ज्यादा गहरी लग रही हो, पर जमीन का टूटना और धंस जाना सभी को दिख रहा है। कुछ समय पहले तक हम एक समतल पर खड़े थे और लगभग एक तरह से जनसंवाद में जुटे थे। कई मानकों पर सहमति थी या कहें कि हमने कुछ मूल मानकों को अपनी सामाजिक और राजनीतिक जीवन शैली का स्वाभाविक हिस्सा-सा मान लिया था। हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरी दुनिया में एक प्रकार का तंत्र और सोच हावी थी और वह हमारे आचार-विचार में इस कदर घुल-मिल गई थी कि उसका हर विघटन अप्राकृतिक-सा लगता था।
पिछले कई सालों से, खासकर पिछले एक दशक में, अकाट्य जीवन सत्यों को चुनौती मिलने लगी थी। 1940 से लेकर लगभग 2000 तक लोकतंत्र, मानवाधिकार, उदारवादी मूल्य, सहिष्णुता, वैश्वीकरण, पश्चिमीकरण वगैरह हमारे सार्वजनिक संभाषण का मूलभूत हिस्सा थे। शुरुआती दशकों में इन सभी मूल्यों के चमकते सितारे ईरान और अफगानिस्तान थे। तेहरान, लंदन और न्यूयॉर्क से कम नहीं था और काबुल को पूरब का पेरिस कहा जाता था। 1979 में तेहरान के पहलवी राजवंश को इस्लामिक क्रांति ने सत्ता विहीन कर दिया और यकायक तरक्की पसंद ईरान कट्टरवादी इस्लाम के साथ हो गया।
अफगानिस्तान में भी कुछ ऐसा ही हुआ, 1979 में। काबुल में कम्युनिस्ट सरकार थी और उसकी खिलाफत में मुसलिम गुरिल्ला मूवमेंट शुरू हुआ। सोवियत रूस की फौज कम्युनिस्ट सरकार की मदद के लिए अफगानिस्तान में घुसी और फिर वहीं फंस गई। 1992 तक यह सिलसिला चलता रहा और फिर इस्लामिक कट्टरपंथी काबिज हो गए। पूरब का पेरिस तालिबानी काबुल बन गया।

ज्यादातर विद्वानों ने इन दोनों परिवर्तनों को जिओ पॉलिटिक्स के नजरिए से देखा, जिसमें अमेरिका और सोवियत रूस के बीच चल रहे शीतयुद्ध की बड़ी हिस्सेदारी थी। यह कहना काफी हद तक ठीक भी था, क्योंकि दोनों महाशक्तियां अपने बल प्रदर्शन की होड़ में लगी हुई थीं। तेहरान अमेरिका के पूरे प्रभाव में था और अफगानिस्तान पर रूस का वर्चस्व था। पर दोनों देशों में आधुनिक विचार और जीवन शैली मान्य प्रतीत होती थी। किसी को भी आभास नहीं था कि जमीनी स्तर पर दोनों देश बदल रहे हैं। ईरानी क्रांति ने तथाकथित उदारवादी पाश्चात्य मूल्यों को एक झटके में दरकिनार कर कट्टरपंथी इस्लामिक चोले को अपना लिया। अफगानिस्तान में भी ऐसा ही हुआ। समाज एक दिशा और दशा से ठीक उलट दिशा और दशा में परिवर्तित हो गया। उदारवाद और कट्टरवाद के बीच संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं रही।  धीरे-धीरे दुनिया के कई बड़े हिस्से बदलने लगे। पाकिस्तान इनमें पहला था। फिर 2000 आते-आते रूस से अलग हुए कई देशों में मजहबी संघर्ष हुआ, जो खाड़ी के देशों से लेकर अफ्रीका के इलाको में फैल गया। इसके साथ आतंकवाद का जन्म हुआ और वह पल भर में जवान भी हो गया। 11 सितंबर, 2001 को आतंकवाद बड़े धमाके के साथ अमेरिका भी पहुंच गया। सारी दुनिया अब भयभीत थी। उदारवाद के परखचे उड़ गए थे।  पर बौद्धिकों को ऐसा नहीं लगा। वे अपने थिंक टैंकों में मेढक बने रहे। देश बदल रहे थे, लोगों की अपेक्षाएं बदल रही थीं, मनोवृत्तियां तब्दील हो रही थीं और माहौल गहरा रहा था, मगर सामाजिक, राजनीतिक विचारक इन परिस्थितियों से निपटने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाए। वे आगे-पीछे सब ठीक हो जाएगा की माला जपते रहे और अपनी पुरानी घुट्टी प्रसाद के रूप में बांटने में जुटे रहे। उनको इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं था कि सन 2000 में 1960 की घुट्टी की तासीर खत्म हो चुकी थी।

2014 में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष भारत में दक्षिणपंथ का प्रचंड उदय और फिर अमेरिका जैसे उदारवादी देश में डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी (2016) से साबित हो गया है कि बौद्धिकों के प्रवचन और आम आदमी की सोच में कोई तालमेल नहीं है। एक तरह से देखा जाए तो बुद्धिजीवियों और उदारवादी विचारकों के पैरों तले की जमीन कब खिसक गई, पता ही नहीं चला। वोट के जरिए हो या फिर आतंकवाद पर खामोश समर्थन के जरिए, बहुत हद तक कट्टरवाद का प्रभुत्व हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर पसर रहा है। इसके कई नाम और रंग है- राष्ट्रवाद, विकासवाद आदि, पर लौट-फिर कर बात एक ही है।
उदारवादी बुद्धिजीवी सकपकाए हुए हैं। कुछ तो दहशत में हैं। उनके जीवन काल में चली आ रही और पूर्ण स्थापित तथाकथित वामपंथी उदारवादी वैचारिक शैली का तख्ता पलट हो गया है। वैसे भी जब वे विश्व इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि उनके जैसे उदारवाद की सत्ता हमेशा से अल्पकालीन रही है। कट्टरपंथ का बोलबाला इतिहास में लगातार बना रहा है, चाहे वह रोम और ग्रीस का राष्ट्रवाद हो या फिर क्रिश्चियन कू्रसेड और इस्लामिक खलीफाशाही। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, पुर्तगाल, फ्रांस, रूस आदि भी राष्ट्रवाद को बुलंद करके ही आगे बढ़े थे और फिर उदारवादी हो गए। उनका आज वही हाल है, जो हिंदुस्तान में सम्राट अशोक के उदारवाद समर्पण के बाद हुआ था। आशोक के साथ राजवंश खत्म हो गया था और भारत का स्वर्ण काल भी। उसके बाद आने वाले चंद्रगुप्त मौर्य ने राष्ट्रवाद की नींव पर फिर से साम्राज्य खड़ा किया।

पर इन तथ्यों से परे यह भी सत्य है कि देश बदल रहे हैं, उनमें मंथन चल रहा है। एक तरफ अनजाने भय से आम लोग कट्टरपंथ स्वीकार कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ उदारवाद के ‘अस्वाभाविक’, संस्थागत तौर-तरीकों से भी परेशान होकर अपनी आदमीयत की सत्यता के हट गए हैं। अमेरिका में समलैंगिक विवाह से लेकर उदारवादियों की वैचारिक और सामूहिक भ्रष्टता चुनावी मुद्दे बन चुके हैं। डोनाल्ड ट्रंप जब ‘फेक न्यूज’ कहते हैं तो जन साधारण की चुप्पी को जुबान देते हैं, जो उदारवाद को जाली व्यवस्था मानते हैं। दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिनको लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आड़ में कट्टरवाद अस्वीकार्य है। उनके अनुसार लोकतंत्र और कट्टरवाद अलग-अलग चीजें हैं। जो कट्टरवादी है वह लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। यह एक तरह से सच भी है, क्योंकि लोकतंत्र में कोई भी विचार या कृत्य किसी पर थोपा नहीं जा सकता। पर ऐसा हो रहा है। जन-सत्ता का धर्म या अर्थ ने नाम पर अपहरण हमारी आखों के सामने दिनदहाड़े हो रहा है।

वास्तव में आम आदमी लोकतंत्र के प्रति समर्पित है, उदारवाद उसकी मूल प्रवृत्ति है। जो लोग कट्टरपंथी नहीं हैं और लोकतंत्र के प्रति कटिबद्ध हैं, उन्हें इस प्रवृत्ति को सहज ढंग से कुरेदना होगा, उसको फिर से प्रवाहित करना होगा। उनके लिए जरूरी है कि वे जनमानस से फिर से जुड़ें और उसकी असुरक्षा को शांत कर मानवीय मूल्यों और भावों से जोड़ें। यह एक बड़ी चुनौती है, जो सीधे मानवता के भविष्य पर असर डालती है।
कट्टरवाद से आमने-सामने का संघर्ष व्यर्थ है। उसका बाहुबल और उनके नारे की ललकार हमेशा भारी पड़ेगी, क्योंकि जोश अमूमन होश खो देता है। उदारवाद होश का वाद है, आदमियत का वाद है। इसीलिए विश्वास से कहा जा सकता है कि आज जो भी है, वह आज ही है। कल उदारवाद का ही प्रभुत्व होगा, क्योंकि उदारवाद ही मानव प्रकृति के अनुसार है, सहज है और हमारी-आपकी की दशा और दिशा सुधारने में सक्षम है। यह सबसे अच्छा और स्वस्थ लोकतांत्रिक तरीका भी है।


Date:26-03-17

गलियारा दरअसल भारत-घेराव है

करीब तीन हजार किमी लंबे चीन और पाकिस्तान के आर्थिक गलियारे को लेकर भारत और पाकिस्तान में खूब विरोध हो रहा है। यह 46 अरब डॉलर की संपर्क योजना है जो ग्वादर बंदरगाह को दक्षिण-पश्चिम पाकिस्तान के साथ-साथ सुदूर पश्चिम चीन के झिंजियांग प्रांत को जोड़ेगा। यह बीजिंग के उस वृद्ध योजना ‘‘वन बेल्ट, वन रोड’ का ही हिस्सा है जिसके जरिये चीन मध्य एशिया और रूस होते हुए यूरोप के साथ जुड़ना चाहता है। चीन को इसके माध्यम से कई राष्ट्रीय हितों को साधना है। पहला, एशिया में भारत को संतुलित करने के लिए पाकिस्तान को साधना उसकी पारंपरिक नीति का हिस्सा रहा है। अब वह इस गलियारे के माध्यम से इस्लामाबाद को विकास का सपना दिखाकर रिझाने की सफल कोशिश कर रहा है। दूसरे, वह अपने व्यापारिक हितों का विस्तार समुद्री रास्ते के बजाय जमीनी रास्तों से करना चाहता है क्योंकि समुद्री रास्तों पर अमेरिका व पश्चिमी देशों का दबदबा है।दरअसल, वह गलियारा रणनीतिक तौर पर अहम और विवादित माने जाने वाले कश्मीर के गिलगिट-बाल्टिस्तान से होकर गुजर रहा है, जिसका विरोध वहां के स्थानीय लोग कर रहे हैं। ब्रसल्स में हुए यूरोपीय संसद, जिसमें सिंध, ब्लूचिस्तान और गिलगिट बाल्टिस्तान की आजादी के लिए आवाज उठाने वाले प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था, में भी इस गलियारे का भारी विरोध हुआ। आम राय थी कि इस गलियारे से सिर्फ चीन और पंजाब के नागरिकों को फायदा होगा। ब्लूची प्रतिनिधि मेहरान ब्लूच ने इस गलियारे को अवैध ठहराया और कहा कि इससे हमारी संस्कृति और पहचान खत्म हो जाएगी। विश्व सिंध कांग्रेस के चेयरपर्सन रूबीना ग्रीवुड भी आशंकित हैं कि चीन यहां के संसाधनों की लूटपाट करेगा। गिलगिट-बाल्टिस्तान थिंकर्स फोरम के अध्यक्ष वजाहत हसन की भी यही राय है। भारत पर इस योजना में शामिल होने के लिए चीन-पाकिस्तान दबाव डाल रहे हैं। चीन भारत पर दबाव बनाने के लिए रूस से भी सहयोग लेने की कोशिश कर रहा है। लेकिन पीओके भारत का अभिन्न हिस्सा है। ऐसे में वह इस परियोजना में कैसे शामिल हो सकता है? उसे इस बात की भी आशंका है कि चीन-पाकिस्तान सैनिक कार्रवाई के लिए इस गलियारे का इस्तेमाल कर सकते हैं। इस आशंका को खारिज भी नहीं किया जा सकता। चीन अपनी संप्रभुता के मामले में जरूरत से ज्यादा संवेदनशील रहता है, लेकिन दूसरे की परवाह नहीं करता। हालांकि चीन दावा करता है कि भारत को चिंतित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह व्यापारिक-वाणिज्यिक मार्ग है। फिर भी यह स्वाभाविक है कि भारत जिस क्षेत्र पर अपना दावा करता आया है, वहां चीन-पाकिस्तान की संयुक्त योजना में कैसे शामिल हो सकता है! नेपाल ने चीन की प्रस्तावित ‘‘वन बेल्ट, वन रोड’ में शामिल होने का संकेत दिया है। अगर इसका कोई नियंतण्र स्वरूप उभरता है, रूस, मध्य एशिया के देश भी यदि इसमें शामिल होते हैं तो भारत का विरोध कम हो सकता है। यदि चीन भारत को यह आास्त करे कि इसका सैनिक उपयोग नहीं होगा और मसूद अजहर, न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप आदि मुद्दों पर वह भारतीय हितों का ध्यान रखते विास जमाता है तो भारत भी इस परलचीला रुख अपना सकता है।

डॉ. दिलीप चौबे


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नगरीय विकास में राज्य सरकारों की भूमिका

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Date:28-03-17

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हमारे शहरों की स्थिति पिछले कुछ वर्षों की तुलना में और भी खराब हो चुकी है। भारतीय अर्थव्यवस्था के त्वरित विकास के लिए शहरों को निर्णायक भूमिका निभानी होगी। शहरों के विकास और अनियोजित शहरीकरण को पटरी पर लाने के लिए रोज ही किसी न किसी तरह की योजनाएं बनाई जाती हैं। शहरों के विकास की योजनाएं बनाने से पहले इससे संबंधित दो तथ्यों को समझना अत्यंत आवश्यक है।

  • शहरों की योजना और प्रबंधन का पूरा दारोमदार राज्य सरकारों पर होता है। जबकि सामान्यतः शहरों में बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं का जिम्मेदार केंद्र सरकार को माना जाता है। अब शहरों में संस्थागत सुधारों के उत्तरयदायत्वि का हस्तांतरण राज्य सरकारों को कर दिया जाना चाहिए।
  • दूसरे, हमारे शहरों के स्वरूप को बदलने के लिए समग्र प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। हमारे यहाँ स्वच्छ जल, कचरा निष्पादन, सार्वजनिक परिवहन आदि से जुड़ी योजनाओं और कार्यक्रमों की भरमार है। इनमें से हर योजना या कार्यक्रम के लिए एक अलग सरकारी विभाग है। लेकिन ये सभी विभाग अन्य सरकारी एजंसियों की तरह शिथिलता से काम करते हैं। शहरों से जुड़ी बहुत सी समस्याएं आपस में जुड़ी हुई हैं।

किसी समस्या का उचित समाधान तभी किया जा सकता है, जब उससे जुड़ी दूसरी समस्या का भी समाधान हो।अगर हम पहले एवं दूसरे तथ्य को लेकर चलें और शहरों के विकास में राज्यों के प्रयासों पर नज़र डालें, तो हम पाते हैं कि 2011-2014 के दौरान कुछ राज्यों में से महाराष्ट्र ने शहरों की स्थिति सुधारने में बाजी मार ली है।

  • महाराष्ट्र की नीति
    • भारत के अन्य शहरों की तुलना में महाराष्ट्र सरकार ने अपने वासियों को पीने का पर्याप्त पानी मुहैया कराया है। महाराष्ट्र सरकार ने सन् 2000 की शुरूआत में सुखतंकर समिति गठित की थी। इस समिति ने कस्बों और नगरों में जल ऑडिट की वकालत करते हुए जल आपूर्ति और उपभोक्ताओं द्वारा उपयोग में लाए गए बिल के बीच के अंतर का 75% स्वयं भरने की बात कही।
    • महाराष्ट्र में नागपुर ने सुखतंकर समिति की सलाह को अपनाया और पाया कि उसका 52% जल बर्बाद हो रहा है। यह बर्बादी जल के मूल स्त्रोत से लेकर जल वितरण के बीच में हो रही थी। नागपुर नगर निगम ने उन सभी दरारों को बंद किया और पानी बचाया। राज्य सरकार के जल ऑडिट को बढ़ावा देने और उसका आंशिक खर्च वहन करने से ही यह संभव हो सका।
    • सन् 2005 में केंद्र सरकार के नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन के साथ ही नहरों की जगह पाइपलाइन बिछाई गई, जिससे जल-चोरी के मामले खत्म हुए।
    • नागपुर में 24 घंटे जल-आपूर्ति को सफल बनाने के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की गई। इस पार्टनरशिप में राज्य सरकार ने पूरा सहयोग दिया।
    • महाराष्ट्र सरकार ने जल उपभोक्ताओं का वर्गीकरण करके उसके अनुसार पानी के बिल का निर्धारण किया।
    • सन् 2010 में महाराष्ट्र सरकार ने “सुजल निर्मल अभियान” की शुरूआत की। इस योजना में लगभग 247 शहरों में जल एवं स्वच्छता के लिए युद्ध-स्तर पर काम किया गया। इस योजना में राज्य सरकार ने स्थानीय प्रशासन को सशर्त धनराशि दी। स्थानीय प्रशासन ने अलग-अलग सुनियोजित सोपानों में प्राथमिकता के आधार पर काम किया।इसी प्रकार गुजरात सरकार की नगर प्रबंधन योजनाओं ने भी उदाहरण प्रस्तुत किया है।

गुजरात नगर प्रबंधन एवं शहरी विकास अधिनियम को 1999 में संशोधित किया गया। यहाँ पर तेजी से विकसित होते सूरत और अहमदाबाद जैसे नगरों के क्षेत्रों में विस्तार के लिए भूमि पुनर्गठन बुनियादी ढ़़ांचों के लिए धनराशि एवं प्रबंधन को समग्र रूप से नियोजित किया गया। राज्य में वैधानिक सुधारों के जरिए नगर प्रबंधन में बदलाव करके इन दोनों नगरों में बाईपास बनाए गए।आंध्र प्रदेश और कर्नाटक सरकारों ने भी अपने राज्यों में भूमि सुधार कानून में ऐसे फेरबदल किए हैं, जो अन्य राज्यों में नगरों के विकास में रोड़ा बने हुए हैं।जब तक अन्य राज्य “सुजल निर्मल” जैसे अभियान और शहरों के स्थानीय प्रशासन को पर्याप्त धनराशि और क्षमता मुहैया नहीं कराएंगे तब तक शहरों का विकास नहीं हो पाएगा। केंद्र सरकार ने नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन के जरिए संपूर्ण भारत के नगरों में ई-गवर्नेंस जैसा हाईटेक प्रशासन देने का प्रयास किया है। लेकिन जब तक राज्य सरकारें सक्रिय नहीं होगीं, तब तक नगरों का विकास नहीं किया जा सकता।

इंडियन एक्सप्रेस में  प्रकाशित  ईशर  जज  अहलूवालिया  के  लेख  पर  आधारित।

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Life Management: 28 March 2017

28-03-17 (Daily Audio Lecture)

28-03-2017 (Important News Clippings)

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Date:28-03-17

Hasina’s visit

New Delhi should use Bangladesh PM’s trip to keep cordial ties going

Bangladeshi Prime Minister Sheikh Hasina’s India visit next month comes at a crucial time in New Delhi-Dhaka relations. There’s no denying the fact that the current dispensation in Dhaka has been the friendliest for New Delhi in years. Hasina’s government has gone the extra mile to address New Delhi’s security concerns by cracking down on Northeast rebels operating from Bangladeshi soil. It is also engaged in a fierce countrywide battle against Islamist terrorism as exemplified by the recent security operation in Sylhet to flush out extremists holed up in a residential building. In fact, Bangladesh’s ongoing anti-terror measures protect India’s eastern flank from radical elements.

Add to this Bangladesh facilitating transit of Indian goods through its territory and acquiescing to New Delhi’s connectivity concerns – Hasina’s visit is likely to see the finalisation of a deal for Indian use of Chittagong and Mongla ports. Alongside, there is a push for a 25-year bilateral defence pact with Dhaka, envisaging enhanced cooperation between the two militaries. The pact – or related MoUs – should serve the interests of both countries and be packaged as well as conceptualised as an effort towards jointly fighting terrorism, a problem for both nations.

Plus, Bangladesh has been waiting for a Teesta river water sharing deal. But objections from West Bengal chief minister Mamata Banerjee have held this up. New Delhi would do well to reassure Dhaka and find a way to implement the deal. Bangladesh today is one of India’s strongest partners. It would be smart to be generous on water with Bangladesh, even as India can take a tough stand on water issues with Pakistan as long as Pakistan remains unyielding on the terror front.


Date:28-03-17

The Yogi effect

New UP chief minister makes a promising start but must check violence and intimidation

Uttar Pradesh chief minister Adityanath Yogi has hit the ground running, by taking nearly 50 decisions in his first week in office. These decisions range from making a 100 day priority plan for visible development changes in the state to cracking down on illegal slaughterhouses to banning the use of pan masala and polythene in government offices. Yogi’s unexpected elevation to chief ministership could reap rich dividends if he can ably handle UP’s colossal administration and keep fringe right-wing elements in check. This is essential if BJP wants to assure people that their governments are focussed on development rather than whipping up anti-Muslim hysteria.

The clampdown on illegal slaughterhouses is welcome as they function in dense market places under unhygienic conditions. But government needs to quickly make alternate arrangements. Yogi needs to assure the Rs 50,000 crore meat industry that it will only regulate and not harass legal establishments. Government should come out with a blueprint that encourages modern practices in a trade that provides employment to nearly five lakh people. Modern slaughterhouse practices minimise cruelty to animals, and it is nobody’s case that the trade should continue under illegal or unregulated auspices. However, harassing legal units on flimsy grounds will only reinforce the criticism that the BJP government is targeting Muslims who predominantly run the trade.

BJP has quickly implemented its poll promise of “anti-Romeo” squads. But their focus ought to be on ensuring women’s safety, not on prohibiting all contact between men and women. The latter approach is unsustainable and counterproductive in practice. Although Yogi has clarified that boys and girls on the road will not be touched, reports of many college students being harassed by overzealous cops have come in. There is no point replacing harassment by goons with harassment by police.

Yogi has initiated biometric checks on attendance for government employees and given the golden handshake to 60 officers who have been on extension long past their retirement. This is commendable. To reinforce the message of good governance, he should also send the unequivocal signal that violence against and intimidation of ordinary citizens will not be permitted, whether such violence and intimidation emanates from goons affiliated to opposition parties, pro-Hindutva squads or even overzealous policemen.


Date:28-03-17

Property Tax

No municipality should scrap this vital tax

Municipal elections do not have the cachet of state or Parliament elections. But they are no less relevant for the health of the economy than elections to higher levels of government. For, municipal politics determines the health of our cities, where the bulk of modern, organised economic activity takes place. If you kill cities or make them anaemic, there would be a disproportionately large impact on profits, jobs, new business formation and the quality of life. For these reasons, the Aam Aadmi Party’s decision in the municipal polls in Delhi to promise scrapping property tax is a major concern. AAP would be welladvised to rethink the move and not start a disease in the national capital that could infect other municipalities in the neighbourhood, spread further afield and become a nationwide epidemic that drains vitality out of India’s cities and hobbles economic growth. Property taxes are a vital source of revenue: Canada collects some 4% of GDP from the tax. But even more significant is to whom the tax accrues.Property taxes accrue, for the most part, to local governments, constituting upwards of one-third of their total tax revenue wherever the tax is reasonably well-administered. Property taxes are a vital part of the revenue base, against which municipalities issue bonds to raise resources for investing in enhancing the size and productivity of the towns they govern. Thus, property taxes are not just important earners of tax revenue but also an important enabler of decentralisation of administrative and financial power. Further, property taxes are an instrument available to municipalities to guide land use and city density. Higher tax rates on land would automatically induce higher density, which is desirable from the point of view of overall energy efficiency, avoiding commutes and improving air quality, when accompanied by sensible town planning. The short-term gain in popularity derived from a promise to scrap property taxes comes with a huge cost in terms of future well-being and prosperity of the town. This is a form of populism best avoided.


Date:28-03-17

Vital task of managing health information

Access to trustworthy information is critical to improving healthcare access and delivery without spiralling costs. The National Health Policy 2017 recognises the importance of a health information management system, and had made it one of its key deliverables. A robust law on privacy is a pre-requisite for operationalising such a database, however.

An effective health information management system can improve patient care. Collating and storing at one place all information on the patient, medication, results of tests and procedures would make for holistic care, avoid duplicating tests and, since the patient history is ready at hand, reduce the possibilities of side effects. Such a database could spell the difference between life and death when a patient moves to a higher level of care or across geography. For individual patients, a good health information management system will result in improved care.The information management system is essential from a public health perspective as well. It will allow for determining the effectiveness of the system in detecting health problems, identifying priorities, allocating resources to improve outcomes, as also identifying treatment protocols that are more effective. A health information management system will make it possible to build an epidemiological profile of the population. More information will lead to creating a healthcare system that is responsive and focused on preventive care.

The proper collection, management and use of information is essential for identifying problems, determining efficacy of treatment and drug regimes, and crafting innovative solutions. The government needs to ensure that the integrity and the privacy of the patients are maintained. A tough privacy law and its strict enforcement would be vital.


Date:28-03-17

101 कोल्ड चेन प्रोजेक्ट को मंजूरी 3,100 करोड़ रुपए लागत आएगी

याेजना | 838 करोड़ रुपए सरकार देगी, बाकी निजी कंपनियां लगाएंगी

सरकार ने बिग बास्केट, अमूल और हल्दीराम जैसी कंपनियों द्वारा देशभर में लगाई जाने वाली 101 कोल्ड चेन परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है। इन परियोजनाओं को लगाने में 3,100 करोड़ रुपए की लागत आएगी। इसमें सरकार 838 करोड़ रुपए की सब्सिडी देगी। बाकी 2,200 करोड़ रुपए निजी कंपनियां लगाएंगी।
प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर ने सोमवार को यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि देशभर में लगने वाली इन कोल्ड चेन परियोजनाओं की क्षमता 2.76 लाख टन होगी। इनके दो साल में बनकर तैयार हो जाने की उम्मीद है। इनमें सबसे अधिक महाराष्ट्र में 21 परियोजनाएं लगेंगी। इसके बाद उत्तर प्रदेश (14), गुजरात (12) और आंध्र प्रदेश (8) का क्रम है। पंजाब और मध्य प्रदेश में ऐसी छह-छह परियोजनाएं लगेंगी।
बादल ने बताया कि इन 101 परियोजनाओं के लिए कुल 308 आवेदन मिले थे। इसी के साथ स्वीकृत कोल्ड चेन परियोजनाओं की संख्या बढ़कर 234 हो गई है। इसके अलावा सरकार की 50 और परियोजनाओं को मंजूरी देने की योजना है।
सरकार ने सोमवार को छोटे तेल एवं गैस क्षेत्रों के लिए अनुबंधों पर हस्ताक्षर करके औपचारिक रूप से उनका आवंटन कर दिया। ये आवंटन पिछले साल हुई पहली ऑनलाइन बोली प्रक्रिया के आधार पर किए गए हैं।
छोटे तेल क्षेत्रों का औपचारिक आवंटन
भारत फल-सब्जियों का दूसरा बड़ा उत्पादक
भारत दुनिया में फल-सब्जियों का दुनिया का दूसरा बड़ा उत्पादक है। लेकिन अभी हम सिर्फ 2.2 फीसदी फल-सब्जियों को प्रोसेस कर पाते हैं। इस समय देश में कोल्ड स्टोर कुछ ही राज्यों तक सीमित हैं। इनमें से करीब 80 से 90 फीसदी कोल्ड स्टोर आलू रखने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
2.6 लाख किसानों को मिलेगा फायदा
बादल ने कहा कि कोल्ड चेन इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में इन सेक्टरों से निकलने वाले वेस्टेज की दर काफी अधिक है। इन परियोजनाओं से देश के करीब 2.6 लाख किसानों को फायदा मिलने की उम्मीद है। इनसे 60,000 लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे।
वेस्टेज से होता है 92,000 करोड़ का नुकसान
बादल ने सीफेट के एक अध्ययन के हवाले से कहा कि 2014 की थोक कीमतों के मुताबिक देश में फल-सब्जियों के वेस्टेज से 92,000 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। कोल्ड चेन के जरिये 12,000 करोड़ रुपए की 47 लाख टन कृषि और बागबानी उपज प्रोसेस की जाएगी। इससे इनके वेस्टेज में 13 फीसदी की कमी आएगी।
53 परियोजनाएं फल-सब्जी सेक्टर की
बादल ने बताया कि मंजूर की गई 101 कोल्ड चेन परियोजनाओं में से 53 परियोजनाएं फल-सब्जी सेक्टर की, 33 डेयरी सेक्टर की और 15 मीट पोल्ट्री और मरीन सेक्टर की हैं। जिनके आवेदन मंजूर किए गए हैं उनमें बिग बास्केट, हल्दीराम, गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क फेडरेशन्स (अमूल) मिल्क यूनियनें शामिल हैं। अन्य प्रमुख कंपनियों में हैटसन एग्रो, स्टर्लिंग एग्रो, प्रभात डेयरी, बामर लॉरी, तिरुमला मिल्क, देसाई ब्रदर्स और फॉल्कन मरीन (ओडिशा) शामिल हैं।
बिग बास्केट, अमूल और हल्दीराम जैसी कंपनियां इच्छुक


Date:28-03-17

मध्य वर्ग को किफायती न्याय दिलाने की ‘सर्वोच्च’ पहल

मुकदमेबाजी को अधिक किफायती बनाने के लिए उच्चतम न्यायालय ने ‘मिडल इनकम गु्रप लीगल एड सोसाइटी’ नाम से एक योजना शुरू की है। हर महीने 60,000 रुपये या सालाना 7.5 लाख रुपये तक कमाने वाले लोग इस सोसाइटी से संपर्क कर सकते हैं और सामान्य की तुलना में काफी सस्ती दर पर वकील की सेवा ले सकते हैं।शार्दूल अमरचंद मंगलदास एंड कंपनीज में वरिष्ठï लिटिगेशन पार्टनर रितु भल्ला ने कहा, ‘यह सिर्फ मुकदमेबाजी की लागत का सवाल नहीं है बल्कि कई लोग यह भी नहीं जानते हैं कि मुकदमा लडऩे की स्थिति में वे किसके पास जाएं और कैसे मामले को आगे बढ़ाएं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के साथ इस सोसाइटी के संपर्क से यह सुनिश्चित किया जाता है कि वादी को न्यूनतम शुल्क पर सही सलाह मिल सके।’हालांकि कुछ वकीलों का मानना है कि नियमों को अधिक सख्त बनाए जाने की जरूरत है। सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा में कहा भी गया है कि यदि वकील लापरवाह पाया जाता है तो से फीस लौटानी होगी।
एनट्रस्ट लीगल सर्विसेज के संस्थापक अभिलाष पाणिकर बताते हैं कि उनके  वकील बनने से पहले उनकी मां एक अदालती मामला लड़ रही थीं। उन्होंने मुंबई में इसी तरह सरकार की तरफ से संचालित कार्यक्रम की मदद ली लेकिन लगभग सभी वकीलों ने अलग से शुल्क मांगा था। पाणिकर ने कहा, ‘जब भी वह शासी निकाय से शिकायत करती थीं, शासी निकाय उनके लिए एक नया वकील आवंटित कर देता था। लेकिन नया वकील भी उनसे रकम मांगता था।’
सोसाइटी न सिर्फ शुल्क को किफायती बनाती है बल्कि इसकी दरें मानकीकृत भी हैं। कोई वकील विशेष अनुमति याचिका या अपील याचिका और जमानत आदि के लिए मसौदा बनाने और फाइल करने के लिए सिर्फ 10,000 रुपये वसूल सकता है। यदि आप सोसाइटी के माध्यम से वकील का चयन नहीं करते हैं तो यह शुल्क ऐसी याचिकाओं के लिए 50,000 रुपये से 1 लाख रुपये तक होता है। अधिक चर्चित वकील तो और ऊंची फीस मांगते हैं।
मामले की सुनवाई के लिए शुल्क 3,000 रुपये प्रति दिन है, लेकिन यदि कई सुनवाई होनी हों तो यह प्रक्रिया 9,000 रुपये पर सीमित है। सर्वोच्च न्यायालय का कोई वकील प्रत्येक सुनवाई के लिए न्यूनतम 5,000-10,000 रुपये वसूलता है। इसके अलावा यदि वह हर बार कोर्ट रूम आता है तो इसके लिए भी फीस चुकाए जाने की जरूरत होगी।
भारतीय न्यायिक प्रणाली में वकीलों की दो श्रेणियां हैं – वरिष्ठï वकील और अन्य। न्यायालय सामान्य तौर पर ऐसे मामलों की सुनवाई पर जोर देते हैं जिनसे वरिष्ठï वकील जुड़े होते हैं। कई वकील और कानूनी फर्म उनके मामलों में वरिष्ठï वकील के तौर पर सेवा मुहैया कराती हैं। लेकिन वरिष्ठï वकील की फीस काफी अधिक हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय की कानूनी मदद योजना में वरिष्ठï वकीलों की फीस को भी सीमित रखा गया है। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय की अधिसूचना में स्टेनो, फोटोकॉपी और प्रिंट आउट और वकीलों के लिए भी शुल्क निर्धारित किया जाता है जिसे वकील अपने मुवक्किल से वसूल सकता है।
आप जब किसी वकील से संपर्क करते हैं तो इसके लिए कोई मानक दर नहीं है। कुछ वकील इसके लिए उच्चतम न्यायालय की तरफ से तय फीस वसूल सकते हैं । लेकिन ज्यादातर वे प्रत्येक सुनवाई के हिसाब, प्रत्येक आवेदन या अन्य घटनाक्रम के आधार पर फीस की मांग करते हैं।
जब आप इस सोसाइटी की सेवा हासिल करने के लिए आवेदन करते हैं तो उसका सचिव संबद्घ दस्तावेज एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड के लिए भेजता है। आवेदक वकील का चयन कर सकता है और तीन नाम तक दे सकता है। एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड पहले इन दस्तावेजों पर विचार करेगा और यह देखेगा कि क्या मामला सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकार किए जाने के लिहाज से उपयुक्त है या नहीं। इस वकील के संतुष्टï होने के बाद ही सोसाइटी आपको कानूनी मदद मुहैया कराएगी।
कई वकील ऐसे वर्ग की मदद के लिए बिना शुल्क के भी मामले ले लेते हैं जो मुकदमेबाजी का बोझ नहीं उठा सकते हैं। उच्चतम न्यायालय की कानूनी मदद मुहैया कराने वाली सोसाइटी से ऐसे वकील मिल सकते हैं। एमडीपी ऐंड पार्टनर्स के प्रबंध निदेशक निशित धु्रव कहते हैं, ‘व्यक्ति को सेवा की गुणवत्ता को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए। भले ही वकील ने कम दरों पर आपका मामला लिया है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कम फीस की वजह से वह कार्य की गुणवत्ता में कमी करेगा।’


Date:28-03-17

खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा

सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण नीति का मसौदा सार्वजनिक टिप्पणी के लिए प्रस्तुत किया है। हालांकि यह नीति टुकड़ों में बेहतर प्रतीत होती है लेकिन इसके कुछ अहम प्रावधानों की समीक्षा आवश्यक है। ऐसा करके ही इस क्षेत्र में समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा। कई नीतिगत उपाय मसलन सब्सिडी, कर रियायत और सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क में रियायत आदि के कई उपाय तो पहले से ही लागू हैं। लेकिन एक बात जो इस नीति को औरों से अलग करती है वह यह कि इसमें कुछ अहम बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है। ये बाधाएं इस क्षेत्र को पूरी क्षमता से विकसित नहीं होने दे रही हैं। इसमें भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाना और श्रम कानूनों में सुधार करना शामिल है। कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और उनके मूल्यवर्धन को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर जोर इसलिए जरूरी है क्योंकि कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा मंडी में पहुंचने के पहले ही नष्टï हो जाता है। इस दस्तावेज में कुल 46 जिंसों में फसल उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान का एक राष्टï्रव्यापी अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें कहा गया है कि इसके चलते सालाना करीब 44,000 करोड़ रुपये मूल्य का नुकसान होता है। यह आकलन वर्ष 2009 के थोकमूल्य के आधार पर किया गया है। सब्जियों और फलों जैसी जल्द खराब होने वाली चीजों के मामले में यह नुकसान खासतौर पर बहुत अधिक है। हमारा देश इस क्षेत्र में नुकसान बरदाश्त करने की स्थिति में भी नहीं है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि इन जिंसों की आपूर्ति और इनकी कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव आता है। अगर इन वस्तुओं का समय से प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन किया जा सके तो इससे बचा जा सकता है। मूल्यवर्धन से तात्पर्य इनको ऐसा रूप देने से है ताकि ये टिकाऊ बन सकें।
प्रस्तावित नीति की एक सकारात्मक बात यह है कि यह खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के उद्यमियों के लिए सकारात्मक कारोबारी माहौल तैयार करना चाहती है। इसके लिए एकल खिड़की मंजूरी, पहले और बाद में निवेश सेवाओं की व्यवस्था, स्वनियमन और कच्चे माल तथा प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद के लिए पूरे राज्य को एक जोन में बदलना शामिल है। नीति में आपूर्ति मजबूत करने, शीतगृहों का बुनियादी ढांचा दुरुस्त करने, कौशल विकास करने और खाद्य उत्पादकों और प्रसंस्करण करने वालों के बीच अनुबंध के जरिये तथा कॉर्पोरेट कृषि के जरिए रिश्ता कायम करने की बात शामिल है। जमीन के मुद्दे को हल करने के लिए नीति में कहा गया है कि खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के लिए जमीन पट्टïे की सीमा समाप्त की जानी चाहिए। इसके अलावा इनको कृषि इकाई घोषित करने की बात कही गई है ताकि कृषि भूमि को औद्योगिक भूमि में नहीं बदलना पड़े। इसी तरह श्रम कानून के मामले में नीति में कहा गया है कि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को अनिवार्य सेवा का दर्जा दिया जाए और मौसमी उद्योग मानते हुए सामान्य कानूनों से रियायत दी जाए।
मौजूदा स्वरूप में यह नीति बड़ी परियोजनाओं और खाद्य आधारित क्लस्टरों के पक्ष में झुकी हुई है। इसमें छोटी-मझोली इकाइयों के लिए खास जगह नहीं है। सरकार एक दशक से बड़े फूड पार्क का समर्थन करती आई है लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा नहीं नजर आया। वर्ष 2008-09 से जिन 40 मेगापार्क को मंजूरी दी गई है उनमें से कुछ ही पूरे हुए हैं। हालांकि हाल के दिनों में हालात सुधरे हैं तो भी इस क्षेत्र की सालाना वृद्घि दर 2.5 फीसदी से आगे नही ंबढ़ सकी है। अब बड़े पैमाने पर छोटे और मझोले उद्यम स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। किसानों से जुड़कर ऐसी इकाइयां काफी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं। इससे फसल में विविधता आएगी, रोजगार पैदा होगा और किसानों की आय बढ़ेगी। आपूर्ति और कीमत में स्थिरता तो आएगी ही।


Date:28-03-17

मांस पर पाबंदी पशुपालकों के लिए नोटबंदी से कम नहीं

हाल ही में आई हमारी किताब फस्र्ट फूड: कल्चर ऑफ टेस्ट में हमने जैव विविधता, पोषण और आजीविका पर चर्चा की है। इसे लेकर मुझसे एक प्रश्न पूछा गया कि बतौर एक पर्यावरणविद मैं आखिर पारंपरिक और स्थानीय खाने का समर्थन और मांसाहार की निंदा क्यों नहीं करती हूं? इसके पक्ष में यह दलील दी जाती है कि मांस का उत्पादन जलवायु के लिए खराब है। कृषि क्षेत्र ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 15 फीसदी के लिए जिम्मेदार है और इसका आधा हिस्सा मांस उत्पादन से आता है। जमीन पर और पानी की खपत के मामले में भी इसकी गहरी छाप है। दुनिया की करीब 30 फीसदी धरती जो बर्फ से नहीं ढकी है, वहां जो अनाज उगाया जाता है वह मनुष्यों के नहीं बल्कि जानवरों के खाने के लिए होता है। वर्ष 2014 में ब्रिटिश भोजन पर ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय द्वार कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि मांसाहार वाले भोजन की बात करें तो हर रोज प्रति व्यक्ति 100 ग्राम से अधिक मांस खाने वाले लोगों ने हर रोज 7.2 किलोग्राम कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन किया जबकि शाकाहारी भोजन करने वालों ने केवल 2.9 किग्रा कार्बन डाइ ऑक्साइड निकाली। मुझसे कहा गया कि ऐसे में स्थायित्व भरे भोजन की तलाश करना कोई सही बात नहीं।
इस बात से मेरी सहमति नहीं है। बतौर एक भारतीय पर्यावरणविद मैं कई वजहों से शाकाहार की हिमायत नहीं करूंगी। पहली बात, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहां खानेपाने की संस्कृति समुदायों, क्षेत्र और धर्म के साथ बदलती रहती है। मैं भारत के इस स्वरूप से कोई समझौता नहीं चाहती क्योंकि यह हमारी समृद्घि को दिखाता है और यही हमारी हकीकत है।
दूसरी बात, मांस एक बड़ी आबादी के लिए प्रोटीन का स्रोत है। इसलिए पोषण सुरक्षा की दृष्टि से भी वह अहम है।
तीसरी बात ऐसी है जो मेरे रुख को वैश्विक रुख से अलग करती है। मांस खाना मसला नहीं है बल्कि उसकी मात्रा और उसके उत्पादन का तरीका मायने रखता है। हाल में किए गए एक आकलन के मुताबिक अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष मांस की औसतन खपत 122 किग्रा है। जबकि भारत में यह 3 से 5 किग्रा है। मांस की इतनी अधिक खपत स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए नुकसानदेह है। औसत अमेरिकी मांस खपत औसत प्रोटीन आवश्यकता से डेढ़ गुना तक ज्यादा है। ऐसे में दुनिया में उत्पादित 9.5 करोड़ टन बीफ में से अधिकांश लैटिन अमेरिका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के पशुओं से हासिल होता है। इन सबका पर्यावरण पर खासा असर है। वहीं अंतरराष्ट्रीय पालतू पशु शोध संस्थान, कॉमनवेल्थ साइंटिफिक ऐंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन और इंटरनैशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस के मुताबिक विकासशील देशों में मांस का उत्पादन अलग तरह से होता है। यहां पालतू पशु काफी हद तक घास और फसल के बचे खुचे हिस्से पर निर्भर करते हैं।
परंतु भारतीय पर्यावरणविद होने के नाते मेरे मांस के खिलाफ न होने की सबसे अहम वजह यह है कि हमारे देश में पालतू पशु ही किसानों की आर्थिक सुरक्षा का सबसे बड़ा जरिया हैं। हमारे देश के किसान जमीन का इस्तेमाल फसल और वृक्षों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी करते हैं। यही उनका असली बीमा है। हमारे देश में इन पशुओं को पालने का काम भी बड़े मांस कारोबारी नहीं बल्कि बड़े, छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसान ही करते हैं। यह इसलिए सफल है क्योंकि पालतू पशुओं का एक उत्पादक उद्देश्य होता है: पहला, वे दूध और गोबर देते हैं, उनसे मांस मिलता है और चमड़ा बनता है। अगर यह सब छीन लिया जाए तो देश के लाखों लोगों की आर्थिक सुरक्षा ही छिन जाएगी।
अब जरा चीजों को सीधे परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। अतीत में पालतू पशुओं को सूखे को ध्यान में रखते हुए भी पाला जाता था। सन 1980 के दशक में देश के इकलौते पशु ऊर्जा विशेषज्ञ स्वर्गीय एन एस रामास्वामी ने एक आकलन में कहा था 9 करोड़ पालतू पशुओं से मिलने वाली ऊर्जा देश में मौजूद बिजली क्षमता के बराबर थी। लेकिन मशीनीकरण ने हालात बदल दिए। सन 2000 तक पालतू पशुओं को प्रमुख तौर पर दूध के लिए पाला जाता था। यही वजह है कि सांड, बैल और भैंसों की तादाद लगातार कम होने लगी। फिलहाल कुल पालतू पशुओं में बमुश्किल 28 फीसदी नर हैं। उनका काम बस नस्ल बढ़ाना रह गया है।
लेकिन गाय और भैंस अपने 15-20 साल के जीवन में 7-8 वर्ष ही दूध देती हैं। किसान इस दौरान दूध बेचते हैं और उनसे संतति उपजाते हैं। पशुओं का रखरखाव सस्ता नहीं है। मेरे सहयोगियों का आकलन है कि अगर इन पशुओं को उचित खानपान और रखरखाव दिया जाए तो इसकी लागत तकरीबन 70,000 रुपये प्रति पशु प्रति वर्ष होगी। यही वजह है कि किसानों को गैर उत्पादक पशुओं से निपटने का विकल्प चाहिए। अगर विकल्प नहीं हुआ तो वे जानवरों को यूं ही खुला छोड़ देंगे। इससे दिक्कत बढ़ेगी।
यही वजह है कि मैं मांस या चमड़े पर प्रतिबंध के खिलाफ हूं। ऐसा करके हम पशुपालकों की आय का लगभग आधा हिस्सा छीन लेंगे। यह गरीबों के घर चोरी करने जैसा है। अगर सरकार हमारे घर में घुसकर आधा सामान उठा ले जाए तो हम क्या कहेंगे? मांस पर प्रतिबंध नोटबंदी जैसा ही क्रूर है। लेकिन मैं यह भी समझती हूं कि धार्मिक भावनाएं मजबूत हैं। गायों को न मारने की वकालत करने वालों से यही कहना है कि वे किसानों से एक-एक गाय खरीदें, बड़ी गौशाला बनवाएं और उनका ध्यान रखें। ऐसा तरीका तलाशें कि इन गायों के मरने के बाद उनके शव को भी निपटाया जाए ताकि उसका कोई हिस्सा बाजारू इस्तेमाल में न आए। ऐसे में इन सवालों का उत्तर शाकाहार को लेकर आक्रामक होने में निहित नहीं है, न ही हिंसा और बर्बरता में है।


Date:27-03-17

The twin pit solution

Rural India is woefully under-informed of how it can both transform sanitation and earn money

 Prime Minister Narendra Modi has set October 2, 2019 as the target date for rural India to be Open Defecation Free (ODF). Remarkable progress has been achieved, but there is still a very long way to go. In rural north India, at least half the toilets that are functioning are not used by all members of the household all the time. Often, the toilet is used sparingly, to delay it  filling and to postpone all the costs and  pollution entailed in getting it emptied.

The solution widely favoured by rural people is to construct a septic tank, a large, sealed underground chamber, the larger the better. On recent field visits to Madhya Pradesh and Chhattisgarh, we found many examples of this, with costs of the tanks ranging from Rs 20,000 to Rs 70,000. This is too expensive for many poor people. Septic tanks are the aspiration, which deflects attention from cheaper, better, more sustainable solutions; masons also recommend septic tanks because they can make more money from construction.

The government recommendation is the much smaller and cheaper twin pit. This has two leach pits, with a ‘Y’ junction, so that one pit can be filled at a time. The practice is to fill one, which may take the average family five to eight years, cover it over when nearly full, and leave it to stand while the second pit is used. After about a year, the contents of the first pit have turned into harmless— and valuable — fertiliser: A family’s waste turns from being a liability in a septic tank to a growing asset. Each visit to the loo is an investment; the more it is used, the quicker will be the return. The pit can be emptied safely and its contents used or sold.

But we found people with twin pits paying masons to build septic tanks for them. A mason in a village in Raipur district told us that he had replaced over a hundred twin pits with septic tanks. In general, it seems people do not know about, or do not believe in, the advantages of twin pits over septic tanks. We may be wrong, but information about twin pits does not seem to have been a major part of Information, Education, Communication (IEC) campaigns. People see twin pits as too small and too quick to fill. They use them sparingly. We were struck by the almost universal ignorance of rural people on these points.

There was a major breakthrough a few weeks ago: Led by Parameshwaran Iyer, the secretary in charge of the Swachh Bharat Mission, principal secretaries from almost all states set a splendid example by themselves getting down into pits, digging out fertiliser and being photographed handling it. They overcame the belief that it was polluting, finding the contents of the pits to be dry, crumbly and totally lacking in smell, a fertiliser some compared to coffee powder. They returned to their states armed with the authority of personal experience, and a small jar of the fertiliser to prove the point.

The next day, we joined the CEO of Raipur district in Chhattisgarh, Nileshkumar Kshirsagar, and some of his staff, in digging out fertiliser from more pits. One pit had been abandoned because there were so many users, the family feared it would fill up too fast. The owner had built a septic tank instead, for Rs 70,000. When we gave him Rs 300 — we hope it was a fair price — for the fertiliser we had dug out from his old pit and were taking with us, he seemed bemused, perhaps because he had made a huge investment in a liability that he would eventually have to spend more money on to empty, when, for a fraction of the cost, his large family could have been saving for the future every time they went to the loo.

Can understanding about twin pits and fertiliser solve the problem of partial usage? Not at once. But if the principal secretaries inspire their staff to empty pits, and if this filters down the hierarchy to field workers, perhaps this could become transformative, and support efforts in changing norms and practices. The transformative shift is from the lose-lose-lose of a septic tank — costly to build, nasty, expensive to empty, and used only partially — to the win-win-win of twin pits — cheaper to build, harmless, easy for owners themselves to dig out, and with a valuable product, giving an incentive for use by everyone all the time, with every deposit an investment in future fertiliser.

Can political and spiritual leaders now set an example? What an opportunity this is, for this could be a big push towards an ODF India. Will they rise to the challenge and show that the pits bring profit, not pollution? This is no small issue. Time is running out. Their urgent action could be decisive. We watch with hope.

Chambers is research associate at the Institute of Development Studies (IDS), University of Sussex, U.K. Myers is a research officer at IDS, University of Sussex

Date:27-03-17

Sentiment And Justice

Past efforts at out-of-court resolution of Ayodhya dispute have been non-starters

 It is neither possible nor advisable to disregard the Supreme Court of India since Article 141 of the Constitution says, “The law declared by the Supreme Court shall be binding on all courts within the territory of India,” and also because the authority, and responsibility, for interpreting the Constitution rests with the Court. One will not bepresumptuous to tell the Supreme Court what it should have done, but one hopes respectful disagreement is possible. And it isrespectful disagreement that the Chief Justice of India’s offer, or suggestion, for mediation in the Ramjanmabhoomi-Babri Masjid issue — actually “case” — evokes.

Without going into the merits of the “case”, the following needs reiteration. A newspaper reports that there have been nine attempts at mediation, starting in 1859. It seems the colonial administration erected a fence to demarcate places of worship for the two groups, but the arrangement did not last long as a case was reportedly filed in 1885.

The “case” in which the CJI made his latest observations consists of a set of appeals against a judgement of the Lucknow bench of the Allahabad High Court on September 30, 2010, in which the high court ordered a three-way division of the supposedly d isputed site. These are not the only cases arising out of the Ramjanmabhoomi-Babri Masjid issue. Criminal cases are going on in Lucknow and Rae Bareli.

While the primary responsibilities of the judiciary are to interpret the law, uphold the rule of law, and to adjudicate legal disputes, mediation is most certainly a legitimate and laudable objective. This is even more so when there are “issues of sentiments and religion” as the CJI rightly observed. However, he also made an extremely significant observation: “The court should come in the picture only if you cannot settle it”.

Even if we overlook the British attempt of the 19th century, there have been attempts in the more recent past to resolve the Ramjanmabhoomi-Babri Masjid issue. Three of these have been made by the most appropriate elected official of the country: The prime minister. In 1990, Chandra Shekhar attempted a resolution after the existing mosque was partially damaged by some miscreants. The talks failed. Then P.V. Narasimha Rao made another attempt at resolution after the demolition of the mosque by setting up a commission in 1992. This commission plodded on for 17 years and submitted its report in June 2009, which has not been made public.

 Then Atal Bihari Vajpayee set up an Ayodhya Cell in the PMO in 2002, and appointed a senior party official to hold talks with Hindus and Muslims. There have been no public reports on the outcome of those efforts. Despite these failures, attempts at resolution have continued. There have been five subsequent attempts, two by the courts, the Lucknow bench of the Allahabad High Court on July 26, 2010, and the Supreme Court on September 23, 2010, and three by the litigants, on February 24, 2015, on April 10, 2015, and on May 31, 2016 — all to no avail. Given this list of failed attempts, what could be the reason to hope that an out-of-court settlement of this long-running dispute is possible now?

One possible reason for the hope could be that, in the assessment of the Supreme Court, the country’s social environment has changed substantially from what it was during the period between 1990-92 and 2015-16. Given the inherent diversity in the country, there are many different views on this. One can only hope that the highest court has kept this diversity in mind while making this suggestion, and more importantly, it continues to be mindful of its primary responsibility to uphold the Constitution and the rule of law.

The other possible reason stems from an apprehension of a possible dilution of the commitment to the rule of law in preference to “issues of sentiments and religion”. It is true that law is meant to serve society and not the other way round but then, there are lawful, or constitutional, ways of making or amending laws. “Circumventing” the law is different from shying away from taking decisions. If an issue is considered to be beyond judicial adjudication in the considered judgment of the highest court, then it would be better if this is said in clear terms.

The writer is former professor, dean, and director in-charge of IIM, Ahmedabad. Views are personal

Date:27-03-17

The river as being

The judgment enhancing the status of rivers is hardly game-changing

In a recent judgment, the Uttarakhand High Court declared the rivers Yamuna and Ganga as legal or juridical persons, enjoying all the rights, duties and liabilities of a living person. Indian courts have granted this status to temple deities, religious books, corporations, etc., but it is for the first time that an element of the natural environment has been declared a legal person. And it is not just the two rivers — all their tributaries, streams, every natural water body flowing continuously or intermittently of[f] these rivers will enjoy this status.

The dismal ecological state of these rivers, as well as the variety of factors responsible, is well documented. And so are the crores of rupees spent by government agencies to (unsuccessfully) attempt a clean-up. Could this judgment be a game-changer?

Before answering that question, let us take a step back. What was this case about? The two issues before the High Court were: removal of illegal constructions on the banks of a canal in Dehradun, and the division of water resources between Uttar Pradesh and Uttarakhand (which had not been resolved since the formation of the new State). In December 2016, the High Court directed the removal of the constructions. It also directed the constitution of the Ganga Management Board (a statutory body under the U.P. Reorganisation Act 2000), and prohibited mining of the Ganga riverbed and its highest flood plain area. On the issue of resource division, the court directed the Central government to notify the settlement reached by the two States in a time-bound manner.

Three months later, when the matter came up before the court once again, the encroachments were still there, the settlement between the States was yet to take place, and the board had not been constituted. The court issued directions for time-bound action. But separately, it took three logical leaps.

This river has the legal status of a person

 First, for the court, an ‘extraordinary situation’ had been created which required extraordinary measures for the protection of the Ganga and the Yamuna. From what was a clear breach of statutory duties under the U.P. Reorganisation Act, and the regrettable, though scarcely unprecedented, inability of the State to remove encroachments, the case became one concerning the protection of the health and well-being of the two rivers. The issue may have been elaborated upon in court, but the judgment, unfortunately, does not tell us more.

Second, the court recorded how the rivers provide ‘physical and spiritual sustenance’ to half the Indian population. It found the constitution of the board to be necessary for various purposes including irrigation, water supply, and power generation. And then, curiously, found it expedient to give legal status to the rivers as living persons.

Third, the court decides to exercise the parens patriae jurisdiction to declare the rivers and all their tributaries, etc. as living persons. Parens patriae, literally ‘parent of the country’, is an inherent power of the sovereign, and not the courts, to provide protection to persons unable to take care of themselves. It was (in)famously deployed by the Indian government in the Bhopal Gas tragedy case to represent the claims of the victims. The Director, Namami Gange, the Chief Secretary of Uttarakhand and the Advocate General of Uttarakhand have been appointed as the persons in loco parentis — persons who will act ‘in the place of parents’ for the two rivers. These officers are now expected to act on behalf of the rivers for their protection and conservation. They are ‘bound to uphold the status’ of the rivers and also to promote their health and well-being.

 The right to sue

The judgment comes close on the heels of New Zealand granting legal status to the Whanganui river. But unlike the comprehensive Bill passed by the New Zealand Parliament recognising rights and settling claims, the High Court’s declaration is terse, and raises several questions. In the eyes of the law, living persons such as companies, associations, deities etc., have rights and duties — primary among these being the right to sue and the capacity to be sued. Which implies that from now on, the rivers can sue persons acting against their interests. But what for? Do they have a right not to be a receptacle for tons of sewage? Can they demand minimum ecological flows? A right not to be dammed, dredged, or diverted? If yes, who will sue whom? Can the Chief Secretary of Uttarakhand now sue a Municipal Corporation in Uttar Pradesh or Bihar for the discharge of effluents downstream? Or will the Director, Namami Gange, sue the Central government for approving another hydro-power project on the river? Do other riparian State governments now have less of a role in the protection of the rivers as they are not the identified ‘custodians’? And what are rivers’ duties?

The judgment does not take away existing statutory and constitutional rights and duties of citizens and government agencies to counter the pollution and degradation of these rivers. What it does do is to identify three officers who will be the first-line defenders for the rivers. Perhaps they will not be able to pass the (institutional) buck any more. But is that game-changing? Sadly, no.

Shibani Ghosh is an environmental lawyer


Date:27-03-17

पिछड़ता क्यों गया उत्तर प्रदेश

आबादी, क्षेत्रफल और राजनीतिक प्रभुत्व के लिहाज से देश के तमाम राज्यों में उत्तर प्रदेश कितना ही आगे क्यों न हो, औद्योगिक विकास की दौड़ में यह पिछले 25 वर्षों में लगातार पिछड़ता गया है। नतीजतन, उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय व राष्ट्रीय आय में फर्क लगातार बड़ा बना हुआ है और मानव विकास के पैमानों पर इस प्रदेश की गिनती अब देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों के साथ होती है। सबसे चिंता की बात यह है कि प्रदेश में बेरोजगारों की तादाद बेतहाशा बढ़ी है, किंतु रोजगार पैदा करने में इस प्रदेश का रिकॉर्ड लगातार गिरता गया है।

प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की नई सरकार के गठन के बाद यह सवाल उभरकर आ रहा है कि औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के पिछडे़पन को दूर करने के लिए औद्योगिक नीति-निर्धारण और उसके क्रियान्वन में ऐसे क्या बदलाव किए जाएं कि रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा हो सकें? प्रदेश की जनसंख्या के एक बड़े वर्ग को यदि गरीबी, बदहाली, पिछड़ेपन और अशिक्षा से उबारना है, तो त्वरित औद्योगिक विकास के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है।

पिछले 25 वर्षों में उत्तर प्रदेश में भाजपा, बसपा और सपा की सरकारें कई बार बनीं और प्रदेश को औद्योगिक पिछड़ेपन से उबारने के प्रयास इनमें से हर पार्टी की सरकार द्वारा किए गए, लेकिन इस मिशन में किसी भी सरकार को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। पिछली सदी के अस्सी के दशक में देश के औद्योगिक उत्पादन में उत्तर प्रदेश का हिस्सा नौ प्रतिशत था, जो अब पांच प्रतिशत रह गया है। प्रदेश की सकल आय में उद्योगों का हिस्सा इसी दौर में 15 प्रतिशत से घटकर नौ प्रतिशत रह गया है। ये आंकड़े बताते हैं कि पिछले 25 वर्षों में उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए अपनाए गए तौर-तरीके लगातार विफल रहे हैं। प्रदेश की नई सरकार को यह विचार-मंथन करना होगा कि औद्योगिक विकास में उत्तर प्रदेश लगातार क्यों पिछड़ता जा रहा है?

उत्तर प्रदेश की औद्योगिक अर्थव्यवस्था में रसायन, इंजीनियरिंग और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की प्रधानता रही है। इनमें से ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां लघु और मध्यम आकार की हैं, जिन्हें परिवार के लोग खुद या अन्य लोगों को नौकरी देकर चलाते हैं। प्रदेश में ऐसी 22.34 लाख गैर-पंजीकृत इकाइयां हैं, जो कि 37,024 करोड़ रुपये के उत्पादन करती हैं और करीब 51.76 लाख लोग इनमें काम करते हैं। इन इकाइयों का प्रदेश की औद्योगिक आय में करीब 49 फीसदी का योगदान है।

उत्तर प्रदेश की औद्योगिक अर्थव्यवस्था में पारंपरिक हुनर और कारीगरी पर आधारित उद्योगों की बड़ी तादाद है। इनमें हथकरघा, जरदोजी, चिकन के काम, इत्र, पीतल, कांच, पौटरी, ताले, जूते, लकड़ी के फर्नीचर और खिलौने से संबंधित उद्योग उल्लेखनीय हैं। अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास की तेज दर का मुख्य कारण केंद्र व राज्य की कांग्रेसी सरकारों द्वारा किया गया सार्वजनिक निवेश और निजी क्षेत्र को दिए गए प्रोत्साहन थे, जो मुख्यत: रायबरेली व अमेठी के आस-पास सीमित थे। मगर 1991 के बाद के उदारीकरण में सार्वजनिक निवेश पर आधारित यह औद्योगीकरण नहीं टिक पाया।

पिछले 25 वर्षों में यह भी देखा गया कि उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ा है। वर्ष 1987-88 और 2010-11 के मध्यकाल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सूबे के रोजगारशुदा लोगों में हिस्सा 52 फीसदी से बढ़कर 74 फीसदी हो गया, जबकि बड़ी आबादी वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड का हिस्सा 48 फीसदी से घटकर 26 फीसदी रह गया। औद्योगिक विकास की वृद्धि राष्ट्रीय राजधानी से सटे गौतम बुद्ध नगर और गाजियाबाद में देखी गई।अखिलेश यादव सरकार ने साल 2012-17 के दौरान प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को आकर्षित करने के लिए जो प्रयास किए, उनमें भी कोई खास सफलता नहीं मिली थी। 2010-2015 की अवधि में 21,524 करोड़ रुपये के निवेश के लिए सहमति-पत्रों (एमओयू) पर दस्तखत हुए, जो पूरे देश में स्वीकृत समझौतों का महज 2.1 प्रतिशत था। इस दौरान वास्तविक निवेश 8,800 करोड़ ही हुआ, जो सालाना देखें, तो मात्र 1,500 करोड़ था।

इसलिए नई सरकार को उत्तर प्रदेश के भावी औद्योगिक विकास का खाका तैयार करते समय यह सोचना होगा कि वे क्या कारण थे कि पिछले 25 वर्षों में यह राज्य अपेक्षाकृत छोटे राज्यों के मुकाबले औद्योगिक विकास की दौड़ में पिछड़ता चला गया? यहां पूर्ववर्ती सरकारों ने बड़ी-बड़ी घोषणाएं की, पर नतीजे क्यों निराशाजनक रहे? नई सरकार को यह समझना जरूरी है कि कोई भी देशी-विदेशी पूंजीपति पूंजी लगाने से पहले यह जानना चाहेगा कि यहां पर राजनीतिक स्थिरता, कानून-व्यवस्था व राजकाज की हालत कैसी है? फिर औद्योगिक विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे- जैसे सड़कें, परिवहन, बिजली, कच्चे माल की उपलब्धता और तकनीकी शिक्षा का स्तर कैसा है? उदारीकरण के दौर में गुजरात, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में जो बुनियादी ढांचा विकसित किया गया, उसने ही निवेशकों को आकर्षित किया।

उत्तर प्रदेश के तेज औद्योगिक विकास के लिए योगी आदित्यनाथ सरकार को नीतियों और उनके क्रियान्वयन में पारदर्शिता, जवाबदेही, निरंतरता, समयबद्धता और क्षेत्रीय संतुलन पर जोर देना होगा। मित्र-पूंजीपतियों की अवधारणा से बचना होगा, जिससे यहां की पिछली सरकारें ग्रस्त रही हैं। उत्तर प्रदेश छोटे, मंझोले और हस्तकला पर आधारित उद्योगों का गढ़ रहा है। इन उद्योगों के विकास के लिए ‘क्लस्टर नीति’ बनानी होगी। बड़े निर्माण उद्योगों की स्थापना से परहेज नहीं होना चाहिए, किंतु इन्हें चालू करने में ज्यादा पूंजी और समय की जरूरत होती है। दूसरे, ये उद्योग चूंकि बड़े स्तर पर स्वचालित प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हैं, इस कारण रोजगार के कम अवसर पैदा करते हैं।

गंगा-यमुना के दोआब में इतिहास, संस्कृति और धार्मिक पर्यटन के विकास की विराट संभावनाएं हैं, जिनके लिए पर्यटन व होटल उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। उत्तर प्रदेश की जमीन उपजाऊ है और यहां के लोग परिश्रमी हैं। इसलिए यहां अनाज, फल, सब्जी, डेयरी-उत्पादन और मुर्गी-पालन, मछली-पालन आदि के विकास की जबर्दस्त संभावनाएं हैं। प्राकृतिक उत्पादों के सुनियोजित विकास से ग्रामीण व शहरी अर्थव्यवस्थाओं को जोड़कर उत्तर प्रदेश हर वर्ष लाखों रोजगार पैदा कर सकता है।


Date:27-03-17

दलाई लामा की गतिविधियों से क्यों हिल जाता है चीन

दलाई लामा को लेकर चीन की खीझ और उनके बारे में की गई टिप्पणियां दुनिया के लिए नई नहीं हैं। एक अप्रैल से वह ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ कार्यक्रम में भाग लेने असम यात्रा पर जा रहे हैं, जहां से वह आठ दिन की अरुणाचल यात्रा पर भी जाएंगे। दलाई लामा का अरुणाचल प्रदेश में तवांग मठ भी जाने का कार्यक्रम है। तवांग के बारे में हम जानते हैं कि चीन उसे किस रूप में लेता है। वैसे तो पूरे अरुणाचल प्रदेश पर ही वह दावा करता है, किंतु तवांग को वह अपना इसलिए मानता है, क्योंकि इसकी स्थापना पूर्व दलाई लामा ने की थी। चीन दलाई लामा और तवांग, दोनों से सशंकित रहता है। उसे पता है कि बौद्ध धर्मावलंबियों के बीच दोनों का महत्व कितना है। शायद उसे दलाई लामा से आशंका यह बनी रहती है कि वह कहीं तवांग को अपना केंद्र बनाकर वहां से गतिविधियां न शुरू कर दें।

हालांकि इसकी तत्काल कोई संभावना नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही कि भारत ने दलाई लामा सहित उनके साथ आए तिब्बतियों को शरण अवश्य दी है, उन्हें धर्मशाला में निर्वासित सरकार चलाने और अपने लिए जन प्रतिनिधियों के निर्वाचन की भी छूट दे रखी है, तिब्बतियों को आम शरणार्थियों से भी ज्यादा अधिकार दिया है, मगर उन्हें किसी तरह की चीन-विरोधी गतिविधियां चलाने की इजाजत नहीं है। भारत की नीति अब भी अपनी भूमि से तिब्बतियों को चीन के खिलाफ विद्रोह करने या तिब्बत के अंदर भी विद्रोह भड़काने की किसी भी गतिविधि को न चलने देने की है। स्वयं चीन ने भी पूर्व तिब्बत के भूगोल, राजनीति और मानवीकी का जिस सीमा तक परिवर्तन कर दिया है, उसमें उसकी आजादी के लिए संघर्ष वैसे भी कठिन हो गया है। दलाई लामा खुद भी साफ कह चुके हैं कि वह तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे, बल्कि चीन के अंदर एक ऐसे स्वायत्त राज्य के रूप में उसे चाहते हैं, जो अहिंसक क्षेत्र के रूप में खड़ा हो।

फिर भी चीन सशंकित रहता है, तो क्यों? आखिर दलाई लामा के अरुणाचल जाने या असम के ब्रह्मपुत्र उत्सव में भाग लेने से उसका क्या बिगड़ जाएगा? दलाई लामा के अरुणाचल दौरे पर उसने भारत को जिस तरह संबंधों पर प्रतिकूल असर की चेतावनी दी है, उसके लिए सही शब्द तलाशना होगा। आखिर एक बूढ़ा संन्यासी, जिसके पास न कोई फौज है, न कोई बड़ी संगठित शक्ति और न ही अपने मूल तिब्बत के लोगों से 1959 के बाद कोई प्रत्यक्ष संपर्क, वह चीन जैसे आर्थिक व सैन्य महाशक्ति का क्या बिगाड़ लेगा? चीन भारत के प्रति भी इसलिए सशंकित रहता है, क्योंकि इतिहास बताता है कि तिब्बत एक समय भारत और चीन के बीच बफर राज्य की भूमिका में था।

चीन के आशंकित होने का एक कारण उसके भावी आर्थिक और सामरिक व्यवहार में तिब्बत का महत्व बढ़ जाना भी है। ग्वादर बंदरगाह की गतिविधियां हों या नेपाल के साथ व्यवहार, सब कुछ तिब्बत से ही जुड़ा है। उसकी तेल-गैस पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रही है। चेंगडू जैसे बड़े सैनिक अड्डे तक पहुंचने का रास्ता तिब्बत से ही गुजरना है। यानी उसे भविष्य की चिंता भी है। किसी बड़ी गड़बड़ी की स्थिति में इन सबकी सुरक्षा पर उसे खतरा दिखाई देता है।

चीन की समस्या ब्रह्मपुत्र को लेकर भी है। ल्हासा के दक्षिण पूर्व में वह ब्रह्मपुत्र पर झांगमू बांध के बाद चार और बांध बना रहा है। चीन ने भारत व बांग्लादेश से वादे जो भी किए हों, पर्यावरणविदों की राय अलग है। तिब्बती वैसे भी बांध को एक बड़ा मसला बताते हैं। वे तिब्बत में पर्यावरण की क्षति का एक कारण इसे भी मानते हैं। भारत के ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ उत्सव का व्यापक पैमाने पर आयोजन भी चीन को नागवार गुजर रहा होगा। इसमें आमंत्रित दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में चीन भी शामिल है, लेकिन लगता नहीं कि दलाई लामा की उपस्थिति वाले किसी समारोह में चीनी प्रतिनिधि भाग लेंगे। यानी हमें चीन की प्रतिक्रिया देखनी होगी। हालांकि दलाई लामा का असम दौरा अब केवल ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ तक सीमित नहीं है। वहां उनके कई दूसरे कार्यक्रम भी हैं। दलाई लामा की सोच और उनके व्यवहार को भारत में पूरा महत्व मिलता है। यही बात चीन को खटकती होगी। मगर चीन के खटकने से भारत का तरीका तो नहीं बदल सकता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


 

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शहरों का रूपांतरण कैसे हो ?

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Date:29-03-17

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आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 ने भारत में शहरीकरण और उससे संबंधित चुनौतियों के बारे में चार मुख्य तथ्य प्रस्तुत किए हैं –

  • भारत में शहरीकरण की अहमियत में कोई कमी नहीं है। केवल उसके विकास का तरीका अलग है। आम धारणा से अलग, हमारे देश में शहरीकरण का स्तर और उसका फैलाव अन्य देशों की तरह ही करने की नीति है। व्यापक स्तर पर देखें, तो शहरीकरण का स्तर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के साथ बढ़ा है।
  • अन्य देशों में अगर शहरीकरण के सामान्य विकास पर नज़र डालें, तो भारत में शहरीकरण का तरीका कुछ भिन्न लगता है। जिफ्फ के सिद्धांत के अनुसार सबसे अधिक आबादी वाले शहर को आबादी में दूसरे और तीसरे नंबर के शहरों से क्रमशः दुगुने और तिगुने आकार का होना चाहिए। लेकिन हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हमारे देश में छोटे शहर तो आकार में छोटे हैं ही, बड़े शहर भी आकार में छोटे हैं।
  • हमारे यहाँ भूमि प्रबंधन असमान है। बड़े शहरों के सीमित आकार का यही एक बड़ा कारण है। भूमि प्रबंधन खराब होने से बाज़ार अव्यवस्थित है। उनके किराए अनाप-शनाप हैं। लोग उन्हें वहन नहीं कर पाते। इसलिए अपनी पसंद के शहरों में जाकर बसना लोगों के लिए बहुत मुश्किल है।

दूसरे, हमारे शहरों में बुनियादी ढांचो की बेहद कमी है। इसके चलते उपलब्ध ढांचों पर बोझ बहुत ज्यादा है।

  • नगरों की क्षमता बढ़ाने का सीधा संबंध आर्थिक एवं व्यक्तिगत सेवाओं की उपलब्धता से है। जनाग्रह ने 21 शहरी निकायों का आकलन किया और यह पाया कि शहरों की क्षमता बढ़ाने और सेवाओं के बीच का आपसी संबंध चार कारकों पर निर्भर करता है- स्वच्छ जल, सीवर लाइन, सार्वजनिक शौचालय एवं दूषित जल का उचित निष्कासन।
  • शहरों में बेहतर सेवाओं के लिए पर्याप्त धनराशि और कर्मचारियों के बीच का संतुलन बनाए रखने की नितांत आवश्यकता होती है। इन दो तत्वों के अलावा शहरी निकायों की संसाधन जुटाने की क्षमता बहुत मायने रखती है। जितने ज़्यादा संसाधन होंगे, परिणाम उतने ही अच्छे मिलेंगे।
  • शहरी निकायों को आर्थिक कोष में वृद्धि के लिए निर्धारित करों के अलावा भी रास्ते ढूंढने होंगे। हमारे यहाँ संसाधन जुटाने के अन्य उपायों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है।
  • मुंबई और पुणे जैसे शहरों ने इस मामले में उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इन शहरी निकायों में निर्धारित करों से आय बहुत कम होती है। इन्होंने आय के अन्य साधन ढूंढे और सेवाओं को सुधारा। वहीं कानपुर और देहरादून जैसे शहरी निकायों के पास करों से आय की अधिकता है, लेकिन ये आय के अन्य साधनों में वृद्धि नहीं कर पाए। जाहिर है कि संसाधनों में वृद्धि करके ही बेहतर सेवाएं दी जा सकती हैं।
  • शहरी निकायों में संपत्ति कर की उगाही उचित क्षमता में नहीं की जाती है। संपत्तियों के मूल्य का सही आकलन न होना, उगाही में ढील, संपत्ति का मूल्य के अनुसार सूचीबद्ध न होना, आदि कुछ ऐसी खामिया हैं, जिनके चलते संपत्ति कर को आय के तरल माध्यम के रूप में नहीं लिया जाता है।

सैटेलाइट इमेज के जरिए किए गए आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि जयपुर और बेंगलूरू जैसे शहर संपत्तियों से केवल 5-20% तक के ही कर की उगाही कर पाते हैं।शहरीकरण से जुड़े इन चार कारकों के अलावा स्थानीय निकायों को शक्ति एवं संसाधन जुटाने के अधिकार देने में राज्य सरकारों की विमुखता एक रोड़ा है। प्रोफेसर राजा चलैया का कथन सही लगता है कि ‘हर कोई विकेंद्रीकरण चाहता है, परंतु केवल अपने स्तर तक।‘ उम्मीद की जा सकती है कि वित्त आयोग अब स्थानीय निकायों को संसाधन जुटाने के अधिक अधिकार दे सकेगा।

नगर निगमों को करों के द्वारा आय को पूरा करने की कोशिश करनी होगी। सैटेलाइट आधारित तकनीक के इस्तेमाल से शहरी संपत्तियों का सही ब्योरा रखकर करों की उगाही करनी होगी।जैसे राज्य अपनी प्रगति के लिए आपस में होड़ करते रहते हैं, वैसे ही शहरों के बीच भी प्रगति की होड़ होनी चाहिए। उत्तरदायित्व  संभालते और संसाधनों से लैस नगर, प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद की धुरी बन सकते हैं।

इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित अरविंद सुब्रह्यण्यम के लेख पर आधारित।

 

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Life Management: 29 March 2017

29-03-17 (Daily Audio Lecture)

29-03-2017 (Important News Clippings)

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Date:29-03-17

Positive Legislation

Mental Healthcare Bill provides template for sensitive, choice-based approach to treatment

In a welcome move, Parliament has passed the Mental Healthcare Bill, 2016, providing for mental healthcare services and decriminalising attempts at suicide. The legislation takes a modern, sensitive approach to mental health issues and comes on the heels of Prime Minister Narendra Modi’s latest Mann ki Baat address where he highlighted the issue of depression and the need to openly talk about it. It’s a fact that mental health issues continue to be misunderstood in this country. Those suffering rarely get access to counselling and modern medical treatment as their families try to hide their condition out of a sense of shame.

This approach not only harms patients but also leaves them vulnerable to exploitation. Given this scenario, the Mental Healthcare Bill seeks to empower patients by protecting their legal rights and facilitating access to treatment. For example, the bill provides for protection and restoration of property rights of mentally ill persons and prohibits sterilisation at any stage of treatment. It also allows a mentally ill person to make an advance directive explaining how he or she wants to be treated for the requisite illness.

The other laudable aspect of the new legislation is that it sheds the nanny state approach that is the hallmark of our mostly outmoded laws shaped by the colonial era. In fact, archaic laws remaining on statute books is a huge problem for governance as they clog up the criminal justice system and create scope for misuse. Hence, it’s certainly positive that that the Mental Healthcare Bill declares that any person who attempts to commit suicide shall be presumed to be under severe stress and not be tried or punished under the penal code. Prosecuting a person for trying to commit suicide – akin to punishing a victim twice over – is, or was till recently, one of the ridiculous manifestations of Indian law.In this respect, the praiseworthy provisions of the Mental Healthcare Bill should be a springboard to secure an individual full rights over his or her life. Legal sanctity should be conferred on living wills, where a person details future medical treatment in circumstances where he is unable to provide informed consent. Equally important is recognising the right to passive euthanasia where terminally ill patients can refuse painfully invasive treatments and opt for palliative care. It’s time medical care started to respect patients’ choice.


Date:29-03-17

Money Bill as ruse to avoid debate

This practice abuses democracy

The government’s move to tag substantive amendments, many of the 40 relating to diverse aspects of regulation and representation, on to the Finance Bill is an unwelcome blow to the heart of Indian democracy. By incorporating these amendments, which include subjects as diverse as the mandatory necessity of Aadhaar numbers for income-tax returns, removing transparency in political donations and government meddling in the process of appointing appellate tribunals, the Bill seeks to bypass broader parliamentary scrutiny and debate. The government’s claim that these diverse amendments can be lumped together as a Money Bill, outside the scrutiny of the Rajya Sabha, where the BJP is in a minority, holds no water. Most of the 40 amendments proposed have nothing to do with Article 110(1) of the Constitution, defining a Money Bill: related to changes in taxation, spending of taxpayer money, changes in Central or state accounting, etc. Many of these amendments are ridiculous. The merging of tribunals is devoid of rationale.

Thus, the airports regulator is sought to be subsumed under the telecommunications arbitrator. Where is the logic here? Or for that matter, when the national highways jurisdiction is swallowed up by the airports appellate tribunal? Can company law jurisdiction take over from an anti-monopoly board? And can only be justified by the government’s desire to curb the autonomy of appellate tribunals? Removing the method of appointment of regulatory bodies from their relevant statutes to rules to be formed by the government at will smacks of a desire to fill these bodies with people who might well be trained as ventriloquist dummies.

The aam taxpayer has reasons to worry — tax officials have been given a freer hand to harass them. Removing the cap of 7.5% of the average profits of the past three years for political contributions, in combination with the wholly opaque electoral bonds, makes it possible to set up companies for the sole purpose of channelling anonymous funds to favoured political parties. All these merit separate laws of their own.


Date:29-03-17

Battery storage for renewable power

A burst of entrepreneurial energy down under promises to transform the fortunes of renewable power. Path-breaking entrepreneur Elon (Tesla) Musk is reportedly setting up a 100-MW hour power battery storage capacity in South Australia, in 100 days flat. It would be the world’s largest utility-scale power storage — at an attractive cost — and slated to greatly boost renewable energy.

Also notable is the fact that Musk is leveraging scale economies to drive down the costs of electric power storage. The ballpark figure stated is $250 per kWh as capital expenditure, and about $0.3/kWh as operational-ex. Reports says that the Australia facility would use conventional lithium-ion batteries, for which Tesla is joining hands with Panasonic. But costs should fall much further. There’s a paradigm shift in the offing in battery storage technology. Vanadium-flow batteries promise to quite dramatically reduce the op-ex for electric storage to only about $0.05/kWh, which would amount to grid-parity tariffs here, in rupees. Note that the sheer intermittency of renewable energy, solar or wind power, makes battery storage crucial, with op-ex currently put at upwards of 30 cents/kWh. But this essentially ends up tripling the effective cost of renewable power generation, not counting evacuation costs.The V-flow batteries are fully containerised, nonflammable and reusable systems which discharge 100% of the stored energy. They also do not degrade for more than 20 years and seem eminently scalable. But currently the only V-flow battery is in Washington state in the US, of 8 MWh capacity built using a proprietary molecule as electrolyte. Proactive policies and multilateral initiatives can well rev up storage capacity. There is other exciting research in battery technology, too.


Date:29-03-17

खेती के संकट का कारण गलत कर्ज नीति

 गुजरात सरकार ने अहमदाबाद के निकट सानंद में नैनो प्लांट लगाने के लिए 558.58 करोड़ रुपए का कर्ज दिया। उसने माना कि इतना बड़ा लोन मात्र 0.1 फीसदी ब्याज पर दिया गया, जो 20 वर्षों में लौटाना है। दूसरे शब्दों में इतना बड़ा कर्ज लगभग ब्याजमुक्त ही कहा जाएगा और चूंकि यह 20 वर्षों में चुकाना है, तो यह ब्याज मुक्त दीर्घावधि लोन ही है। एक और मामला लीजिए। खबरों के मुताबिक स्टील उत्पादक लक्ष्मी नारायण मित्तल को पंजाब सरकार ने बठिंडा रिफाइनरी में निवेश के लिए 1,200 करोड़ रुपए का लोन दिया। उन्हें भी 0.1 फीसदी की ब्याज दर पर ऋण दिया गया।दूसरी तरफ, गांव में निर्धनतम महिला बकरी खरीदना चाहती है, जिसकी कीमत 5,000 रुपए के करीब होगी। वह किसी माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशन (एमएफआई) जाती है, जो उसे 24 से 36 फीसदी अथवा और भी ऊंचे दर पर 5,000 का लोन देता है। यह मामूली-सा लोन हर सप्ताह चुकाना है। आप भी मानेंगे कि यदि इस गरीब महिला को बकरी पालने के लिए यह लोन 0.1 फीसदी की दर से टाटा की तरह 20 साल न सही, पांच साल के लिए ही दिया जाता तो साल के अंत में वह नैनो कार में घूमती नज़र आती। यह गरीब महिला भी आंत्रप्रेन्योर है और जीवन के उत्तरार्द्ध में वह बकरी पालकर गुजारा करना चाहती है। वह बकरी का दूध बेच सकती है। यदि इस प्रकार की उदार नीति के तहत बैंक गरीब उद्यमियों को सहारा दें सकें तो लाखों लोगों को आजीविका दी जा सकती है।

अब किसान का उदाहरण लीजिए। वह 12 फीसदी की दर पर ट्रैक्टर खरीदता है, जबकि टाटा 7 फीसदी की दर पर मर्सेडीज बेंज लग्ज़री कार खरीद सकते हैं। किसान के लिए ट्रैक्टर फसल उत्पादन में सुधार ला सकता है, जिससे आमदनी बढ़ेगी। ट्रैक्टर ऐसा उपकरण है, जो उसकी खेती आधारित आजीविका को टिकाऊ बना सकता है। किंतु धनी के लिए मर्सेडीज कार तो स्टेटस सिंबल ज्यादा है, जिसके लिए वे ज्यादा पैसा भी चुका सकते हैं। इससे मैं यह सोचने पर मजबूर हुआ हूं कि बैंकिंग सिस्टम इस तरह क्यों बनाया गया है कि गरीबों को तो ज्यादा भुगतान करना पड़ता है, जबकि धनी वर्ग को कर्ज सस्ता मिल जाता है।
गरीबों के साथ यह दयनीय भेदभाव यहीं खत्म नहीं होता। संसद की लोक लेखा समिति का अनुमान है कि सार्वजनिक बैंकों का कुल बकाया लोन जिसे नॉन-परफॉर्मिंग असेट (एनपीए) का नाम दिया गया है, 6.8 लाख करोड़ रुपए है। इसमें से 70 फीसदी कॉर्पोरेट क्षेत्र का है और सिर्फ 1 फीसदी डिफॉल्टर किसान हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम कह चुके हैं कि कॉर्पोरेट का फंसा कर्ज राइट ऑफ कर देना चाहिए। वे कहते हैं कि अर्थव्यवस्था का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि कॉर्पोरेट का फंसा कर्ज माफ करना ही पड़ेगा, फिर चाहे इसके कारण क्रोनी कैपिटलिज्म या पक्षपात के आरोप ही क्यों न लगें।इंडिया रैटिंग्स का अनुमान है कि 4 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का एनपीए माफ कर दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में यदि मुख्य आर्थिक सलाहकार पर भरोसा करें तो कॉर्पोरेट सेक्टर का इतना बड़ा कर्ज माफ करना आर्थिक समझदारी होगी। उधर, भारतीय स्टेट बैंक की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य कहती हैं कि किसानों का बकाया ऋण माफ करना गलत आर्थिक निर्णय होगा, इससे आर्थिक अनुशासनहीनता पैदा होगी, जबकि किसानों का बकाया कुल एनपीए का मात्र 1 फीसदी है।
हर साल खेती को जो कर्ज मुहैया कराया जाता है, उसका फायदा भी कृषि आधारित कंपनियां ले लेती हैं। 2017 के बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 10 लाख करोड़ के कृषि ऋण की घोषणा की। कृषि कर्ज के लिए इतनी बड़ी राशि से ऐसा लगता है कि सरकार किसानों के बारे में कितना सोचती है, जबकि तथ्य यह है कि इसका 8 फीसदी से भी कम छोटे किसानों तक पहुंचता है, जो पूरे कृषक समुदाय का 83 फीसदी है। इसका 75 फीसदी तो कृषि व्यवसाय पर आधारित कंपनियां और बड़े किसान ले लेते हैं, जिन्हें ब्याज में तीन फीसदी की रियायत भी मिल जाती है। इतने बरसों में कृषि ऋण के दायरे मेंं वेयरहाउसिंग कंपनियों, कृषि औजार बनाने वाली कंपनियों और कृषि व्यवसाय संबंधी अन्य कंपनियों को इसके दायरे में ले लिया गया है।
किसानों के प्रति बैंकों की उदासीनता के कारण ही उत्तर प्रदेश और पंजाब में किसानों के कर्ज माफी का वादा इतना विवादास्पद हो गया है। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था, तो कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने घोषणा कर दी है कि केंद्र उत्तर प्रदेश में किसानों के कर्ज माफी का बोझ लेगा। पंजाब में जहां कांग्रेस सत्ता में आई है, वित्त मंत्री मनप्रीत बादल ने कृषि लोन माफी का बोझ लेने के लिए अनूठा तरीका निकाला है। उन्होंने कहा है कि सरकार किसानों का बकाया कर्ज ले लेगी और बैंकों के साथ लंबी अवधि का समझौता करेगी, जिसके तहत राज्य सरकार किसानों का बकाया चुकाएगी।
पंजाब में अनुमानित 35,000 करोड़ रुपए का लोन किसानों पर बकाया है। उत्तर प्रदेश में 2 हैक्टेयर से कम जमीन पर खेती करने वाले किसानों का कर्ज माफ करने की राशि 36,000 करोड़ है। केंद्र ने यह पैसा देने की बात कही है लेकिन, सवाल उठता है कि अन्य राज्यों को भी यह सुविधा क्यों नहीं। महाराष्ट्र विधानसभा में मुुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बताया कि 2009 से 23 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। लगातार तीसरे साल सूखा झेल रहे तमिलनाडु में किसान 25 हजार रुपए प्रति एकड़ का मुआवजा मांग रहे हैं। इस बीच ओडिशा में भी किसानों की आत्महत्या बढ़ी है और पूर्वोत्तर में तो पिछले कुछ वर्षों में इसमें चार गुना वृद्धि हो गई है।
दुर्भाग्य से इस बात का अहसास ही नहीं है कि खेती का यह भयावह संकट मुख्यत: बना हुआ इसलिए है, क्योंकि किसान को गरीब बनाए रखने के जान-बूझकर प्रयास किए जा रहे हैं। न सिर्फ किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत न देकर बल्कि किसानों व ग्रामीण गरीबों की कीमत पर धनी लोगों को फायदा पहुंचाने की गलत कर्ज नीति से भी ऐसा किया जा रहा है। लेकिन क्या बैंक अपनी गलती मानेंगे और कर्ज नीति में सुधार लाएंगे, मुझे इसमें संदेह है। आर्थिक वृद्धि के लिए प्रोत्साहन के नाम पर धनी वर्ग को कर रियायतें और विशाल सब्सिडी मिलती रहेगी।
देविंदर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ एवं पर्यावरणविदये लेखक के अपने विचार हैं।)

Date:29-03-17

सही विचार नहीं

शिवसेना के सांसद रवींद्र गायकवाड़ ने पिछले दिनों एक उड़ान के दौरान एयर इंडिया के ड्यूटी मैनेजर के साथ मारपीट की, जिसके बाद विमानन कंपनियों ने उनकी उड़ान पर रोक लगा दी। इस घटना के बाद नागरिक उड्डïयन मंत्रालय ऐसे लोगों की एक आधिकारिक सूची बनाने पर विचार कर रहा है जिनको उड़ान भरने से रोका जा सकता है। इसके अलावा वह ऐसे नियम भी तय करने पर विचार कर रहा है जिनके चलते कोई विमानन कंपनी किसी व्यक्ति को अपने साथ यात्रा करने से रोक सकती है। यह खराब सोच का परिचायक है। एक निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा किए गए दुव्यर्वहार के खिलाफ निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा अपनी सरकारी प्रतिस्पर्धी विमानन कंपनी के कदम का समर्थन करने की सराहना करने को छोड़ दिया जाए तो ऐसे कदम तमाम गलत संकेत देते हैं। ऐसा करने से एक ऐसे मसले में सरकारी हस्तक्षेप की राह बनेगी जिसे अन्यथा विमानन कंपनियों द्वारा अपने स्तर पर निपटाया जाना चाहिए।
इस कदम को लेकर किसी को यह भी लग सकता है कि सरकार गायकवाड़ के मुद्दे पर अस्पष्ट है। उनका हमला दोहरी निंदा के योग्य है क्योंकि विमानन सेवा द्वारा उनके सांसद होने की पात्रता को नहीं निभा पाने के कारण उन्होंने अपनी ताकत का सुस्पष्टï दुरुपयोग किया था। वह इकनॉमी श्रेणी के विमान में बिजनेस क्लास की सीट की मांग कर रहे थे। यह बात भी चौंकाने वाली है कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को विमानन सेवाओं द्वारा सांसद का बहिष्कार किए जाने के बाद शिवसेना के विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पर भी विचार करना पड़ा। निश्चित तौर पर संसद के सदस्यों के पास कहीं अधिक अहम मुद्दे विचारार्थ होंगे।
इतना ही नहीं ये नियम और उड़ान से रोकने वाली सूची विमानन उद्योग की ओर से आए, तभी उचित होगा। यह उद्योग में निजी क्षेत्र का दबदबा है। इसके तहत अंतरराष्टï्रीय विमानन कानून के अनुसार ही यात्रियों को उड़ान भरने देने या न भरने देने का निर्णय लिया जा सकता है। यह मसला विमान सुरक्षा से जुड़ा है। खबरों के मुताबिक नियमों में बदलाव लाकर गायकवाड़ को उड़ान भरने दिया जा सकता है। महाजन ने कहा कि सांसद, संसद आने के लिए हमेशा ट्रेन से सफर नहीं कर सकते। सरकार को सार्वजनिक व्यवहार को तय करना नुकसानदेह हो सकता है जबकि संविधान पहले ही नागरिक अधिकारों की व्याख्या कर चुका है। ऐसे नियम कानूनी चुनौती का सबब बन सकते हैं। अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद ऐसी सूची बनी थी लेकिन इससे कोई उद्देश्य सफल नहीं हुआ। अमेरिका की ऐसी सूची का सबसे बुरा पहलू यह है कि इस बारे में कोई स्पष्टï निर्देश नहीं हैं कि कौन उड़ान भर सकता है और कौन नहीं? ऐसे में किसी भी बात पर प्रतिबंध लग सकता है। सोशल मीडिया पर कुछ असंयमित लिखने से लेकर, फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन को सूचना देने से इनकार तक कुछ भी वजह हो सकती है। नागरिक अधिकारों को संरक्षण नहीं मिलने का असर सामाजिक पूर्वग्रह के रूप में सामने आता है। अमेरिका में ऐसी सूची में मुस्लिमों की भरमार है। इतना ही नहीं विमानन कंपनियां एक जैसे नामों को लेकर भ्रमित होती हैं जिससे दिक्कत बढ़ जाती है। वर्ष 2014 में दिक्कत तब बढ़ गई जब एक अमेरिकी अदालत ने अमेरिकी नागरिक अधिकार संगठन द्वारा दाखिल एक याचिका पर सुनवाई में उस सूची की प्रणाली को असंवैधानिक करार दे दिया। भारत में राजनीति साफ तौर पर ध्रुवीकृत है। ऐसे में सामान्य यात्री निष्पक्षता की उम्मीद ही नहीं कर सकता। ऐसी किसी सूची का विचार उचित नहीं प्रतीत होता। यह काम विमानन कंपनियों पर छोड़ दिया जाए तो बेहतर। संभव है तब निकट भविष्य में गायकवाड़ विमान के बजाय ट्रेन से सफर करते नजर आएं।


Date:28-03-17

Martyr to no god

Atheism is the NOTA button of religious choice. It deserves every safeguard from law and the state.

 Despite legal protection accorded to the freedom of religion, the assault on rationalism in general and atheism in particular continues. H. Farook has joined Narendra Dabholkar, Govind Pansare and M.M. Kalburgi in the ranks of the martyrs to no god. The only difference between them is that he was not a prominent rationalist, but a Coimbatore scrap dealer with a strong sense of identity. Farook’s father has offered the finest tribute to his son’s memory. Disappointed by an orthodoxy which will not brook dissent, he has decided to become an atheist himself. Thus, he has expanded a question pertaining to the freedom of religion into an issue of the freedom of speech. It is not enough to be an atheist; one must also have the freedom to proclaim it without fear.

While this instance involves Muslims, it is not a Muslim issue. When political events turn religion into a focus of identity, atheism and agnosticism threaten orthodoxies across religious divides, ignoring legal precedents which safeguard religious freedoms. The most significant precedent is a 2014 judgment of the Bombay High Court, which held that the government cannot force anyone to declare their religion in an official document. It also observed that citizens have the right to declare that they do not belong to any religion. This is really not unusual, in a region where numerous schools of atheism have flourished from antiquity. While Buddhism and Jainism are commonly understood to be heterodox, the Carvaka and Ajivika schools of Hinduism are unfortunately known only to scholars. This is apart from the numerous atheist and agnostic groups that have flourished in modern times, often as part of reform movements.

In modern times, of course, the right to be guided by the senses and the intelligence rather than scripture is a given. So is the importance of tolerance, without which the ideal of a borderless, globalised world would be unattainable. The intolerant persecution of the atheist is a special case, along with honour killings and caste abuse, since victims are attacked by the very community they were born into. Religious identity is only one of the many personas which are assigned to us, and which we should be free to change or discard. At a time when identity is central to politics, this freedom is as fundamental as the right to change party allegiances, and those who would constrain it are enemies of democracy.


Date:28-03-17

सरकार और आधार

आधार कार्ड को लेकर सर्वोच्च अदालत का ताजा फैसला साफ तौर पर केंद्र सरकार के लिए एक झटका है। अदालत ने कहा है कि सरकार अपनी कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं बना सकती। अलबत्ता अदालत ने यह भी कहा है कि गैर-लाभकारी कामों मसलन बैंक खाता खोलने या आय कर रिटर्न दाखिल करने के सिलसिले में सरकार आधार कार्ड मांग सकती है और उसे ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता। यह फैसला ऐसे वक्त आया है जब हाल में केंद्र सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार को अनिवार्य बनाने का एलान किया था, और वह आधार की अनिवार्यता का दायरा लगातार बढ़ाती रही है। जाहिर है, उस कवायद पर पानी फिर गया है। लेकिन इसके लिए वह खुद जिम्मेवार है। आधार की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका कई साल से सर्वोच्च अदालत में लंबित है। तब से अदालत ने समय-समय पर कुछ अंतरिम निर्णय सुनाए हैं, पर कभी भी कल्याणकारी योजनाओं में आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने की इजाजत नहीं दी थी। उलटे, इसके विपरीत ही निर्देश दिए थे।

दरअसल, अदालत के ताजा फैसले ने उसके पिछले फैसलों की पुष्टि भर की है। निजता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार मानने के कोण से आधार कार्ड की संवैधानिकता को याचिका के जरिए जो चुनौती दी गई है उस पर तो अदालत ने अभी कुछ कहा ही नहीं है, यह मसला तो सात सदस्यीय संविधान पीठ सुलझाएगा, जिसका गठन फिलहाल नहीं हुआ है। पिछले फैसलों को याद करें। सितंबर 2013 में सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया कि रसोई गैस सबसिडी जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। अगस्त 2015 में अदालत ने फिर इसी आशय का फैसला सुनाया। इसके कोई दो माह बाद अदालत ने मनरेगा, पेंशन, भविष्य निधि, प्रधानमंत्री जन धन योजना आदि को आधार कार्ड से जोड़ने की इजाजत तो दी, पर साथ में यह भी कहा कि यह स्वैच्छिक होना चाहिए, अनिवार्य नहीं। लेकिन इन सारे फैसलों के बावजूद सरकार एक के बाद एक, आधार की अनिवार्यता की झड़ी लगाती गई। मिड-डे मील, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन व मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, जननी सुरक्षा योजना, एकीकृत बाल विकास योजना के तहत चलने वाला प्रशिक्षण कार्यक्रम, दीनदयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना, मातृत्व लाभ कार्यक्रम से लेकर आरक्षित वर्ग के बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्ति तक, आधार को अनिवार्य बनाते जाने की सरकार की जिद से कुछ भी बच नहीं सका।

जब मामला अदालत में लंबित हो, तो सरकार को उसी हद तक जाना चाहिए था जहां तक अंतरिम फैसले छूट देते थे। लेकिन सरकार ने ऐसे व्यवहार किया मानो अदालती फैसलों का वजूद ही न हो। विडंबना यह है कि आधार कार्ड को लेकर न समझ में आने वाली यह उतावली और विचित्र उत्साह का प्रदर्शन एक ऐसी पार्टी ने किया जिसने विपक्ष में रहते हुए आधार योजना के औचित्य पर सवाल उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। भारत के हर नागरिक को बारह अंकों का एक विशिष्ट पहचान नंबर आबंटित करने की योजना यूपीए सरकार ने शुरू की थी और इसके लिए विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ) का गठन किया था। तब यह योजना भाजपा के गले नहीं उतर रही थी और उसके नेताओं ने संसद के भीतर भी और बाहर भी इसकी जमकर आलोचना की थी। आज उसी योजना को भाजपा ने सिर-माथे लगा लिया है। सत्ता में आने पर उसका रुख बदल जाने के कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं। पर आधार के मामले में उसे यह तो खयाल रखना चाहिए था कि देश की सर्वोच्च अदालत ने क्या सीमा बांध रखी है।


Date:28-03-17

नदियों को जीवनदान

करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था की प्रतीक गंगा के बारे में कहा जाता था, ‘‘मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी’ लेकिन अब उत्तराखंड हाइकोर्ट ने गंगा को ‘‘लिविंग पर्सन’ यानी एक जीवित वास्तविकता घोषित कर गंगा को हम सबकी माता मान लिया है। अब तक न्यूजीलैंड की संसद ने माओरी समुदाय की आस्था की प्रतीक ह्वागानुई नदी को ‘‘लिविंग एंटिटी’ का दर्जा दिया था। कभी गंगा एक्शन प्लान तो कभी ‘‘नमामि गंगे’ जैसी योजनाओं पर हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें पतित पावनी गंगा का पवित्र निर्मल अतीत नहीं लौटा पाई थीं। लेकिन कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश के बाद उम्मीद है कि ऋषिकेश से लेकर बनारस तक कहीं भी गंगा का अमृत तुल्य जल पिया भी जा सकेगा। यूपीए सरकार द्वारा 4 नवम्बर, 2008 को गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बाद अब उत्तराखंड हाइकोर्ट की न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खंडपीठ ने एक कदम आगे बढ़ते हुए गंगा ही नहीं बल्कि यमुना को भी ‘‘लिविंग पर्सन’ की तरह मानवाधिकार देने का फैसला दे दिया। गंगा-यमुना के प्राकृतिक स्वरूप को विकृत करना या उसे गंदा करना तो कानूनी जुर्म माना ही जाएगा, लेकिन अगर गंगा प्रचंड आवेश में आकर किसी का नुकसान करती है तो उस पर भी दंड लगेगा, जिसे सरकार भुगतेगी। अदालत के फैसले से गंगा-यमुना ही नहीं बल्कि देशवासियों के तन-मन के मैल को ढोते-ढोते मैली हो चुकी तमाम नदियों की दुर्दशा के प्रति न्यायपालिका की वेदना को समझा जा सकता है। गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेस्मिन् सन्निधि कुरु। ये सभी नदियां गंगा-यमुना के समान ही पवित्र हैं। अदालत का संदेश देश की तमाम प्रदूषित होती जा रहीं इन सभी पवित्र नदियों के लिए भी है। प्रचलित धारणा के अनुसार अगर किसी वस्तु में भोजन करना, आकार में वृद्धि करना, स्वचलन की क्षमता, श्वसन करना और प्रजनन करने के जैसे गुण हैं, तो वह सजीव वस्तु या वास्तविकता है। एक नदी में ये सभी गुणधर्म तो नहीं होते मगर इनमें से कुछ अवश्य ही पाए जाते हैं। नदी उद्गम से चलती है तो मुहाने तक उसके आकार में भारी वृद्धि होती है। उसमें स्वचलन का गुण होता है, तभी तो वह हिमालय से हिंद महासागर तक पहुंच जाती है। उसमें गति के साथ ही शक्ति होती है। उसी की शक्ति से पावर हाउस चलते हैं, और बिजली बनती है। वह कई भौगोलिक संरचनाओं के हिसाब से कई तरह की आवाजें निकालती हैं। वैसे भी जब नदी स्वयं जीवनदायिनी हो तो उसे जीवित साबित करने के लिए बायोलॉजी के प्रजनन और अनुवांशिकी जैसे अतिरिक्त मापदंड गौण हो जाते हैं। हिमालय से निकल कर बंगाल की खाड़ी में विलीन होने वाली इस महानदी गंगा का कौन-सा हिस्सा जीवित है और कौन-सा बीमार हो कर सड़ गल रहा है, यह चिंतन का विषय है। विडम्बना यह है कि गंगा के मृतप्राय: हिस्से के प्रति चिंता करने के बजाय उसके शरीर के प्रचंड वेगवान हिस्से के लिए क्रंदन किया जाता है। गंगा की अलकनंदा और भागीरथी जैसी श्रोत जलधाराएं समुद्रतल से लगभग 5 हजार मीटर की ऊंचाई से उत्तराखंड हिमालय के लगभग 917 में से 665 (427 अलकनंदा और 238 भागीरथी के) ग्लेशियरों की नासिकाओं से अपनी लंबी यात्रा पर निकल पड़ती हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि 5 हजार मीटर की ऊंचाई से चली हुई जलराशियां ऋषिकेश में 300 मीटर की ऊंचाई पर उतरती होंगी तो तीव्र ढाल के कारण गंगा का वेग कितना प्रचंड होगा। एक अध्ययन के अनुसार भागीरथी का ढाल 42 मीटर प्रति किमी. और अलकनंदा का ढाल 48 मीटर प्रति किमी. है। जिसका ढाल जितना अधिक होगा, उसका वेग उतना ही अधिक होगा। गंगा की यही उछलकूद उसे स्वच्छ और निर्मल बनाती है। जलमल शोधन संयंत्रों में भी तो इसी तरह जल शोधन किया जाता है। गंगा जब देवप्रयाग से समुद्र मिलन के लिए यात्रा शुरू करती है, तो उसका रंग मौसम के अनुसार नीला, कभी हरा तो बरसात में मटमैला होता है। गंगा को मैदानों के लिए हिमालय से उपजाऊ मिट्टी लाने की जिम्मेदारी भी निभानी होती है। हरिद्वार के बाद गंगा रंग बदलने लगती है, और प्रयागराज इलाहाबाद में यमुना से मिलन के बाद तो वह काली-कलूटी और महानदी की जगह महानाला जैसी दिखती है।वास्तव में यही वेग एक नदी को जीती-जागती बनाता है। गति के साथ ही स्वर पर गौर करें तो पहाड़ों पर नदियों का स्वर और ताल विलक्षण होता है। उनका कलकल निनाद भी विलक्षण होता है। गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण विख्यात है। गंगा एक्शन प्लान फेज प्रथम और दो के बाद ‘‘नमामि गंगे योजना’ भी चली मगर गंगा में जा रही गंदगी उद्गम से ही नहीं रुक पाई। गंगा के मायके उत्तराखंड में ही गंगा किनारे के नगरों, कस्बों से रोजाना 14.90 करोड़ लीटर मलजल प्रति दिन निकल रहा है। इसमें 8.20 करोड़ लीटर सीवर बिना ट्रीटमेंट के ही गंगा में प्रवाहित हो रहा है। गंगा किनारे के लगभग बीस नगरों की आबादी 14 लाख है। चारधाम यात्रा के दौरान आबादी का दबाव 16 लाख तक पहुंच जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने देश में नदियों को प्रदूषित करने वाले 1360 उद्योग चिह्नित किए हैं। इस सूची में उत्तराखंड के 33, उत्तर प्रदेश के 432, बिहार के 22 और पश्चिम बंगाल के 56 कारखाने शामिल हैं, जो गंगा में सीधे खतरनाक रसायन और संयंत्रों से निकला दूषित जल और कचरा प्रवाहित कर रहे हैं। इनमें कानुपर के 76 चमड़ा कारखाने भी शामिल हैं। प्रो. जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के जीवन का अधिकांश हिस्सा कानपुर में ही बीता है। कई स्वनामधन्य साधू-संतों और स्वयंभू पर्यावरण प्रहरियों के निशाने पर उत्तराखंड के पॉवर प्रोजेक्ट तो हैं, मगर गंगा में बह रही गंदगी उन्हें नजर नहीं आती। गंगा को दूषित करने में हरिद्वार के कई आश्रम भी पीछे नहीं हैं। उत्तराखंड के भूगोल से अनभिज्ञ कई गंगा भक्तों और साधू-संतों को केवल भागीरथी में ही गंगा का रूप नजर आता है, जबकि गंगा का सफर देवप्रयाग से शुरू होता है, और उससे ऊपर उसकी हर एक स्रेत धारा गंगा समान है।


Date:28-03-17

सुधार की सिफारिश

चुनाव आयोग द्वारा आवश्यक बकाया बिलों का भुगतान करने वाली पार्टयिों को चुनाव लड़ने से रोकने की दिशा में की गई पहल का समर्थन किया जाना चाहिए। जो राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद आम लोगों के लिए नियम बनाते हैं, बिजली, पानी, टेलीफोन आदि सभी बिलों के भुगतान को प्रेरित करते हैं, उनसे यही उम्मीद करनी चाहिए कि वे भी ऐसा करेंगे। चुनाव आयोग के हाथों बिलों का भुगतान कराने की ताकत नहीं हैं, किंतु यदि यह कानून बन जाए कि भुगतान न करने वाले दल चुनाव नहीं लड़ सकते तो फिर इनके पास भुगतान के अलावा कोई चारा नहीं होगा। हालांकि, इससे चुनाव परिदृश्य में कोई बड़ा अंतर आएगा ऐसा नहीं माना जा सकता। वैसे भी चुनाव आयोग ने इस पर भी दलों से उनकी राय मांगी है। देखना है राजनीतिक दल क्या राय देते हैं? दरअसल, अगस्त 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आयोग से कहा था कि वह लोक सभा और विधान सभा चुनाव में उतरने वाले प्रत्याशियों को तभी चुनाव लड़ने दें, जब वह अपने आवास में बिजली, पानी और टेलीफोन कनेक्शन संबंधी सभी बिलों का भुगतान कर चुके हों। जैसा मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने कहा कि जब आयोग हाई कोर्ट के आदेश पर विचार कर रहा था, तब इस पर गौर किया गया कि यह बात सिर्फ प्रत्याशियों पर ही नहीं राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। किंतु इस मामले में कदम आगे बढ़ाना है तो दलों की सहमति चाहिए, क्योंकि इसके लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करना होगा। वैसे कानून बनाने के पहले ही चुनाव आयोग इस दिशा में आगे बढ़ चुका है। हाल के विधान सभा चुनाव में कुछ प्रत्याशी अपना नामांकन इसलिए नहीं भर पाए क्योंकि वह नो ड्यूज र्सटििफकेट यानी बकाया नहीं होने का प्रमाण पत्र नहीं दे पाए थे। इसका अर्थ हुआ कि अगर चुनाव आयोग का प्रस्ताव लागू हो गया तो दलों को भी चुनाव आयोग में एनओसी यानी बकाया नहीं होने का प्रमाण पत्र देना होगा। उसके बाद ही आयोग उन दलों के चुनाव लड़ने को हरी झंडी देगा। राजनीतिक दलों को इसमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी जिस नए भारत की बात कर रहे हैं, यह उस दिशा का भी कदम होगा। इसलिए दलों में सहमति बनाकर सरकार को कानून संशोधन के लिए आगे आना चाहिए।


 

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भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी – 2

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Date:30-03-17

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भारत की अर्थव्यवस्था जिस गति से बढ़ रही है, उससे ऐसा लगता है कि 2050 तक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भारत विश्व में दूसरे पायदान पर पहुँच जाएगा। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के उत्थान में उस देश के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत महत्व होता है। यही वह संपदा है, जो रोज़गार बढ़ाने और देश की अर्थव्यवस्था को आसमान पर पहुँचा सकती है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में हमारा देश पीछे नहीं है। लेकिन कमी है तो इन संसाधनों के इस्तेमाल में महिलाओं की भागीदारी की। अब समय आ गया है, जब हम आर्थिक जगत में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाकर कृषि, पशु-पालन और छोटे-मोटे व्यवसायों में उनकी क्षमता और योगदान को एक पहचान दे दें।

  • वर्तमान में देश की आर्थिक भागीदारी में महिलाओं की स्थिति और उसे सुधारे जाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर एक नज़र डालते हैं।
    • ग्लोबल इंटरप्रेन्योरशिप एण्ड डेवलेपमेंट इंस्टीट्यूट ने उद्यमी महिलाओं के मामले में भारत को विश्व के पाँच निचले देशों में रखा है। हमारे यहाँ लगभग 73% महिला उद्यमियों को पूंजीपतियों से आर्थिक सहयोग नहीं मिल पाता है। बैंक ऋण की भी यही स्थिति है।
    • निजी क्षेत्र को आगे बढ़कर महिला उद्यमियों को आर्थिक सहयोग देना चाहिए।
    • आर्थिक सहायता के साथ महिलाओं को उद्यम शुरू करने और उसके प्रबंधन से संबंधित प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में स्टार्ट अप इंडिया और स्टैण्ड अप इंडिया की सरकारी वेबसाइट बहुत मददगार हैं। सरकारी मदद के अलावा अगर निजी क्षेत्र भी एक कदम आगे बढ़ाए, तो प्रगति जल्दी हो सकेगी। मेकिंस्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अध्ययन के अनुसार भारत महिलाओं की आर्थिक भागीदारी से 2025 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद में 60% की बढ़ोतरी कर सकता है।
    • भारतीय ग्रामीण महिलाओं में काम करने की अद्भुत शक्ति है। उन्हें मुख्यधारा से जोड़कर अपने सामथ्र्य में कई गुना वृद्धि की जा सकती है। देश में आंगनबाड़ी की शुरूआत इसी सोच के साथ की गई थी। जब ग्रामीण महिलाएं काम करती हैं, तो उनके बच्चों की समुचित देखभाल इन आंगनबाड़ियों के द्वारा की जाती है। इन केंद्रों के माध्यम से सरकार, कामकाजी महिलाओं व बच्चों के स्वास्थ्य पर भी नज़र रखती है।

इन केंद्रों के माध्यम से ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों की महिलाओं को व्यावसायिक और प्रबंधकीय प्रशिक्षण देकर सशक्त और समृद्ध बनाया जा सकता है। देश की सवा अरब से अधिक की जनसंख्या में लगभग 60 करोड़ महिलाएं हैं। अगर हम इन महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना सकें, तो देश की समृद्धि बहुत बढ़ सकती है।

इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित अनिल अग्रवाल के लेख पर आधारित।

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Life Management: 30 March 2017

30-03-17 (Daily Audio Lecture)


30-03-2017 (Important News Clippings)

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Date:30-03-17

Transparent justice

Installing CCTVs in courts is a step forward, now tackle judicial delays

The Supreme Court’s order directing high courts to install CCTV cameras inside courtrooms in two districts of every state and union territory within three months is a welcome move. This move will usher in transparency, better case management and improve public behaviour within the courts. It can herald a mindset change in the Indian judicial system that’s much needed.

It has often been observed that to overcome the problem of excessive judicial delays, judiciary and executive must quickly overcome their differences and finalise the Memorandum of Procedure (MoP) for appointment of judges to various courts in the country. That certainly ought to happen, but the problem of judicial delay predates differences between executive and judiciary on appointment of judges. There are over three crore pending cases in various courts, all of which cannot be attributed to a shortage of judges. There is also a culture of delays, which the judiciary needs to tackle. Frequent adjournments delay cases by many months as dates are given after long gaps. A study shows adjournments were sought and granted in 91% of the cases delayed over two years at the Delhi high court. The process bleeds litigants and benefits none except lawyers who charge clients on a per hearing basis.

India also needs to embrace global practices like simplification of judicial proceedings and using new technology to improve access, quality and efficiency of justice. For instance, reforms carried out in Singapore in the 90s led to speedy disposal of over 95% cases. Courts also need to discourage filing of cases without merit and frivolous PILs which end up impeding other cases. Government must also withdraw petty cases from courts as it is the biggest litigant accounting for nearly 46% of cases.


Date:30-03-17

Picking up a clean habit

Halfway into the implementation of the Swachh Bharat Abhiyan (SBA), grassroots leaders like sarpanches, especially women, are playing an increasingly pivotal role in accelerating progress. Since the launch of the programme in October 2014, sanitation coverage in India has gone up from 42% to 62%, the number of people defecating in the open in rural India has come down from about 550 million to about 350 million, with 175,000 villages, 120 districts and three states becoming open defecation-free (ODF). SBA is now well on track to achieve an ODF India by October 2, 2019.

Unlike earlier sanitation programmes, SBA is not a toilet construction programme but a behaviour change mass movement. It is relatively easy to build a road, bridge or an airport. But trying to change human behaviour is complex. The sheer scale of the operation makes it a gargantuan task. While mass-media campaigns are useful, the real key to bringing about behaviour change on the ground is to have grassroots-level trained and incentivised motivators using interpersonal communication with villages and households to ‘trigger’ demand for toilets and cleanliness.States and districts across the country are rapidly increasing the number of motivators. But this has to be accelerated further. The plan is to have over 500,000 ‘boots on the ground’, on an average, one per village across the nation. In addition to making the SBA a people’s movement, it is also critical to demystify toilet technology and practices.

The most ‘appropriate’ technology for rural areas, in terms of cost, sustainability and reuse, is the twin-pit model. While this model is the predominant one in rural India, and is effective in most contexts, more efforts and marketing are needed to persuade rural households to adopt it.Emptying one (while it is closed) of the two toilet pits by the householder himself is also a simple, safe and environmentally friendly task, with the organic compost generated ideal for agricultural purposes. The more frequently senior officials and public personalities empty toilet pits themselves as examples to others, the more rural households will be persuaded to do it themselves and the faster will be the adoption of the twin-pit technology.

Beyond behaviour change and appropriate technology practices, it is also crucial that swachhta, or cleanliness, becomes ‘everyone’s business’. To this end, all sectors, including the private sector, are increasingly getting involved to mainstream sanitation into their core work. The private sector is stepping up to the plate. One example of whichis the Tata Trusts volunteering to recruit and finance 600 young professionals, one for each district in India, to support collectors in accelerating SBA.

In the public sector, in addition to organising ‘Swachhata Pakhwara’ (cleanliness fortnight), each central ministry has prepared a Swachhata Action Plan (SAP), including a budget line, which will integrate sanitation in their main line of business. An estimatedRs 5,000 crore have been earmarked for Swachhata-related activities by all ministries in 2017-18.Cleaning up of iconic places, such as the Golden Temple in Punjab and Tirupati Temple in Tamil Nadu, and bringing them to international standards of public hygiene and of the gram panchayats along the Ganga are other examples of Swachhata being mainstreamed in other sectors and spaces.

Finally, one of the most crucial elements of the SBA is the verification and sustaining of results. This is especially important for the programme’s credibility. Currently, a multi-tier process is being followed with district-level, statelevel and national-level third-party verification being carried out. These efforts will need to be strengthened and mainstreamed in the days ahead.In addition, the sustaining of ODF is also crucial since its achievement is not conceived of as a one-off exercise, unlike earlier government programmes. Achieving ODF status is one thing, but sustaining it through creation of local mechanisms and incentives is another. A sustainability protocol has been developed by the ministry of drinking water and sanitation together with the states, and this needs to be effectively implemented. The ministry too has a robust management information system, which tracks progress down to the individual household level.

At the halfway mark, the SBA is making good progress, but the teams, both at the Centre and in states, are conscious that there is a long and challenging road ahead. Under the leadership of Prime Minister Narendra Modi, the near-unanimous support of political leaders across states, civil servants and, most importantly, the leadership of grassroots-level leaders like sarpanches, especially women, there is now a quiet confidence across the country that the Jan Andolan will succeed.


Date:30-03-17

Sane lawmaking; now to make it work

In an instance of rare non-partisan lawmaking, Parliament passed the Mental Healthcare Bill protecting the rights of persons with mental illness, and providing access to mental healthcare. The legislation also decriminalises suicide, recognising that attempts at taking one’s life are usually rooted in mental illness.

The law makes it clear that mental illness is an illness, not an abnormality that detracts from their integral worth. Patient consent and confidentiality, access to medical records, the advance right to determine the course of treatment during a mental health situation, and the right to nominate a representative are enshrined in the law. It provides protection against discrimination, the right to equality of treatment, a say in the course of their treatment, and from inhuman and degrading treatment such as forced sterilisation, confinement and chaining, free legal services, and the right to complain of deficient care. The Bill makes insurance cover mental illness. This is welcome, but it needs to be ensured that insurers do not deny the mentally ill coverage for physical illnesses.Much has been said about the rights-based approach of the Mental Healthcare Bill. What is central to persons with mental illness and their families is the ability to access professional, affordable and quality treatment. Implementation of this law is likely to be hampered by the acute shortage of mental health professionals. Rough estimates suggest that 2.5 crore to 6.25 crore persons suffer from mental illness. India has 4,000 trained psychiatrists, against a conservative requirement of 12,500. Psychiatric nurses number 3,000, and clinical psychologists, 2,000. The government must now take the necessary measures to ensure that the legislation is implemented.


Date:30-03-17

अदालतों में कैमरे लगने से आएगी न्यायिक पारदर्शिता

 सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने हर राज्य के दो जिलों की अदालतों में आॅडियो रिकॉर्डर रहित सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश देकर न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में ऐतिहासिक कदम बढ़ाया है। न्यायपालिका से यह अपेक्षा आम जनता भी कर रही थी और सरकार भी। हालांकि, निर्णय एक जनहित याचिका के आधार पर हुआ है लेकिन, इसके लिए 2013 से देश के कानून मंत्री सर्वोच्च न्यायिक अधिकारियों को लिख रहे हैं। ऐसा करने के लिए विधि आयोग ने भी सुझाव दिए थे। न्यायपालिका की यही आपत्ति थी कि अदालत को फैसला लेने से पहले व्यापक मशविरा करना पड़ता है, इसलिए न्यायालय को एक हद तक गोपनीयता की जरूरत होती है। लेकिन, पारदर्शिता और कुशल प्रबंधन के इस दौर में न तो कोई सार्वजनिक संस्था अपने कपाट बंद करके रख सकती है और न ही उसे रखना चाहिए। लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपनी कार्यवाही रिकॉर्ड पर लानी चाहिए और उच्च अधिकारियों तक उसकी प्रामाणिक पहुंच होनी चाहिए। सीसीटीवी लगाए जाने से न्यायालय की साख निश्चित तौर पर बढ़ेगी। न्यायपालिका पर जिस अकुशलता और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जाता है उसके तमाम कारण हैं। उनमें से एक प्रमुख कारण अदालतों में न्यायिक अधिकारियों की कमी है। इसके अलावा न्यायिक प्रशासन का वह तंत्र भी कम दोषी नहीं है जिसमें पुलिस, अर्दली, पेशकार और वकील से लेकर मजिस्ट्रेट तक कई बार न्याय के लिए काम करने की बजाय निहित स्वार्थ के लिए काम करते हैं। वह तंत्र न्याय देने में बिलंब तो करता ही है और न्यायिक निष्पक्षता के साथ समझौते भी करता है। न्यायपालिका की साख कायम करने के लिए जजों की संपत्तियों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने संबंधी दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत स्थगित चल रहा है। उस दिशा में भी सर्वोच्च अदालत को ध्यान देना चाहिए। फिलहाल आॅडियो रिकॉर्डर के बिना सीसीटीवी कैमरा लगाए जाने का आदेश एक आधा-अधूरा फैसला है। आदर्श स्थिति तो तब बनेगी जब अदालतें अपनी कार्यवाही को उसी तरह प्रसारित करें जिस तरह से लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही प्रसारित होती है, भले ही उसमें न्यायालय अपने विशेषाधिकार के तहत चुनिंदा कार्यवाही ही दिखाए।

Date:30-03-17

दक्षिणपंथ के उभार से संजीवनी की कोशिश में ‘उदार’ मीडिया

क्या डॉनल्ड ट्रंप और उनकी दक्षिणपंथी सोच ने दुनिया भर में उस नुकसान की भरपाई कर दी है जो इंटरनेट के चलते समाचार मीडिया को उठाना पड़ा था? रिपोर्ट के मुताबिक सीएनएन को वर्ष 2016 में एक सामान्य चुनाव वर्ष की तुलना में 10 करोड़ डॉलर अधिक कमाई होने का अनुमान है। गत वर्ष की अंतिम तिमाही में न्यूयॉर्क टाइम्स के डिजिटल उपभोक्ताओं की संख्या भी 276,000 की बढ़ोतरी के साथ 18.5 लाख तक पहुंच गई। यह 2013 और 2014 के संयुक्त आंकड़ों से भी अधिक है। न्यूयॉर्क टाइम्स के 2011 में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जाने के बाद से यह उसकी सबसे अच्छी तिमाही रही है। अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में भी ऐसा ही रुझान दिख रहा है। दर्शकों-पाठकों की घटती संख्या और राजस्व में कमी से परेशान समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और केबल नेटवर्क के लिए दक्षिणपंथी भावनाओं का उभार किसी अच्छी खबर की तरह सामने आया है।
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के जॉन नॉटन इंटरनेट के विकास और समाज पर उसके प्रभाव के बारे में गहरा अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने इस पर कई किताबें और शोधपत्र भी लिखे हैं। नॉटन कहते हैं, ‘मैं उदार शब्द के इस्तेमाल को लेकर थोड़ा सशंकित हूं। अमेरिका में आज उदार कहे जा रहे अधिकांश समाचार संगठनों ने इराक युद्ध का समर्थन किया था। मेरा मानना है कि दक्षिणपंथी लोकप्रियतावाद के उभार से कुछ समय मुख्यधारा मीडिया को अस्थायी लाभ मिलेगा लेकिन दीर्घकालिक तौर पर इसकी गिरावट शायद जारी रहेगी।’
लंदन की सिटी यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के प्रोफेसर जॉर्ज ब्रॉक भी इस राय से सहमत हैं। वह कहते हैं, ‘अमेरिका और यूरोप में राजनीतिक झंझावातों से भरे साल ने कुछ स्थानों पर न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे कुछ उदार मीडिया संगठनों को लाभ पहुंचाया है। लेकिन इस प्रवृत्ति का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है। मेरा मानना है कि यह एक अस्थायी दौर है। दरअसल जब भी कुछ ऐसा घटित होता है जिसके बारे में कभी सोचा न गया हो तो लोग उसके बारे में अधिक जानकारी के लिए उदार दिखने वाले प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों की ओर रुख करते हैं।’
पिछले साल नॉटन ने द गॉर्डियन में प्रकाशित एक लेख में लोकतांत्रिक राजनीति पर इंटरनेट के प्रभाव की पड़ताल की थी। उसमें नॉटन ने कहा था कि इंटरनेट का लोकतांत्रिक राजनीति पर शुरुआती असर बराक ओबामा के चुनाव अभियान में लाखों लोगों से चंदा जुटाने और मतदाताओं को लामबंद करने के दौरान देखा गया था। अरब देशों में तानाशाही सरकारों के खिलाफ लोगों के गुस्से को आवाज देने में भी इंटरनेट की अहम भूमिका रही। नॉटन अपनी किताब ‘पॉलिटिकल टब्र्युलेंस: हाऊ सोशल मीडिया शेप कलेक्टिव ऐक्शन’ की सह-लेखिका और ऑक्सफर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट की प्रोफेसर हेलेन मार्गेट्स के विचारों का भी हवाला देते हैं। मार्गेट्स का कहना है कि इंटरनेट के आने से राजनीतिक गतिविधियों से जुडऩे की लागत काफी कम हो गई है जिससे एक नई तरह की हुड़दंगी और अप्रत्याशित राजनीति का आविर्भाव हुआ है। ट्रंप ने इस हुड़दंग का फायदा उठाने के लिए इंटरनेट को ‘उत्तर-सत्य राजनीति’ का सशक्त माध्यम बना दिया है।
जहां तक भारत का सवाल है तो यहां पर इंटरनेट बिना किसी प्रस्तावना के अचानक ही हुड़दंगी राजनीति की तरफ बढ़ चला है। अब भारत में किसी व्यक्ति के बारे में झूठ प्रचारित-प्रसारित करने या किसी को बलात्कार और हिंसा की धमकी देने के पहले लोग ज्यादा विचार नहीं करते हैं। भारत के राजनीतिक दलों के लिए इंटरनेट कारगर और खतरनाक हथियार बन चुका है। अगर आपको यह पता करना हो कि सत्तारूढ़ दल किस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल कवच की तरह कर रहा है तो स्वाति चतुर्वेदी की किताब ‘आई एम ए ट्रोल’ पर एक नजर डाल लीजिए। लेकिन भारत के संदर्भ में एक रोचक पहलू यह है कि ऐसी राजनीति के उभार के बावजूद भारत में मीडिया कारोबार पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। समाचारपत्र, टेलीविजन या इंटरनेट माध्यमों के विकास के आंकड़े पहले जैसे ही हैं। हालांकि इसने बहस को पहले से अधिक ध्रुवीकृत कर दिया है जिससे ड्राइंग रूम और टीवी स्टूडियो में एक तरह की विद्रूपता आ गई है।
लेकिन इस विद्रूपता के खिलाफ उदार मीडिया को सशक्त करने का काम केवल उन्हीं देशों में हुआ है जहां पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने वाले सशक्त संस्थागत आधार मौजूद हैं। अमेरिका के अलावा यूरोप के भी कुछ देशों के लिए यह बात कही जा सकती है। लिहाजा मुख्यधारा के मीडिया को ‘विपक्ष’ की तरह देखने वाला राष्ट्रपति होने के बावजूद अमेरिका का मीडिया काफी हद तक अपना काम बिना किसी भय के करता है। आप अमेरिकी चैनलों पर जॉन ओलिवर या स्टीफन कोल्बर्ट के शो देखेंगे तो वे ट्रंप का मजाक उड़ाते हुए नजर आ जाएंगे। वैसे एक भारतीय पत्रकार के तौर पर शायद आपको अचरज होगा कि इतना कुछ करने के बावजूद इनमें से किसी के खिलाफ आयकर विभाग का कोई छापा क्यों नहीं पड़ा या प्रवर्तन निदेशालय ने कोई नोटिस क्यों नहीं भेजा या फिर इन लोगों पर राष्ट्रवाद-विरोधी होने के आरोप क्यों नहीं लगे हैं? या तो आप उनकी तरह काम कीजिए या फिर सरकार के नजरिये के मुताबिक खुद को सेंसर कर लीजिए। भारतीय मीडिया का एक हिस्सा उसी रवैये पर चल रहा है।
पश्चिमी देशों के मीडिया के बारे में ब्रॉक कहते हैं, ‘प्रसार में बढ़ोतरी उन्हीं देशों में देखने को मिल रही है जहां सरकार की तरफ से नकेल कसने का खतरा काफी कम है। लेकिन अगर यूरो धराशायी हो जाता है, शरणार्थी समस्या गंभीर होती जाती है और आतंकी हमले आगे भी जारी रहते हैं तो राजनीतिक परिदृश्य भी बदलेगा। उस समय तुर्की की तरह तानाशाही प्रवृत्ति वाली सरकारें नापसंदगी के आधार पर काम कर सकती हैं। दरअसल तानाशाही व्यवस्था उदार पत्रकारिता को पसंद नहीं करती है।’ ऐसा लगता है कि पश्चिमी देशों के मीडिया के प्रसार में बढ़ोतरी केवल तात्कालिक ही है।


Date:30-03-17

बुनियादी ढांचा क्षेत्र के समक्ष दोहरी समस्या

बुनियादी ढांचा क्षेत्र अभी भी दोहरी बैलेंस शीट की समस्या का शिकार है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं विनायक चटर्जी

देश में फंसे हुए कर्ज की समस्या ने लगातार नीति निर्माताओं की रातों की नींद उड़ा रखी है। आर्थिक समीक्षा में इस पर एक व्यापक दृष्टिडाली गई और एक हल का प्रस्ताव भी रखा गया। आर्थिक समीक्षा में दोहरी बैलेंस शीट के मुद्दे को हल करने के लिए एक पूरा खंड समर्पित है। दोहरी बैलेंस शीट की समस्या से तात्पर्य भारी भरकम फंसे हुए कर्ज और घाटे में चल रही बैलेंस शीट के चलते कारोबारियों की खस्ताहाल बैलेंस शीट से है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह देश के वित्तीय क्षेत्र के समक्ष मौजूद सबसे गहरी समस्याओं में से एक है। फंसे हुए कर्ज के बारे में अनुमान है कि अब यह करीब 191 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। यानी सकल घरेलू उत्पाद के 8 फीसदी से अधिक। वर्ष 2013 के बाद से यह आंकड़ा दोगुना हो चुका है।

फंसे हुए कर्ज का 13 फीसदी बुनियादी ढांचा क्षेत्र से ताल्लुक रखता है। इसका अर्थ यह हुआ कि बैंक अब बुनियादी ढांचा क्षेत्र की परियोजनाओं और कंपनियों को नया ऋण देने की कतई मंशा नहीं रखते। हाल की ऐसी घटनाएं जिनमें आईडीबीआई के पूर्व चेयरमैन की गिरफ्तारी भी शामिल है, ने इस अनिच्छा को और अधिक बढ़ाया है। ऐसे में निजी क्षेत्र की सहभागिता और परिणामस्वरूप निवेश आधारित वृद्घि और रोजगार निर्माण, दोनों की गति धीमी बनी हुई है। इस बीच बैंक जहां समस्या को हल करने की कोशिश में लगे हैं, वहीं परियोजना परिसंपत्तियां लगातार जोखिम की शिकार बनी हुई हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक ने इस समस्या से निपटने के लिए जो पहल की हैं उनको भी बहुत सीमित सफलता ही मिल सकी है। ऋण की अवधि को 25 साल तक बढ़ाने और हर पांच वर्ष में बदलने, स्ट्रैटजिक डेट रिकंस्ट्रक्शन (एसडीआर) और तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के स्थायित्व भरे पुनर्गठन (एस4ए) जैसी योजनाएं कोई बड़ा असर नहीं छोड़ सकी हैं। निजी क्षेत्र की परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों (एआरसी) की ओर से भी कोई अपेक्षित मदद नहीं मिली है। निजी क्षेत्र की ऐसी कंपनियों को फंसे हुए कर्ज से निपटने का विशेषज्ञ माना जाता था। जिन जगहों पर बैंक नाकाम हो जाते थे वहां भी ये सफल हो सकती थीं। लेकिन बैंक ऐसी एआरसी को बिक्री करने के इच्छुक नहीं रहे हैं। वर्ष 2014 में इन एआरसी को बिक्री में काफी धीमापन आया क्योंकि नए नियमों के तहत उनको परिसंपत्तियों की खरीद मूल्य का कहीं अधिक बड़ा हिस्सा अब नकद रूप में चुकाना पड़ रहा था। इसके अलावा निजी क्षेत्र की एआरसी अक्सर पर्याप्त पूंजी वाली नहीं होतीं। इससे उनकी जोखिम लेने की क्षमता प्रभावित होती है। इसके अलावा उनके पास अपने स्तर पर इन मामलों की बहुआयामीय जटिलताओं से निपटने का अनुभव नहीं होता और न ही क्षमता होती है।

आर्थिक समीक्षा एक अलग रुख अपनाती नजर आती है। इसमें सरकार की भूमि के विस्तार का प्रस्ताव रखा गया है। साथ ही एक केंद्रीकृत सरकारी परिसंपत्ति पुनर्वास एजेंसी (पीएआरए) की आवश्यकता भी जताई गई है जो भारी भरकम फंसी हुई परिसंपत्तियों को खरीदेगी। ऐसा एक सरकारी संस्थान संबंधित समस्याओं को हल करने में मददगार साबित हो सकता है। उदाहरण के लिए एक खास तरह की परिसंपत्ति के कारण जोखिम वाली संपत्ति में निवेश कर चुके विभिन्न बैंकों से संपर्क करना एक अलग तरह की समस्या है। जबकि ऋण का पुनर्गठन करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। ऐसा करने से से ऋण एक एजेंसी के पास केंद्रीकृत हो जाता है। इसके अतिरिक्त सरकारी क्षेत्र की कंपनियों से यह भी कहा जा सकता है कि वे अस्थायी तौर पर ऐसी परिसंपत्तियां सामने लाएं। ऐसा करने से संस्थागत विदेशी निवेशकों की विनिर्मित परिसंपत्तियां खरीदने की मांग को पूरा किया जा सकता है। इस दौरान राष्टï्रीय निवेश एवं बुनियादी कोष (एनआईआईएफ) को इस प्रक्रिया को सुसंगत बनाने वाली एजेंसी के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

पीएआरए के लिए पूरी पूंजी सरकार से आएगी ऐसी भी उम्मीद नहीं है। सुझाव दिया गया है कि इसे निजी क्षेत्र की बहुसंख्यक हिस्सेदारी के साथ 49:51 के अनुपात में तैयार किया जा सकता है। अहम बात है यह सुनिश्चित करना कि इस संस्था को एनआईआईएफ की तरह सरकार का अहम समर्थन हासिल हो।
राजनैतिक प्रतिष्ठन बहुत अधिक मेलजोल से बचना चाह रहा है और इसे समझा जा सकता है क्योंकि सांठगांठ और सूटबूट की सरकार जैसे आरोप झट लग जाते हैं। लेकिन 80 फीसदी से अधिक लंबी अवधि से अटके फंड सरकारी ऋण या इक्विटी मार्केट से संबंधित हैं यानी सरकारी है। ऐसी बुनियादी परिसंपत्तियां सरकारी आर्थिक परिसंपत्तियां हैं। यही वजह है कि किसी भी सरकार का यह दायित्व होता है कि वह उनके लिए अच्छी कार्य परिस्थितियां सुनिश्चित करे। आरबीआई के मानकों के अधीन ऋण पर विलंबित भुगतान से भी इसी तरह निपटा जाता है।
इतना ही नहीं जिस प्रक्रिया से पीएआरए एक संकटग्रस्त बुनियादी परिसंपत्ति को अधिग्रहीत कर सकती है उसे पारदर्शी बनाया जा सकता है। इसके अलावा उसे सुस्पष्ट करते हुए उसकी निगरानी का काम एक स्वतंत्र समिति को सौंपा जा सकता है। ऐसी परिसंपत्तियां जिस मूल्य पर अधिग्रहीत की जाती हैं उसका निर्धारण करने का काम ऐसी ही समिति को दिया जाना चाहिए। इससे सरकार के ऊपर जानबूझकर बेलआउट करने का आरोप भी नहीं लगेगा। इसके अलावा अगर प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी हुई तो कोई भी परिसंपत्ति और कोई भी मूल्य जिस पर उनको पीएआरए को बेचा जाएगा वह किसी भी तरह की जांच या सतर्कता एजेंसियों की निगाह से भी बची रहेगी।  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो सरकार का आम रुख यही होता है कि वह बड़े पैमाने पर काम कर रहे निजी उद्यमों को सफलतापूर्वक उबार लेती है। अमेरिका में ऋण संकट के बाद सरकार ने खुद बड़े पैमाने पर फंड देकर ऐसी कंपनियों को बचाया। एआईजी का उदाहरण हमारे सामने है जहां अमेरिकी सरकार ने अपनी हिस्सेदारी कम की और शेयर हिस्सेदारी बेचकर मुनाफा कमाया। पूरे विश्लेषण का लब्बोलुआब यह है कि भारत के फंसे हुए कर्ज की समस्या पूरी तरह वित्तीय समस्या नहीं है। यह राष्ट्रीय आर्थिक समस्या है और इसके लिए राजनीतिक हल के साथ-साथ सरकार की प्रतिबद्घता की भी आवश्यकता है कि वह राष्ट्रीय परिसंपत्तियों के हित में खड़ी रहे।


Date:29-03-17

Plug the leaks

Supreme Court widens the ambit of Aadhaar, but concerns about data security remain.

 While the Supreme Court had earlier directed that no one should be denied state benefits for lack of Aadhaar, which is a voluntary identity document, Chief Justice of India J.S. Khehar has observed that the government can insist on Aadhaar if benefit is not anticipated. In his example, Aadhaar can be mandatory for opening a bank account but not for receiving pension into it. Aadhaar can now be made mandatory for all financial transactions, including taxes, property transactions and investments, in the government’s efforts to contain black money. This brings clarity on a contentious issue and the government can now go ahead and make Aadhaar the axis of the financial system.

The issue of privacy, at the heart of the Aadhaar controversy, remains unaddressed, for now. The apex court is disinterested in clubbing the multiple PILs challenging Aadhaar, or fast-tracking the process on the prosecution’s plea that the government is imposing deadlines for Aadhaar compliance on various fronts. The court believes that interim orders will solve nothing, and that disposal of the case by a seven-judge bench is the outcome to be sought. The delay implicit in setting aside a large number of judges is the cost that must be borne.

The privacy issues bedeviling Aadhaar have been widely discussed, to the extent that perhaps it would be useful to reduce them to the bare essentials. Aadhaar consists of a biometric database over which, legally, only a single query is permitted to run. It asks, “Is this person who he or she claims to be?” By itself, this is an innocuous validation and does not involve the violation of privacy. But when the database is connected to other data sets such as financials, medical records or employment histories, privacy concerns can arise. Altering the design of the database and the queries allowed to run on it would have the same effect, and the security of data in transmission can be insecure. When such concerns were first raised, the government had offered technical assurances — its data is stored in unbreakable silos. However, data must be secured by law, apart from technology. Simple questions need to be addressed. Who is authorised to collect, store and transmit data? Who can edit queries or redesign the database, or make connections to it? What penalties would a breach attract? Such issues should not be addressed by multiple legislation, as they are now, by the IT Act of 2000 and the rules of 2011. For general acceptance, Aadhaar must be secured by a single, unified data protection law with exemplary penalties, as in the European Union.


Date:29-03-17

कैसे हो वन्य जीवन का संरक्षण

जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा करराष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बगैर, वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है।

आदिवासी का पूरा अस्तित्व ही जल-जंगल-जमीन पर आधारित होता है, अत: वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वहां से आदिवासियों को बलात निष्कासित करने का अर्थ होता है उनके अस्तित्व के सामने प्रश्नचिह्न खड़ा कर देना। ऐसे में अगर ये खदेड़े गए आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अपने परंपरागत अधिकारों का दावा करते हुए सरकार की नजरों में अनधिकार हस्तक्षेप करते हैं, तो उन्हें वन्यजीवों और वन्य पशुओं का शत्रु घोषित कर दिया जाता है। उनकी प्रतिरोधी आवाजों को कुचलने के लिए राष्ट्र-राज्य पिछले कुछ समय से वनरक्षकों और सुरक्षा एजेंसियों को तमाम न्याय से ऊपर उठ कर विशिष्ट ताकत और अधिकार देने की पहल करता रहा है। आजादी के बाद भी विदेशी सत्ता द्वारा स्थापित आदिवासी विरोधी वन कानून बदस्तूर जारी हैं। आदिवासी आज भी वन रक्षकों और पुलिसवालों के उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। प्रामाणिकता का बहाना करके ऐसी खबरों को दबा दिया जाता है।

पर कहा गया है कि हत्या छिपती नहीं है। बीबीसी के दक्षिण एशिया संवाददाता जस्टिन रौलट ने प्रतिबद्ध पत्रकारिता का नमूना पेश करते हुए काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्रों में एक सींग वाले भारतीय गैंडे के संरक्षण की आड़ में होने वाली आदिवासियों की हत्याओं पर से पर्दा उठाते हुए एक दस्तावेजी फिल्म बनाई है- ‘वन वर्ल्ड: किलिंग फॉर कंजर्वेशन’ (संरक्षण के नाम पर हत्या)। यह दस्तावेजी फिल्म दावा करती है कि भारत के संरक्षित वन्य क्षेत्रों में चोरी-छिपे तरीके से वन संरक्षकों और अन्य कर्मचारियों को नियमों से बाहर जाकर विशिष्ट पुलिसिया अधिकार दिया गया है कि वे वन्य पशुओं के शिकार और तस्करी रोकने के लिए आवश्यकता पड़ने पर वहां के स्थानीय आदिवासियों और ग्रामीणों को देखते ही गोली मार सकते हैं। इसमें यह भी दिखाया गया है कि कैसे वन संरक्षकों को गश्त के दौरान क्रूरता बरतने और घात लगा कर हमला बोलने का प्रशिक्षण दिया गया है। पूर्णत: संरक्षित घोषित किए जा चुके एक दांत वाले भारतीय गैंडे को शिकारियों से बचाने के लिए यह सारा कार्यक्रम गुपचुप ढंग से चलाया जा रहा है।

फिल्म में दिखाई गई क्रूर सच्चाई को पचा पाना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस दस्तावेजी फिल्म में प्रस्तुत आदिवासियों की हत्याओं को नकारने में देर नहीं लगाई। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के अनुरोध पर केंद्र सरकार द्वारा भी इस साहसिक पत्रकारिता के लिए बीबीसी को नोटिस थमा दिया गया है कि देश में शेरों के लिए संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अगले पांच साल तक बीबीसी किसी प्रकार की शूटिंग नहीं कर पाएगी। मंत्रालय और केंद्र सरकार को बीबीसी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने की जगह पहले यह स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या मजम कोरबेट और काजीरंगा में वन रक्षकों को वहां के आदिवासियों को देखते ही गोली मार देने का कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आदेश दिया गया था या नहीं।

वन्य जीवों और वन्य उत्पादों के गैर-कानूनी व्यापार पर नियंत्रण लगाने के लिए सरकार को इस व्यापार के कर्ताधर्ता ठेकेदारों, व्यापारियों और राजनीतिकों पर हाथ डालना चाहिए। अगर कोई आदिवासी इस गैर-कानूनी शिकार और तस्करी में संलग्न भी है तब भी हमें यह समझना होगा कि वह असल में परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। संरक्षित वन्य क्षेत्र के नाम पर अपने पुरखों के जंगलों, खेतों और घरों से विस्थापित किए गए आदिवासियों और स्थानीय ग्रामीणों को उनकी क्षमता, रुचि और सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप वैकल्पिक रोजगार और पुनर्वास उपलब्ध कराए बगैर वनों और वन्य जीवों का संरक्षण नहीं किया जा सकता।

जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा करराष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बिना वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है। आदिवासी के जीवन की कीमत पर शहरों के मुट्ठीभर अमीर लोगों की सैरगाह के रूप में जनशून्य संरक्षित वन क्षेत्रों के विकास को अमानवीयता ही कहा जाएगा। इस सरंक्षण का मूल उद््देश्य प्रभु वर्ग के आमोद-प्रमोद और सैर-सपाटे को सुनिश्चित करना होता है, जबकि इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले पर्यटकों से राज्य को राजस्व की प्राप्ति हो रही हो।वन्यजीवों के शिकार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी तस्करी का एक उच्चस्तरीय जटिल तंत्र है। इसमें आदिवासी तो मात्र मोहरा मात्र होते हैं क्योंकि अपने जल-जंगल-जमीन से निष्कासित कर दिया गया आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा में सही-गलत, कुछ तो करेगा ही। जंगल और जंगली जीव-जंतुओं के उसके परंपरागत ज्ञान और समझ का दुरुपयोग करने को तैयार बैठे हुए अवैध शिकारियों और तस्करों पर नकेल न कस कर आदिवासी को बलि का बकरा बना वन रक्षक और उनके अफसर अपनी पीठ भले थपथपा लें, पर इससे संरक्षित वन्य प्राणियों का शिकार नहीं रुक सकता।

काजीरंगा जैसे संरक्षित राष्ट्रीय उद्यानों में नियमित गश्त और निगरानी जैसी तमाम कवायदों के बावजूद न गैंडों का शिकार बंद किया जा सका है और न इस कवायद में जाने-अनजाने होने वाली आदिवासियों की हत्याओं का सिलसिला ही थमा है। लेकिन इस समस्या का एक और पहलू उन वन रक्षकों से भी संबद्ध है जो शिकारियों और तस्करों के हाथों मारे जाते हैं। जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में बिना किसी खास सुरक्षा संसाधनों के वन रक्षकों को काम करना पड़ता है, अवैध शिकार और गैर-कानूनी खनन तथा वृक्षों की कटाई को रोकने का जो दबाव इनके ऊपर तलवार की तरह लटका रहता है, उसे भी हमें समझना होगा।

वनों और वन्यजीवों के संरक्षण तथा आसपास के आदिवासी-ग्रामीण अधिवासों के बीच के द्वंद्व में फंसे इन वन रक्षकों पर सामान्य सुरक्षा कर्मियों की अपेक्षा काम का भारी बोझ होता है। उन्हें आग व बाढ़ जैसी स्थितियों के बीच वृक्षारोपण से लेकर जंगल और जंगल के प्राणियों की रक्षा तक का सारा कार्य करना होता है और ऊपर से साथी वनकर्मियों के खाली पड़े पदों से लेकर संसाधनों और सुविधाओं की कमी से भी जूझना होता है। घातक आग्नेय हथियारों से लैस शिकारियों और तस्करों से निपटने के लिए इनके पास होती है बाबा आदम के जमाने की लाठी-बंदूक। तमाम कर्तव्यनिष्ठा और त्याग-बलिदान के बाद भी त्रासदी यह कि राष्ट्र के प्रति इनकी सेवा और कुर्बानी को समाज कभी संज्ञान में ही नहीं लाता।

स्पष्ट है कि संरक्षित वन क्षेत्रों में अगर जीव-जंतुओं और पड़-पौधों को बचाने के प्रति वास्तव में आप गंभीर हैं, तो आपको आदिवासियों के परंपरागत वन्य अधिकारों के प्रति आपको संवेदनशील होना होगा ताकि अपने पेट की भूख से मजबूर हो कहीं वे शिकारियों और तस्करों के जाल में न फंस जाएं। दूसरी ओर, वन रक्षकों के सामने मौजूद बहुआयामी चुनौतियों को देखते हुए उनके कार्यभार को कम करना होगा। उनकी जिम्मेदारियों में हाथ बंटाने के लिए अन्य सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग लेना होगा। इस प्रकार की नीतियां और कार्यक्रम बनाने होंगे कि संरक्षित वन क्षेत्र आसपास की आदिवासी-ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ एक संवाद कायम कर सकें। ग्रामीण विकास के समावेशी सहभागिता वाले मॉडल पर चलते हुए अड़ोस-पड़ोस के लोगों को विश्वास में लेकर उनकी आवश्यकताओं और उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए वन और वन्य जीवों के संरक्षण की कार्य-योजना बनानी होगी। जनशून्य संरक्षित क्षेत्र का पाश्चात्य मॉडल हमारे यहां की परिस्थितियों को देखते हुए बिल्कुल अप्रासंगिक है।


Date:29-03-17

Unique distinction

SC’s clarification on Aadhaar gives space for reforms

The SC’s clarification on the use of Aadhaar gives the government space for key reforms

The Supreme Court’s oral observations on Monday regarding the use of Aadhaar numbers by the government are significant, for they alter the narrative and potential scope of the ambitious unique identification programme. While reiterating its position that no beneficiary of a welfare scheme shall be denied benefits due to her for want of an Aadhaar number, a Bench led by Chief Justice J.S. Khehar said the government is free to “press” for Aadhaar for ‘non-welfare’ transactions or activities. These include filing income tax returns, opening bank accounts or getting a mobile phone connection. This assumes significance as the government announced two such changes over the past week itself. First, it included amendments to the Finance Bill of 2017, now approved by the Lok Sabha, making Aadhaar mandatory for all applications for PAN (Permanent Account Number) cards and filing of income tax returns. Earlier, following the surge in bank deposits after the demonetisation of high-value currency notes, the Income Tax Department had already asked banks to ensure that all savings bank accounts are seeded with PAN details by the end of February. The only exemptions to this norm are the no-frills savings accounts such as those opened under the Pradhan Mantri Jan Dhan Yojana. Effectively, this means that all other new savings bank accounts will require an Aadhaar number. And last week the Department of Telecommunications directed all telecom service providers to re-verify the credentials of their nearly 100 crore subscribers through an Aadhaar-based, electronically authenticated Know Your Customer process within a year.

While the Supreme Court’s observations do not amount to a judicial order, they dispel some of the ambiguity relating to the scope, even future, of Aadhaar. In its interim order in October 2015 the court made it clear that the Aadhaar scheme cannot be made mandatory till the matter is finally decided “one way or the other”. But it has set the stage for the 12-digit Unique Identification (UID) numbers being used as the basic identity proof for all residents. As Finance Minister Arun Jaitley has pointed out, biometrics captured under the Aadhaar enrolment process will ensure no individual can hold more than one PAN card to evade tax dues. Those concerned about privacy may be right about the need for an effective law to ensure that private data aren’t misused. But tagging this concern solely to the UID programme is short-sighted. In an age where data are stored in electronic form, it is possible to collate vast amounts of information from various databases ranging from applications for passports, driving licences, ration cards, and more. The apex court is yet to decide on whether Aadhaar violates the right to privacy. Meanwhile, savings from weeding out ghost beneficiaries have begun to pay off the investment on building the now 111-crore strong Aadhaar database. But the Centre must not stretch the leeway granted by the court


Date:29-03-17

मोदी की इजरायल यात्रा का अर्थ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल जब इजरायल जाएंगे, तो यह दो वजहों से काफी अहम घटना होगी: अव्वल तो यही कि किसी भी भारतीय शासनाध्यक्ष की वह पहली इजरायल यात्रा होगी, और दूसरी यह कि इस दौरे को लेकर इक्का-दुक्का देशों को छोड़, अरब दुनिया की त्योरियां भी नहीं चढ़ेंगी। हालांकि, प्रधानमंत्री के दौरे की तारीख का अभी एलान नहीं हुआ है, मगर यह साफ है कि यह यात्रा अगले कुछ हफ्तों के भीतर यानी इन्हीं गरमियों में होने जा रही है। फिर भी, किसी अरब मुल्क ने अब तक इस पर अपना ऐतराज नहीं जताया है, न तो सार्वजनिक रूप से और न ही पिछले दरवाजे से।

यह बात मुझ जैसे उन तमाम लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं, जो भारत में 1970 और 80 के दशक में बड़े हुए हैं। तब नई दिल्ली को लगभग रोजाना ही इजरायल को कोसने के लिए अरब दुनिया के सुर में सुर मिलाना पड़ता था। भारत को ऐसा इसलिए करना पड़ता था, क्योंकि इसको अरब मुल्कों से तेल चाहिए था; या तब अरब के कई देश दिशाहीन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्य थे; या फिर यहूदी इजरायल अमेरिका की सरपरस्ती में था, जबकि भारत तत्कालीन सोवियत संघ के करीब था; या इसलिए भी कि दुनिया के अनेक देश वाकई फलस्तीन के साथ हमदर्दी रखते थे। यही कारण था कि एक के बाद दूसरी कई भारत सरकारों ने इजरायल से कूटनीतिक रिश्तेदारी से परहेज बरता।

अगर आपने तब मुझे कहा होता कि एक दिन कोई भारतीय प्रधानमंत्री इजरायल के आधिकारिक दौरे पर जाएगा, तो मैं आप पर ठठाकर हंस पड़ता। लेकिन वह संभावना अब कोई हैरानी की बात नहीं रही: दोनों देशों- भारत और इजरायल ने 1990 के दशक में ही एक-दूसरे के करीब आने की शुरुआत कर दी थी, और अब तो इनके आर्थिक, सैन्य और सुरक्षा हित काफी गहरे जुड़ चुके हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि अरब दुनिया में भारत के किसी दोस्त देश की तरफ से इसे लेकर फिलहाल कोई शिकायत सुनने को नहीं मिली है। इस संदर्भ में पश्चिम एशिया के राजनयिकों से जब हिन्दुस्तान टाइम्स के मेरे सहयोगियों ने बात की, तो उन्होंने मोदी के इजरायल दौरे को व्यावहारिक राजनीति का तकाजा बताते हुए बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी। एक ने यह हल्की उम्मीद भी जताई कि मोदी को फलस्तीनियों के साथ अपनी एकजुटता जताने के लिए ‘वेस्ट बैंक’ जाना चाहिए, लेकिन उन्होंने ऐसा होने पर संदेह भी जताया।

भारत और इजरायल के गहराते रिश्ते को लेकर अरब दुनिया की इस बेपरवाही की एक वजह यह स्वीकारोक्ति है कि इन दोनों देशों में बहुत बातें एक सी हैं। इस्लामी आतंकवाद के रूप में इनका दुश्मन भी साझा है। फिर अरब राजधानियों में फलस्तीन को लेकर एक थकान-सी पैदा होने लगी है, चाहे इस समस्या की दु:साध्य जटिलता इसकी वजह हो या फिर सीरिया के लोगों के प्रति बढ़ती हमदर्दी। इजरायल-भारत दोस्ती के प्रति अरब सरकारों की बेफिक्री का एक अन्य कारण यह भी है कि उनमें से अनेक अब खुद यहूदी मुल्क के साथ रिश्ता बनाना चाहते हैं। सऊदी अरब और बहरीन जैसे देश तो पिछले कुछ समय से बेहद खामोशी से इस प्रयास में जुटे हैं। जनवरी 2016 में, जबसे अमेरिका व दूसरी बड़ी शक्तियों ने ईरान के साथ एक परमाणु करार पर दस्तखत किए हैं, परदे के पीछे प्रधानमंत्री बेंजामिन ‘बीबी’ नेतन्याहू की हुकूमत के साथ अरब देशों का राफ्ता बढ़ा है।

अरब नेताओं को लगता है कि शिया ईरान उनके सुन्नी निजाम के लिए सबसे बड़ा खतरा है, और ईरान से इजरायल की पुरानी अदावत को देखते हुए उन्हें लगता है कि उनका और इजरायल का मकसद एक है। नेतन्याहू जब तेहरान की तीखी आलोचना करते हैं, तो अरब देशों में काफी सारे लोगों के कलेजे को ठंडक पहुंचती है।खासकर रियाद और मनामा में ऐसा दिखता है, जहां ईरान की तरफ से खतरे की आशंका को काफी शिद्दत से महसूस किया जाता है। सऊदी लोग इस बात को लेकर खौफजदा रहते हैं कि ईरान उसके पूर्वी इलाके में परेशानियां पैदा करेगा। दरअसल, इस इलाके में बड़ी शिया आबादी बसती है, और यहां की धरती के नीचे तेल के काफी बड़े भंडारभी हैं। ईरान की शह पर हौती लड़ाकों ने यमन के काफी बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया है, इससे डरे सऊदी अरब ने अपनी सदारत में एक सुन्नी अरब गठबंधन बनाया है, ताकि अरब प्रायद्वीप में किसी विपदा का वे मुकाबला कर सकें। हालांकि हौती सिर्फ नाम के लिए शिया हैं। इस बीच बहरीन के सुन्नी शासकों को भी ईरान का भय सताने लगा है, क्योंकि वे अपनी शिया बहुल आबादी का लगातार दमन करते रहे हैं।

सुन्नी देश लंबे समय तक ईरान से किसी खतरे के मुकाबले के लिए अमेरिका पर आश्रित थे, लेकिन ईरान के साथ हुए परमाणु करार ने सब गड्ड-मड्ड कर दिया। रूस एक स्वाभाविक विकल्प हो सकता था, मगर वह भी ईरान के साथ खड़ा दिखता है। दरअसल, मॉस्को अरबों डॉलर के सैन्य साजो-सामान तेहरान को मुहैया करा रहा है। जहां तक चीन की बात है, तो उसने यह कहा है कि उसे फलस्तीन-इजरायल मसले को सुलझाने में खुशी होगी, मगर शिया और सुन्नी के बीच अंपायर बनने में उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। इस स्थिति में इजरायल ही बचता है, जो ने केवल ईरान के विरुद्ध तल्ख तेवर रखता है, बल्कि इसके पास अपने परमाणु हथियार भी हैं, जो तेहरान को डराते हैं।

लेकिन सऊदी अरब, बहरीन के साथ-साथ अरब के ज्यादातर देशों का इजरायल से कोई रिश्ता नहीं है। उनमें से ज्यादातर तो इजरायल के वजूद को ही नकारते रहे हैं। बीते छह दशकों से वे इस यहूदी मुल्क के खिलाफ दुष्प्रचार करते रहे हैं और अपने अवाम के बीच इसकी गलत तस्वीर पेश करते रहे हैं। ऐसे में, अब इनके शासक इजरायल के साथ दावत उड़ाते नहीं दिख सकते। और इसीलिए वे सिर्फ परदे के पीछे से कुछ कर सकते हैं- या फिर वे उनके और इजरायल के बीच सूत्र का काम करने वाले हमदर्दों पर भरोसा कर सकते हैं।लिहाजा इजरायल दौरे से पहले प्रधानमंत्री मोदी अरब नेताओं को सुनें, तो वह उन नेताओं की बुद्धिमानी भरी गुहार अपने साथ वहां ले जा सकते हैं। तब यह कल्पना की जा सकती है कि बीबी नेतन्याहू भी चाहेंगे कि मोदी साहब सऊदी बादशाह के लिए एक पैगाम लेते जाएं, जो इसी साल के अंतिम महीनों में नई दिल्ली आने वाले हैं।

बॉबी घोष/प्रधान संपादक, हिन्दुस्तान टाइम्स


Date:29-03-17

प्रदूषण मुक्ति की राह

देश में पर्यावरण को साफ रखने और साफ करने की लड़ाई हमें कई स्तरों पर लड़नी पड़ रही है। कानून बनाने से लेकर उसे लागू करने के स्तर तक। इन दोनों के बीच में भी ढेर सारे स्तर हैं, ढेर सारे छेद हैं, जिनके बीच अक्सर मूल भावना दरकिनार हो जाती है और नतीजे लक्ष्य से उल्टी तरफ जाने लगते हैं। ऐसा ही एक मामला है बीएस-4 यानी भारत स्टेज एमिशन स्टैंडर्ड- 4 का। देश में पिछले साल से बीएस-3 के स्तर का प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों के उत्पादन पर रोक लग चुकी है, अब ऑटोमोबाइल कंपनियां सिर्फ बीएस-4 स्तर के वाहन बना सकती हैं। इसके बावजूद देश में बीएस-3 स्तर के वाहन ही ज्यादा खरीदे-बेचे जा रहे हैं। माना जाता है कि बीएस-3 के मुकाबले बीएस-4 स्तर के वाहनों से वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले पार्टिकुलेट मैटर का उत्सर्जन 80 फीसदी कम हो जाएगा। इसलिए पर्यावरण प्रदूषण व नियंत्रण प्राधिकरण चाहता है कि एक अप्रैल के बाद देश में सिर्फ बीएस-4 स्तर के वाहन बेचे जाएं। लेकिन सरकार का कहना है कि उसने बीएस-3 स्तर के वाहनों के उत्पादन पर रोक लगाई है, बिक्री पर नहीं, इसलिए उनका कारोबार जारी रह सकता है। समस्या यह है कि ऑटोमोबाइल कंपनियों के पास इस समय तकरीबन सवा आठ लाख बिक्री योग्य ऐसे वाहन पडे़ हैं, जो बीएस-3 स्तर के हैं, अगर उन सबको एकाएक कबाड़ बना दिया जाता है, तो ऑटो कंपनियों को इससे बड़ा घाटा होगा। मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है और तय है कि देर-सवेर बीएस-3 स्तर के वाहनों की बिक्री पर रोक लगानी ही होगी।

वाहनों के इंजन के लिए भारत स्टेज एमिशन स्टैंडर्ड को हमने इस सदी की शुरुआत में अपनाया था, जब ऑटोमोबाइल के मानक कडे़ किए गए थे। इसे यूरोप के लिए बने यूरो एमिशन स्टैंडर्ड के आधार पर तैयार किया गया था, जो तकरीबन पूरी दुनिया का ही मानक है। इसके हिसाब से जो यूरो-2 है, वह बीएस-2 है, जो यूरो-3 है, वह बीएस-3 आदि। अगर हम यूरोप और भारत के मानक की तुलना करें, तो यह भी पता चलता है कि हम विकसित दुनिया से प्रदूषण के प्रति गंभीरता दिखाने के मामले में कितने पीछे हैं? जिस समय हम भारत में बीएस-4 लागू करने के लिए जूझ रहे हैं, उस वक्त पूरी दुनिया में यूरो-6 की विदाई की तैयारियां चल रही हैं। और यह सिर्फ पर्यावरण के प्रति गंभीरता का मामला ही नहीं है, इसमें कई तरह के व्यावसायिक हित भी जुड़े हैं। मोटे तौर पर पर्यावरण मानक का एक स्तर बाजार में चार साल तक चलता है और इस लिहाज से हमारा देश अभी तकरीबन आठ साल पीछे है। पश्चिमी ऑटोमोबाइल कंपनियां इसका फायदा उठाकर अपनी पुरानी तकनीक कुछ साल के लिए भारत में खपा देती हैं।

यह जरूर है कि सरकार ने अब कुछ हद तक इसे बदलने की ठान ली है। इसीलिए तय किया गया है कि भारत अब बीएस-4 के बाद बीएस-5 को नहीं अपनाएगा, बल्कि इसकी बजाय सन 2020 तक सीधा कूदकर बीएस-6 पर पहुंच जाएगा। अगर ऐसा हुआ, तो यह एक बड़ी छलांग होगी, हालांकि फिर भी हम पश्चिमी देशों से पीछे ही रहेंगे, क्योंकि उस समय तक ये देश यूरो-7 पर पहुंच चुके होंगे। इसके बावजूद यह एक बड़ा संकल्प है, जिसे हासिल करना आसान नहीं होगा। देश के कई ऑटोमोबाइल विशेषज्ञ इसे लेकर पहले ही कई तरह की बाधाओं की बात कर रहे हैं। इस रास्ते की आगे की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि हम कितनी जल्दी बीएस-3 के वाहनों से मुक्ति पाते हैं और बीएस-4 के वाहनों को पूरी तरह से अपनाते हैं। पर्यावरण को बेहतर बनाने की राह आसान नहीं है, इसमें कई बाधाएं आएंगी और इसके लिए कड़े फैसले करने ही होंगे।


Date:29-03-17

विवेक सम्मत फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की जनहित या लोक कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित होने वाले अभ्यार्थियों के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता को नामंजूर करके विवेक सम्मत फैसला सुनाया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि सरकार और उसकी एजेंसियों को आयकर रिटर्न भरने और बैंक खाता खुलवाने जैसे गैर-लाभ की योजनाओं के लिएआधार कार्ड मांगने से रोका नहीं जा सकता। दरअसल, अनेक राज्य ऐसे हैं जहां की अधिकांश आबादी के पास आधार कार्ड नहीं हैं। भारतीय समाज में करोड़ों घुमंतू मजदूर आबादी है, जिनका निश्चित पता-ठिकाना नहीं है। निम्न और मध्य आय के ऐसे करोड़ों नागरिक हैं, जो शहरों और कस्बों में भाड़े के मकानों में रहकर अपना जीवन-यापन करते हैं। इनके मकान मालिक उन्हें आधार कार्ड बनवाने के लिए अनिवार्य दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराते हैं। ऐसे में उनका आधार कार्ड नहीं बन पाता। सुप्रीम कोर्ट ने इन तयों पर जरूर गौर किया होगा। अलबत्ता, देश की बड़ी आबादी को सिर्फ आधार कार्ड की अनिवार्यता के कारण सरकार की जनहित योजनाओं से वंचित किया जाना न्याय संगत नहीं होगा। सरकार और उसकी एजेंसियों के पास यह आंकड़ा जरूर होगा कि देश में कितने ऐसे लोग हैं, जिनके पास अपना आवास नहीं है। तो सबसे पहले सरकार उन आवासहीनों को आवास सुनिश्चित कराएं। इसके बिना सरकार की आधार योजना पूरी तरह सफल नहीं हो सकती। दरअसल, भारत सरकार भारतीय नागरिकों को बारह अंकों वाला विशिष्ट पहचान पत्र जारी करती है। यह विशिष्ट पहचान पत्र डेमोग्राफिक और बायोमीट्रिक के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति की पहचान सिद्धकरता है अर्थात आधार कार्ड में व्यक्ति विशेष से संबंधित सभी जानकारियां होती हैं, जिसको लेकर शुरू से यह विवादास्पद रहा है। कुछ नागरिक संगठनों ने आधार कार्ड को संविधान द्वारा प्रदत्त निजता के अधिकार का हनन मानते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी दाखिल की हैं जिनका फैसला आना अभी बाकी है। इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता कि आधार में उपलब्धजानकारियां और पहचान का दुरुपयोग नहीं हो सकता? उम्मीद की जानी चाहिए की शीर्ष अदालत इस गंभीर मसले पर अपना दिशा-निर्देश अवश्य जारी करेगी


Date:29-03-17

उम्मीदों का बिल

मानसिक रोगियों के लिए सरकार के कदम ने नई उम्मीदें जगाई है। मानसिक रोगियों की देखभाल और उन्हें सही इलाज की सुविधा प्राप्त कराने के लिए लोक सभा में सोमवार को मेंटल हेल्थकेयर बिल-2016 पास हो गया। सरकार के इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। यह बिल राज्य सभा में बीते साल ही पास हो गया था। यह बिल सुनिश्चित करता है कि हर एक व्यक्ति को संचालित मानिसक स्वास्य सेवा, देखभाल और उपचार का अधिकार मिले। बिल की सबसे खास बात यह है कि किसी मानसिक रोगी के आत्महत्या के प्रयास को अपराध नहीं माना जाएगा। आमतौर पर आत्महत्या करना या प्रयास करना अपराध माना जाता है। महिला और बच्चों के लिए भी बिल में खास प्रावधान है। बिल के अनुसार, मानसिक रोग से पीड़ित बच्चे को उसकी मां से तब तक अलग नहीं किया जाएगा, जब तक बहुत जरूरी ना हो। साथ ही संपत्ति में भी अधिकार मिल सकेगा। यह ठीक है कि सरकार का यह कदम बेहद प्रगतिशील है। मगर उसे सामाजिक स्तर और प्रशासनिक मोर्चे पर कई तरह के काम करके दिखाने होंगे। मसलन; एक आंकड़े के अनुसार, देश में कुल 6-7 फीसद लोगों को किसी-न-किसी तरह की दिमागी समस्या है, जबकि 1-2 फीसद रोगियों को गंभीर समस्या है। वहीं मानसिक रोगियों के लिएअभी महज 4500 विशेषज्ञ डॉक्टर हैं, जबकि ऐसे प्रति एक लाख रोगियों के लिए 12,500 विशेषज्ञ डॉक्टर और 3000 नसरे की जरूरत है। सरकार के पास पर्याप्त फंड भी नहीं है। ऐसे में समाज के स्तर पर यह काफी अहम हो जाता है कि लोगों में या व्यक्ति विशेष में निराशा व्याप्त न हो या वह इस कदर जिंदगी से परेशान हो जाए कि आत्महत्या करने जैसा कठोर कदम उठाने तक के बारे में सोचने लगे। लिहाजा, कानून बनाने से ज्यादा प्रासंगिक और समीचीन उपाय यही होगा कि जनता खुशहाल जीवन जिए। लोगों में किसी भी मसले पर चिंता घर न करे। जीवन अनमोल है, इस संदेश को जब तक आम जन में प्रचारित और प्रसारित नहीं किया जाएगा, तब तक ऐसे कानून भी कागजों में सिमटकर रह जाएंगे। सरकार प्रशंसा की पात्र है, जो उसने 1987 से बने कानून को नया जामा पहनाया है। यह हर तरफ से बेहतर पग है। साफ है कि मरीज को सुरक्षा और अधिकार देने की सरकार की यह पहल मील का पत्थर साबित होगी।


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धर्मनिरपेक्षता का नया रूप

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Date:31-03-17

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हाल ही में कुछ राज्यों में हुए चुनावों में हिंदुत्व का ऐसा रूप उभरकर आया है, जिसको चुनौती नहीं दी जा सकती। हिंदुत्व का यह वह रूप है, जो जाति और संप्रदाय से अलग राष्ट्रीय समरसता का शंखनाद करता है।

हिंदुत्व की जीत से उन सबकी ऐसी हार हुई है, जो मुस्लिमों को वोट देने वालों का एक रेहड़ (झुण्ड) मात्र समझते रहे हैं और झुण्ड को इकट्ठा रखने के बहुतेरे प्रयास करते रहे हैं। इन सबके केंद्र में ऑफ़  इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है। यह मध्यस्थों के रूप में धार्मिक नेताओं का ऐसा संगठन है, जो शरिया कानून का पहरेदार बनता है। इस बोर्ड के आधे से अधिक आजीवन सदस्य ऐसे दकियानूसी और रूढ़िवादी मुसलमान हैं, जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म और सरकार को अलग-अलग रखने में माहिर हैं। यही लोग वक्फ संपत्तियों के प्रबंधक भी हैं। भारत में लगभग 3 लाख वक्फ़ संपत्तियाँ हैं। यूँ तो इन संपत्तियों को अल्लाह के नाम पर गरीबों के कल्याण के लिए रखा जाता है, परंतु ये भ्रष्टचार की भेंट चढ़ जाती हैं। इन पर ऊँगली उठाने को इस्लाम पर हमला माना जाता है।भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य में अभी तक मुस्लिमों को रूढ़िवादिता में जीने के लिए एक तरह से छोड़े रखा गया है।

रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं ने मानवीय विकास को दरकिनार कर पूरे मुस्लिम संप्रदाय को तुष्टिकरण की नीति में झोंक दिया है।मुस्लिम समुदाय की असल संपत्ति  इनके बुनकर, कारीगर और शिल्पकार हैं। भारतीय, साहित्य, संगीत और स्थापत्य में मुस्लिमों का योगदान भरा पड़ा है। यह समझ में नहीं आता कि जब आज से 200 साल पहले जब मिर्ज़ा गालिब ने इन धार्मिक नेताओं की खुलकर खिल्ली उड़ाई हो, तब हम आज भी इनकी गुलामी क्यों कर रहे हैं ?

उत्तर  प्रदेश के चुनावी नतीजों ने न केवल मुस्लिम मतों के लिए स्वार्थ का गणित लगाने वालों की पोल पट्टी खोल दी है, बल्कि मायावती जैसे नेताओं की मुल्ला-मांस व्यापारी-गुंडे जैसे उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारने के पीछे की घिनौनी चाल को भी खत्म कर दिया है।इन चुनावी नतीजों से पता चलता है कि मुस्लिम समाज अपनी अंतश्चेतना को जगा चुका है। उन्हें समझ में आ रहा है कि भारत में उन्होंने अपनी जनसंख्या बढ़ाने के अलावा और कोई विकास नहीं किया है। इसके लिए मुसलमानों को स्वयं प्रयत्नशील होना होगा।

  • कुछ सुझाव
    • मुल्लाओं की सीमाओं को मस्जिद तक सीमित कर दिया जाए। उन्हें फतवा जैसी घोषणाओं से दूर रखा जाए। मुस्लिम कानून और वक्फ़ बोर्ड के प्रबंधन की जांच शुरू की जाए। समुदाय की उन्नति के लिए व्यावसायिकों की सहायता ली जाए।
    • अल्पसंख्यक और अलग पहचान की पूंगी बजाने की बजाय, चल रही सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी की मांग हो। मुसलमानों में फैली बेरोजगारी, ऋण, तथा शिक्षा आदि के लिए आंदोलन होने चाहिए।
    • मुसलमानों को यह समझना होगा कि उन धार्मिक परंपराओं के प्रचार से ही लाभ मिल सकता है, जो तोड़ने का नहीं, बल्कि जोड़ने का काम करें। समुदाय में संगीत स्त्री पर प्रतिबंध तथा शिक्षा पर रोक एवं स्वतंत्रता जैसे रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए।
    • सबसे बड़ी बात यह है कि अगर मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई में आगे करने की बात कहकर कोई वोट मांगता है, तो उसे साफ मना कर दें।

भारत के सबसे बड़े राज्य के चुनाव नतीजों ने धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को केवल चुनावी स्वार्थों के लिए संकुचित करने वालों को मुँहतोड़ जवाब दिया है। आगे भी यही परंपरा बनी रहनी चाहिए।

टाइम्स ऑफ़  इंडिया में प्रकाशित सबा नकवी के लेख पर आधारित।

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Life Management: 31 March 2017

31-03-17 (Daily Audio Lecture)

2nd Pillar of IAS preparation: Syllabus by Dr. Vijay Agrawal

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