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01-11-2018 (Important News Clippings)

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01-11-2018 (Important News Clippings)

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Date:01-11-18

Tourism matters: Here is a road map to putting India on every traveller’s radar

Deep Kalra, [ Deep is the founder and Group CEO, MakeMyTrip ]

There are many reasons why tourism matters, and why it’s definitely more than what one would typically imagine while thinking of it as an industry. Tourism brings revenue to the exchequer, creates jobs by way of direct and indirect employment and provides an incentive to preserve our heritage and environment. Travel and tourism currently accounts for 9.6% of India’s GDP, 88% of which comes from domestic travel. It also supports 9.3% of the country’s total jobs and according to a 2018 economic impact report by World Travel & Tourism Council, it will support 52.3 million jobs in 2028 against 42.9 million currently.

India is taking small but important steps in the right direction. But much more needs to be done to tap India’s true travel and tourism potential, and with greater speed. As one of the fastest growing aviation markets in the world, India’s domestic demand touches nearly 100 million passengers. Yet international arrivals have remained relatively low, at 9 million, providing India with a unique opportunity to consider how to build demand and create adequate supply for its travel and tourism industry.

India has the potential to become a global air transit hub utilising the country’s location advantage. Its geographic location makes it a logical stopover for refuelling European carriers travelling Far East or down Pacific. We can take a leaf out of the book of Dubai, which has built a world class airport capable of handling foreign tourists and is amongst the most preferred and busiest airports, drawing in tourists who often stop and explore Dubai before moving ahead with their journeys.

Today, India’s regional air connectivity has got a big fillip as a result of UDAN and the most promising aspect of this scheme is yet to unfold as the aviation ministry starts work on connecting tourist destinations creating tourism circuits in line with industry’s long standing demand. But even as we see an aviation boom of the kind not witnessed before, we continue to grapple with bare basics — fewer runways, congested airports, seasonal capacity constraints and more. The biggest single area of improvement for travel and tourism in India is infrastructure development that will help support last mile connectivity, tourism circuits, accommodation, and uplift underutilised segments.

While the much needed electronic visa regime has now been extended to over 160 countries, the e-Visa fee has been recently hiked by up to 60% across tourist, business and medical visa categories, which will impact tourist inflows. This additional amount collected from the increased fee is likely to be much less than the foreign exchange lost from lower tourist arrivals. CAPA estimates that only 2.5 million people visit India each year for a holiday, far less compared to a city state like Singapore or the island destination Bali or Thailand at 31 million. Tourism is a competitive business in a global context and India’s neighbours both on its east and west have aggressively promoted tourism, making it a major source of their income. Tourism is, of course, a big industry in most developed countries like the US, UK, France and Switzerland.

To stay competitive the government needs to rethink its decision to put luxury hotels in 28% GST slab for room tariff above Rs 7500 (and 18% for tariffs between Rs 2,500-7,500), which punitively taxes the luxury and mid-premium segment and gives India the feel of a high tax country for travellers. The government should consider bringing down hotel taxation in India, making it comparable with southeast Asian countries where taxes stand below 10%.

The tourism ministry’s Adopt-a-Heritage scheme is a bold example of public-private partnership approach and the most encouraging example of new thinking on how to partner the private sector. Currently, India’s travel and tourism industry is fragmented and lacks a unified public-private body to represent the industry, in turn hindering its ability to achieve its potential. India has more than 50 active foreign tourism boards, yet the country does not have its own tourism board. Between various departments and ministries, the tourism sector continues to remain deeply fragmented even as India makes progress as a tourism destination. It’s time we seize the momentum and build on the gains to put India on every traveller’s map.


Date:01-11-18

बढ़ती सुगमता

संपादकीय

विश्व बैंक के कारोबारी सुगमता सूचकांक की 2019 की रैंकिंग में भारत ने 2018 की तुलना में 23 स्थानों का सुधार किया है। निश्चित तौर पर तेल कीमतों से लेकर घटती वृहद आर्थिक स्थिरता तथा सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच टकराव जैसी आर्थिक मोर्चों पर तमाम नकारात्मक खबरों से जूझ रही केंद्र सरकार को इससे राहत मिलेगी। मोदी सरकार को यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता होगी कि 190 देशों में भारत उन दो देशों में शामिल है जिन्होंने लगातार दो वर्ष इस सूची में सुधार किया है। इससे पहले की बात करें तो वर्ष 2017 में भारत ने केवल एक स्थान का सुधार किया था लेकिन अगले वर्ष 2018 में इसने 30 स्थानों का सुधार किया। अब ताजा सुधार के बाद भारत 77वें स्थान पर आ गया है।

यह कोई छोटीमोटी उपलब्धि नहीं है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ऐन पहले वाले वर्षों के दौरान इस सूचकांक में भारत का प्रदर्शन निरंतर खराब होता जा रहा था। वर्ष 2012 में 131वें स्थान से फिसलकर हम 2014 में 142वें स्थान पर आ गए थे। तब से अब तक तेज और सकारात्मक बदलाव देखने को मिले हैं। प्रधानमंत्री मोदी तथा उनकी सरकार को इसका पूरा श्रेय भी दिया जाना चाहिए। वर्ष 2014 में जहां सभी ब्रिक्स देश हमसे आगे थे, वहीं 2019 में हम दक्षिण अफ्रीका (82), और ब्राजील (109) से आगे हैं और चीन (46) और रूस (31) के साथ अंतर तेजी से कम हो रहा है। भारत अब दक्षिण एशिया का सबसे बढिय़ा रैंकिंग वाला देश है तथा इंडोनेशिया (73) और वियतनाम (69) के लगभग बराबरी पर है। इस सुधार का काफी श्रेय श्रम नियमों में कुछ बदलाव के अलावा वस्तु एवं सेवा कर तथा ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता जैसे सुधारों को भी जाता है। यही वजह है कि छह प्रमुख क्षेत्रों कारोबार की शुरुआत, ऋण तक पहुंच, निर्माण अनुमति, बिजली की उपलब्धता, कर चुकता करने और सीमापार कारोबार, सभी में सुधार देखने को मिला है।

चालू वर्ष की शुरआत में विश्व बैंक के तत्कालीन मुख्य अर्थशास्त्री पॉल रोमर (जिन्हें हाल ही में अर्थशास्त्र का नोबेल मिला है) ने कारोबारी सुगमता रैंकिंग की विश्वसनीयता को लेकर बहस छेड़ दी थी। रैंकिंग में भारत का सतत सुधार ही देश में सुधारों की गति की विश्वसनीयता का सबसे बड़ा जवाब है।

बहरहाल, इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम जमीनी दिक्कतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दें। उदाहरण के लिए तमाम सुधारों के बावजूद कुछ अहम क्षेत्र हैं जिनमें हमारा प्रदर्शन अभी भी कमजोर है। मसलन अनुबंध प्रवर्तन। यह हमारे यहां पारंपरिक रूप से कमजोर क्षेत्र बना हुआ है और अभी भी हम इसमें कोई खास सुधार नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा जीएसटी और आईबीसी की मदद मिलने के बावजूद कर चुकाने और दिवालिया प्रकरणों के निस्तारण में भारत का प्रदर्शन अभी भी काफी कमजोर है। इससे पता चलता है कि इन सुधारों के क्रियान्वयन को जमीनी स्तर पर प्रभावी बनाने के लिए अभी क्या कुछ किए जाने की आवश्यकता है? इतना ही नहीं यह भी समझना होगा कि ये रैंकिंग दिल्ली और मुंबई के रूप में दो प्रमुख शहरों में हुए सुधार से आकलित की जाती है। इन दोनों को देश की राजनीतिक और वित्तीय राजधानी होने का लाभ मिलता है। अन्य प्रमुख शहरों तथा छोटे शहर-कस्बों में हालत अभी भी काफी खराब है। सुधारों का दायरा बढ़ाकर उन्हें दूरदराज इलाकों तक ले जाने के लिए राज्यों को पहल करनी होगी। ऐसा करने पर ही कारोबारी सुगमता के मामले में पूरे देश के प्रदर्शन में सुधार हो सकेगा।


Date:01-11-18

वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक के बीच अनावश्यक विवाद

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने केंद्रीय बैंक में सरकार के दखल की बात सार्वजनिक रूप से कहकर जिस विवाद की शुरुआत की थी उसकी तल्खी बढ़ाते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दस लाख करोड़ रुपए के बट्टे खाते के कर्ज के लिए रिजर्व बैंक को जिम्मेदार ठहराया है। दोनों अंग -जिनका ये दोनों पदाधिकारी प्रतिनिधित्व करते हैं- हमारी अर्थव्यवस्था के प्रमुख अंग है। फर्क इतना ही है कि रिजर्व बैंक उतना जवाबदेह नहीं है, जितना राजनीतिक प्रक्रिया से पद पर आए वित्त मंत्री और उनका मंत्रालय। दुनिया के सारे देशों में वित्तीय और मौद्रिक नीतियों का इस्तेमाल सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए किया जाता है। पेंच यह है कि राजनीतिक रूप से जवाबदेह वित्त मंत्रालय प्राय: अपनी नीतियों को चुनावों में भुनाने के हिसाब से देखता है, जबकि केंद्रीय बैंक के पेशेवर लोग अर्थव्यवस्था की दीर्घावधि सेहत को देखकर अपना दायित्व निभाते हैं।

रिजर्व बैंक कीमतों की स्थिरता और बाजार में तरलता यानी नकदी की उपलब्धता पर निगाह रखता है। व्यावसायिक बैंकों का सुसंचालन भी उसी की जिम्मेदारी है। उधर, वित्त मंत्रालय करारोपण और सरकारी खर्च का दायित्व संभालता है। इस तरह से देखें तो दोनों पूरक भूमिकाओं में हैं और एक-दूसरे से एकदम स्वतंत्र भूमिकाएं अपनाना न तो संभव है और न अर्थव्यवस्था के हित में है। मौजूदा सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाकर बाजार को राहत दें, जबकि केंद्रीय बैंक को लगता है कि सरकार उसका उपयोग अपने राजनीतिक उद्‌देश्य साधने के लिए करना चाहती है। जहां इस आरोप में दम हो सकता है वहां यह भी सही है कि उर्जित पटेल के नेतृत्व में ब्याज पर कड़ा रवैया अपनाकर रिजर्व बैंक ने दरें घटाने का वह मौका गंवा दिया, जिससे अर्थव्यवस्था अस्थिरता के मौजूदा दौर का सामना करने लायक बन पाती। अपनी स्वायत्तता के लिए वह घातक रुख अपना रहा है। यह कोई भी बता सकता है कि अर्थव्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है तो उसे बेहवजह दवाब में लाना ठीक नहीं है। नीतिगत मुद्‌दों पर वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक में मतभेद का सार्वजनिक होना ठीक नहीं है। यह अनिश्चितता के इस दौर में गहरी निराशा का कारण बन सकता है, जिसकी ऊंची और अनावश्यक लागत भुगतनी पड़ सकती है।


Date:01-11-18

क्या रंग लाएगी भारत-जापान की दोस्ती ?

ब्रह्मा चेलानी , (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो दिवसीय जापान दौरे के लिए रविवार को टोक्यो पहुंच गए हैं। बीते चार वर्षों में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबी के साथ यह उनकी 12वीं मुलाकात है। मोदी के आगमन पर एबी उन्हें अपना सबसे भरोसेमंद दोस्त बताते हुए द्विपक्षीय रिश्तों को नए क्षितिज पर ले जाने का भरोसा जता चुके हैं। इस वार्ता के दौरान दोनों नेता सैन्य साझेदारी को एक नया मुकाम दे सकते हैं जिसमें दोनों देशों की एक दूसरे के ठिकानों तक पहुंच होगी। एशिया के सबसे संपन्न-समृद्ध लोकतंत्र और सबसे बड़े लोकतंत्र उस ‘मुत एवं खुली हिंद-प्रशांत रणनीति के अहम हिस्से हैं जिसे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन मजबूती से आगे बढ़ा रहा है। वास्तव में एबी ही इस रणनीति के असल शिल्पकार हैं जिसकी अवधारणा उन्होंने औपचारिक रूप से दो साल पहले नैरोबी में अफ्रीकी नेताओं को संबोधित करते हुए सामने रखी थी। आज हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विधिस मत, मुत व्यापार, आवाजाही की आजादी और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए उपयुत ढांचा बनाने के लिहाज से जापान और भारत उसकी अहम धुरी हैं।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ‘मुक्त एवं स्वतंत्र क्षेत्र बनाने के लिए ट्रंप प्रशासन भारत-जापान संबंधों के महत्व को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुका है। ट्रंप की हिंदप्रशांत नीति उनके पूर्ववर्ती ओबामा की एशिया केंद्रित नीति का ही नया रूप है। ओबामा ने 2011 में इसे पेश किया था जिसे बाद में ‘एशियाई पुनर्संतुलन का नाम दिया गया। अमेरिका को लगा कि उसने पश्चिम एशिया पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया और अब इस नीति को सुधारने की दरकार है। अब अमेरिका अपने दीर्घकालिक हितों के लिए एशिया की अहमियत पर फिर से ध्यान केंद्रित कर रहा है। एशियाई सुरक्षा प्रतिस्पर्धा मुख्य रूप से सामुद्रिक मोर्चे पर ही चल रही है। हिंद-प्रशांत शद का बढ़ता चलन भी इसे दर्शाता है जो हिंद और प्रशांत जैसे दो महासागरों के मिलन का भी प्रतीक है। इस क्षेत्र में भू-आर्थिक प्रतिस्पर्धा भी जोर पकड़ रही है जिसमें दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं, बढ़ता सैन्य खर्च और नौसैनिक क्षमताएं, प्राकृतिक संसाधनों को लेकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा और कुछ खतरनाक इलाके शामिल हैं। इस तरह देखें तो वैश्विक सुरक्षा और नई विश्व व्यवस्था की कुंजी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के हाथ में ही है।

दरअसल हिंद-प्रशांत क्षेत्र को और व्यापक बनाकर अमेरिका एक तरह से चीन की बेल्ट एंट रोड इनिशिएटिव जैसी योजना की काट तलाश रहा है जिसमें चीन का भारी निवेश हिंद महासागर की परिधि में पडऩे वाले देशों में ही हो रहा है। जिबूती में तैयार चीन के पहले विदेशी नौसैनिक अड्डे और मालदीव के कई निर्जन द्वीपों पर उसके काबिज होने के बाद हिंद महासागर भी बीजिंग का भू-सामरिक अखाड़ा बनता जा रहा है। इससे पहले वह दक्षिण चीन सागर में कई कृत्रिम द्वीप बनाकर उनका सैन्यीकरण करने में सफल रहा है।

भारत के साथ एसीएसए करार से हिंद महासागर में जापान की बढ़ती नौसैनिक शति को स्थायित्व मिलेगा। इसमें जापानी पोतों को भारतीय नौसैनिक ठिकानों पर ईंधन और मरम्मत कराने की सुविधा मिलेगी। वहीं जापानी सामुद्रिक आत्मरक्षा बल यानी जेएमएसडीएफ को भी अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में भारतीय नौसैनिक सुविधाओं की सौगात मिलेगी जो मलका जलडमरूमध्य के पश्चिमी द्वार के काफी नजदीक स्थित है। जापान और चीन का काफी व्यापार और तेल आयात का एक बड़ा हिस्सा इसी मार्ग से गुजरता है। एबी के शासन में सेना पर कई कानूनी एवं संवैधानिक प्रावधानों को कुछ नरम बनाया गया है। इससे जापानी नौसेना की भूमिका का दायरा बढ़ा है। अब वह जापानी तटों से दूर भी सक्रियता से संचालन कर सकती है। वास्तव में संयुक्त सैन्य अभ्यास से लेकर सैन्य प्रशिक्षण के जरिये क्षेत्रीय सुरक्षा में भागीदारी को लेकर जापान का नया उत्साह उंसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बदलते भू-सामरिक समीकरणों का एक प्रमुख खिलाड़ी बनाता है।

भारत और जापान का न तो इतिहास में कोई टकराव रहा है और न ही किसी महत्वपूर्ण रणनीतिक मुद्दे पर उनमें असहमति है इस लिहाज से दोनों स्वाभाविक साझेदार के रूप में ही नजर आते हैं जिनके परस्पर हित जुड़े हुए हैं। वास्तव में जापान ही इकलौता ऐसा देश है जिसे भारत के कुछ संवेदनशील इलाकों में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर काम करने की अनुमति है। इनमें पूर्वोार और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं। व्यापार एवं निवेश पर जितना जोर दिया जा रहा है उसे व्यापक रणनीतिक सहयोग के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। भारत में जापान के राजदूत केंजी हीरामत्सू भी कहते हैं कि अब सामरिक भागीदारी को बढ़ाने की दरकार है। शी चिनफिंग के साथ एबी की हालिया बैठक और अप्रैल में मोदी के साथ बैठक इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकतीं कि भारत और जापान चीन की गंभीर चुनौती का सामना कर रहे हैं। यह व्यापार, तकनीक एवं अन्य मोर्चों पर ट्रंप का चीन पर दबाव ही है जिसने चिनफिंग को मोदी और एबी जैसे नेताओं से संपर्क करने को विवश किया। चिनफिंग को उम्मीद है कि जब अमेरिका की चीन नीति में बुनियादी रूप से बदलाव हो रहा है तो उसे जापान का वैसा ही साथ मिलेगा जैसे उसने 1989 में थियानमेन चौक पर छात्रों के नरसंहार को लेकर फंसे चीन का दिया था। तब चीन पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को हटाने वाला जापान शुरुआती देशों में एक था। चीन के साथ रिश्तों को लेकर अब जापान भी व्यावहारिक नजरिये वाला हो गया है। वहीं भारत भी किसी भ्रम में नहीं है कि चिनफिंग के नेतृत्व में चीन हेकड़ी छोड़कर अच्छा पड़ोसी बनने जा रहा है।

इस परिदृश्य में एबी-मोदी वार्ता कई मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने का एक अवसर है जिसमें दोनों देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन, शति स्थायित्व एवं सामुद्रिक सुरक्षा में परस्पर योगदान पर चर्चा कर सकते हैं। जहां तक वाशिंगटन की बात है तो दक्षिण चीन सागर में बदलते हालात से निपटने के लिए उसे स्पष्ट नीति की दरकार है, योंकि ‘स्वतंत्र एवं मुत हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए यह बेहद अहम रणनीतिक गलियारा है।


Date:31-10-18

सहयोग के नये आयाम

संपादकीय

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके जापानी समकक्ष शिंजो आबे के बीच हुई तेरहवीं शिखर वार्ता से दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई मिली है। निश्चित रूप से इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दिया जाना चाहिए। इसमें दो राय नहीं है कि उन्होंने विदेशी राजनेताओं से मुलाकातों को व्यक्तिगत स्पर्श देकर भारत के राजनयिक हितों का विस्तार किया है। यह पहला मौका है, जब आबे ने किसी विदेशी राजनेता को अपने निजी घर में आमंत्रित किया। यह बताता है कि दोनों नेताओं के बीच कितने घनिष्ठ व्यक्तिगत रिश्ते हैं। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की आबे से यह बारहवीं मुलाकात है। इस शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों में हाईस्पीड रेल परियोजना और नौसेना सहयोग समेत छह समझौतों पर दस्तखत किए हैं। द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत बनाने के लिए दोनों देशों ने 2 प्लस टू वार्ता करने पर सहमति जताई है। गौरतलब है कि इसी तर्ज पर भारत और अमेरिका के बीच समझौता है और पिछले महीने ही दोनों के बीच नई दिल्ली में 2 प्लस टू का पहला दौर का आयोजन हुआ था। राजनय के इस फ्रेमवर्क में दोनों देशों के रक्षा और विदेश मंत्री के बीच बातचीत होती है। दरअसल, भारत और जापान दोनों चीन की विस्तारवादी-साम्राज्यवादी नीति से परेशान हैं।

भारत की तरह जापान के साथ भी चीन का सीमा विवाद है। जाहिर है भारत और जापान के करीब आने का एक कारण चीन भी है। भारत प्रशांत क्षेत्र में चीन लगातार प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। यह रणनीतिक क्षेत्र है, इसलिए चीन की सक्रियता भारत की सुरक्षा के लिए चिंता का विषय है। वास्तव में यह मुक्त और स्वतंत्र क्षेत्र है। भारत और जापान दोनों इसके हिस्से हैं। लिहाजा मोदी और शिंजो ने भारत-प्रशांत में शांति और समृद्धि के साझा दृष्टिकोण पर भी ध्यान केंद्रित किया। अमेरिका भी इस क्षेत्र को मुक्त और स्वतंत्र बनाना चाहता है और इसके लिए वह भारत और जापान दोनों को प्रेरित भी करता रहता है। दोनों नेताओं ने मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल परियोजना में हुई प्रगति की समीक्षा की। वास्तव में यह मोदी की राजनयिक शैली का ही परिणाम है कि जापान की उदारतापूर्ण सहयोग से भारत में बुलेट ट्रेन का सपना बहुत जल्द ही हकीकत में बदल जाएग। इसके लिए जापान भारत को रियायती दरों पर कर्ज दे रहा है। यह परियोजना दोनों देशों के सहयोग और मित्रता का प्रतीक है।


Date:31-10-18

Miles to go

Prime Minister Modi and Abe have raised the profile of India, Japan ties. But the limitations in bilateral ties are glaring.

Editorial

The fifth annual summit in Tokyo between Prime Ministers Narendra Modi and Shinzo Abe was as much a celebration of the expansive state of the partnership between the two countries as it was of the personal bond between the two leaders. The scope of the relationship now ranges from Japanese aid to develop connectivity in the Northeast and the High Speed Railway system between Mumbai and Ahmedabad. Modi and Abe have also announced the launch of a new digital partnership that will cover Artificial Intelligence (AI) and the Internet of Things (IoT). On the defence front, their navies will now share intelligence and will soon be able to use each other’s facilities in the Indo-Pacific. Yet, there is no ignoring the fact that India has not been able to take full advantage of the opportunities presented by Abe’s Japan. Few foreign leaders has brought more personal commitment to the relationship with India than Abe. Consider for example the fact that Modi was the first foreign leader that Abe hosted at his personal home near Mount Fuji.

Abe’s enthusiasm for India was more than personal; it was deeply political. He inherited it from his maternal grandfather Nobusuke Kishi, who was the prime minister of Japan in the 1950s. For nationalist Kishi, India was central to the restoration of Japan as a normal power after its defeat in the Second World War. Abe inherited both ideas — that Japan must play its legitimate role in Asia and the world; and that India is critical in advancing that goal. As he becomes the longest serving Japanese PM in post-war history, Abe has now firmly planted India at the centre of Tokyo’s global strategy. Thanks to his interaction with the Japanese leaders during his long tenure as the chief minister of Gujarat, Modi was eager to elevate Japan’s salience in India’s internal development and external relations. That the rise of China was undermining the historic standing of Japan and India in Asia provided a regional context for their strategic cooperation. India’s new warmth towards the US, Japan’s post-War ally, also facilitated the rapid expansion of Delhi’s ties to Tokyo.

But the limitations of the relationship are glaring. Bilateral annual trade now stands at a pitiable $15 billion. Japan’s trade with China despite troubled political relations is now close to $300 billion. Well before China came up with the Belt and Road Initiative, Japan was putting money to develop the Mumbai-Delhi industrial and rail corridors. Progress has been painfully slow. Thirteen years after it was announced, the Dedicated Freight Corridor between the two cities is now barely half done. The negotiations on the purchase of an amphibious aircraft have dragged on for nearly a decade. That a politically strong and bureaucratically centralised government led by Modi can’t get things moving faster at home points to the deepening systemic crisis. If India can’t change the way it works internally, it can’t do much with even the most eager external partners like Abe’s Japan.


Date:31-10-18

Past perfect and a future tense

Legitimising suspect ‘traditional knowledge’ and passing it off as proven wisdom is perilous.

Rajesh Kochhar , [ Rajesh Kochhar is with the mathematics department, Panjab University.]

The things All India Council for Technical Education (AICTE) wishes to formally teach engineering students in the name of ancient Indian scientific achievements is a gross insult to ancient India. Making unsubstantiated claims about the past detracts from the genuine contributions that were actually made, and brings ridicule to an otherwise respected discipline.

AICTE is an apex body set up by the HRD ministry for the promotion of quality in technical education. The Delhi centre of Bharatiya Vidya Bhavan is offering, through its website, a post-matric course on “essence of Indian knowledge tradition”, and a post-graduate diploma in “Indian knowledge tradition: Scientific and holistic”. To serve as a text for these courses, a book titled Bharatiya Vidya Saar has been prepared.

AICTE, no doubt guided by HRD ministry, has co-opted this programme and decided to offer a credit course based on the Vidya Saar — meaning that students will be formally examined in it and assigned grades. The proposed textbook is not freely available. Whatever excerpts have been published makes for disturbing reading. Students will be told that “In Vedic age, ‘Maharshi Bhardwaj wrote an epic called Yantra Sarvasva and aeronautics is a part of the epic. This was 5,000 years before Wright brothers’ invention of the plane… Yantra Sarvasva is not available now but out of whatever we know about it, we can believe that planes were a reality in Vedic age.”

A number of questions arise immediately. How do we know that Yantra Sarvasva existed? If it discusses aeronautics, what is the actual term used? If the text does not exist anymore, which are the works that have preserved the extracts? Details should be provided so that readers can decide for themselves how much credence is to be placed on such claims. In the same fashion, it is claimed that Maharishi Agastya in Agastya Sanhita talks about the discovery of electricity and invention of batteries. Students should, no doubt, be made aware of ancient Indian science. We cannot, however, ask students to switch off their mental faculties when they are being instructed in the essence of Indian learning, but bring their intellect into full use an hour later when the regular curriculum is taught.

In recent years, a flourishing industry has sprung up which takes stray passages from ancient texts and relates them to modern scientific and technological discoveries. In 2002, B G Matapurkar, a surgeon at the Maulana Azad Medical College Delhi, claimed that the Mahabharata description of the Kauravas’ birth proved that “they not only knew about test-tube babies and embryo splitting, but also had the technology to grow human foetuses outside the body of a woman — something unknown to modern science”. If the learned surgeon had taken the trouble of reading the original description (given in Adi Parva, Chapter 14) he would not have been so rash.

Gandhari could not possibly have given natural birth to 100 sons. One is inclined to believe that 100 was not meant as an exact number but as a poetic exaggeration. The Mahabharata tells us that Gandhari was pregnant for two years after which she delivered a piece of flesh which was as hard as iron. It was irrigated with cold water and split into 100 thumb-sized portions. These portions in turn were placed in pitchers filled with ghee which were carefully kept at secret places. After another two years, each pitcher produced a boy. A small piece of the aborted flesh was still left from which, after a month, a daughter was born. Immediately on birth, the first born, later to be known as Duryodhana, started braying like a donkey whereupon, the “other” donkeys, vultures, jackals and crows in the area also joined the chorus. Here is an attempt to take Duryodhana’s villainy back to his birth itself; any resemblance to modern research is purely incidental. It is extraordinary that the creativity and imaginativeness of ancient poets and dramatists should be sacrificed at the altar of modern science.

In October 2016, the PM, while inaugurating a hospital in Mumbai, claimed that the Hindu god Ganesha’s having an elephant head showed that plastic [?] surgery began in India. He also speculated that genetic science must have been known in ancient India because the Mahabharata says that Karna was born outside the mother’s womb. The Mahabharata also says that virgin Kunti’s motherhood was due to her recitation of a mantra and that, fearful of the public opinion, she clandestinely set the newborn afloat in a river. What use is a scientific discovery if it has to be presented as a miracle and hidden from the public at large? More recently, the newly-elected Chief Minister of Tripura concluded that internet existed in the age of Mahabharata, because Sanjaya narrates the happenings in the war-field to Dhritarashtra who is located miles away. Such dubious claims have been made by persons in power or in inaugural addresses, etc. But, alarmingly, the government has now decided to give such claims the legitimacy of a teachable subject, and that too, at the level of professional colleges.

By definition, science today is better than science yesterday. It is, therefore, anachronistic to pit one against the other. Production of wealth today depends on modern science. Prosperity in ancient India depended on agriculture and un-organised manufacturing activity — knowledge systems connected with these two spheres were exclusively the domain of farmers and artisans and there was no reason for sacred Sanskrit texts to incorporate this parallel knowledge system into their own. In other words, it makes no sense to look for products of modern technology in ancient sacred texts. AICTE should put its present proposal on hold for the time being. It should ask Bharatiya Vidya Bhavan to heavily annotate its textbook so that a reader can check the veracity of the claims made. The draft text should be uploaded online, and comments invited on its content. The textbook should be finalised in the light of the feedback received. Only then should it be placed in the hands of teachers and students. The proposal, as it stands now, is an insult to human intelligence and aimed at the “moroni-fication” of the students.


Date:31-10-18

Failing Its Purpose

RTE Act has not ensured delivery of quality education

Anil Swarup , [ The writer retired as School Education Secretary in the HRD Ministry. ]

We have a belief that enacting a legislation is a panacea for all ills. The Right of Children to Free and Compulsory Education Act, 2009 (popularly known as RTE Act) was born out of this mindset. This approach raises a few questions. Why should the executive arm of the government require a law to do something which it is authorised to do, in any case, under the extant legal provisions? Could the purpose have been served without the law? Has it been served after the enactment of the RTE Act? Has the Act made it more complicated to deliver quality education?

The government could (should) have provided free quality education without a law as a number of countries have done. In fact, successive governments were attempting to do that but were unable to do so. The inability was certainly not on account of absence of a legislation. A number of non-legislative factors have created a mess in the last few decades in the education sector. Education does not provide for immediate results that a political party can show off. The impact of initiatives in education are visible only in the long run. Perhaps, legislation was one way to show that the government was concerned about education. However, if we go by the available evidence, enactment of RTE hardly led to any improvement in delivery of quality education. Learning outcomes, in fact, declined during the years that followed the legislation.

The focus of the RTE Act is primarily on “inputs” (like infrastructure) rather than “outcomes”. It has created an adversarial relation between “public” and “private” schools. The Act mandates that even private schools “shall admit in Class I, to the extent of at least 25 per cent of the strength of that class, children belonging to weaker section and disadvantaged group.” The manner in which reimbursement is to be provided has created a number of problems.

The norms and standards prescribed in the schedule for a school are far removed from ground reality. What is perhaps desirable has been made mandatory. This has resulted in a phenomenal increase in the number of teachers. During 2015-16, there were 39,608 government schools that had less than 10 children but each school was mandated to have a minimum of two teachers. The budget private schools, most of whom are doing a great job in imparting education, are under enormous pressure to meet the prescribed standards or face closure. On an average, around Rs 10,000 per child gets spent in government schools. The budget schools do that for far less and impart as good, if not better, education.

Section 16 of the RTE provides that “No child admitted in a school shall be held back in any class or expelled from school till completion of elementary education”. Not holding back a child in a class has meant that a large number of children are getting promoted without acquiring necessary attributes. The model of “no detention” was apparently picked up from the West and transplanted in this country without taking into account the conditions prevalent here. The pass percentage has plummeted at the Class 10-level. The states were not even given freedom to take a call on the issue. The government has subsequently decided to provide an option to the states and the amendment is under the consideration of Parliament.

Penalties for violation of the provisions are outlined under section 18(5): “Fine which may extend to one lakh rupees and in case of continuing contraventions, to a fine of ten thousand rupees for each day during which such contravention continues.” Not many schools have been penalised under this clause but it is a powerful tool available with officials to harass budget private schools. At the same time, some private schools, run purely on commercial lines, are getting away with blue murder. The Act cannot itself be blamed for this malaise but it has done little to address such issues.


 

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भ्रष्टाचार का एक नया रूप

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भ्रष्टाचार का एक नया रूप

Date:02-11-18

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भारत में विजय माल्या जैसे व्यवसायी के चलते याराना पूँजीवाद के दो रूप सामने आ रहे हैं। (1) इन पूँजीपतियों का नाता किसी एक ही राजनैतिक दल से नहीं होता। (2) राजनैतिक दलों को ऐसे पूँजीपतियों की जरूरत होती है।

आर बी आई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इस दुष्चक्र पर टिप्पणी करते हुए बताया था कि, ‘‘सार्वजनिक सुविधाओं की उपलब्धता के लिए गरीब लोग नेताओं का मुँह देखते हैं। गरीबों का संरक्षण देने और चुनाव लड़ने के लिए नेताओं को भ्रष्ट व्यवसायियों की ओर देखना पड़ता है। इस मदद के एवज में व्यवसायी, सरकार से प्राकृतिक संसाधन के दोहन की छूट ले लेते हैं।’’

इतना ही नहीं, ये व्यवसायी सस्ते दामों पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ-साथ निवेश के लिए ऋण भी चाहते हैं। शासक वर्ग, अपने मित्र व्यवसायियों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ऋण दिलवाते हैं। इस उपक्रम में यह भी नहीं देखा जाता कि व्यवसायों द्वारा प्रस्तुत योजनाएं संतोषजनक हैं या नहीं। इसका कारण यही है कि इस ऋण के बदले नेताओं को भी कुछ लाभ मिलता है।

याराना पूँजीवाद की सूची में अकेले विजय माल्या का नाम नहीं है। गुजरात के अडानी समूह के अलावा अनेक ऐसे समूह हैं, जिनके कारण गैरनिष्पादित सम्पत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। साथ ही, ऐसे मित्र व्यवसायिों का राजनैतिक दलों के टिकट पर संसद में प्रवेश का प्रतिशत भी लगातार बढ़ता जा रहा है। 1991 से 2014 के बीच इनका प्रतिशत 14 से बढकर 26 हो गया है। भाजपा के 282 सांसदों में से 43 सांसद इसी वर्ग से आए हुए हैं। इस प्रकार की स्थितियों में दोनों पक्षों के लिए जीत ही जीत होती है। एक ओर, ऐसे धनी उम्मीदवारों के चुनावों पर पार्टी को धन नहीं लगाना पड़ता, तो दूसरी ओर, चुनाव जीतकर आने वाले व्यवसायिों का नीति निर्माण में शक्ति मिल जाती है। सांसद होने के नाते ये व्यवसायी, अपने व्यवसाय के लिए लाभकारी सूचनाएं जुटाने के साथ ही नीतियों को भी प्रभावित करने में सक्षम हो जाते हैं।

नीतियों के कार्यावयन के लिए उत्तरदायी नौकरशाहों से भी इनकी अच्छी सांठ-गांठ हो जाती है। बात यहाँ तक आ जाती है कि सेवानिवृत्ति के बाद इन नौकरशाहों को सांसद बने उद्योगपतियों के यहाँ अच्छे वेतन वाली नौकरी पर रख लिया जाता है। एल आई सी, सेबी और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व अध्यक्षों को किंगफिशर में बतौर बोर्ड आॅफ डायरेक्टर शामिल कर लिया गया था।

नौकरशाहों के लिए भी यह एक संकेत होता है कि यदि सेवानिवृत्ति के बाद अपना भविष्य बनाए रखना चाहते हैं, तो नेता बने उद्योगपतियों का काम आसानी से होने दें।

आर्थिक उदारवाद की शुरूआत के 30 वर्ष बाद, यह एक ऐसा अध्याय शुरू हुआ है, जिसने न केवल भारत की अर्थव्यवस्था, बल्कि भारतीय राजनीति और समाज को भी प्रभावित किया है। यह एक नए प्रकार का भ्रष्टाचार है। इस गोल-गोल घूमती प्रक्रिया में एक दुखद तथ्य ऊभरकर सामने आता है; और वह यह कि ये राज्य की स्वतंत्रता को कमजोर करते हैं। ऐसा होने के कारण ही आज सार्वजनिक सुविधाओं का अकाल है, और जनता को उसका अधिकार नहीं मिल रहा है। जिन नेता बने व्यवसायियों ने अपने निजी स्कूल, अस्पताल और सुरक्षा एजेंसियां खोल रखी हैं, वे जनता के लिए स्कूल, अस्पताल और अन्य ढांचे खड़े करने में रुचि क्यों दिखाएंगे।

‘द इंडियन एक्सपेस’ में प्रकाशित क्रिस्टोफी जेफरलोट के लेख पर आधारित। 19 सितम्बर, 2018

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Life Management: 02-11-18

02-11-18 (Daily Audio Lecture)

02-11-2018 (Important News Clippings)

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02-11-2018 (Important News Clippings)

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Date:02-11-18

Nuclear Button

Government can counsel urgency to RBI – but it must forego Section 7

TOI Editorials

Reports indicating that government made a reference to Section 7 of the RBI Act – a provision never used till date owing to successive governments respecting central bank autonomy – while seeking the easing of lending norms and more liquidity for NBFCs, are cause for worry. It is the equivalent of the treacherous use of Article 356 of the Constitution by the Centre to dismiss democratically elected governments in states. Misuse of Article 356 vitiated India’s federal structure until Supreme Court intervention capped the damage. But no similar safety net exists when intrusions on RBI autonomy go horribly wrong.

Look at Turkey where the all-powerful President Recep Tayyip Erdogan was chastened by a run on the Turkish lira after his onslaught on the central bank wasn’t taken well by financial markets. Governments look to quickly accelerate growth – especially before elections – but this can come at the cost of long-term macroeconomic stability. A car fitted with accelerator but no brakes is liable to crash, and it is RBI’s job to provide the braking mechanism to restrain the government.

Section 7 is a nuclear option never used before, and there is no financial emergency justifying its use now. India is lucky to have had eminently capable economists helming RBI since the 1991 reforms, upto and including present day incumbent Urjit Patel. Rather than bringing heavy pressure to bear on Patel and triggering his resignation – thereby spooking markets and negating all the perception benefits of climbing 23 ranks in the World Bank’s ease of doing business rankings – what the government, and finance minister Arun Jaitley, should really be doing is to tell investors that India has an independent central bank which curbs inflation and assures macroeconomic stability, which is why they ought to put their money on India.


Date:02-11-18

Good Business

World Bank gives India a ranking boost – and indicates how much remains to be done

TOI Editorials

In an achievement that boosts the Modi government and more importantly increases India’s attractiveness for investors, the country has been placed 77 in World Bank’s global ease of doing business ranking this year. This amounts to a cheerworthy 65 rank leap since 2014. Of the 10 metrics tracked for this ranking, India improved on six this year. A closer look at the data gives both a sense of the areas of great potential for improvement, and the challenges therein. For these rankings World Bank surveys 190 countries. Over the last four years, on the ease of getting an electricity connection, India has climbed from rank 137 to 24.

Likewise there has been an impressive leap from rank 184 to 52 on construction permits. On starting a business, the country now stands at 137, a 21 rank gain. On trading across borders India is now placed at 80, up from 146 a year ago on the basis of reducing the time and cost of importing and exporting, through measures like digitalisation and upgrading of port infrastructure.

But reality check: Against a backdrop of an escalating trade war between the US and China it is countries like Indonesia, Vietnam and the Philippines that seem to be walking away with the trade diversion gains, as a policy of pushing up import tariffs has been undermining India’s attractiveness. Since modern trade is built upon the exchange of intermediate goods across international supply chains, protecting one industry via import tariffs tends to damage others, increasing cost if not difficulty of doing business.

A district-level ease of doing business rankings is in the works and that will help counteract one notable limitation of the World Bank survey, that it is based on feedback from just Mumbai and Delhi. Also, if India is racing ahead so are its competitors. If India advanced 23 places this year, China has shot up 32 places to be among the global top 50 and rub shoulders with OECD nations. China is India’s large Asian neighbour which uses its outsized economic heft to block India’s rise – hence China is the competitor India must benchmark itself against. Put another way, Prime Minister Narendra Modi declared India’s goal to be to break into the top 50. That’s where India must head, for which there is much scope for reform.


Date:02-11-18

Ease of Doing Biz Rises In the States

India’s big stride forward must boost reform

ET Editorials

It is commendable that India’s position in the World Bank’s global ease of doing business rankings for 2019 has pole-vaulted 23 places to 77 (among 190 nations). Just as noteworthy is the deepening reforms momentum surveyed regionally, with Ludhiana, Hyderabad and Bhubaneswar placed in the top three places in the national ranking, much ahead of either Delhi or Mumbai. In a couple of years, India’s rank has gone up 53 places in a businesslike manner.

The much-improved ranking would improve investor sentiments and should better coagulate funds on the ground. There has been much improvement in such parameters as ‘Trading across borders’, ‘Dealing with construction permits’ and ‘Getting electricity’. This has been backed by structural reforms like the goods and services tax regime and Bankruptcy Code. However, when it comes to such parameters like ‘Registering property’, India’s position is a lowly 166. On ‘Enforcing contracts’, we are ranked 163rd. A poor 137th on ‘Starting a Business’, and 108th on ‘Resolving insolvency’.

It suggests huge potential for further raising India’s ranking with focused policy attention. The way forward is to leverage information technology for registering property with transparency, ease and rationalised stamp duty. Similarly, speedy enforcement of contracts calls for specialised commercial courts, electronic case management and purposeful fast-tracking of smaller claims. Streamlining the procedure for starting a business needs priority.

It is true that India’s rankings focus on just the two cities of Mumbai and Delhi, which nevertheless can give a good inkling of the reforms underway nationally. More important, the regional rankings provide much scope for walking the talk on reforms in the states. And in the national list of ease of doing business, New Delhi (ranked 6th) or Mumbai (10th) are placed much lower in the pecking order. It shows that healthy competition between states for investments and project proposals can improve the overall ease of doing business nationally.


Date:02-11-18

आर्थिक स्थिति की काली घटाओं में बिजली की कौंध

संपादकीय

भारत की चुनौतीपूर्ण आर्थिक स्थिति की काली घटाओं के बीच विश्व बैंक की बिज़नेस करने में आसानी संबंधी रिपोर्ट बिजली की तरह कौंधी है। भारत ने 23 पायदान छलांग लगाकर न सिर्फ मोदी सरकार को नया हौंसला दिया है बल्कि पूरे देश में खुशी की लहर पैदा की है। मुद्रा की कमजोरी, चालू खाते के बढ़ते घाटे और वित्तीय बाजार की खराब स्थिति के बीच विश्व बैंक ने दुनिया के 190 देशों में व्यवसाय करने में आसानी संबंधी जो रिपोर्ट जारी की है उसमें दो वर्षों में भारत ने 53 पायदान की छलांग लगाई है। जिन दस मानकों के आधार पर यह आकलन किया जाता है उसमें भारत ने छह मानकों में सुधार किया है। निर्माण के लिए परमिट पाना आसान हुआ है, माल का इधर से उधर ले जाना सरल हुआ है। बिजली का कनेक्शन पाना भी काफी आसान हो गया है। इसी के साथ अल्पसंख्यक निवेशकों की सुरक्षा भी सुदृढ़ हुई है। अब दुनिया के 190 देशों में भारत 77वें स्थान पर पहुंच गया है। अगर 2014 के 142 पायदान वाले मानक को देखा जाए तो अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में एनडीए सरकार ने भारी सुधार किया है।

हालांकि, अभी जिन मानकों पर देश में स्थिति खराब है वे हैं संपत्ति का पंजीकरण होना। देश में संपत्ति के पंजीकरण के हालात बिगड़े हैं। अगर एक साल पहले संपत्ति के पंजीकरण में भारत 121वें पायदान पर था तो अब वह 166वें स्थान पर चला गया है। विश्व बैंक का यह आकलन एक मानक आकलन है और इससे देश में एक प्रकार का उत्साह आएगा और तेल के दाम बढ़ने और मुद्रा के पतन के साथ जो निराशा छाई हुई थी वह कम होगी। इसके बावजूद इन मानकों को जीएसटी, नोटबंदी और रिश्वतखोरी से हुई परेशानियों की कसौटी पर कसना जरूरी है। रिश्वत लेने-देने में भारत की स्थिति दुनिया के सफल और विकसित देशों से बहुत पीछे है। जीएसटी से व्यापारी परेशानी में हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। अच्छी बात यह है कि भारत-चीन दो ऐसे देश हैं जहां व्यावसायिक माहौल में तेजी से सुधार हो रहा है और इससे तनाव की आशंकाएं घटती हैं। बिज़नेस की आसानी वाले देशों में अगर न्यूजीलैंड, सिंगापुर और डेनमार्क शीर्ष पर हैं तो हमें उनकी स्थितियों का भी आकलन करना होगा। साथ ही इस छलांग पर इतराने की बजाय इसे स्थायी बनाने और इसमें सुधार का प्रयास जारी रहना चाहिए।


Date:02-11-18

सरकार-रिजर्व बैंक की रस्साकशी

विवेक कौल, (लेखक अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने ईजी मनी ट्रायोलॉजी लिखी है)

भारतीय रिजर्व बैंकऔर भारत सरकार के बीच चल रही रस्साकशी धीरे-धीरे बाहर आ रही है। सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच थोड़ा-बहुत टकराव सिस्टम के लिए अच्छा होता है। मसलन, हर सरकार यह चाहती है कि ब्याज दरें कम से कम हों क्योंकि कम ब्याज दरों पर लोग जमकर कर्ज लेंगे और इससे अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी, लेकिन सरकारें यह जरूरी बात या तो भूल जाती हैं या फिर उसकी अनदेखी करती हैं कि ब्याज दरों पर केवल कर्ज नहीं लिया जाता। ब्याज दरों को देखकर लोग पैसा बचाते भी हैं। इसीलिए केंद्रीय बैंक इन दरों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। यह काफी कठिन काम है, क्योंकि सरकार की ओर से हमेशा यह दबाव होता है कि ब्याज दरें कम रखी जाएं। करीब 19 साल तक अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन रहे एलन ग्रीनस्पैन ने कहा था कि मुझे याद नहीं, जब राजनीतिक क्षेत्र से किसी ने कहा हो कि हमें दरें बढ़ाने की जरूरत है। पिछले कई सालों से हमारे सरकारी बैंक डूबे कर्ज के संकट से जूझ रहे हैं। रिजर्व बैंकने इस संकट से जूझ रहे 11 सरकारी बैंकों को प्रिवेंटिव करेक्टिव एक्शन ढांचे के तहत रखा है। सरकार का मानना है कि इसकी वजह से बैंकठीक तरह से कर्ज नहीं दे पा रहे हैं।

क्या यह सही है? अगर हम गैर-खाद्य ऋण (नॉन-फूड क्रेडिट) के आंकड़े देखें तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता। भारतीय बैंक, फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और राज्य सरकारें खरीद एजेंसियों को कर्ज देती हैं, ताकि वे किसानों से धान और गेहूं सीधे खरीद सकें। जब इस कर्ज को कुल ऋण से घटाया जाता है तो गैर-खाद्य ऋण बचता है। अगर इस वर्ष 12 अक्टूबर तक का साप्ताहिक गैर-खाद्य ऋण का डाटा देखें तो यह करीब 14.5 फीसदी अधिक रहा। अगर पिछले दो साल का डाटा देखें तो गैर-खाद्य ऋण में यह सबसे उच्चतम वृद्धि रही। अब अगर बैंक कर्ज दे रहे हैं तो सरकार क्या चाहती है? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आखिर सरकार गैर-खाद्य ऋण में वृद्धि से खुश क्यों नहीं है? इसके लिए डाटा को थोड़े विस्तार से देखने की जरूरत होगी। अगर इस साल अगस्त 30 तक का डाटा देखें तो पाएंगे कि गैर खाद्य ऋण करीब 14.2 प्रतिशत बढ़ा। खुदरा ऋण करीब 18.2 प्रतिशत बढ़ा था। सेवाओं को दिया हुआ ऋण 26.7 प्रतिशत बढ़ा। कृषि कर्ज करीब 12.4 प्रतिशत बढ़ा, परंतु उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज सिर्फ 1.95 प्रतिशत बढ़ा। इसमें भी छोटे उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज 2.6 फीसदी ही बढ़ा। चूंकि बैंकों का करीब तीन चौथाई डूबा कर्ज उद्योगों की वजह से है और इसीलिए वे उद्योगों को कर्ज देने से कतरा रहे हैं। लगता है, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पी रहा है।

पिछले कुछ सालों में निजी बैंकों ने सरकारी बैंकों से कहीं अधिक कर्ज दिया है, जबकि माना यह जाता है कि निजी बैंक उद्योगों को कर्ज देने से कतराते हैं। सरकार चाहती है कि जिन 11 सरकारी बैंकों को पीसीए के तहत रखा गया है, उन्हें और कर्ज देने की इजाजत मिले। अगर इस वर्ष मार्च 31 तक सरकारी बैंकों का कुल कर्ज देखें तो इन 11 बैंकों का करीब 27 प्रतिशत हिस्सा बनता है। बाकी 73 प्रतिशत उन 10 सरकारी बैंकों द्वारा दिया गया, जो पीसीए के दायरे में नहीं हैं। ये 10 बैंक सरकार के कुल 21 बैंकों में से कुछ बेहतर स्थिति में हैं। अगर सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक छोटे उद्योगों को कर्ज दें तो यह काम ये 10 बैंक क्यों नहीं कर सकते? इन 11 बैंकों को पीसीए में इसलिए डाला गया है, ताकि उन्हें स्वस्थ होने का मौका मिल सके। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने हाल में कहा कि पीसीए के दायरे वाले बैंक अपनी बैलेंस शीट की परिसंपत्तियों को सुरक्षित करने में लगे हैं। इसलिए वे पूरा ध्यान गैर-जोखिम वाले क्षेत्रों को कर्ज देने और गवर्मेंट सिक्योरिटीज पर केंद्रित कर रहे हैं। पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता पीसीए वाले बैंकों में करदाताओं के नुकसान को बचाना और उनकी पूंजी की क्षति को रोकना है। इसलिए वित्तीय रूप से कमजोर बैंकों से निपटने का पीसीए का तरीका जारी रहना चाहिए। सुधार की प्रक्रिया में किसी भी तरह की ढिलाई हानिकारक होगी।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सरकार आतंरिक रूप से यह मान रही है कि नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन से छोटे उद्योगों का नुकसान हुआ है। चूंकि इसका बुरा असर आम चुनाव पर भी पड़ सकता है, इसीलिए सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक आने वाले महीनों में छोटे उद्योगों को जमकर कर्ज दें। केंद्रीय बैंक और केंद्र सरकार में रस्साकशी का एक कारण यह भी है कि रिजर्व बैंक अपने कामकाज से जो लाभ कमाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा सरकार को हर साल लाभांश (डिविडेंड) के रूप में देता है। कुछ हिस्सा कंटिंजेंसी फंड में चला जाता है। इससे सरकार को मिलने वाला लाभांश कम हो जाता है। सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक अपना अधिक से अधिक लाभ और हो सके तो पूरा, लाभांश के रूप में उसे दे। रिजर्व बैंक का मानना है कि अभी उसकी बैलेंस शीट को और भी मजबूत बनाने की जरूरत है। गौरतलब है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कई बार कहा है कि सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है। सरकार का खर्च उसकी कमाई से कहीं अधिक होता है और इसी अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है।

अगर डाटा देखें तो ऐसा नहीं लगता। अप्रैल से सितंबर 2018 तक करीब 2.15 लाख करोड़ रुपए का सेंट्रल जीएसटी सरकार के पास जमा हुआ। पूरे वित्तीय वर्ष का लक्ष्य करीब 6.04 लाख करोड़ रुपए है। यह लक्ष्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। इसके अलावा शेयर बाजार के गिरने की वजह से विनिवेश का 80,000 करोड़ का लक्ष्य भी पूरा होता दिखाई नहीं देता। अप्रैल से सितंबर 2018 के बीच राजकोषीय घाटा अपने सालाना लक्ष्य के 95 फीसदी तक पहुंच गया था। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अभी किसी तरह अपनी कमाई बढ़ाने पर उतारू है। इसीलिए उसकी नजर रिजर्व बैंक के कंटिंजेंसी फंड पर भी है। वह चाहती है कि केंद्रीय बैंक सरकार को एक अंतरिम लाभांश भी दे। रिजर्व बैंक का उपयोग करके सरकारी दायित्वों को पूरा करना सकारात्मक नहीं। एक साल के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक ऐसे फंड का इस्तेमाल करना सही नहीं, जिसे बनाने में कई वर्ष लगे हों। सार्वजनिक रूप से भले ही सरकार यह कहे कि उसे राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है, पर वह यह जानती है कि शायद ऐसा न होने पाए। अप्रैल से जून की तिमाही में अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी और 2018-2019 में यह उम्मीद है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत रहेगी। यह विश्व में किसी भी बड़े देश के लिए सबसे तेज बढ़ोतरी होगी। ऐसे में सरकार के लिए उतावलापन दिखाना ठीक नहीं है।


Date:02-11-18

बिजनस रैंकिंग में भारत की छलांग

अमिताभ कांत

कारोबारी मोर्चे पर छोटे एवं मझोले उद्योगों के प्रदर्शन और इससे संबंधित 10 पैमानों के आधार पर विश्व बैंक हर साल ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबारी सुगमता रिपोर्ट जारी करता है। वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्ष्य रखा था कि देश को कारोबारी सुगमता की सूची वाले शीर्ष 50 देशों में शामिल कराना है। तब भारत 189 देशों की सूची में 142वें स्थान पर था। ब्रिस देशों में वह अंतिम पायदान पर तो आठ दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में छठे स्थान पर था। विश्व बैंक की 2019 की इस सूची में भारत 77वें स्थान पर है। दक्षिण एशियाई देशों में उसे सबसे ऊंची रैंकिंग मिली है। पिछले तीन वर्षों में भारत ने इसमें 65 पायदान की छलांग लगाई है। भारत के आकार और जटिलता वाले कुछ ही देशों को ऐसी सफलता मिली है। इस सूचकांक में सुधार ‘मेक इन इंडिया के लिए इसलिए बेहद महत्वपूर्ण, योंकि व्यापार के लिए माहौल बनाने में धारणा का अहम योगदान होता है। इसके लिए लागू किए गए सुधार दर्शाते हैं कि हमने व्यापार के लिए स्वयं को खोला है। विश्व बैंक की रिपोर्ट में शीर्ष सुधारकों को दर्शाया गया है और निजी क्षेत्र के जानकारों की प्रतिक्रिया से ही रैंकिंग तैयार हुई है।

आज देश बिजली, छोटे निवेशकों के संरक्षण और ऋण सुविधा के पैमाने पर शीर्ष 25 देशों में शामिल हो गया है। इसी तरह निर्माण परमिट और विदेशी व्यापार के मामले में चोटी के 80 देशों में से एक है। यह बड़ी उपलधि रातोंरात हासिल नहीं हुई है। इसके पीछे कई एजेंसियों की चार वर्षों की कड़ी मेहनत है जिससे ऐसा सुधारवादी माहौल बना है। कारोबारी सुगमता सूचकांक में उछाल केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के विभिन्न विभागों के सतत प्रयासों का परिणाम है। सुधार की मानसिकता और दृष्टि में परिवर्तन से हमें यह सफलता हासिल हुई है। यह इसलिए और भी महत्वपूर्ण है कि इससे हम और सुधारवादी कदम उठाने के लिए प्रेरित होंगे। भावी सुधार इस बात पर निर्भर करेंगे कि हम उन संकेतकों में सुधार कर पाते हैं या नहीं जिनमें हम अब भी पिछड़े हैं। कारोबारी सुगमता के सभी संकेतकों में से संविदा प्रवर्तन और संपत्ति पंजीकरण में सुधार सबसे जटिल हैं। फिर भी कुछ प्रयास हुए हैं। जैसे-केंद्र सरकार ने कॉमर्शियल यानी वाणिज्यिक न्यायालय, वाणिज्यिक प्रभाग और वाणिज्यिक अपीलीय प्रभाग अधिनियम, 2015 में संशोधन किया है। इसी तरह दिल्ली और महाराष्ट्र की राज्य सरकारों ने भू-अभिलेखों के डिजिटलीकरण और पंजीकरण तथा यूटेशन का ऑनलाइन समाधान तैयार करने में भारी निवेश किया है। ये सभी प्रयास सही दिशा में केवल पहले कदम के तौर पर हैं।


Date:02-11-18

सरदार प्रतिमा के सबक

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में सरदार सरोवर बांध परियोजना के निकट देश की स्वतंत्रता के नायकों में से एक वल्लभभाई पटेल की विशालकाय प्रतिमा का अनावरण किया। सरकार का कहना है कि 182 मीटर ऊंची विश्व की सबसे ऊंची यह प्रतिमा पटेल के उन प्रयासों के स्मरण में बनाई गई है जो उन्होंने स्वतंत्रता के तत्काल बाद अनेक प्रांतों और ब्रिटिश रियासतों में बंटे भारत को एकजुट कर एक देश तैयार करने के लिए किए थे। यही वजह है कि इसे ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ (एकता की प्रतिमा) नाम दिया गया है। इसमें दो राय नहीं कि पटेल की विरासत पर काफी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। आधिकारिक इतिहासकारों ने लंबे समय तक उनके योगदान को सीमित करके दिखाया। उस दृष्टि से देखें तो यह इतिहास में सुधार का अत्यंत उत्कृष्ट प्रयास है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। फिर भी इस परियोजना को लेकर कुछ चिंताएं हैं।

इसकी लागत करीब 3,000 करोड़ रुपये है। यह दलील देना कठिन है कि नकदी के संकट से जूझ रही सरकार के लिए यह सबसे अहम प्राथमिकता है। सरकार कहेगी कि यह परियोजना पर्यटन के जरिये काफी राजस्व जुटाने में सक्षम है। परंतु यह भी कहा जा सकता है कि इस प्रतिमा पर व्यय की गई राशि की सहायता से उच्च शिक्षा के कई आधुनिक संस्थानों का वित्त पोषण किया जा सकता था या कई हजार एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जा सकती थी। इसमें कोई संशय नहीं है कि पटेल भी होते तो वह ऐसा ही कोई प्रयोग चुनते। इसे विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना के निकट बनाया जाना भी उन चिंताओं को स्वर देता है। इस परियोजना पर आरोप हैं कि इसमें विस्थापित अनुसूचित जनजाति के लोगों का उचित पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन नहीं हो सका है। यह भी सच है कि सरकार ने पूरी लागत का बोझ खुद नहीं उठाया। परंतु इसमें भी दिक्कत है। करीब 10 फीसदी धनराशि विभिन्न सरकारी उपक्रमों के कारोबारी सामाजिक उत्तरदायित्व के बजट से आई। क्या तेल क्षेत्र की सरकारी कंपनियों ने वाकई अपनी नकदी ऐसे काम में खर्च की होती? क्या यह सरकार द्वारा कंपनियों पर दबाव बनाकर अपनी रुचि के भारी-भरकम काम में धन खर्च कराने का एक और उदाहरण नहीं है? क्या इससे प्रतिमा निर्माण की प्रतियोगिता शुरू हो जाएगी? महाराष्ट्र में शिवाजी की इससे भी ऊंची प्रतिमा की योजना बन चुकी है।

बहरहाल जितने बड़े पैमाने पर यह उपलब्धि हासिल की गई उसकी सराहना होनी चाहिए। दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा अपेक्षाकृत कम समय में बनी। इसकी घोषणा 2014 के पहले की गई थी लेकिन निर्माण कार्य हाल के वर्षों में शुरू हुआ। यह तय समय से पहले पूरी हो गई। यह बात हमें याद दिलाती है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो भारत बड़ी से बड़ी परियोजनाएं एकजुट होकर पूरा कर सकता है। यह सच है कि यह पूरी प्रतिमा भारत में नहीं बनी है। देश में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां इतने बड़े पैमाने पर कांसे के आवरण की ढलाई हो सकती। इसे चीन से आयात किया गया है। परंतु जैसा कि इस परियोजना की ठेकेदार कंपनी लार्सन ऐंड टुब्रो ने इशारा किया इसमें पूरी परियोजना लागत का बहुत मामूली हिस्सा व्यय हुआ। इसका डिजाइन तैयार करने, योजना बनाने और क्रियान्वयन का काम भारत में हुआ। यह काम अत्यंत कम समय में प्रभावी ढंग से पूरा किया गया। यह हमारी असल उपलब्धि है जिसका जश्न मनाया जाना चाहिए। सरकार को यह देखना चािहए कि अन्य सरकारी योजनाओं में तय विनिर्माण लक्ष्यों की प्राप्ति इस अंदाज में क्यों नहीं हो पाती?


Date:02-11-18

आरबीआई के गवर्नर समझें अपनी ‘आजादी’ के मायने

टीसीए श्रीनिवास-राघवन

पिछले कुछ दिनों में हमें ऐसी अटकलें सुनने को मिली हैं कि अगर सरकार ने आरबीआई अधिनियम की धारा 7 के तहत हासिल शक्तियों का प्रयोग करते हुए भारतीय रिजर्व बैंक को निर्देश जारी किया तो उसके गवर्नर पद से ऊर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे। असल में गलत जानकारी से लैस मीडिया धारा 7 से कुछ उसी तरह नफरत करने लगा है जिस तरह वह आपातकाल के प्रावधान वाले संविधान के अनुच्छेद 352 को नापसंद करता है। शुक्र है कि अब विवेक जागता हुआ दिख रहा है। ऐसा लगता है कि डॉ पटेल अगले साल सितंबर में अपना कार्यकाल खत्म होने तक पद पर बने रहेंगे। बिना किसी लागलपेट के कहूं तो आरबीआई के पहले गवर्नर से लेकर अब तक के सभी गवर्नर मौद्रिक नीति पर मिली स्वतंत्रता का आशय गवर्नरों की स्वतंत्रता से लगाते रहे हैं। गवर्नरों की यह सोच रही है कि वे अकेले ही मौद्रिक नीति बना सकते हैं और उसमें सरकार की कोई राय नहीं होगी।

रिजर्व बैंक के गवर्नर का पदभार संभालते समय उन्हें मान्टेग्यु नॉर्मन के नजरिये से अवगत कराना एक अच्छा विचार होगा। वर्ष 1920 से लेकर 1944 तक बैंक ऑफ इंगलैंड के ताकतवर गवर्नर रहे नॉर्मन का मानना था कि सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच रिश्ता ‘हिंदू विवाह’ की तरह होना चाहिए। इसमें सरकार की भूमिका दबदबा रखने वाले पति की होगी जबकि बैंक ऑफ इंगलैंड मातहत पत्नी की भूमिका में होगा जो सलाह तो दे सकता है लेकिन उस पर अमल के लिए जोर नहीं देता है। लेकिन नॉर्मन की यह सलाह 1935 से अब तक अनसुनी ही रही है। आरबीआई के पहले गवर्नर के तौर पर सर ऑसबर्न स्मिथ ने वर्ष 1935 में कार्यभार संभाला था। इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया (बाद में भारतीय स्टेट बैंक) के प्रबंध निदेशक के तौर पर अपने हिसाब से काम करने के आदी रहे सर ऑसबर्न ने आरबीआई गवर्नर के रूप में भी दिल्ली की सरकार के आगे झुकने से इनकार कर दिया।

वायसरॉय परिषद में वित्त सदस्य सर जॉन ग्रिग का दर्जा आज के वित्त मंत्री की तरह था और विनिमय दर एवं सीमा शुल्क पर उनकी राय सर ऑसबर्न से अलग थी। सर ऑसबर्न का मानना था कि विनिमय दर को मुद्रास्फीति बढ़ाने वाले स्तर से नीचे रखना चाहिए। वह बैंक दर को नीचे रखना चाहते थे। लेकिन सरकार इस पर अपने रुख पर डटी रही। हालांकि उन दिनों धारा 7 का अस्तित्व नहीं होने से सर ऑसबर्न को सरकार यह निर्देश नहीं दे सकी कि वह उसके मुताबिक ही काम करें। हालांकि दोनों के बीच मतभेद बढ़ते चले गए। ऑस्ट्रेलिया में पले-बढ़े होने से सर ऑसबर्न जरूरत न होने पर भी कई बार काफी मुखर हो जाते थे। एक बार 1930 में इंपीरियल बैंक का चेयरमैन रहते समय उन्हें भारत सचिव की तरफ से कुछ निर्देश दिए गए तो उन्होंने कहा था, ‘कोई भी यही समझेगा कि इंपीरियल (बैंक) सरकार का एक विभाग है और बेहद तुच्छ स्तर का है।’

उन्होंने एक बार सरकार से यह भी कहा था कि ‘जब तक मैं इंपीरियल बैंक को चला रहा हूं, तब तक न तो लंदन और न ही कहीं अन्य जगह से मुझे संचालित किया जा सकता है।.. मैं अपने काम में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं बर्दाश्त कर सकता।’ उन्होंने वर्ष 1936 में लिखी एक चिठ्ठी में कहा था कि वह आरबीआई पर प्रभुत्व स्थापित करने की सरकार की कोशिशों से आजिज आ चुके हैं। सर ग्रिग और सर ऑसबर्न के बीच कुछ अन्य मुद्दों पर भी तनाव बना रहा। जब सर ऑसबर्न ने भारत से सोने की निकासी पर एतराज जताया और उस पर निर्यात शुल्क लगाने की मंशा जताई तो सरकार ने उसका पुरजोर विरोध किया। बाद में, सर ऑसबर्न आईसीएस अधिकारी ए डी श्रॉफ को जब अपना डिप्टी गवर्नर नियुक्त करना चाह रहे थे तो सर ग्रिग ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि ‘श्रॉफ ऑसबर्न के अंतरंग दोस्त और एक भयावह शख्स’ हैं। सर ऑसबर्न की नकारात्मक टिप्पणियां बढ़ती चली गईं। हद तब हो गई जब उन्होंने वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो को ‘कमजोर गधा’ कह दिया। इस तरह आरबीआई गवर्नर के तौर पर दो साल रहने के बाद ही उन्हें जुलाई 1937 में अपने पद से इस्तीफा देने के लिए कह दिया गया। विडंबना यह है कि किसी आईसीएस अधिकारी या अंग्रेज बैंकर की जगह सर ऑसबर्न को आरबीआई के गवर्नर पद पर नियुक्त करने की वजह ही यह थी कि सरकार इस केंद्रीय बैंक की स्वतंत्र हैसियत दिखाना चाह रही थी।

ब्रिटिश सिविल सेवकों की सर ऑसबर्न के बारे में राय इससे भी प्रभावित होती थी कि भारतीय व्यवसायी उनकी तारीफ करते थे। उद्योग मंडल इंडियन मर्चेंट चैंबर ने सर ऑसबर्न के इस्तीफे के बाद सर ग्रिग को बेहद कड़े संदेश वाला खत लिखा था। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस ने इस विवाद पर सारा ब्योरा सार्वजनिक करने की मांग की थी। लेकिन सरकार ने उस पर कुछ कहने के बजाय चुप्पी साध ली थी। रिजर्व बैंक की कमान संभालने वाले महान बैंकरों में शामिल रहे एस एस तारापोर ने एक बार कहा था कि आरबीआई को ऑसबर्न-ग्रिग प्रकरण पर एक पूरा वॉल्यूम जारी करना चाहिए। उससे यह नजर आ सकता है कि हालात में कोई भी बदलाव नहीं आया है।


Date:01-11-18

बड़े फलक के साझीदार

संपादकीय

भारत और जापान इतिहास और संस्कृति के जीवंत रिश्तों, विासों और जरूरतों की अन्योन्याश्रिताओं को पोषित करते हुए अब नियंतण्र विकास तथा सामरिक-रणनीतिक साझेदारी की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्ट्रांग इंडिया-स्ट्रांग जापान के जरिए आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं तो शिंजो आबे मोदी के भरोसे के सहारे भारत के साथ ताल-कदम मिलाने की। लेकिन क्या इस दोस्ती से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारत-जापान मिलकर केप ऑफ गुड होप से लेकर भारत-प्रशांत की व्यापक परिधियों तक कॉम्प्रीहेंसिव साझेदारी का निर्माण करने में सफल हो पाएंगे? सवाल यह भी है कि क्या भारत-जापान नियंतण्र फलक पर ऐसे प्रतियोगी विकास की बुनियाद रख पाएंगे जो चीन की नियंतण्र इंफ्रा-इकोनॉमिक स्ट्रैटेजी (विशेषकर वन बेल्ट वन रूट) को चुनौती दे सके? कभी-कभी लगता है कि जापान चीन के विरुद्ध नई रणनीति पर आगे बढ़ने में भारत पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर पा रहा है, क्या अब आगे वह ऐसा करने में समर्थ होगा?

जब एशिया रणनीतिक पुनर्रचना (स्ट्रैटेजिक रिशेपिंग) से गुजर रहा हो और चीन इसमें ऐसे स्थायी खांचों का निर्माण करने के लिए हर संभव यत्न कर रहा हो जिनमें वह अपने आप को एक ग्लोबल लीडर के रूप में फिट कर सके, क्या जापान और भारत मिलकर उसे पीछे धकेल पाएंगे? भारत-जापान-अमेरिका त्रिभुज या भारत-जापान-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया चतुभरुज (या रणनीति की तकनीकी शब्दावली में कहें तो नई दिल्ली-टोक्यो-वाशिंगटन धुरी या नई दिल्ली-टोक्यो-वाशिंगटन-कैनबरा धुरी) की जो कवायदें चल रही हैं, वे उन स्थितियों में सफल हो पाएंगी जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक अनिश्चित, असंभ्रांत एवं प्रतिक्रियावादी विदेश नीति को प्रश्रय दे रहे हों? मोदी 29 अक्टूबर को टोक्यो में शिंजो आबे से 12वीं बार और शिखर सम्मेलन में 5वीं बार मिले। टोक्यो में मोदी ने अपने संबोधन के जरिए दुनिया को बताने का प्रयास किया कि भारत-जापान अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों में ठोस विकास के प्रयास में संयुक्त तौर पर निवेश करना चाहते हैं। हालांकि इस सम्बंध में ¨शजो आबे 2016 में ही घोषणा कर चुके हैं। जहां तक द्विपक्षीय संबंधों की बात है तो भारत के लिए जापान इस समय काफी अहम दिखाई दे रहा है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि जापान तकनीक के क्षेत्र में एशिया का सबसे एडवांस देश है, और भारत को तकनीकी उन्नयन एवं विकास की जरूरत है। दूसरा यह कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में जो समीकरण बन रहे हैं, उनमें भारत को अपने पक्ष में संतुलन बनाए रखना है, तो जापान के साथ समग्र एवं अन्योन्याश्रितता की साझेदारी करनी होगी।

फिर इसे थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, फिलीपींस आदि तक विस्तार देना होगा। कारण यह है कि इस क्षेत्र में अब अनिश्चितता और गैर-संभ्रांतता वाली प्रतियोगिता अधिक दिखने लगी है। उदाहरण के तौर पर चीन अपने आर्थिक आकार के कारण अपनी सैन्य क्षमता का विस्तार कर रहा है। दूसरी तरफ रूस इस समय ‘‘पीवोट टू एशिया’ पर काम कर रहा है। उसका मुख्य फोकस है पूर्वी एशिया में रक्षा सहयोग के जरिए स्थायी पैठ सुनिश्चित करना। ऐसे में रूस और चीन बेहतर साझेदारी निर्मित कर ले जाते हैं, जो अभी संभव नहीं दिखाई देती, तो फिर उसकी काट ढूंढ़ना मुश्किल हो जाएगी। तीसरा पक्ष ऑस्ट्रेलिया है, जिसकी दिशा अभी स्पष्ट नहीं है क्योंकि वह चीन के खिलाफ जाने का निर्णायक मनोविज्ञान विकसित नहीं कर पाया है। अंतिम और सबसे निर्णायक पक्ष अमेरिका है, जिसकी विदेश नीति राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की असंभ्रांत, अनिश्चित और दिशाहीन सक्रियता का शिकार है, इसलिए उससे स्थायी भरोसा नहीं किया जा सकता। हालांकि भारत से पहले ही अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ एक रणनीतिक चतुभरुज का निर्माण कर चुका है, जिसका मुक्त उद्देश्य तो कनेक्टिविटी एवं मैरीटाइम सिक्योरिटी है, लेकिन इसके पीछे अमेरिका और जापान का एक छुपा हुआ उद्देश्य चीनी विस्तार को रोकना भी है, लेकिन ट्रंपियन युग में इस पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचाना मुश्किल होगा।

लेकिन भारत के लिए जरूरी है कि हिन्द महासागर में अपनी स्थिति का आकलन कर जापानी सहयोग से सॉफ्ट और स्ट्रैटेजिक पॉवर का विस्तार करे। अनमेन्ड एरियल विहीकल्स, रोबोटिक्स आदि क्षेत्र में संयुक्त परियोजनाओं को व्यावहारिक आकार दे। रही बात जापान की तो चीन दक्षिण चीन सागर में एकाधिकार चाहता है। जापान की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में वह उसे एक स्खलित राष्ट्र की संज्ञा तक दे जाता है। ध्यान रहे कि उसने नये हवाई क्षेत्र प्रतिबंध को लागू करने का निर्णय लिया है, जिसके दायरे में सेनकाकू (जापानी नाम) भी आता है, या कहें तो वह स्प्राटली द्वीप का विवाद (वियतनाम, ताइवान के साथ) पैदा कर रहा है। चीन का यह मनोविज्ञान आबे को ‘‘पोस्ट-वार पेसिफिस्ट संविधान’ में संशोधन कर नई रक्षा नीति बनाने की जरूरत भी महसूस करा रहा है। संभव है कि जापान अमेरिकी छतरी से बाहर आकर अपना सुरक्षा कवच स्वयं तैयार करना चाहे। ऐसे में उसे भारत की और अधिक जरूरत होगी। यह भी देखना होगा कि चीन के एक महाशक्ति के रूप सामने आते ही शक्ति संतुलन का केंद्र वाशिंगटन से बीजिंग कैसे खिसकता है, या शी जिनपिंग इस तरह का प्रयास किस प्रकार करते हैं। इन्हीं रणनीतियों, सक्रियताओं एवं संयोजनों के अनुसार नई दिल्ली-टोक्यो के बीच भी नये संयोजनों की जरूरत होगी। संभवत: दोनों देशों के बीच ‘‘टू प्लस टू डायलॉग’ पर सहमति इन्हीं उद्विकासों का परिणाम है।

भारत और जापान सुरक्षा सहयोग में ‘‘टू प्लस टू डायलॉग’, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय मैरीटाइम एक्सरसाइज तथा हथियारों की बिक्री शामिल होगी। उल्लेखनीय है कि सब-कैबिनेट/सीनियर ऑफिसियल्स के स्तर पर ‘‘टू प्लस टू डायलॉग’ के लिए नई दिल्ली और टोक्यो के बीच सहमति बनाने का प्रयास 2009 में ही शुरू हो गया था लेकिन अंतिम निष्कर्ष तक अब पहुंच पाए। इस देरी के लिए संभवत: जापान के कुछ संकोच और हिचकिचाहटें जिम्मेदार रहीं। फिलहाल, दोनों देशों की जियो-पॉलिटिकल रणनीति में काफी समानता है। मोदी की ‘‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ और आबे की ‘‘फ्रीएंड ओपन इंडो पैसिफिक पॉलिसी’ निर्णायक बॉण्ड बनाती नजर आ रही है। देखना है कि मोदी की स्मार्ट डिप्लोमेसी और शिंजो का मोदी फेथ दोनों देशों के रिश्तों को किन सिरों तक विस्तार दे पाता है।


Date:01-11-18

माओवादियों की खीझ

संपादकीय

छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित इलाकों में हर चुनाव का दौर एक खतरनाक समय होता है। पिछले कुछ साल से यह खतरा ज्यादा ही बढ़ गया है। इस इलाके से सुरक्षा बलों पर हमलों की खबरें तो किसी भी समय पर आती रहती हैं, लेकिन चुनाव के दौर में यहां के माओवादी आतंकवादी कुछ ज्यादा ही उग्र हो जाते हैं। याद कीजिए, पिछले विधानसभा चुनाव से पहले का दौर, जब इसी क्षेत्र में माओवादियों ने कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के दल पर घात लगाकर हमला बोला था। यहां पर माओवादियों की असली दिक्कत यह है कि स्थानीय जनता चुनाव बहिष्कार की उनकी अपील पर जरा भी कान नहीं देती। पिछले कुछ चुनावों के मत-प्रतिशत को देखें, तो दंतेवाड़ा जैसे सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित इलाके में भी उसी तरह का मतदान मिलेगा, जिस तरह का मतदान देश के दूसरे हिस्सों में होता है। दुनिया भर में चुनाव बहिष्कार की आतंकवादियों की अपील जब काम नहीं करती, तो वे हत्याकांडों से आतंक पैदा करते हैं, ताकि डर से लोग वोट डालने ही न जाएं। यही माओवादी भी करते हैं। इसलिए चुनाव के दौरान वहां घात लगाकर हमले करना आम है। कभी इसके शिकार सुरक्षा बल होते हैं, तो कभी चुनाव प्रचार कर रहे नेता। लेकिन इस बार जो खबर आई है, वह बताती है कि माओवादियों की खीझ इतनी बढ़ गई है कि मीडिया और पत्रकारों को भी वे अपना निशाना बनाने लगे हैं।

वे नहीं चाहते कि यह खबर लोगों तक पहुंचे कि दंतेवाड़ा में भी चुनाव की प्रक्रिया वैसे ही चल रही है, जैसे दूसरे हिस्सों में चल रही है या शायद इससे भी आगे जाकर वे दंतेवाड़ा के किसी भी सच को लोगों के सामने नहीं आने देना चाहते। पूरी सुरक्षा के साथ दंतेवाड़ा में चुनाव कवरेज के लिए गई प्रेस पार्टी पर हमला और फिर दूरदर्शन के पत्रकार अच्युतानंद साहू की हत्या यह बताती है कि माओवादियों की हताशा अब किस स्तर तक पहुंच चुकी है। इस मुठभेड़ में घिरे दो पत्रकार तो किसी तरह बच गए, लेकिन दो जवानों को उनकी सुरक्षा की कोशिश में अपना बलिदान देना पड़ा। 45 मिनट तक चली यह मुठभेड़ बताती है कि माओवादियों ने इसके लिए किस स्तर की तैयारी की थी। बेशक इस घटना में खुफिया तंत्र की खामी की बात कही जा सकती है, लेकिन ऐसे दुर्गम इलाकों में आतंकवादियों की रणनीति की थाह पाना कभी आसान नहीं होता।

माओवादियों की खीझ इसलिए भी इन दिनों रह-रहकर उजागर हो रही है कि पूरा भारतीय तंत्र लगातार उनके पीछे पड़ा हुआ है। ऑपरेशन ग्रीन हंट के बाद से सभी सरकारों ने माओवादियों के खिलाफ लगातार कड़ा रुख अपनाए रखा है और उन्हें अपने कई बड़े नेताओं से भी हाथ धोना पड़ा है। राजनीतिक आरोप एक-दूसरे पर भले ही कुछ भी लगते रहे हों, लेकिन माओवादी आतंक के खात्मे की रणनीति पर केंद्र और राज्यों की सरकारें बदलने से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा है। इस सख्ती को लगातार बढ़ाते रहना जरूरी है। उन स्थितियों को खत्म करना भी जरूरी है, जिसमें माओवादियों को हथियारों की आपूर्ति जारी है और उनकी पांतों में अभी भी लगातार नए लोगों की भर्ती हो रही है। फिलहाल सबसे जरूरी है चुनाव प्रक्रिया को ठीक से चलाना और लोगों को सुरक्षा देना, ताकि वे निडर हो मतदान कर सकें। अभी जो मोर्चा है, उसमें अधिक से अधिक मतदान से ही माओवादियों को सबसे बड़ी मात मिलेगी।


Date:01-11-18

एकता का प्रतीक

संपादकीय

देश के पहले गृहमंत्री और भारत गणराज्य को एक सूत्र में पिरोने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा का अनावरण कर प्रधानमंत्री ने अपने संकल्प को साकार रूप दे दिया। यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है। एक सौ बयासी मीटर लंबी। इसे एकता की प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया है। इस प्रतिमा को लगाने का संकल्प प्रधानमंत्री ने 2013 में गुजरात के मुख्यमंत्री रहते लिया था। इसके लिए गुजरात की ग्राम पंचायतों से लोहा दान का अभियान चलाया गया। यानी लोगों के दान दिए गए लोहे को गला कर पटेल की प्रतिमा गढ़ने की योजना बनी। वह योजना पटेल की सौवीं जयंती के अवसर पर साकार हो सकी।

सरदार पटेल के प्रति केवल गुजरात में नहीं, पूरे देश में सम्मान है। गुजरात के लिए उन्होंने अनेक उल्लेखनीय काम किए थे, जो आज भी सरकारों के लिए आदर्श हैं। मसलन, अमदाबाद नगरपालिका में रहते हुए उन्होंने जो सफाई और जल आपूर्ति की व्यवस्था की थी, वह आज भी तमाम नगरपालिकाओं के लिए नजीर है। इसी तरह, उन्होंने महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए सराहनीय कदम उठाए। किसानों के हितों के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। आजादी के समय सबसे बड़ी समस्या यह खड़ी हो गई थी कि तमाम रजवाड़े भारत संघ में शामिल होने से इनकार कर रहे थे। वे अपना स्वतंत्र राज्य चाहते थे, वहां वे अपनी हुकूमत चलाना चाहते थे। पर गांधीजी के कहने पर रजवाड़ों को भारत संघ में मिलाने की जिम्मेदारी सरदार पटेल को सौंपी गई। इसके लिए उन्होंने रणनीति तैयार की और तमाम रियासतों से बात करके उन्हें भारत सरकार के अधीन लाने में कामयाबी हासिल की। देश को एक सूत्र में पिरोने के उनके साहसिक और सूझ-बूझ भरे काम की अब तक मिसाल दी जाती है। बाद में गृहमंत्री रहते हुए अनेक विवादास्पद मसलों और चुनौतीपूर्ण स्थितियों में उन्होंने कठोर फैसले किए, जिसके चलते उन्हें ‘लौह-पुरुष’ की संज्ञा दी गई। निस्संदेह ऐसे नेता की प्रतिमा लगना देश के लिए गौरव का विषय है।

पर स्वाभाविक ही, यह सवाल उठते रहे हैं कि सरदार पटेल कांग्रेस के नेता थे, फिर इतने लंबे समय तक कांग्रेस का शासन रहने के बावजूद कभी उनकी प्रतिमा लगाने का विचार उनकी पार्टी के किसी व्यक्ति के मन में क्यों नहीं आया। इस काम का बीड़ा भारतीय जनता पार्टी के एक नेता ने उठाया! इसके पीछे पटेल और नेहरू के बीच का मतभेद कारण माना जाता है। उसी मतभेद के चलते नेहरू परिवार के प्रति निष्ठावान कांग्रेस के किसी शासक ने पटेल को वह सम्मान कभी नहीं दिया, जो उन्हें मिलना चाहिए था। पर जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पटेल की प्रतिमा लगाने का फैसला किया, तब भी स्वाभाविक प्रश्न उठने और कयास लगने शुरू हो गए कि भाजपा इस प्रतिमा के जरिए अपना राजनीतिक समीकरण साधने का प्रयास कर रही है। हालांकि पटेल की प्रतिमा के जरिए भाजपा ने कांग्रेस को निशाने पर नहीं लिया। वह चाहती, तो इतिहास को कुरेद सकती थी, पर ऐसा नहीं किया। पटेल को जीते-जी निस्संदेह वह महत्त्व नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था। पर संतोष की बात है कि अब राजनीतिक सीमारेखा को लांघ कर उनकी भव्य प्रतिमा के जरिए उनके महत्त्व को रेखांकित किया गया है। इससे देश की एकता और अखंडता, सांप्रदायिक सौहार्द, किसान-मजदूरों, स्त्रियों आदि के उत्थान को अपना जीवन समर्पित करने वाले ऐसे अन्य नेताओं के सम्मान की भी सुध ली जाएगी।


Date:01-11-18

Support for lives on the move

A national policy for internal migration is needed to improve earnings and enable an exit from poverty

G. Arun Kumar,M. Suresh Babu , (Arun Kumar and M. Suresh Babu are Professors at IIT Madras.)

Though migration is expected to enhance consumption and lift families out of absolute poverty at the origin, it is not free from distress — distress due to unemployment or underemployment in agriculture, natural calamities, and input/output market imperfections. Internal migration can be driven by push and/or pull factors. In India, over the recent decades, agrarian distress (a push factor) and an increase in better-paying jobs in urban areas (a pull factor) have been drivers of internal migration. Data show that employment-seeking is the principal reason for migration in regions without conflict.

The costs of migration

However, at the destination, a migrant’s lack of skills presents a major hindrance in entering the labour market. Further, the modern formal urban sector has often not been able to absorb the large number of rural workers entering the urban labour market. This has led to the growth of the ‘urban informal’ economy, which is marked by high poverty and vulnerabilities. The ‘urban informal’ economy is wrongly understood in countries such as India as a transient phenomenon. It has, in fact, expanded over the years and accounts for the bulk of urban employment.

Most jobs in the urban informal sector pay poorly and involve self-employed workers who turn to petty production because of their inability to find wage labour. Then there are various forms of discrimination which do not allow migrants to graduate to better-paying jobs. Migrant workers earn only two-thirds of what is earned by non-migrant workers, according to 2014 data. Further, they have to incur a large cost of migration which includes the ‘search cost’ and the hazard of being cheated. Often these costs escalate as they are outside the state-provided health care and education system; this forces them to borrow from employers in order to meet these expenses.

And frequent borrowing forces them to sell assets towards repayment of their loans. Employment opportunities, the levels of income earned, and the working conditions in destination areas are determined by the migrant’s household’s social location in his or her village. The division of the labour market by occupation, geography or industry (labour market segmentation), even within the urban informal labour market, confines migrants to the lower end. Often, such segmentation reinforces differences in social identity, and new forms of discrimination emerge in these sites.

The benefits of migration

Despite these issues, internal migration has resulted in the increased well being of households, especially for people with higher skills, social connections and assets. Migrants belonging to lower castes and tribes have also brought in enough income to improve the economic condition of their households in rural areas and lift them out of poverty. Data show that a circular migrant’s earnings account for a higher proportion of household income among the lower castes and tribes. This has helped to improve the creditworthiness of the family members left behind — they can now obtain loans more easily. Thus, there exists a need to scale-up interventions aimed at enhancing these benefits from circular or temporary migration. Interventions targeting short-term migrants also need to recognise the fact that short-term migration to urban areas and its role in improving rural livelihoods is an ongoing part of a long-term economic strategy of the households. Local interventions by NGOs and private entrepreneurs also need to consider cultural dimensions reinforced by caste hierarchies and social consequences while targeting migrants.

Why a national policy?

The need for a national policy towards internal migration is underscored by the fact that less than 20% of urban migrants had prearranged jobs and nearly two-thirds managed to find jobs within a week of their entry into the city, as a study in the early ’90s showed and that we verified through field work in Tamil Nadu in 2015. The probability of moving to an urban area with a prearranged job increases with an increase in education levels. Access to information on employment availability before migrating along with social networks tend to reduce the period of unemployment significantly. Social networks in the source region not only provide migrants with information on employment opportunities, but are also critical as social capital in that they provide a degree of trust. While migrants interact with each other based on ethnic ties, such ties dissipate when they interact with urban elites to secure employment.

In India, the bulk of policy interventions, which the migrants could also benefit from, are directed towards enhancing human development; some are aimed at providing financial services. As government interventions are directed towards poverty reduction, there is a dearth of direct interventions targeted and focussed on regions. Policies on this could be twofold. The first kind could aim at reducing distress-induced migration and the second in addressing conditions of work, terms of employment and access to basic necessities.

Narrowly defined migrant-focussed interventions will not enhance the capabilities of migrants that could lead to increased earnings and an eventual exit from poverty. There is also a need to distinguish between policy interventions aimed at ‘migrants for survival’ and ‘migrants for employment’. Continued dynamic interventions over long periods of time would yield better results compared to single-point static interventions, especially in the context of seasonal migrants. Local bodies and NGOs which bring about structural changes in local regions need to be provided more space.

There is a lack of focussed intervention aimed at migrants. Interventions aimed at enhanced skill development would enable easier entry into the labour market. We also need independent interventions aimed specifically at addressing the needs of individual and household migrants because household migration necessitates access to infrastructure such as housing, sanitation and health care more than individual migration does. Various interventions must complement each other. For instance, government interventions related to employment can be supported by market-led interventions such as microfinance initiatives, which help in tackling seasonality of incomes. Policy interventions have to consider the push factors, which vary across regions, and understand the heterogeneity of migrants. As remittances from migrants are increasingly becoming the lifeline of rural households, improved financial infrastructure to enable the smooth flow of remittances and their effective use require more attention from India’s growing financial sector.


Date:01-11-18

Not a holy book

As aftermath of Sabarimala judgment shows, India is not ready for a constitutional theocracy.

Faizan Mustafa, (The writer is president, Consortium of National Law Universities.)

Religion has not only been an indispensable part of human existence, but it is an also ineffaceable part of our lives. Indian society is predominantly religious and as a result, we are not at ease with the idea of secularism and religion continues to play a dominant role in political discourse. What an individual does with his own “solitariness” is how Alfred North Whitehead defines religion. For former President S Radhakrishnan, religion was “a code of ethical rules and that the rituals, observances, ceremonies and modes of worship are its outer manifestations”. Religions are nothing but the submission to some higher or supernatural power. Constitutions, like religions, do try to bring in some order and coherence into an otherwise disorderly world.

Accordingly, even the US, despite its wall of separation between church and state is rightly termed as a “nation with the soul of [a] church”. Justice William O Douglas in Zorach v Clauson (1952) admitted that “we are religious people, whose institutions presuppose a Supreme Being”. Religions are about “beliefs” — reason and empiricism are alien to religions. Moreover, religions are exclusionary and discriminatory. The Sabarimala protests against the Supreme Court judgment, though deplorable, are thus neither novel nor surprising. Post the Shah Bano decision, we had a similar experience. What is surprising is the Court’s over-indulgence in purely religious matters in the name of constitutional morality and its enthusiasm in reforming religions, particularly discriminatory gender-unjust religious practices. Reforms are a must, but top-down reforms are always counter-productive and allow fanatics to hijack the debate.

Religions are indeed regressive, but we can observe the increasing adoption of religious frameworks by liberal democracies. Modern constitutions too are becoming similar to religions, resulting in a sort of constitutional theocracy. Abraham Lincoln in 1838 urged Americans to consciously adherence to the “political religion of the nation”. Prime Minister Narendra Modi himself said in 2014 that only the holy book for him is the Constitution of India. From Lalu Prasad to victims of mob-lynching to perpetrators of sexual harassment, everyone makes a religiously loaded statement while “swearing” by the Constitution expressing full “faith” in the judiciary. Is not “faith” another name for religion?

All belief is generally blind. Thus, one should not reason with a devotee be he a devotee of god or a politician. Atal Bihari Vajpayee famously called Indira Gandhi Durga in 1971. Recently, Maharashtra BJP spokesperson, Avadhut Wagh, called the PM the 11th incarnation of Lord Vishnu. Rahul Gandhi is visiting temples to prove that he too is a devout Hindu. Most Indian ministers take their oath of office “in the name of God” rather than by saying “I solemnly affirm”. Our courts are called “temples of justice” and the Supreme Court’s own seal says Yato Dharmasto Jayah (where there is Dharma , there is justice). “Dharma” and “law” were used as synonyms in Hindu religion and our apex court too treats them as the same.

Do not we say the Constitution — like divine law — is a higher law to which all laws and human beings are to be subordinated? Are not our Supreme Court judges trying to bring in a new civil religion in the name of constitutional morality? Is it not a fact that our judges frequently and at times unnecessarily quote religious scriptures in deciding purely worldly matters? God has authority over us and the law too is all about authority. The Constitution is indeed the holy scripture of the modern civil religion. Like other organised religions, this civil religion has its hymns and its sacred ceremonies, its prophets and its martyrs. If given full effect, this constitutional theology and what former Chief Justice Dipak Misra termed a “constitutional renaissance” can bring about heaven on earth with the true realisation of justice, liberty, equality and even of fraternity though it is much less emphasised.

Judges under this civil religion are like priests — they put on robes as well. Like priests, they alone have the authority to tell us the meaning of the sacred text. They are even addressed as “My Lords” and criticism/disobedience, like blasphemy, is punishable as contempt of court. Many a time, these lords indeed saved our democracy from authoritarianism and just like god, sometimes they too arbitrarily decide on life and death. Should religions be subjected to constitutional morality and rationality? Rationality and religious beliefs do not go together and the Constitution protects these beliefs. In the Preamble itself, our Constitution guarantees “liberty of thought, expression, belief, faith and worship”. Article 26 gives autonomy to every religious denomination or any section thereof “in matters of religion”, subject to public order, health and morality.

In interpreting these articles, the Supreme Court had said that every religious practice will not be constitutionally protected. The Court restricted freedom of religion to “essential practices”. In the process, it ignored the fact that privileging one practice over another is not right. All practices taken together constitute a religion. Moreover, in Ismail Farooqi (1994), the Court further restricted religious freedom by adding new conditions through new doctrines of “peculiar significance of religious practice” and insisting on “comparative examination of religious practice under different religions”. Both the requirements are contrary to earlier judgments of the Court and deserve reconsideration by a larger bench. In the Sabarimala judgment (2018), Justice D Y Chandrachud was candid enough to acknowledge the problems with the essentiality test.

This author has consistently said that courts should not behave like clergy. It is not the judiciary’s job to reform religions. The Sabarimala protests and politicisation of the issue is yet another reminder that we should tread cautiously while dealing with purely religious matters. The supremacy of the Constitution need not be converted into an idolatry of the law. Constitutional morality is a laudable goal but we are not yet ready for it. Despite Constitution’s text, on the ground, neither does freedom of religion mean “freedom from religion” nor does it include — at least for our women — “freedom within religion”.


 

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उत्तर लिखने के अभ्यास के लिए प्रश्न – 180

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उत्तर लिखने के अभ्यास के लिए प्रश्न – 180

03 November 2018

प्रश्न– 180 –  भारतीय जननांकीय में वृद्धों के निरंतर बढ़ रहे प्रतिशत के मूल कारण क्या हैं ? इनसे जुड़ी समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार ने क्या-क्या कानून बनाये हैं ? इस हेतु निजी एवं समाज के स्तर पर अन्य क्या कदम उठाये जाने चाहिए ? (250 शब्द)

Question– 180 – What are the basic reasons for the continuous growing percentage of the elderly in Indian demographic? What are the laws made by the government to solve problems related to them? What other steps should be taken at the level of private and society for this? (250 words)

नोट: इसका उत्तर आपको हमें नहीं भेजना है, यह आपके स्वयं के अभ्यास के लिए है।


 

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03-11-2018 (Important News Clippings)

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03-11-2018 (Important News Clippings)

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Date:03-11-18

Welcome Benefits for The MSME Sector

ET Editorials

The benefits announced by the Prime Minister for the micro, small and medium enterprises (MSME) are welcome. A plan to let MSMEs obtain a loan in 59 minutes has grabbed the headlines, but the substantive reform is mandating all large firms — defined as companies with a turnover over Rs 500 crore — to make their procurement from MSMEs eligible for factoring. This is to be achieved by compulsory listing of all bills of supply from MSMEs on the Trade Receivables electronic Discounting System (TReDS). The promise of higher interest subvention to exporters is welcome, too, although the real reform the sector needs is faster release of much-delayed input tax credit on exports. Factoring is like bill discounting, except that the factor, normally a bank, takes over from the supplier collection of the receivable from the buyer, making large companies negotiate with banks rather than with small vendors.

Factoring could not take off because large firms cut out from their supply chain small suppliers who took their receivables to a factor — big firms like free credit from small suppliers, whom they pay with a lag of four months or more. Forcing large companies to list all their receivables on TReDS will curb this practice and benefit the MSMEs. In addition, the government could altergoods and services tax (GST) rules to make large buyers collect and take credit for the GST on their purchases from the small sector, so that MSMEs do not have to bear the financing cost of the tax they pay till they are paid by their supplier.

The grandiose plan to give loans in 59 minutes begs the question, on what collateral, by which branch with what relationship with the borrower and with what guarantee of debt servicing? Without clear titles to land, what collateral will MSMEs offer? A well-functioning debt market is the solution to MSME finance, along with greater freedom for the emerging fintech sector to operate in trade credit. NBFCs, small finance banks, etc, can raise money from the debt market and service MSMEs that cannot access the debt market directly. The government and Reserve Bank of India must work to this end.


Date:03-11-18

चीन के विरुद्घ प्रतिरोध

टी. एन. नाइनन

चीन की आक्रामकता और उसके विस्तारवाद में हाल के वर्षों में जो तेजी आई है, क्या उसकी कीमत अब उसे चुकानी पड़ रही है? ऐसा लगता तो है। कई वर्षों तक चीन तकनीकी चोरी को वस्तु व्यापार तथा मौद्रिक नीति के साथ मिलाजुलाकर बच निकलता रहा। उसके बाद उसने विदेश नीति में आक्रामकता दिखानी शुरू की। डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका को चीन के निर्यात पर शुल्क बढ़ाया तो चीन के इस तेज सफर को पहला झटका लगा। इसका नुकसान अमेरिका को भी होगा क्योंकि अमेरिकी उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी होगी लेकिन कुछ उत्पादन इकाइयां चीन से बाहर भी जा सकती हैं। इस वर्ष युआन की कीमत कई एशियाई मुद्राओं की तुलना में अधिक गिरी है। बेल्ट और रोड पहल भी कई देशों पर भारी पड़ रही है। श्रीलंका को अपना एक बंदरगाह 99 वर्ष के लिए देना पड़ा है। कोलंबो में सागर से जुड़े भाग का प्रमुख हिस्सा भी उसे सौंपना पड़ा है। मलेशिया में सरकार बदलने के बाद एक रेलवे लाइन और गैस पाइपलाइन को रद्द किया गया और तीन कृत्रिम द्वीपों पर बनने वाली बस्तियों का काम रोका गया। इसके जरिये चीन के अमीर लोगों को लुभाया जा रहा था। चीन के सदाबहार दोस्त पाकिस्तान को भी कुछ अनुबंधों के लिए घरेलू आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। इन अनुबंधों की अधिकांश शर्तें गोपनीय हैं। नई सरकार के अधीन पाकिस्तान परियोजनाओं की छानबीन कर रहा है और संभवत: उनमें से कुछ को लेकर नए सिरे से बातचीत भी करना चाहता है। मालदीव में भी सरकार बदली है और वहां भी ऐसा कुछ देखने को मिल सकता है। एशिया में विस्तारवाद की पहचान बनने वाली योजना असंतोष की वजह बन गई है।

स्पष्ट है कि सरकारें बदलने के बाद बेल्ट और रोड परियोजना का पुनर्आकलन चीन के नियंत्रण में नहीं है। परंतु चीन राजनीतिक बदलाव में छेड़छाड़ कर सकता है जिससे चुनाव नतीजे बेमानी हो जाएं। श्रीलंका की हालिया घटनाओं से तो यही संकेत मिलता है। मलेशिया, श्रीलंका, मालदीव और कुछ अफ्रीकी देशों में बड़ा मुद्दा यह है कि स्थानीय राजनीतिक वर्ग ने अव्यवहार्य परियोजनाओं से जुड़े अनुबंध पर हस्ताक्षर करने में समझौतापरक रुख दिखाया। अब अनुबंध को लेकर नए सिरे से बातचीत से नए विवाद उत्पन्न हो सकते हैं और महंगे साबित हो सकते हैं क्योंकि जब भी उन्हें रद्द करने की बात आती है तो चीन अनुबंध की शर्तों की दुहाई देता है। चीन को तकनीकी मोर्चे पर भी झटका लगा है। उस पर लंबे समय से पश्चिमी देशों से तकनीक चुराने और सुरक्षित नेटवर्क में सेंध लगाने का आरोप रहा है। उसके दूरसंचार उपकरणों को आशंका से देखा जाता है कि वे जासूसी कर सकते हैं। अब कुछ देश रक्षात्मक उपाय करने लगे हैं। अमेरिका और कनाडा के बाद जर्मनी ने भी उच्चस्तरीय इंजीनियरिंग कंपनियों की चीन से जुड़ी खरीद पर रोक लगा दी। पश्चिमी देश चौथी औद्योगिक क्रांति के नेतृत्व को लेकर चीन की महत्त्वाकांक्षा से परिचित हैं। जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने इस विषय पर समूचे यूरोप के एकजुट होने की बात कही है। ऑस्ट्रेलिया ने सुरक्षा कारणों से हाल ही में दो चीनी कंपनियों हुआवेई और जेडटीई के 5जी संचार नेटवर्क उपलब्ध कराने पर रोक लगा दी है। इससे पहले अमेरिका ने हुआवेई के फोन की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था और जेडटीई को अमेरिका में बने उपकरण अपने फोन में इस्तेमाल करने से रोक दिया था।

क्षेत्र के कई देश चीन को लेकर अपने पुराने रुख पर पुनर्विचार कर रहे हैं। इंडोनेशिया के समुद्र में चीन के मछुआरों की नौकाएं देखे जाने के बाद टकराव की स्थिति बन गई थी। इंडोनेशिया ने भारत के साथ गर्मजोशी दिखाते हुए भारतीय नौसैनिक पोतों को मलक्का खाड़ी के निकट सबांग बंदरगाह पर पहुंच मुहैया कराई। ऑस्ट्रेलिया की सरकार और मीडिया में भी चीन को लेकर ठंडापन नजर आ रहा है। ऑस्ट्रेलिया में पिछले वर्ष उस समय कानून बदल दिया गया जब पता चला कि राजनीतिक दलों को दान देने वाले कई चीनी, चीन की सरकार से ताल्लुक रखते हैं। कुछ ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय चीनी विद्यार्थियों पर इतने अधिक निर्भर हो गए हैं कि वे उनके बिना चल नहीं सकते। ट्रंप का शुल्क अमेरिका को भी नुकसान पहुंचाएगा। अधिकांश देशों के कारोबारियों को डर है कि अगर उनकी सरकार चीन के खिलाफ हो गई तो उन्हें चीन के बाजार में नुकसान होगा। ब्याज दरों में इजाफा होने पर अमेरिका में मंदी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। तब ट्रंप की आक्रामकता में कमी आएगी और चीन को एक बार फिर मौका मिलेगा।


Date:03-11-18

रोजगार, प्रतिस्पर्धा और प्रसन्नता की उलझन

देश में असमानता और सामाजिक तनाव बढ़ रहा है तथा विभाजनकारी राजनीति देखने को मिल रही है। जाहिर तौर पर देश खुशहाल नहीं है।

अजय छिब्बर

देश के दिग्गज कारोबारियों में शुमार रहे जेआरडी टाटा ने कहा था,’मैं नहीं चाहता कि देश आर्थिक महाशक्ति बने। मैं चाहता हूं कि हमारा मुल्क एक प्रसन्न देश बने।’ अगर आंकड़े सही हैं तो बीते एक दशक से अधिक समय से 7 फीसदी से अधिक की जीडीपी वृद्घि दर ने देश को दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की प्रमुख क्रिस्टीन लेगार्ड इसे भारत के लिए ‘सुनहरी स्थिति’ कहती हैं। देश की जीवन संभाव्यता बढ़ी है और गरीबी में कमी आई है। अधिक पिछड़े इलाकों, पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों और मुस्लिमों के बीच गरीबी में तेजी से कमी आई है। ये सभी तबके गरीबी के ऊंचे स्तर के लिए जाने जाते रहे हैं।

परंतु यह तेज वृद्घि इतने रोजगार नहीं तैयार कर पा रही है कि जो देश की युवा और तेजी से बढ़ती आबादी को चाहिए। यही वजह है कि देश में असमानता बढ़ रही है, सामाजिक तनाव में इजाफा हो रहा है और विभाजनकारी राजनीति देखने को मिल रही है। जाहिर तौर पर देश खुशहाल नहीं है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम खर्च तथा कमजोर वित्तीय तंत्र और संस्थानों के चलते भविष्य को लेकर खतरा उत्पन्न हो गया है। अतीत में देश ने तेजी से जो विकास किया वह सेवाओं पर आधारित था, श्रम आधारित विनिर्माण पर नहीं। जबकि पूर्वी एशिया के शेष देश श्रम आधारित विनिर्माण से प्रगति कर रहे थे। यही वजह है कि अधिक संख्या में लोग कृषि क्षेत्र से बाहर नहीं आ पाए। जाटों, पाटीदारों और मराठाओं के विद्रोह, किसानों की हड़ताल और बढ़ती अव्यवस्था के लिए अवसरों की कमी ही जिम्मेदार है।

वैश्विक प्रतिस्पर्धी सूचकांकों और विश्व बैंक के कारोबारी सुगमता सूचकांक पर भारत की स्थिति में जो सुधार हुआ है वह वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) की वजह से हुआ है। परंतु निर्यात अभी भी धीमा है और आयात में इजाफा हुआ है। बढ़ती तेल कीमतों ने देश को प्रभावित किया है और रुपये के मूल्य में तेजी से गिरावट आई है। चालू खाते का घाटा इस वर्ष जीडीपी के 3 फीसदी के स्तर तक पहुंच सकता है और राजकोषीय आंकड़ों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं दिख रही। भारत ने घाटे को कम करने के लिए प्रतिक्रियास्वरूप कई जिंसों के आयात शुल्क में इजाफा किया है। इससे दीर्घावधि की प्रतिस्पर्धा की कीमत पर अल्पावधि में लाभ हो सकता है।

अगर भारत सुधार के मोर्चे पर आगे और पीछे हटता है तो कई निर्यात क्षेत्रों की वृद्घि में और अधिक धीमापन आ जाएगा। अगर वृद्घि दर गिरकर 4 फीसदी के स्तर पर आ गई तो देश के जीडीपी का आकार सन 2030 तक बमुश्किल 4.3 लाख करोड़ डालर ही हो सकेगा और वह जापान से पीछे रहेगा। वहीं दूसरी ओर भूमि, श्रम और पूंजी बाजार में अहम सुधारों से वृद्घि दर सालाना 9 फीसदी के स्तर तक जा सकती है। उस स्थिति में 2030 तक अर्थव्यवस्था का आकार 9 लाख करोड़ डॉलर तक हो जाएगा और वह अमेरिका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश होगा। अगर वृद्घि दर 6-7 फीसदी के बीच रहती है तो का जीडीपी 6-7 लाख करोड़ डॉलर रहेगा।

वर्ष 2018 के डब्ल्यूईएफ वैश्विक प्रतिस्पर्धी सूचकांक में भारत को 140 देशों में 58वां स्थान दिया गया है। पहली नजर में यह प्रभावशाली लगता है लेकिन भारत की रैंकिंग में सुधार प्रमुख तौर पर उसके बाजार के आकार के कारण हुआ है। अगर भारत औसत आकार की एक अर्थव्यवस्था होता तो इसकी रैंकिंग गिरकर 70वीं हो जाती। आईएमडी प्रतिस्पर्धी सूचकांक जिसमें बाजार का आकार नहीं देखा जाता वहां भारत को 63 देशों में 44वां स्थान मिला। रोजगार और प्रतिस्पर्धा आपस में संबंधित हैं। एक प्रतिस्पर्धी भारत में घरेलू और बाहरी, दोनों बाजारों के लिए मेक इन इंडिया होना चाहिए। प्रतिस्पर्धा आधारित वृद्धि में और अधिक रोजगार भी तैयार होने चाहिए।

चीन श्रम की बढ़ती लागत और शुल्क वृद्धि के कारण वैकल्पिक विनिर्माण केंद्र तलाश कर रहा है। भारत इसका फायदा उठाकर वैश्विक मूल्य शृंखला में अपनी जगह बना सकता है। अभी भी हमें बांग्लादेश, इंडोनेशिया, वियतनाम और अफ्रीका के कई देशों से मुकाबला करना पड़ सकता है जो चीनी निवेश की ओर आकर्षित हैं। इनसे प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को लॉजिस्टिक्स में सुधार करना होगा, कौशल विकास पर ध्यान देना होगा तथा भूमि बाजार और वित्तीय क्षेत्रों में आवश्यक सुधार करने होंगे। रुपये के अधिमूल्यन में कमी आने से भी कुछ मदद मिलेगी। एक नई सामरिक व्यापार और औद्योगिक नीति की आवश्यकता है ताकि बदलते विश्व की चुनौतियों का सामना किया जा सके और भारत समान सोच वाले देशों के साथ मुक्त व्यापार का लाभ उठा सके।

देश में किस पैमाने पर रोजगार तैयार हो रहा है यह अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है क्योंकि जरूरी तथ्यों का अभाव है। जब तक बेहतर आंकड़े उपलब्ध नहीं होते हैं तब तक अगर विश्व बैंक के आंकड़ों पर यकीन किया जाए तो भारत जीडीपी में हर एक प्रतिशत वृद्धि के साथ 7.5 लाख रोजगार तैयार कर रहा है। ऐसे में माना जा सकता है कि हम 50-55 लाख रोजगार तैयार कर रहे हैं। सन 2030 तक देश की कामगार उम्र की आबादी में सालाना 1.2 करोड़ का इजाफा होगा। देश की श्रम आबादी में पुरुषों का योगदान अधिक है। महिलाओं का योगदान पहले से ही कम है और उसमें आगे भी कमी आ रही है। भारत को 2030 तक हर वर्ष 60-65 लाख रोजगार तैयार करने होंगे। यानी हर वर्ष श्रम शक्ति में शामिल होने वाले सभी एक करोड़ लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा।

बीते दशक के करीब एक करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देने के लिए करीब 10 लाख रोजगार हर वर्ष अतिरिक्त तैयार करने होंगे। अगर भारत महिलाओं को अधिक अवसर देता है तो उनका योगदान भी बढ़ेगा। लब्बोलुआब यह कि भारत को 2030 तक अपना सालाना रोजगार बढ़ाकर 85 से 90 लाख करना होगा। इसके लिए जीडीपी में 12 फीसदी की दर से बढ़ोतरी करने की जरूरत है। बड़े सुधारों को अंजाम देकर भारत अगले 10 -15 वर्ष में तय लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। तब वह अपने जननांकीय लाभ का भी पूरा फायदा उठा पाएगा। ऐसे में अधिक कठिन वैश्विक माहौल के बीच भारत एक आर्थिक महाशक्ति भी होगा और अपेक्षाकृत प्रसन्न देश भी बन सकेगा। दुनिया की कुल आबादी के छठे हिस्से का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि भारत कौन सी राह पर आगे बढ़ता है।


Date:03-11-18

अध्यादेश लाना है तो सर्वधर्म केंद्र के लिए लाएं

सर्वोच्च न्यायालय में राम मंदिर का मामला आगे टलना और इस पर अध्यादेश लाने की मांग

वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

अयोध्या में राम मंदिर का मसला 2019 के चुनाव के पहले हल होता हुआ मुझे नहीं लगता और यदि चुनाव के पहले यह हल नहीं होगा तो यह भाजपा के लिए गंभीर चुनौती सिद्ध हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को जनवरी 2019 तक के लिए टाल दिया है। उस बेंच को नियुक्त करने में वह अब से तीन महीने लगाएगा, जो यह तय करेगी कि 2010 में दिया गया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला ठीक है या नहीं। उस फैसले में जजों ने राम जन्मभूमि की 2.77 एकड़ जमीन को तीन दावेदारों में बांट दिया था। एक रामलला, दूसरा निर्मोही अखाड़ा और तीसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड।

जनवरी 2019 में राम-मंदिर विवाद का फैसला नहीं होगा। इस मुकदमे को सुननेवाली सिर्फ बेंच बनेगी। मुख्य न्यायाधीश ने पिछली बहस के वक्त यह स्पष्ट कर दिया था कि मंदिर-मस्जिद का मामला इतना संगीन नहीं है कि इस पर तुरंत विचार किया जाए। पिछले आठ साल से यह मामला सबसे ऊंची अदालत में जरूर अटका हुआ है लेकिन, जरा यह तो सोचिए कि 2019 के चुनाव के पहले वह इसका फैसला कैसे सुना सकती है? इस विवाद से संबंधित सदियों पुराने दस्तावेज कई हजार पृष्ठों में फैले हुए हैं और वे संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी और हिंदी में हैं। हमारे जजों को अंग्रेजी में काम करने की आदत है। वे इन दस्तावेजों से कैसे पार पाएंगे ? जब तक इनका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध नहीं होगा, जजों को इंतजार करना पड़ेगा।

इसके अलावा मुख्य प्रश्न यह है कि अदालत किस मुद्‌दे पर फैसला देगी? उसके सामने मुद्‌दा यह नहीं है कि अयोध्या में राम मंदिर बने या मस्जिद बने बल्कि यह है कि उस 2.77 एकड़ जमीन पर किसकी मिल्कियत है? इलाहाबाद न्यायालय ने दो-तिहाई जमीन तो हिंदू संस्थाओं को दे दी है और एक-तिहाई मुस्लिम संस्था को। मान लें कि वह सारी जमीन दोनों में से किसी एक को दे दे तो क्या दूसरे लोग उस फैसले को मान लेंगे? यदि 2.77 एकड़ जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिल गई तो क्या हिंदू संगठन मान जाएंगे? अदालत के लिए मामला श्रद्धा का नहीं, कब्जे और कानून का है।

मान लें कि सर्वोच्च न्यायालय उसी फैसले पर मोहर लगा दे, जो उच्च न्यायालय ने दिया है तो क्या होगा? तो क्या निर्मोही अखाड़ा उस दो-तिहाई जमीन पर, जो दो एकड़ से भी कम है, मंदिर बनाना पसंद करेगा? और क्या वह यह भी पसंद करेगा कि मंदिर की दीवार से सटकर वहां एक बाबरी मस्जिद दुबारा खड़ी हो जाए? क्या उस राम जन्मभूमि में मंदिर और मस्जिद साथ-साथ रह पाएंगे? दूसरे शब्दों में इस मंदिर-मस्जिद के विवाद को हल करने के लिए अदालत की शरण में जाना बिल्कुल समझ में नहीं आता। अदालतों के सैकड़ों फैसले आज भी ऐसे हैं, जिन्हें कभी लागू ही नहीं किया जा सका। सर्वोच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का जो फैसला दिया है, उसकी कितनी दुर्गति हो रही है? केरल की मार्क्सवादी सरकार और केंद्र की सरकार क्या कर पा रही है? मंदिर-मस्जिद विवाद को अदालत की खूंटी पर टांगकर हमारे नेतागण खर्राटे खींच रहे हैं। यह स्थिति हमारी राजनीतिक दरिद्रता की परिचायक है। पिछले चार साल देखते-देखते निकल गए। अब चुनाव के बादल सिर पर मंडरा रहे हैं तो भगवान राम याद आ रहे हैं। सारे मसले को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। कुछ संगठन कह रहे हैं कि वे 6 दिसंबर से ही मंदिर का निर्माण-कार्य शुरू कर देंगे और कुछ नेता अब मंदिरों और आश्रमों के चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि राम मंदिर का मामला तूल पकड़ने वाला है। संघ ने अध्यादेश लाने की मांग की है।

यदि मंदिर-मस्जिद का मामला मजहबी रंग पकड़ता है तो यह भारत का दुर्भाग्य होगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर का मोर्चा दुबारा खोल दिया है। मुझे आश्चर्य है कि ये पिछले चार साल मौन-व्रत क्यों धारण किए रहे? मेरे लिए अयोध्या में राम मंदिर मजहबी मसला है ही नहीं। उसे हिंदू-मुसलमान का मसला बनाना बिल्कुल गलत है। यह मसला है, देसी और विदेशी का! यह बात मैं अपने बड़े भाई तुल्य अशोक सिंघलजी, जो कि विश्व हिन्दू परिषद के बरसों-बरस अध्यक्ष रहे, से भी हमेशा कहता रहता था। विदेशी आक्रांता जब भी किसी देश पर हमला करता है तो उसके लोगों का मनोबल गिराने के लिए वह कम से कम तीन काम जरूर करता है। एक तो उसके श्रद्धा-केंद्र और पूजा-स्थलों को नष्ट करता है। दूसरा, उसकी स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है और तीसरा, उसकी संपत्तियों को लूटता है। जहां तक बाबर का सवाल है, उसने और उसके-जैसे हमलावरों ने सिर्फ भारत में ही नहीं, उज्बेकिस्तान और अफगानिस्तान में भी कई श्रद्धा-केंद्रों को नष्ट किया। वे मंदिर नहीं थे। वे दुश्मनों की मस्जिदें, उनकी औरतें और उनकी संपत्तियां थीं। यह जानना हो तो आप पठानों के महान कवि खुशहालखान खट्टक की शायरी पढ़िए। सहारनपुर के प्रसिद्ध उर्दू शायर हजरत अब्दुल कुद्दुस गंगोही का कलाम देखिए। उन्होंने लिखा है कि मुगल हमलावरों ने जितने मंदिर गिराए, उनसे ज्यादा मस्जिदें गिराईं। औरंगजेब ने बीजापुर की बड़ी मस्जिद गिराई थी, क्योंकि उसे बीजापुर के मुस्लिम शासक को धराशायी करना था। अयोध्या के राम मंदिर को मीर बाक़ी ने गिराया हो या किसी और ने, सवाल मज़हबी नहीं, राष्ट्रीय है।

अब मेरी राय यह है कि देश के मुसलमानों को पहल करनी चाहिए और राम जन्मभूमि की जगह विश्व का भव्यतम मंदिर ही बनने देना चाहिए और उस 70 एकड़ जमीन में एक शानदार मस्जिद के साथ-साथ दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों के पूजा-स्थल भी बन सकें, ऐसा एक अध्यादेश सरकार को तुरंत लाना चाहिए ताकि अयोध्या सर्वधर्म समभाव का विश्व केंद्र बन सके। अध्यादेश लाने के पहले देश के सभी प्रमुख नेताओं को संबंधित पक्षकारों से मिलकर सर्वसम्मति का निर्माण करना चाहिए ताकि उस अध्यादेश को कानून बनाने में कोई अड़चन आड़े नहीं आए। इसी आशय का अध्यादेश 1993 में तब के प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने जारी करवाया था और 1994 में संसद ने उसे कानून का रूप दिया था। इसी कानून को थोड़ा बेहतर और सर्वसमावेशी बनाकर यदि सर्वसम्मति से लागू किया जाए तो सर्वोच्च न्यायालय का भी कष्ट दूर होगा और भारत में साम्प्रदायिक सद्‌भाव की नई लहर चल पड़ेगी।


Date:03-11-18

श्रीलंका के घमासान पर रहे नजर

श्रीलंका में इस वक्त शीर्ष स्तर पर जैसी राजनीतिक उठापटक चल रही है, भारत को उस पर पैनी निगाह रखनी होगी।

डॉ. रहीस सिंह , (लेखक विदेश संबंधी मामलों के जानकार हैं)

किसी भी देश की सुरक्षा, प्रगति में उसके पड़ोसियों की स्थिति, प्रकृति एवं व्यवहार की भी अहम भूमिका हो सकती है। कारण यह है कि वे ‘रिंग फेंस(सुरक्षात्मक घेरा) के रूप में भी प्रयुक्त हो सकते हैं, एक अवरोधक दीवार भी बन सकते हैं और किसी दुश्मन देश के मोहरे के रूप में भी इस्तेमाल हो सकते हैं। भारत के कुछ पड़ोसी देश फिलहाल ऐसी ही चुनौतियां उत्पन्न् कर रहे हैं। उन्हें प्राय: ऐसी गैर-प्रगतिशील, रूढ़िवादी, विभाजक दुरभिसंधियों से संपन्न् देखा गया है, जो भारत को निरंतर नुकसान पहुंचा रही हैं। भारत के पड़ोसी देशों की व्यवस्थाओं में मुख्यत: तीन चीजें समान रूप से देखी जा सकती है- स्थायित्व का संकट, राजनीति का संकटापन्न् होना और चीनी कर्ज के कारण आर्थिक संकट की आसन्न्ता। पाकिस्तान को यदि छोड़ दें क्योंकि वह घोषित रूप से चीन का सदाबहार मित्र है, तो भारत के अन्य पड़ोसी देशों मसलन नेपाल, श्रीलंका, मालदीव आदि में चीन अपनी ‘सॉफ्ट पावर के साथसत्ता-व्यवस्था को अपने उद्देश्यों के अनुसार स्थापित करने में सफल हो रहा है। जबकि भारत का प्रयास होता है कि वह मुनरो सिद्धांत के आधार अपने पड़ोसी देशों में किसी तीसरी शक्ति को सक्रिय न होने दे।

पड़ोसी देशों में पिछले एक-दो साल के घटनाक्रमों पर नजर डालें। चीन पहले श्रीलंका में असफल हुआ। नेपाल में सफल हुआ और मालदीव में सफल हुआ। लेकिन अब वह श्रीलंका में पुन: सफल सफल होता दिख रहा है और मालदीव में फिलहाल असफल। क्या यह दक्षिण एशिया की नियति का परिणाम है या फिर भारतीय विदेश नीति में दूरदर्शिता और पैनेपन के अभाव का नतीजा? हाल ही में श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर उनकी जगह पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। जबकि संसद के स्पीकर कारू जयसूर्या ने विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने का समर्थन करने से इनकार कर दिया। उधर बर्खास्तगी के बाद जब रानिल विक्रमसिंघे ने संसद का आपात सत्र बुलाने की मांग की तो राष्ट्रपति ने 16 नवंबर तक के लिए संसद को निलंबित कर दिया। हालांकि ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि अगले हफ्ते संसद की बैठक बुलाई जा सकती है। इस घटनाक्रम में जो भी रहा हो, लेकिन हमारे लिए पहला सवाल तो यही उठता है कि भारत के शुभचिंतक और करीबी माने जाने वाले राष्ट्रपति मैत्रीपाल ने आखिर महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री क्यों नियुक्त किया, जिनसे शत्रुता मोल लेकर वे सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे थे? आखिर श्रीलंका में बढ़ते चीनी प्रभाव का विरोध करने वाले रानिल विक्रमसिंघे अब भारत की कूटनीतिक विजय का परिणाम माने जाने वाले राष्ट्रपति सिरिसेना की यकायक नापसंद कैसे बन गए और चीन के प्रबल समर्थक माने जाने वाले व उनके राजनीतिक दुश्मन राजपक्षे अकस्मात अच्छे कैसे लगने लगे? कहीं चीन श्रीलंका में अपने ‘गेम प्लान में सफल तो नहीं हो रहा है? यदि हां, तो फिर भारत कहां पर है?

सामान्यत: श्रीलंका में उपजे इस राजनीतिक संकट की पटकथा तीन वर्ष पहले उस समय लिख दी गई थी, जब चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था और बेमेल गठबंधन से सरकार बनी थी। दूसरा पक्ष यह है कि भारत के अधिकांश पड़ोसी देशों में लोकतंत्र बेहद कमजोर है, इसलिए वहां सेना, जनविद्रोह व न्यायपालिका मिलकर लोकतंत्र को समय-समय पर कमजोर करते रहते हैं, जिनमें एक श्रीलंका भी है। ध्यान रहे कि श्रीलंका के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति अपनी मर्जी से किसी प्रधानमंत्री को पद से हटा नहीं सकता। यह प्रावधान 19वें संविधान संशोधन के जरिए राष्ट्रपति सिरिसेना ने ही लागू कराया था। लेकिन अब वे स्वयं ही इसका उल्लंघन करते लग रहे हैं। इस स्थिति में यह भी संभव है कि उनके पीछे अन्य संस्थाएं भी खड़ी होंगी, विशेषकर सेना और न्यायपालिका। यहां तक तो ठीक हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन श्रीलंका के राजनीतिक घटनाक्रम में चीन की सक्रियता चिंता व संशय उत्पन्न् कर रही है। महिंदा राजपक्षे के शपथ लेते ही यदि कोलंबो में चीन के राजदूत उन्हें बधाई देने पहुंचेंगे तो फिर इसके निहितार्थ तलाशने भी जरूरी हो जाएंगे। सब जानते हैं कि अतीत में राजपक्षे का शासन चीन के जरिए श्रीलंका का अधोसंरचनात्मक पुनर्निर्माण कर रहा था। बीजिंग ने श्रीलंका में अरबों डॉलर की बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है। लेकिन जब सिरिसेना सत्ता में आए तो उन्होंने राजपक्षे के कार्यकाल में शुरू की गई चीन समर्थित परियोजनाओं को अत्यधिक खर्चीली, सरकारी प्रक्रियाओं के उल्लंघन और भ्रष्टाचार का हवाला देकर रद्द कर दिया। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन परियोजनाओं को विक्रमसिंघे के प्रधानमंत्रित्व वाली कैबिनेट ने रद्द करने की सिफारिश की थी। यही वजह है कि विक्रमसिंघे चीन की आंखों की किरकिरी बने। कुछ समय से सिरिसेना तो बदलने लगे और चीन की परियोजनाओं को पुन: बहाल करने की राह पर चल दिए। यानी संभव है कि सिरिसेना भारत का साथ छोड़कर चीन की गोद में बैठने को तैयार हों, पर शायद रानिल विक्रमसिंघे नहीं। ऐसे में यदि सिरिसेना उन्हें यूं पद से हटा दें, तो मन में संशय तो उठेगा ही कि इसका वास्तविक सूत्रधार कहीं चीन तो नहीं?

अगर श्रीलंका के राजनीतिक संकट का सार यही है तो फिर भारत के लिए यह चिंता की बात है। यह भी संभव है कि मालदीव में अबदुल्ला यामीन की हार और इबू यानि इब्राहिम मोहम्मद सोलुह की जीत को भारत ने अपनी कूटनीतिक जीत मान लिया हो और अतिउत्साह में चीन के अगले ‘गेम प्लानपर ध्यान ही न दे सका हो। वैसे मालदीव में भारत की कूटनीतिक विजय (यदि वास्तव में ऐसा है) को स्थायी नहीं माना जा सकता, क्योंकि 1965 में आजाद हुए इस देश ने अब तक कई बार तख्तापलट या लोकतंत्र की हत्या होते देखी है। मोमून अब्दुल गयूम का तख्तापलट करने की तीन बार कोशिश हुई, एक बार तो भारत ने ही ऑपरेशन कैक्टस के जरिए बचाया। मोहम्मद नशीद को पुलिस और सेना के विद्रोह के कारण इस्तीफा देना पड़ा। 2013 में हुए चुनाव में पहले दौर में नशीद को ज्यादा वोट मिले, मगर अदालत ने उन्हें अवैध घोषित कर दिया और अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति बने। यामीन ने अपनी पुन: जीत के 2018 में आपातकाल लगाकर राजनीति से लेकर न्यायपालिका तक को बंधक बना लिया। कारण चीन और पाकिस्तान उनके पीछे खड़े होकर ताकत दे रहे थे। अखरने वाली बात यह थी कि इस दौर में यामीन ने भारत को पूरी तरह से दरकिनार कर किया। यहां तक कि आपात स्थिति के समय भारत के हेलीकॉप्टर लेने से यह कहकर मना कर दिया कि उसकी एक्सक्लुसिव इकोनॉमिक जोन की रक्षा करने के लिए पाकिस्तान की सेना पर्याप्त है। नेपाल की मौजूदा केपी शर्मा ओली तो चीन की समर्थक है ही, जिसके कारण नेपाल अब चीन की ओर खिसकता दिख रहा है।

बहरहाल, पड़ोसी देशों में जिस तरह के सियासी बदलाव दिख रहे हैं, उनमें एक खास किस्म की समानता है। उनका मंचन भले ही काठमांडू, माले या कोलंबो में हो रहा हो, लेकिन लगता यही है कि उनकी पटकथा कहीं और लिखी जा रही है। अत: जरूरी है कि भारत इन पर पैनी निगाह रखे।


Date:03-11-18

सरकार-रिजर्व बैंक की रस्साकशी

चूंकि सरकार अपनी कमाई बढ़ाने पर जोर दे रही है, इसलिए उसकी नजर रिजर्व बैंक के कंटिंजेंसी फंड पर भी है।

विवेक कौल , (लेखक अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने ईजी मनी ट्रायोलॉजी लिखी है)

भारतीय रिजर्व बैंकऔर भारत सरकार के बीच चल रही रस्साकशी धीरे-धीरे बाहर आ रही है। सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच थोड़ा-बहुत टकराव सिस्टम के लिए अच्छा होता है। मसलन, हर सरकार यह चाहती है कि ब्याज दरें कम से कम हों क्योंकि कम ब्याज दरों पर लोग जमकर कर्ज लेंगे और इससे अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी, लेकिन सरकारें यह जरूरी बात या तो भूल जाती हैं या फिर उसकी अनदेखी करती हैं कि ब्याज दरों पर केवल कर्ज नहीं लिया जाता। ब्याज दरों को देखकर लोग पैसा बचाते भी हैं। इसीलिए केंद्रीय बैंक इन दरों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। यह काफी कठिन काम है, क्योंकि सरकार की ओर से हमेशा यह दबाव होता है कि ब्याज दरें कम रखी जाएं। करीब 19 साल तक अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन रहे एलन ग्रीनस्पैन ने कहा था कि मुझे याद नहीं, जब राजनीतिक क्षेत्र से किसी ने कहा हो कि हमें दरें बढ़ाने की जरूरत है।

अगर इस वर्ष 12 अक्टूबर तक का साप्ताहिक गैर-खाद्य ऋण का डाटा देखें तो यह करीब 14.5 फीसदी अधिक रहा। अगर पिछले दो साल का डाटा देखें तो गैर-खाद्य ऋण में यह सबसे उच्चतम वृद्धि रही। अब अगर बैंक कर्ज दे रहे हैं तो सरकार क्या चाहती है? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आखिर सरकार गैर-खाद्य ऋण में वृद्धि से खुश क्यों नहीं है? इसके लिए डाटा को थोड़े विस्तार से देखने की जरूरत होगी। अगर इस साल अगस्त 30 तक का डाटा देखें तो पाएंगे कि गैर खाद्य ऋण करीब 14.2 प्रतिशत बढ़ा। खुदरा ऋण करीब 18.2 प्रतिशत बढ़ा था। सेवाओं को दिया हुआ ऋण 26.7 प्रतिशत बढ़ा। कृषि कर्ज करीब 12.4 प्रतिशत बढ़ा, परंतु उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज सिर्फ 1.95 प्रतिशत बढ़ा। इसमें भी छोटे उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज 2.6 फीसदी ही बढ़ा। चूंकि बैंकों का करीब तीन चौथाई डूबा कर्ज उद्योगों की वजह से है और इसीलिए वे उद्योगों को कर्ज देने से कतरा रहे हैं। लगता है, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पी रहा है।

पिछले कुछ सालों में निजी बैंकों ने सरकारी बैंकों से कहीं अधिक कर्ज दिया है, जबकि माना यह जाता है कि निजी बैंक उद्योगों को कर्ज देने से कतराते हैं। सरकार चाहती है कि जिन 11 सरकारी बैंकों को पीसीए के तहत रखा गया है, उन्हें और कर्ज देने की इजाजत मिले। अगर इस वर्ष मार्च 31 तक सरकारी बैंकों का कुल कर्ज देखें तो इन 11 बैंकों का करीब 27 प्रतिशत हिस्सा बनता है। बाकी 73 प्रतिशत उन 10 सरकारी बैंकों द्वारा दिया गया, जो पीसीए के दायरे में नहीं हैं। ये 10 बैंक सरकार के कुल 21 बैंकों में से कुछ बेहतर स्थिति में हैं। अगर सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक छोटे उद्योगों को कर्ज दें तो यह काम ये 10 बैंक क्यों नहीं कर सकते? इन 11 बैंकों को पीसीए में इसलिए डाला गया है, ताकि उन्हें स्वस्थ होने का मौका मिल सके।

रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने हाल में कहा कि पीसीए के दायरे वाले बैंक अपनी बैलेंस शीट की परिसंपत्तियों को सुरक्षित करने में लगे हैं। इसलिए वे पूरा ध्यान गैर-जोखिम वाले क्षेत्रों को कर्ज देने और गवर्मेंट सिक्योरिटीज पर केंद्रित कर रहे हैं। पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता पीसीए वाले बैंकों में करदाताओं के नुकसान को बचाना और उनकी पूंजी की क्षति को रोकना है। इसलिए वित्तीय रूप से कमजोर बैंकों से निपटने का पीसीए का तरीका जारी रहना चाहिए। सुधार की प्रक्रिया में किसी भी तरह की ढिलाई हानिकारक होगी। पिछले कई सालों से हमारे सरकारी बैंक डूबे कर्ज के संकट से जूझ रहे हैं। रिजर्व बैंकने इस संकट से जूझ रहे 11 सरकारी बैंकों को प्रिवेंटिव करेक्टिव एक्शन ढांचे के तहत रखा है। सरकार का मानना है कि इसकी वजह से बैंकठीक तरह से कर्ज नहीं दे पा रहे हैं। क्या यह सही है? अगर हम गैर-खाद्य ऋण (नॉन-फूड क्रेडिट) के आंकड़े देखें तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता। भारतीय बैंक, फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और राज्य सरकारें खरीद एजेंसियों को कर्ज देती हैं, ताकि वे किसानों से धान और गेहूं सीधे खरीद सकें। जब इस कर्ज को कुल ऋण से घटाया जाता है तो गैर-खाद्य ऋण बचता है।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सरकार आतंरिक रूप से यह मान रही है कि नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन से छोटे उद्योगों का नुकसान हुआ है। चूंकि इसका बुरा असर आम चुनाव पर भी पड़ सकता है, इसीलिए सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक आने वाले महीनों में छोटे उद्योगों को जमकर कर्ज दें। केंद्रीय बैंक और केंद्र सरकार में रस्साकशी का एक कारण यह भी है कि रिजर्व बैंक अपने कामकाज से जो लाभ कमाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा सरकार को हर साल लाभांश (डिविडेंड) के रूप में देता है। कुछ हिस्सा कंटिंजेंसी फंड में चला जाता है। इससे सरकार को मिलने वाला लाभांश कम हो जाता है। सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक अपना अधिक से अधिक लाभ और हो सके तो पूरा, लाभांश के रूप में उसे दे। रिजर्व बैंक का मानना है कि अभी उसकी बैलेंस शीट को और भी मजबूत बनाने की जरूरत है।

गौरतलब है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कई बार कहा है कि सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है। सरकार का खर्च उसकी कमाई से कहीं अधिक होता है और इसी अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। अगर डाटा देखें तो ऐसा नहीं लगता। अप्रैल से सितंबर 2018 तक करीब 2.15 लाख करोड़ रुपए का सेंट्रल जीएसटी सरकार के पास जमा हुआ। पूरे वित्तीय वर्ष का लक्ष्य करीब 6.04 लाख करोड़ रुपए है। यह लक्ष्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। इसके अलावा शेयर बाजार के गिरने की वजह से विनिवेश का 80,000 करोड़ का लक्ष्य भी पूरा होता दिखाई नहीं देता। अप्रैल से सितंबर 2018 के बीच राजकोषीय घाटा अपने सालाना लक्ष्य के 95 फीसदी तक पहुंच गया था। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अभी किसी तरह अपनी कमाई बढ़ाने पर उतारू है। इसीलिए उसकी नजर रिजर्व बैंक के कंटिंजेंसी फंड पर भी है। वह चाहती है कि केंद्रीय बैंक सरकार को एक अंतरिम लाभांश भी दे। रिजर्व बैंक का उपयोग करके सरकारी दायित्वों को पूरा करना सकारात्मक नहीं। एक साल के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक ऐसे फंड का इस्तेमाल करना सही नहीं, जिसे बनाने में कई वर्ष लगे हों। सार्वजनिक रूप से भले ही सरकार यह कहे कि उसे राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है, पर वह यह जानती है कि शायद ऐसा न होने पाए। अप्रैल से जून की तिमाही में अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी और 2018-2019 में यह उम्मीद है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत रहेगी। यह विश्व में किसी भी बड़े देश के लिए सबसे तेज बढ़ोतरी होगी। ऐसे में सरकार के लिए उतावलापन दिखाना ठीक नहीं है।


Date:02-11-18

स्वायत्तता का सवाल

संपादकीय

अभी सीबीआइ में मची घमासान थमी भी नहीं थी कि केंद्रीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआइ की स्वायत्तता पर हमले की चर्चा गरम हो गई। दरअसल, ताजा मामला इसलिए उठा कि केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक को अलग-अलग समय पर तीन पत्र लिख कर उसे आर्थिक मामलों में निर्देश दिए और अनुच्छेद 1934 की धारा सात की याद दिलाई। आमतौर पर सरकार रिजर्व बैंक के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करती है। अभी तक ऐसा कोई मौका नहीं आया जब सरकार ने रिजर्व बैंक को आदेश देकर कोई फैसला करने पर बाध्य किया। हालांकि धारा सात में सरकार को अधिकार है कि वह आम लोगों के हित और अर्थव्यवस्था की जरूरत के मुताबिक उसे निर्देश दे सकती है। जब रिजर्व बैंक के दूसरे नंबर के अधिकारी विरल आचार्य ने सार्वजनिक रूप से इस बात पर चिंता जताई कि सरकार आरबीआइ की स्वायत्तता में दखल दे रही है, तो मामला तूल पकड़ गया। कयास लगाए जाने लगे कि अगर सरकार ने धारा सात का उपयोग किया तो रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह और गलत होगा, क्योंकि आज तक दुनिया में कहीं ऐसा नहीं हुआ कि सर्वोच्च बैंक के मुखिया को कार्यकाल समाप्त होने से पहले ऐसी स्थिति में अपना पद छोड़ना पड़ा हो।

अच्छी बात है कि इस मामले में अब सरकार का कुछ लचीला रुख दिख रहा है। दरअसल, सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तनाव का रिश्ता इसलिए बन गया कि इस वक्त अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है। कई क्षेत्र पैसे की भयानक कमी से गुजर रहे हैं। ऐसे में सरकार ने पत्र लिख कर रिजर्व बैंक को निर्देश दिया कि वह बिजली कंपनियों के कर्ज में छूट दे। फिर दूसरे पत्र में उसने आरबीआइ को राजस्व की कमी को पूरा करने का निर्देश दिया। तीसरे पत्र में छोटे और मझोले उद्यमों को कर्ज देने की शर्त में छूट देने को कहा। अगर रिजर्व बैंक ने सरकार की बात मान ली तो उसके सामने कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। इसलिए उसने वे बातें मानने से इनकार कर दिया। अब आलोचनाओं और आशंकाओं के मद्देनजर वित्त मंत्रालय का कहना है कि दोनों आपसी सहमति से काम करते रहेंगे, सरकार आरबीआइ को परामर्श देती रहेगी। अच्छी बात है, आरबीआइ की स्वायत्तता बनी रहे और सरकार के साथ तनातनी खत्म हो।

पहले ही कई संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमले को लेकर सरकार को काफी किरकिरी झेलनी पड़ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने पहली बार प्रेस वार्ता बुला कर असंतोष प्रकट किया था। फिर सीबीआइ के भीतर दो वरिष्ठ अधिकारियों के बीच अप्रिय विवाद और कई अधिकारियों के रातोंरात किए गए तबादले पर अंगुलियां उठ रही हैं। इसके पहले भी कुछ संस्थाओं के कामकाज और फैसलों में हस्तक्षेप को लेकर असंतोष जाहिर हो चुका है। स्वायत्त संस्थाओं के कामकाज में सरकार की दखलंदाजी से आखिरकार देश की व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। दुनिया भर में बदनामी होती है। इसलिए सरकार आरबीआइ के मसले को अधिक तूल देने के बजाय व्यावहारिक रास्ता अपनाए, तो शायद बेहतर नतीजे निकल सकते हैं। पहले ही अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक न होने की वजह से अपेक्षित निवेश नहीं आ पाया है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से बाजार और रोजगार पर बुरा असर पड़ा है। इन सबके बीच अगर रिजर्व बैंक को अपनी नीतियों से समझौता करने को बाध्य किया गया, तो उसके नतीजे अप्रिय हो सकते हैं।


Date:02-11-18

ट्रंप सरकार का झटका

संपादकीय

लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को हिलाने की ठान ली है। चीन से सामान के आयात पर उन्होंने जिस तरह से भारी टैक्स लगाया था, उसे तो दुनिया भर में टैरिफ वार नाम से ही जाना जाता है। यह ठीक है कि अमेरिका चीन का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है, लेकिन पिछले कुछ साल में चीन ने जिस तरह से दुनिया भर के बाजारों में अपने पांव फैलाए हैं, उसके चलते चीन को झटका भले ही लगा हो, लेकिन वह इससे उखड़ सा गया हो, ऐसा कम से कम कहीं भी दिखा नहीं। यह तकरीबन उसी समय साफ हो गया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति के कदम यहीं पर रुकने वाले नहीं हैं। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों के बारे में उनकी आक्रामक बयानबाजी लंबे से जारी ही थी। अब उन्होंने टैरिफ को लेकर भारत के खिलाफ एक बड़ा कदम उठाया है। अब उन्होंने 50 भारतीय समानों पर दी जा रही शुल्क राहत को खत्म करने की घोषणा कर दी है। एक नवंबर से हटाई गई इस राहत में ज्यादातर वे सामान आते हैं, जो या तो कृषि क्षेत्र के हैं या फिर हस्तशिल्प क्षेत्र के। अभी तक अमेरिका में इनका आयात ड्यूटी फ्री प्राथमिकता के तहत होता रहा है, जो विकासशील देशों के सामानों को प्राथमिकता देने की अमेरिकी नीति का एक हिस्सा था। इस नीति की समीक्षा करते हुए ट्रंप प्रशासन ने यह फैसला किया है।

वैसे डोनाल्ड ट्रंप की सरकार इस तरह के कई फैसले ले सकती है, इसका अंदाज तो पिछले एक-डेढ़ महीने से मिलने लगा था। सबसे पहले खुद ट्रंप ने यह कहा था कि भारत अमेरिका से व्यापार समझौता करने के लिए बेताब है। लगभग एक महीने पहले उन्होंने फिर कहा कि भारत आयात पर भारी टैक्स लगाने वाले देशों का बादशाह है। हालांकि दुनिया भर के विशेषज्ञों ने इसे तार्किक रूप से गलत बताया था। यह ठीक है कि भारत में कभी आयात पर भारी टैक्स थोपा जाता था, लेकिन उदारीकरण के बाद से यह सब बदल गया है। कंप्यूटर वगैरह बहुत से आईटी उत्पादों पर तो भारत ने आयात शुल्क बहुत कम कर दिया है, जिसका सबसे बड़ा फायदा लंबे समय तक अमेरिका को ही मिला है। भारत ने यह काफी पहले समझ लिया था कि आयत कर लगाकर तकनीक को महंगा बनाने से अंत में घाटा उसी का होगा। देश को इसका फायदा भी मिला और जल्द ही भारत आईटी सेवाओं के निर्यात में दुनिया का अग्रणी देश बन गया।

भारत, चीन या दूसरे देशों से ट्रंप प्रशासन के व्यवहार को अगर अलग करके देखें, तो इस समय समस्या यह है कि अमेरिका उन नीतियों को तेजी से बदलने में जुट गया है, जिन पर अभी तक उसका व्यापार दर्शन खड़ा था और जिनके हिसाब से दुनिया की व्यापार व्यवस्था चल रही थी। पिछले न जाने कितने दशकों से अमेरिका दुनिया को यह सोच देता रहा है कि कोई भी उत्पाद दुनिया भर में जहां से भी सस्ता मिले, उसे खरीद लिया जाना चाहिए बजाय उसके अपने देश में महंगे उत्पादन के। ट्रंप मेड इन अमेरिका की सोच के तहत इस नीति को पूरी तरह बदलने को उतारू हैं। जाहिर है, दुनिया की व्यापार व्यवस्था इसके झटकों से लगातार परेशान हो रही है। जहां तक भारत की बात है, उसे अब अमेरिकी बाजार में मिलने वाली राहतों का मोह छोड़कर अपनी निर्यात व्यवस्था को तेजी से गुणवत्ता के आधार पर खड़ा करना चाहिए। दीर्घकालिक नीति अपनाने का समय आ गया है।


Date:02-11-18

Serious Business

Supply-side reforms boost India’s profile, but red tape and opaque systems continue to pull back growth.

Editorial

India’s ranking in the latest edition of the World Bank’s Ease of Doing Business Index has jumped 23 spots to 77 among 190 economies — a substantial improvement over the last couple of years. The Index seeks to measure 11 areas of business, among them the procedures, timelines and cost related to construction, protection of minority investors, payments of tax, time and cost to export a product or import it and to resolve commercial dispute, the quality of the judicial process and time taken and the cost for resolution or insolvency. The scores should improve further next time with recognition of the laws on GST and more companies taking the resolution route under the insolvency.

India’s score was boosted this time because of the strides in cross-border trading with the streamlining of paper work and documentation — the country’s score has moved up from 146 last year on this count to 80 this time. The other area of improvement is in construction permits. All these underline the importance of supply-side reforms. As the World Bank points out, economies with better business regulations are the ones that create more job opportunities and the countries with more transparent and accessible information have lower levels of corruption. The other important takeaway from the Index is that what is common among the top-ranked economies is the pattern of continuous reform. India has considerable ground to cover on this front: When it comes to enforcing contracts, the country’s score has barely moved in the latest ranking. The lesson here is the absence of judicial reforms, bureaucratic and legal hurdles are hurting the economy.

In a federal structure like India, cutting the red tape or easing procedures across states is not easy. However, the signs are that many states have recognised the need to remove hurdles to attract industry. Yet, businessmen complain about the steep cost of doing business and the constraints they face in translating ideas into viable commercial ventures. For sure, it is good to benchmark the country’s progress on various counts of starting a business, but it is also important not to lose sight of the fact that this does not measure macro stability policies and development of the financial sector. The boost to ranking has come at a time when investment activity is far from vibrant. The key is, of course, a revival in demand, but removing systemic constrains would help business and industry become more competitive.


Date:02-11-18

Always a fine balance

The RBI-government tussle must prompt a debate on defining the RBI Governor’s position

Raghuvir Srinivasan

Yaga Venugopal Reddy, a former Governor of the Reserve Bank of India, (RBI) known as much for his wit as his clever stewardship of the central bank, coined an interesting phrase, “open-mouth operation”, taking off from the Open Market Operation tool of the RBI. That phrase best describes RBI Deputy Governor Viral Acharya’s A.D. Shroff Memorial Lecture in Mumbai last week. Dr. Reddy had coined the phrase to describe his speech in Goa on August 15, 1997 at a conference of the Foreign Exchange Dealers’ Association. Then a Deputy Governor, Dr. Reddy (with the full support of the then Governor, C. Rangarajan) tried to talk down the rupee which the central bank felt was over-valued.

Compelling correctives

The objective of an “open-mouth operation” is clear: influence a target audience to behave in a manner favourable to you or your objectives. If the target was the forex market in Dr. Reddy’s Goa speech, it was the Central government in Dr. Acharya’s speech. The “open-mouth operation” worked beautifully in both instances. The rupee corrected immediately after Dr. Reddy’s speech; after Dr. Acharya’s speech, the government has been forced to acknowledge, even if grudgingly, that the RBI’s autonomy is “within the framework of the RBI Act”.

Shorn of the personalities, what we are witnessing now is a fascinating tussle between an institution covered by an Act of Parliament and the executive, with one fighting for its autonomy and the other for its interests. Where does the fair balance lie?

Before trying to answer that question, we need to understand the ‘autonomy’ that the RBI enjoys and the limits to that. This is not the first time that the RBI’s autonomy has come under focus, and it will surely not be the last. Successive Governors have fought against what they felt were transgressions — formal and informal — on the central bank’s autonomy by powerful Finance Ministers.

Dr. Reddy once famously quipped to a journalist: “I’m very independent. The RBI has full autonomy. I have taken the permission of my Finance Minster to tell you that.” On a more serious note, he clarified that the RBI is independent, but within the limits set by the government.

In his book, Advice and Dissent: My Life in Public Service, he explains his understanding of this autonomy under three functions: operational issues, policy matters, and structural reforms. In the case of the first, he believed in total freedom; on the second, he preferred prior consultation with the mandarins in North Block; and on the third, he worked in “very close coordination” with the government.

Dr. Reddy describes the interactions with the government as “walking on a razor’s edge” and concedes that the sovereign is ultimately supreme. That is because the RBI Act allows the government to give written directives to the RBI in the public interest (the infamous Section 7 that is now in the news). On critical issues, often the choice for the Governor is to concede to the government with or without a written directive. But tradition has been that both the government and the RBI have avoided recourse to this provision.

That has been due only to the mature handling of differences behind closed doors, something that has been absent in the current tussle. Duvvuri Subbarao, another former Governor, argues along similar lines in his book, Who Moved My Interest Rate?

Handled with care, till now

The existence of Section 7 in the RBI Act, even if it has never been used till now, proves that the RBI is not fully autonomous, says Dr. Subbarao. He points out that the fact that it has never been used is testimony to the sense of responsibility that the government and the central bank have displayed.

The statement put out by the government on Wednesday underlines this message very clearly: the RBI is autonomous but within the framework of the RBI Act. It is thus clear that the central bank cannot claim absolute autonomy. It is autonomy within the limits set by the government and its extent depends on the subject and the context. There is a clear reason why, even while it is conceded that control of the nation’s currency should be with an independent authority removed from the sway of elected representatives, the RBI Act has the veto option in the form of Section 7.

And that’s because it is not the technocrats and economists sitting in Mumbai’s Mint Street who carry the can for the policies they frame; it is the rulers in Delhi who do. Ultimately, it is the elected representative ruling the country who is answerable to the citizen every five years. The representative cannot split hairs before the voter while explaining the economy’s performance — he has to own up for everything, including the RBI’s actions, as his own.

In a democracy, it is unthinkable that we will have an institution that is so autonomous that it is not answerable to the people. The risk of such an institution is that it will impose its preferences on society against the latter’s will, which is undemocratic.

Seen from this perspective, the limits to the RBI’s autonomy will be clear. It is autonomous and accountable to the people ultimately, through the government. The onus is thus on responsible behaviour by both sides. There is enough creative tension between the two built into the system. The Governor has to be conscious of the limits to his autonomy at all times, and the government has to consider the advice coming from Mint Street in all seriousness, as indeed Dr. Reddy and Dr. Subbarao have pointed out.

Government’s failure

But what if they do have fundamental disagreements, as they seem to be having now, and are unable to arrive at a common ground? Well, the brahmastra of Section 7 is certainly available to the more powerful side; but just as the weapon is a deterrent never to be used, so is Section 7. The cleverness of the politician in Delhi lies in negotiating with the RBI and having his way without ever threatening to unleash the brahmastra — the other side knows it exists anyway. This is where the present dispensation in Delhi seems to have failed.

It is to avoid situations such as the one we are seeing now that former RBI Governor Raghuram Rajan argued for a clear enunciation of the RBI’s responsibilities. In his book I Do What I Do, he points out that the position of the RBI Governor in the government hierarchy is not defined. The Governor draws the salary of a Cabinet Secretary, and it is generally understood that he will explain his decisions only to the Prime Minister and the Finance Minister. Argues Dr. Rajan: “There is a danger in keeping the position ill-defined because the constant effort of the bureaucracy is to whittle down its power.”

The latest tussle between the executive and the central bank will eventually end, in all probability with a compromise. However, it’s purpose would have been served if the debate leads to greater awareness on both sides of the other’s compulsions. Better still, if it leads to a clear definition of the RBI’s responsibilities that would, to borrow Governor Urjit Patel’s words, be the pot of nectar coming out of this Samudra Manthan.


 

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Yojana : Empowering Women : Legal Provisions (03-11-2018)


योजना : समावेशी विकास और महिलाएं (03-11-2018)

Kurukshetra : MSME : The Engines of Growth (03-11-2018)

कुरुक्षेत्र : लघु और कुटीर उद्योग : वर्तमान और भविष्य (03-11-2018)

रोजगार के बेहतर अवसर तलाशे जाएं

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रोजगार के बेहतर अवसर तलाशे जाएं

Date:05-11-18

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देश में युवा वर्ग के लिए निरंतर रोजगार उत्पन्न करने की बात कही जा रही है। अगर यह मान भी लिया जाये कि रोजगार उत्पन्न करने के निरंतर नवीन प्रयास किये जा रहे हैं, तो फिर क्या कारण है कि रेलवे की ग्रुप डी की परीक्षा के लिए पी एच डी कर चुके उम्मीद्वारों की बड़ी संख्या है? क्या कारण है कि राजस्थान में चपरासी के पाँच पदों के लिए 23,000 आवेदन आए हैं?

सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में इतनी बड़ी संख्या में आवेदन दिए जाने के कुछ कारण हैं, जो हमारे निरंतर पनपते रोजगारों की प्रकृति को भी ऊजागर करते हैं।

  • बड़े पैमाने पर निजीकरण किए जाने के बाद भी, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में मिलने वाली सुरक्षा और लाभ, युवाओं के लिए आकर्षण का विषय है। इन नौकरियों में सेवानिवृत्ति के बाद की पेंशन को एक बड़ी जीवन-सुरक्षा के रूप में देखा जाता है। सरकारी नौकरी में निचली श्रेणी के सामान्य सहायक को भी जो वेतन दिया जाता है, वह निजी क्षेत्र की तुलना में दुगुना है।
  • प्रतिमाह बढ़ने वाली बेरोजगारों की संख्या की तुलना में रोजगार के नए अवसर बहुत ही कम आ पाते हैं। सातवां त्रैमासिक रोजगार सर्वेक्षण बताता है कि 1.36 लाख रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए गए, जबकि बेरोजगारों की संख्या में हर महीने दस लाख से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हो जाती है।
  • देश का 80 प्रतिशत कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में लगा हुआ है। इनमें से केवल 17 प्रतिशत को नियमित वेतन दिया जाता है। पांचवा वार्षिक रोजगार-बेरोजगार सर्वेक्षण स्पष्ट करता है कि कार्यबल में कर्मचारियों की संख्या में से 21 प्रतिशत को ही सामाजिक सुरक्षा जैसी सुविधाएं मिल रही हैं।
  • निर्यात में लगातार गिरावट तथा ऑटोमेशन के चलते रोजगारों पर तलवार लटकी है। फलस्वरूप तकनीक की दिशा बदलकर नए आकाश तलाशने की जरूरत है। भारत के पास रोजगार के कई ऐसे विकल्प है। जिन्हें पुर्नजीवित किया जा सकता है।

निदान

  • भारत का कपड़ा उद्योग असीम संभावनाएं रखता है। आर सी ई पी के सोलह देशों के साथ मिलकर अगर 3.5 अरब की जनसंख्या के लिए कपड़े तैयार किये जाते हैं, तो यह कभी न समाप्त होने वाले रोजगार के अवसर के रूप में विकल्प बन सकता है। यह उद्योग श्रम पर आधारित है। इसी प्रकार से चमड़ा और जूता उद्योग में भी रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकते हैं।
  • रोजगार की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ कौशल विकास में भी निवेश की उतनी ही आवश्यकता होगी।
  • भारत को एक राष्ट्रीय रोजगार नीति बनाने की आवश्यकता है, जो सामाजिक, आर्थिक समस्याओं को संज्ञान में लेते हुए रोजगारों के निर्माण के अवसर ढूंढ सके। जो कानूनों में सुधार कर सके और रोजगार उपलब्ध कराने वाले उद्योगों को कर में राहत दे सके।
  • हमें अपने रोजगार कार्यालयों को रोजगार केन्द्र के रूप में परिवर्तित करने की आवश्यकता है। ये केन्द्र सरकारी या निजी तौर पर चलाए जाने चाहिए। ये केन्द्र युवाओं के लिए भर्ती प्रक्रिया से जुड़ी समस्याओं का समाधान करने में मदद करे।
  • राष्ट्रीय कौशल विकास निगम को चाहिए कि वह युवा विकास सहयोग कार्यक्रम चलाए, जो युवाओं को कौशन विकास के अवसर प्रदान करने वाले गैर सरकारी संगठनों की मदद करे। इसमें जिला स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
  • उद्यमिता को सामाजिक प्रोत्साहन दिए जाने की आवश्यकता है। लघु एवं मध्यम दर्जे के व्यवसाय की शुरुआत करने में आने वाली अड़चनों को दूर किया जाना चाहिए। इनके लिए उपलब्ध सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। बुनियादी ढांचों का विकास भी आवश्यक है। भारतीय बैंक लघु एवं मझोले उद्यमों की पूरी मदद देने का प्रयत्न करें।

युवावस्था, विकास की अवस्था है। भारत के युवाओं को प्रोत्साहन भरा वातावरण प्रदान करना देश के हित में है, और हमारा उत्तरदायित्व भी है। उनके लिए बेरोजगारी एक अभिशाप है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित वरुण गांधी के लेख पर आधारित। 25 सितम्बर, 2018

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Life Management: 05-11-18

05-11-18 (Daily Audio Lecture)

05-11-2018 (Important News Clippings)

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05-11-2018 (Important News Clippings)

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Date:05-11-18

Choppy Waters

Pursue economic reforms to withstand external turbulence

TOI Editorials

In what can be described as a double whammy for India, restrictions over import of oil from Iran are set to kick in today, even as the US has withdrawn duty-free concessions under the Generalised System of Preferences (GSP) that will affect at least 50 Indian products. The two measures are indicative of the Donald Trump administration’s continuing drive to crack down on what it describes as unfair trade practices and further its definition of American strategic interests, which includes sanctions on Iran.

The GSP was designed to promote economic development by allowing duty-free access to designated products from some developing countries. The Trump administration, however, views them with a jaundiced eye. Withdrawing the concessions is bound to hit Indian micro, small and medium enterprises (MSMEs), already reeling under domestic moves such as demonetisation and poor implementation of GST. Meanwhile, American sanctions on Iran will snap back today. This will hit Iranian oil that forms a significant portion of India’s energy basket.

True, the US administration has agreed to grant temporary exemptions to eight countries that import oil from Iran, including India. But this will be conditioned upon further reduction in Iranian oil imports with the aim of ultimately bringing this down to zero. India failed to take advantage of the good years when oil prices were low, and it’s clear from these measures that India’s external economic environment is turning distinctly adverse now with America gradually tightening the screws on trade.

But every crisis presents an opportunity to reform. In this respect, India needs to further cut red tape and streamline clearances for business. Despite the commendable jump in the latest Ease of Doing Business rankings, areas like enforcing contracts and time taken to start a business need further improvement. Labour laws continue to be stringent and must be reformed to attract big ticket foreign investments. Meanwhile, in the face of Iran oil curbs and global oil price rises that are expected to follow, there is a case for cutting fuel taxes as well as relaxing domestic exploration norms. Lastly, with the US rewriting international trade norms, it would benefit New Delhi to conclude a bilateral trade deal with Washington. It’s time to get smart and build domestic economic strength. The ‘Diwali package’ for MSMEs unveiled by Prime Minister Narendra Modi last Friday is a small step in the right direction.


Date:05-11-18

Iran Sanctions: Welcome Breather

ET Editorials

The Trump Administration’s decision to exempt India from enforcing the sanctions that the United States is slated to reimpose on Iran on November 5 comes as a welcome breather for New Delhi. India is among eight countries that could include South Korea, China and Japan, besides Turkey and Iraq. The economic benefits of the waiver are significant, diplomatically it is a recognition of India’s growing importance in the global arena and its place in US global engagement, particularly in Asia. As welcome as the waiver is, New Delhi must continue to step up its global engagement, particularly with the European Union and its member countries, and Japan.

India is the second-largest importer of Iranian oil, China being the first. Uninterrupted supply from Iran would help ensure that the Indian oil market remains stable. However, since September, India has been cutting back on its imports from Iran—down to 300,000 barrels per day compared to 685,000 barrels earlier. It is not certain whether the terms of the waiver require further and more drastic reduction in the amount of oil bought from Iran. Canada and the European Union, traditional US allies, have not been extended the waiver. The UK, France, Russia are among the countries that committed to continue honouring the Iran nuclear deal. The US sanctions against Iran will serve to strengthen the position of Washington’s traditional ally, Saudi Arabia, another major supplier of oil to India.

This is a temporary breather. New Delhi must persist with ongoing efforts to create a united front of major oil importers, to counter cartelised oil suppliers. Efforts must continue to create non-dollar payment mechanisms to settle transactions that do not involve a US counterparty. At the same time, India must accelerate its planned shift away from imported oil, substituting petrofuels with electric power for rail haulage and for domestic cooking. Preparedness for e-mobility also has to be scaled up and coordinated across departments and ministries. The immediate must not crowd out the long-term.


Date:05-11-18

स्वागतयोग्य कदम

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत सप्ताह सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र के लिए 12 पहल वाले पैकेज की घोषणा की। इस पैकेज में वे उपाय शामिल हैं जो एमएसएमई की नए दौर में प्रवेश करने में मदद करेंगे। संक्षेप में कहा जाए तो ये उपाय न केवल इस क्षेत्र के लिए ऋण की उपलब्धता बढ़ाएंगे बल्कि उनके लिए कारोबार को और सुगम भी बनाएंगे। बीते दो वित्त वर्ष के दौरान एमएसएमई क्षेत्र को नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) क्रियान्वयन के रूप में लगातार दो झटके लगे। इनकी वजह से इस क्षेत्र की आय में काफी कमी आई। देश के गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी क्षेत्र का मौजूदा संकट जो आईएलऐंडएफएस की कमजोरी की वजह से पैदा हुआ है, उसने भी एमएसएमई को ऋण का प्रवाह बाधित किया है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह अच्छी बात है कि सरकार अर्थव्यवस्था के इस अहम क्षेत्र की पूरी मदद कर रही है। देश में करीब 6.5 करोड़ ऐसे उद्यम हैं जिन्होंने 12 करोड़ लोगों को रोजगार दिया है। यह रोजगार तैयार करने वाला कृषि के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है।

नकदी के संकट से जूझ रहे इस क्षेत्र को तत्काल और तेजी से सहायता उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री ने एक देशव्यापी वेब पोर्टल की शुरुआत करने की घोषणा की जहां एक करोड़ रुपये तक का ऋण केवल एक घंटे से भी कम समय में जारी किया जाएगा। पहले चरण में सरकार 78 एमएसएमई क्लस्टर में पांच सरकारी बैंकों में इसे अंजाम देगी। बैंक अधिकारियों को इन जगहों पर तैनात किया जाएगा ताकि ऋण आसानी से दिया जा सके। इसके बाद उन एमएसएमई को ऋण में दो प्रतिशत की छूट और नया ऋण दिया जाएगा जो जीएसटी के तहत पंजीयन करा चुके हैं। पैकेज में उन निर्यातकों को ब्याज में छूट देने की बात भी कही गई है जो माल भेजने के पहले और बाद में ऋण लेते हैं। ऋण आसान करने के अलावा पैकेज का ध्यान कारोबारी व्यवहार्यता बेहतर बनाने पर भी है। इसके लिए सभी सरकारी उपकमों से कहा जाएगा कि वे अपने कच्चे माल का 25 फीसदी एमएसएमई से खरीदें। पहले यह सीमा 20 प्रतिशत थी। इसी प्रकार 500 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार करने वाली सरकारी कंपनियां और कारोबारी घरानों को अनिवार्य तौर पर ट्रेड रिसीवेबल्स इलेक्ट्रॉनिक डिस्काउंटिंग सिस्टम पोर्टल पर पंजीयन कराना होगा। इस कदम से उद्यमियों को अपनी आगामी प्राप्तियों के आधार पर बैंकों से ऋण मिल सकेगा। इतना ही नहीं एमएसएमई को तकनीकी उन्नयन का समर्थन भी मिलेगा। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण मंजूरी, निरीक्षण और रिटर्न फाइल करने की प्रक्रिया को और सहज बनाए जाने की बात कही। कंपनी अधिनियम में संशोधन के लिए अध्यादेश को मंजूरी दी जा चुकी है ताकि कारोबारियों को अनावश्यक दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़े।

निस्संदेह ये उपाय एमएसएमई क्षेत्र के लिए काफी मददगार साबित होंगे। बहरहाल, इन कदमों को लेकर अति उत्साह से भरने के बजाय सतर्क रहने की भी पर्याप्त वजह हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इनकी घोषणा अति उत्साह की वजह बन सकती है। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘मैं स्वयं इस बात की निगरानी करूंगा कि अगले 100 दिन में सरकार 100 जिलों के छोटे कारोबारों तक पहुंचे।’ ऐसे में अधिकारी लंबी अवधि के नकारात्मक परिणामों का आकलन किए बगैर जल्दी से जल्दी नतीजे देने का दबाव महसूस कर सकते हैं। उदाहरण के लिए एमएसएमई को जल्दी ऋण देने के प्रयास के साथ यह तय होना चाहिए कि ऋण अनुशासन का ध्यान रखा जाए। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर एन एस विश्वनाथन ने एक अलग संदर्भ में ही सही इससे जुड़ी चेतावनी दे दी है जिसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार सरकारी उपक्रमों के लिए खरीद की प्राथमिकता में यह जोखिम छिपा है कि कहीं इससे अव्यवस्था न पैदा हो।


Date:04-11-18

ये क्या जगह है दोस्तो !

हरिमोहन मिश्र

यकीनन यह दौर कुछ और ही है। इस हफ्ते की सुर्खियों पर जरा गौर कीजिए। सीबीआई के बाद आरबीआई खबरों में है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर संस्थागत स्वायत्तता की दुहाई दे रहे हैं, तो सरकार चेता रही है कि आरबीआई कानून के अनुच्छेद 7 पर अमल करके वह उसे अपना आदेश मानने पर बाध्य कर सकती है, जिस पर आज तक कभी अमल नहीं किया गया। फिर अहमदाबाद विश्वविद्यालय को एक छात्र संगठन ने चेताया कि महात्मा गांधी के जीवनीकार रामचंद्र गुहा जैसे ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘अर्बन नक्सल’ को न बुलाया जाए। गुहा ने खुद ही जाने से मना कर दिया। दूसरी तरफ, सरदार सरोवर में सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति का अनावरण प्रधानमंत्री मोदी करते हैं, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की ओर से खबर आती है कि अयोध्या के सरयू तट पर राम की उससे भी ऊंची मूर्ति स्थापित की जाएगी। स्थापित संस्थाओं के ढहने और दुनिया में सबसे ऊंची मूर्तियां स्थापित करने के मायने आखिर क्या हैं? मूर्तियां गढ़ना या मूर्तियां तोड़ना कोई नया शगल नहीं है, लेकिन असली सवाल ये हैं कि उसके जरिए क्या संदेश दिया जा रहा है? और कैसा जनमत तैयार करने की कोशिश की जा रही है?

सबसे चिंताजनक संस्थाओं का ढहना है क्योंकि उन्हीं की बुनियाद पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है। ये संस्थाएं भी कोई एक दिन में नहीं बनी हैं, और कई थपेड़े झेल चुकी हैं, या उथल-पुथल के दौर से गुजर चुकी हैं। यहां तक कि अपने लंबे अध्ययन-अध्यापन के बल पर बौद्धिक भी संस्था का रूप ले लेते हैं, इसलिए उन पर चोट भी एक मायने में संस्थाओं को ढहाने जैसा ही कहा जा सकता है। याद कीजिए, एकाध साल पहले जब रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के बारे में ऐसी ही बातें कही गई थीं, और कई किताबों को पाठय़क्रम से हटाने या बदलने की बात चली थी, तो एनडीए की पहली सरकार में मंत्री रह चुके अरुण शौरी ने कहा था, ‘किसी बड़े बुद्धिजीवी से असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन उसकी स्थापनाओं को काटने के लिए उससे अधिक गंभीर शोध और स्थापनाएं आगे लानी पड़ेंगी। सिर्फ गाल बजाकर यह नहीं किया जा सकता।’ गुहा से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्हें ‘राष्ट्रद्रोही’ बताना तो निहायत ही बुद्धि-विरोधी शगल है, और बोदे, भदेस बहुसंख्यकवाद की हिंसक प्रवृत्ति का परिचायक है।

खैर! क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर, पिछले चुनावों में अप्रत्याशित बड़ी जीत हासिल करके सत्ता में आई सरकार के आखिरी दौर में आते-आते सारी संस्थाएं ढहने क्यों लगी हैं? बड़े पदों पर कदाचार और भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के हाल तो जगजाहिर हैं, उसके साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), खुफिया ब्यूरो (आईबी) वगैरह भी कीचड़ में लथपथ हैं, जिनकी खबरों से अब देश अनजान नहीं रह गया है। इन संस्थाओं की साख पर सवाल खड़ा होने के पहले न्यायपालिका पर भी गहरे सवाल खड़े हो चुके हैं। हालांकि अब भी न्यायपालिका से ही उम्मीद है कि वह संस्थाओं की गिरावट पर अंकुश लगाए।

बहरहाल, अब जिस संस्था की स्वायत्तता पर सीधे सरकारकी ही टेढ़ी नजर है, वह आरबीआई हमारी अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। कथित तौर पर सरकार चाहती है कि आरबीआई अपने करीब 3 लाख करोड़ रुपये के संरक्षित कोष में कुछ ढील दे यानी उससे कुछ रकम आगे बढ़ाए ताकि बैंक उद्योगों को कर्ज मुहैया करा सकें और मंदी में घिरी अर्थव्यवस्था कम से कम 2019 के आम चुनावों के पहले कुछ सुखद एहसास दे सके। सरकारी दलील यह भी है कि छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज मुहैया होगा तो कारोबार-धंधों में कुछ चमक आएगी। लेकिन महंगाई पर अंकुश रखने के कारण रिजर्व बैंक के अधिकारी यह रियायत नहीं देना चाहते। उस ओर से दलील यह भी है कि जिस तरह बैंकों के डूबत खातों के कर्ज (जिन्हें सरकारी भाषा में गैर-निष्पादित संपत्तियां या एनपीए कहा जाता है, जो एक मायने में छलावा हैं) बढ़ते जा रहे हैं (मोटे अनुमान से करीब 13.5 लाख करोड़ रु.)। ऐसे में अगर और कर्ज देने की रियायत बरती गई तो उससे वैसा ही संकट पैदा हो सकता है, जैसा नब्बे के दौर में चंद्रशेखर सरकार के दौरान खड़ा हुआ था, और सोना गिरवी रखकर कर्ज लेना पड़ा था। यह भी कहा जा रहा है कि दिवालिया संहिता के तहत जब बैंकों ने नोटिस देने शुरू किए तो बड़े कर्जदारों में हड़कंप मच गया। खासकर पिछले दिनों मंजूरी पा चुकीं ठप पड़ीं निजी क्षेत्र की बिजली परियोजनाओं का मामला गंभीर होने लगा है। हाल में ऐसी ही एक परियोजना के लिए अडानी समूह ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से राहत हासिल की है। कहा यह भी जा रहा है कि ये कंपनियां दिवालिया संहिता की कार्रवाई से बचने के लिए बैंकों से और कर्ज की मांग कर रही हैं। हालात जो भी हों मगर भारतीय रिजर्व बैंक जब अंकुश लगाए रखने की बात कर रहा है, तो उसे यह मोहलत दी जानी चाहिए।

रिजर्व बैंक के उच्चाधिकारियों का कष्ट इतना ही नहीं है। पहली बार सरकार के नियुक्त किए स्वतंत्र डायरेक्टरों का दबाव भी बढ़ रहा है। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की वह टिप्पणी याद कीजिए कि ‘केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता से छेड़छाड़ की गई तो अर्थव्यवस्था जल उठेगी।’ यह भी अटकलें हवा में हैं कि दबाव इतना बढ़ गया है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं। यह भी अफवाह है कि उनके साथ दो डिप्टी गवर्नर भी इस्तीफा दे सकते हैं। हालांकि यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने अपने ऊपर यह दबाव बनने दिया क्योंकि वह अगर नोटबंदी के फैसले का विरोध कर देता तो शायद आज न अर्थव्यवस्था की इतनी बुरी हालत होती और न सरकार उस पर इस कदर हावी हो पाती। अब तो यह साबित हो चुका है कि नोटबंदी और हड़बड़ी में लागू किए गए जीएसटी, दोनों ने अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। लेकिन तब उर्जित पटेल नये-नये गवर्नर बनाए गए थे। विडंबना यह भी देखिए कि नोटबंदी का बचाव करने वाले गुरुमूर्ति को कथित तौर पर आरबीआई पर नया दबाव बनाने का किरदार बताया जाता है। सरकार ने उन्हें और तीन-चार दूसरों को आरबीआई में स्वतंत्र डायरेक्टर नियुक्त किया है।

जो भी हो, इस कदर संस्थाओं का चौपट होना बेहद गंभीर मामला है। सत्तारूढ़ खेमे से चेतावनियां दूसरी भी आ रही हैं, जो बेहद संगीन हैं, और देश की संवैधानिक व्यवस्था को तार-तार कर सकती हैं। संघ प्रमुख की ओर से यह बयान आया है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। लेकिन संवैधानिक मर्यादाओं और राजनैतिक दिक्कतों से सरकार के ऐसा न कर पाने का अंदेशा हुआ तो कहा गया कि अध्यादेश लाया जाए। अदालत में मामला लंबित होने से जब यह भी संभव नहीं लगा तो राज्य सभा में सरकार की ओर से मनोनीत एक सदस्य अब निजी विधेयक पेश करने की बात कर रहे हैं। फिर, यह भी अपर्याप्त लगा तो सरयू तट पर राम की मूर्ति स्थापित करने की बातें चल पड़ीं। मूर्ति स्थापित करने में कोई दिक्कत नहीं है, न ही निजी विधेयक लाने में। लेकिन असली सवाल यही है कि चुनाव के नजदीक आते ही यह सब क्यों किया जा रहा है? जाहिर है, यह ध्रुवीकरण तेज करने और लोगों का ध्यान सरकार के कामकाज से हटाने की ही फितरत हो सकती है, जिसे लोग नहीं समझ रहे होंगे, यह असंभव है। लेकिन असली चिंता संस्थाओं का विघटन है। संस्थाएं टूट गई तो उन्हें फिर खड़ा करना आसान नहीं हो पाएगा। योजना आयोग इसका अच्छा उदाहरण है।


Date:04-11-18

संस्कृति की विभाजक रेखाएं

ऋषभ कुमार मिश्र

हम एक ऐसे दौर के गवाह बन रहे हैं, जहां भारत की ‘विविधता में एकता’ पर अस्मिता की राजनीति हावी होती जा रही है। भारत के बारे में होने वाली वैचारिक बहसें किसी भी विचारधारा से क्यों न उत्पन्न हों, इस शर्त पर अवश्य सहमत होती हैं कि यहां सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और प्रतीकों की विविधता है। इस विशेषता को विरासत मानते हुए हम अपनी ‘परंपरा’ से जोड़ते हैं। एक ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं, जहां विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में कोई संघर्ष या द्वंद नहीं है, जबकि यथार्थ में यह परिकल्पना साकार होती नजर नहीं आती।‘विविधता में एकता’ भारतीय समाज के जिन सांस्कृतिक प्रतीकों पर निर्मिंत है, वे इन समूहों के सामाजिक-आर्थिक संबंध को ऐतिहासिक ढंग से नहीं प्रस्तुत करते। भारत की परिकल्पना करने वालों का एक धड़ा ऐसा है, जो एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा के नाम पर हर विविधता को एकरूपता में बदल कर ‘वृहद् भारत’ की रचना करना चाहता है। स्वाभाविक है कि यह तरीका प्रतिरोध को जन्म देगा। विडंबना यह है कि ये दोनों धाराएं हर सां न सम्मत है लेकिन इसकी उतनी स्वीकृति नहीं बन पा रही है क्योंकि अन्य दो धाराओं ने मीडिया जैसे साधनों के प्रयोग द्वारा ऐसी संकटकालीन स्थिति का प्रोपोगंडा किया है, जहां बिना मजबूत समूह की पहचान के अस्तित्व का संकट दिखाया जा रहा है। इसे ही स्टेन कोहेने ने ‘मोरल पैनिक’ की संज्ञा दी है। प्रत्येक समूह अपनी पहचान को कानूनी वैधता दिलाना चाह रहा है। दरअसल, ऐसा करके वे देश के हिस्से में अपना हक बढ़ाना चाहते हैं, जिसके लिए वे अपनी विशिष्ट स्थिति को न्यूनतम शर्त मान रहे हैं। इस सबके बीच देश हित का सवाल परे धकेला जा चुका है।

‘अस्मिता की राजनीति’ का एक ऐसा माहौल बन चुका है कि हर सांस्कृतिक समूह ने समुदाय के कल्याण के सापेक्ष अपने लोगों को लामबंद कर लिया है। ऐसे बहुत से क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी समूहों को आप अपने आसपास देख सकते हैं। वे अपनी सामुदायिक पहचान को सबसे ऊपर रखते हैं। कहना न होगा कि अस्मिता की राजनीति के रास्ते सत्ता पर नियंत्रण की लालसा हमारे समय का एक बड़ा संकट है। हाल के दिनों की जिन घटनाओं को आप देश के लिए खतरा मान रहे हैं, उन्हें सांस्कृतिक समूहों के बीच टकराव के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जबकि ये घटनाएं राजनीतिक-आर्थिक नियंत्रण के प्रयास हैं। हमारी राजनीतिक रणनीतियां क्षेत्रीय-धार्मिंक-जातीय-भाषायी अस्मिताओं को पुष्ट करना चाहती हैं।

हर सांस्कृतिक समूह में यह राजनीतिक चेतना विकसित हो चुकी है कि शक्ति के केंद्रीकरण और अवसरों की असमानता की खाई को राजनीतिक व्यवस्था पर कब्जा करके ही पाटा जा सकता है। उनके लिए सत्ता पर कब्जा राज्य के हस्तक्षेप के रास्ते उत्पादन के साधनों पर कब्जा करना है। विडंबना यह है कि समूह विशेष में शक्ति का केंद्रीकरण ‘अन्य’ के लिए अवसरों की असमानता और शोषण के रूप में प्रकट होता है। वे इस असमानता के लिए राज्य की व्यवस्था को उत्तरदायी मानने लगते हैं। इस तरह जिस व्यवस्था को सकारात्मक भेदभाव करते हुए उपेक्षितों और शोषितों का पक्ष लेना था, वह उनके विरुद्ध खड़ी हो जाती है। एक तरह से हमारी राजनीतिक चेतना प्रतिशोधात्मक बनती जा रही है। हर समूह सत्ता के प्रतिष्ठानों पर वैसे ही नियंत्रण करना चाह रहा है, जैसे उसके पूर्ववर्तियों ने किया था। तो फिर राजनीतिक चेतना के प्रसार द्वारा लोकतंत्रात्मक मूल्य व्यवस्था- स्वतंत्रता, उदारता, सहिष्णुता और बंधुत्व का क्या? गरीबी, असमानता, विस्थापन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौतियों के समाधान का रास्ता कैसा हो? क्या ये चुनौतियां विविधता के आयाम-धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के सापेक्ष केवल एक राजनीतिक मुद्दे हैं? क्या इन आयामों पर किसी समूह के पीछे रहने का कारण उसकी सांस्कृतिक अस्मिता है, या वे सामाजिक-ऐतिहासिक कारण जो आर्थिक असमानता और राजनैतिक वर्चस्व के लिए उत्तरादायी हैं? ऐसी स्थिति में संभावित और सबसे सरल उत्तर है कि इनका समाधान राज्य द्वारा किया जा सकता है, लेकिन हमारे रोजमर्रा के आपसी संबंध, जो अपने समूह से भिन्न समूहों से या तो दूरी बनाए हुए हैं, या उनके साथ अन्त:क्रिया के दौरान संदेह का भाव रखते हैं, उसका क्या?

हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं है, बल्कि एक भाव, एक अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है। ध्यान रखना होगा कि न तो हमारा संविधान और न ही हमारी परंपरा किसी प्रतीक या संस्कृति विशेष के चयन द्वारा एकरूपता का पक्ष लेती है। हम ‘अस्मिताओं’ वाले भारत की कल्पना करते हैं, और इसी अर्थ में भारतीय संज्ञा का प्रयोग करते हैं। ‘अस्मिताओं’ का स्वीकार भारतीय संस्कृति को संवर्धित करना है। हमें मानना होगा कि हर सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिबद्धता भारत के साथ है। फर्क इतना है कि वे इस देश के वृहद् चित्र में अपनी अस्मिता का भी रंग चाहते हैं।


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स्वच्छ भारत मिशन की सफलता

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स्वच्छ भारत मिशन की सफलता

Date:06-11-18

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स्वच्छता का गहरा सबंध लोगों के जीवन से होता है। अपशिष्ट से जन्मी बीमारियों से प्रतिवर्ष अनेक बच्चों की मौत हो जाती है, या बहुत से बच्चे जीवन पर्यन्त अविकसित ही रह जाते हैं। अस्वच्छता से जन्मी बीमारियों और मृत्यु के कारण भारत को प्रतिवर्ष 106 अरब डॉलर की हानि होती है।

2014 में चलाए गए स्वच्छ भारत मिशन ने इस नुकसान को बहुत हद तक कम करने का बीड़ा उठाया है। इस अभियान की शुरुआत में मात्र 42 प्रतिशत भारतीयों को ही स्वच्छता में जीवनयापन की सुविधा थी। परन्तु आज यह संख्या दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। भारत में लगभग 8.5 करोड़ शौचालयों का निर्माण हो चुका है। 21 राज्यों ने अपने को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है।

शौचालयों के अलावा इस मिशन का दूसरा पहलू अपशिष्ट का सुरक्षित और प्रभावी निपटान है। इस व्यापक अभियान में आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, तेलंगाना, तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। इस कड़ी में ऐसे सीवर तंत्रों के विकास के लिए विभिन्न संस्थानों से अन्वेषकों को निमंत्रित किया गया है, जो कम पानी और बिजली के बिना अपशिष्ट का निपटान करने वाली प्रणाली खोज सकें। इस दिशा में तमिलनाडु में ‘ओम्नी प्रोसेसर’ नामक यंत्र पर परीक्षण चल रहे हैं। यह ऐसा यंत्र है, जो अपशिष्ट को सीधे खाद में परिवर्तित कर देगा। भारत में विकसित अपशिष्ट निपटान की सफल प्रणालियां, विश्व के उन अनेक देशों के लिए वरदान सिद्ध होंगी, जो वर्तमान में स्वच्छता के प्रयास में लगे हुए हैं।

कोई भी सार्वजनिक अभियान तभी सफल होता है, जब वह बुनियादी ढांचों के विकास के साथ-साथ लोगों की सोच को भी परिवर्तित करता है। स्वच्छ भारत मिशन की सफलता का भी यही राज है। यह शौचालयों और अपशिष्ट निपटान तकनीक के साथ-साथ समुदायों की सोच में परिवर्तन को भी संचालित कर रहा है। इस अभियान में तमाम ऐसी हस्तियों को शामिल किया गया है, जिनका समाज पर प्रभाव है। यही कारण है कि यह एक जन-आंदोलन बन सका है।

अभियान के जन-आंदोलन बनने का पता इस बात से भी चलता है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही इससे समान रूप से जुड़ गए हैं। पहले पाइपरहित जलापूर्ति वाले घरों में शौचालयों में ले जाने के लिए पानी भरना केवल स्त्रियों का काम हुआ करता था। परंतु अब पुरुष भी यह काम समान रूप से करने लगे हैं। इससे पता चलता है कि लोग यह मानने लगे हैं कि शौचालय केवल महिलाओं और कन्याओं की ही नहीं, बल्कि उनकी भी जरुरत है। यही स्वच्छ भारत मिशन की सफलता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित मेलिंडा गेट्स के लेख पर आधारित। 1 अक्टूबर, 2018

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Life Management: 06-11-18

06-11-18 (Daily Audio Lecture)

06-11-2018 (Important News Clippings)

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06-11-2018 (Important News Clippings)

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Date:06-11-18

Riding A Tiger

Ratcheting up temple politics won’t help BJP, focus on development

TOI Editorials

For most Indians improvement of their lives and livelihoods matters most, not giving vent to religious passions and anarchy. Prime Minister Narendra Modi correctly gauged the country’s pulse when he called for “sabka saath, sabka vikas”. However, the chorus for a Ram Mandir from BJP quarters throws strong hints of the party’s agenda for the 2019 general election. The question these leaders – Ram Madhav, Uma Bharti, Uttar Pradesh chief minister Yogi Adityanath and Bihar deputy CM Sushil Kumar Modi – must now answer is how they plan to get off this tiger after riding it for a while.

LK Advani’s 1990 rath yatra and the 1992 Babri Masjid demolition led to riots, police firings and fertile soil for ISI to sow terror. Babri also destroyed the credibility of then Prime Minister PV Narasimha Rao and then UP CM Kalyan Singh. Creating conditions for law and order failures can similarly boomerang on the governments of today. It was not the aspiration for a Ram temple or the post-dated anger simmering over the construction of the 16th century Babri Masjid that led to the terrific Modi wave of 2014.

When Sushil Modi appeals to Muslims to relinquish their claim to Babri Masjid, it is unclear how much of its heritage Modi wants the country to forget to satisfy practitioners of the Hindutva ideology. Attempts to efface Mughal heritage are proceeding resolutely: Mughalsarai railway station and Allahabad city have already been renamed. Even the Taj Mahal is in the sights of Hindutva’s cultural cleansing squads. Akbar’s fortification and the town within its ramparts, christened by him as Ilahabad (in Hindi, Allahabad is still spelt ‘Ilahabad’) is not so much a reference to ‘Allah’ as to Akbar’s favourite creed of Din-i-Ilahi, signifying India’s great tradition of religious syncretism – all but forgotten today in the desperate search for votes.

There is no generous offer to build a mosque besides the proposed Ram temple from those like Sushil Modi asking Muslims to withdraw – if there were, it could have paved the way for a peaceful out-of-court settlement of the issue by now. Before trashing the Mughals further it’s worth remembering that, according to estimates, India accounted for nearly a quarter of world GDP under them. If India can get even remotely close to that achievement now then BJP’s rule over India is assured for the next 50 years, as party president Amit Shah wants. That is what BJP must focus on now.


Date:06-11-18

Walking The Talk On Tourism

India’s 3rd rank in this year’s World Travel & Tourism Council Report shows how far we’ve come

K J Alphons , [ The writer is Minister of State for Tourism (Independent Charge)]

India is at third place in the new Power Ranking of the 2018 report of World Travel & Tourism Council (WTTC). It evaluates the performance of 185 countries over a seven-year period (2011-17). Countries were ranked using WTTC’s annual economic impact data across four main indicators – total contribution to GDP, visitor exports (international tourism spend), domestic spending and capital investment. This is a major development that augurs well for the entire tourism sector, and is being hailed as a confidence booster.

India’s revenue from travel and tourism stood at $234 billion (France earned $232 billion and Spain $196 billion). Tourism sector accounted for 10.4% of global GDP and 313 million jobs, accounting for 9.9% total employment in 2017. In India the share of tourism in GDP is around 7%, and it contributes approximately 13% to total employment. 84 million people are employed in the tourism industry in India. Since 2014 the big take is: Tourism sector has added 13.92 million jobs in India.

Prime Minister Narendra Modi has been the best ambassador for Indian tourism. We are at centre stage. The World Economic Forum’s travel and tourism competitiveness index, released in April 2017, showed that from amongst 136 nations worldwide India moved up 25 places in less than four years. With many of the government’s efforts to make travel to and within India more convenient bearing fruit there will be a further spurt in arrivals, according to tour operators and hospitality sector. With the e-visa regime covering 166 countries, you can make an online application and your visa is in your inbox in 24-48 hours. The latest relaxation of rules is for Andaman and Nicobar Islands, where foreigners are no longer mandated to register with the Foreigners Registration Office within 24 hours of arrival. Visit to north-east India has become hassle free.

India, with its rich and diverse cultural heritage and natural beauty, has been a prime candidate to lead the so-called Asian century in travel and tourism. The government is stepping up efforts to boost foreign tourist arrivals and foreign spending in the country. Cruise terminals have been built in four seaports with immigration facilities. Introduction of e-visa and launch of the Incredible India 2.0 campaign are steps in the right direction.

Six one-minute promotionals released recently had a viewership of 193 million online. From launching the tourism ministry’s highly interactive and informative Incredible India website using multimedia and social media, to selling India’s vast beaches and coastlines, mountain ranges, forests, heritage monuments, yoga and ayurveda and extensive road shows, India is fast emerging on the bucket list of foreign travellers wanting an exotic eastern experience.

One focus of the current government is to upgrade basic infrastructure around places which are frequented by tourists. The tourism ministry has two flagship programmes: Swadesh Darshan (total outlay Rs 5,992 crore) and PRASHAD (Rs 727 crore) to create basic infrastructure around our heritage and religious destinations – toilets, parking, drinking water, souvenir shops, cafeteria, Wi-Fi, etc. Thirty projects under Swadesh Darshan will be inaugurated this year.

Another radical idea we have taken up is ‘Adopt a Heritage Scheme’. Under this, heritage sites are being given for adoption to corporate sector, NGOs, resident welfare associations and other institutions. The whole idea is to create a sense of belonging to the citizens that India’s heritage belongs to the people. Work at 10 of these destinations will be completed this year. The PM’s passion for cleanliness through Swachh Bharat Mission has ensured that the sanitation coverage in India has gone up from 39% to 95%. This has improved tourism potential dramatically.

According to government data, foreign tourist arrivals went up from 7.68 million in 2014 to 10.04 million in 2017. With respect to forex earnings, the country has seen a jump from $20.2 billion in 2014 to $27.3 billion in 2017. By 2023, we want to hit $100 billion. These look fairly achievable given the spurt in figures and the slew of initiatives that are gaining ground. Our big focus is also domestic tourism.

Going forward, the ministry is working towards getting foreign tourists to plan longer vacations, explore lesser travelled sectors like the north-east, and plan wellness holidays tapping into wisdom of alternative medicine and therapies. Special offers are being made through state tourism boards and tour companies with attractive packages for Kerala and to promote destinations like Khajuraho, Ellora and Puri.

Overall our focus is to ‘walk the talk’. Whether working with departments concerned to put in place stronger preparedness or making it easier for tourists to navigate the country through eased visa norms, access to helpline numbers, being facilitated in popular tourist places through volunteers and special police booths, and having new tourist trails and attractions to choose from – an all out effort is being made to make it easier for foreign tourists to visit India and return home safe with kaleidoscopic memories which India is so capable of creating. We want them to believe that they would never be the same after being in India. India is a transformational experience.


Date:06-11-18

ईरान से जुड़ी उलझन

संपादकीय

गत सप्ताह अमेरिका ने घोषणा की कि ट्रंप प्रशासन ईरान के परमाणु कार्यक्रम तेज करने पर उसपर प्रतिबंध थोपेगा (हकीकत में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित समझौते से बचना चाहते हैं), वहीं इन प्रतिबंधों से कम से कम आठ देशों को काफी रियायत भी दी जाएगी। इनमें यूरोपीय संघ शामिल नहीं है जो ईरान के बड़े कारोबारी साझेदारों में है। इस सूची में भारत, चीन, कोरिया और जापान जैसे एशियाई तेल आयातक देश शामिल हैं। भारत की बात करें तो उसके लिए यह एक बड़ी राहत है और सरकार को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने सावधानीपूर्वक कूटनीतिक कदम उठाए जिससे यह रियायत मिल सकी। इन रियायतों की घोषणा करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा कि इन आठ देशों ने ईरान से होने वाले तेल आयात में उल्लेखनीय कमी करने के अलावा कई मोर्चों पर सहयोग किया है। इन सभी देशों को छह महीने के बाद यह रियायत बढ़ाने का आवेदन देना होगा।

इससे पहले अगस्त में वित्तीय लेनदेन पर दोबारा प्रतिबंध लगाए गए थे। इसके अलावा स्टील और कोयले जैसी जिंस पर भी प्रतिबंध लगाया गया था। अच्छी बात यह है कि अमेरिका स्विफ्ट जैसे अंतरबैंकिंग हस्तांतरण तंत्र को वित्तीय प्रतिबंध का अनुपालन करने पर मजबूर करने से पीछे हट गया है। इससे वैकल्पिक हस्तांतरण व्यवस्था बनाने के प्रयास शुरू होते और वैश्विक वित्तीय तंत्र अनावश्यक समस्याओं में उलझ जाता। भारत के लिए यह रियायत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत ईरान से कच्चा तेल खरीदने वाला तीसरा सबसे बड़ा मुल्क है। देश की कई रिफाइनरी पूरी तरह ईरान से आने वाले तेल पर ही निर्भर हैं।

बहरहाल, यह निर्भरता कुछ वर्ष पहले ईरान समझौते के पहले लगे प्रतिबंध के बाद कुछ कम हो चुकी है। ईरान के तेल पर निर्भरता में 20 फीसदी तक की कमी आ चुकी है। परंतु इसमें आगे और कमी लाना मुश्किल है। समस्या यह नहीं है कि भारत ईरान से तेल खरीदता रह सकता है बल्कि दिक्कत तो यह है कि इस खरीद का भुगतान कैसे किया जाएगा? रुपये में भुगतान किया जा सके तो समस्या हल भी हो सकती है लेकिन रुपये में की जाने वाली खरीद का अर्थ यह है कि भारत से ईरान को उसी राशि का निर्यात भी करना होगा। इसका प्रबंधन करना आसान नहीं है क्योंकि भारतीय वस्तुओं के लिए ईरान का बाजार उतना विस्तारित नहीं है।

उदाहरण के लिए चावल के व्यापार को बहुत अधिक बढ़ाना होगा। अमेरिका ने ईरान से जुड़े संस्थानों पर जो वित्तीय प्रतिबंध लगाए हैं वे अन्य प्रकार के भुगतान के मामलों को काफी जटिल बनाते हैं। ऐसे में शायद यूको बैंक जैसे बैंक का इस्तेमाल करना उचित होगा जिसका अमेरिकी वित्तीय तंत्र से अधिक पाला नहीं पड़ता। ऐसा करके भुगतान का प्रबंधन किया जा सकेगा। परंतु अगर लेनदेन से जुड़ी समस्याओं का समाधान हो भी जाए तो भी अन्य समस्याएं बरकरार रहेंगी। उदाहरण के लिए ईरान से भारत आने वाले तेल का बीमा कैसे होगा? अमेरिका के बड़े बीमाकर्ता और पुनर्बीमा के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली लंदन की कंपनी लॉयड को स्वाभाविक तौर पर वित्तीय प्रतिबंधों का पालन करना होगा। इस समस्या को अभी हल किया जाना है। ऐसे में शायद चीन के वित्तीय तंत्र की नई कंपनियों की सेवा लेनी होगी। सरकार ने जहां देश के लिए अल्पकालिक जीत हासिल की है, वहीं ईरान से तेल आयात की सुरक्षित प्रणाली तलाशने का काम अभी आधा ही हो सका है।


Date:06-11-18

जरूरत है विकास की दिशा में अविलंब बदलाव लाने की

संपादकीय

लक्ष्मी के वाहन उल्लू की तरह ही दीपावली पर दिल्ली की खराब होती हवा एक विरोधाभासी रूपक उपस्थित करती है। दीपावली गांव और शहर दोनों के लिए धन-धान्य का पर्व है। अगर गांव में खरीफ की फसल खलिहान से होते हुए घर में आती है तो शहर से जुड़े तमाम उद्योगों में उत्पादन, बिक्री और लाभ अपने चरम पर होता है। उद्यमियों को लाभ और कर्मचारियों को अच्छे वेतन और बोनस का तोहफा मिलता है। समृद्धि के ऐसे मौसम में हवा की निरंतर बिगड़ती गुणवत्ता यह संदेश देती है कि हमारी समृद्धि में कहीं कोई खोट है, जिसकी ओर हम ध्यान दिए बिना धन कमाने और उसे खर्च करने की अंधाधुंध दौड़ में लगे हैं। विडंबना यह है कि जितनी तेजी से प्रदूषण फैल रहा है उतनी ही तेजी से प्रदूषण के मास्क और एअर प्यूरीफायर का कारोबार जोर पकड़ रहा है। मतलब हमारी सभ्यता हवा को प्रदूषित करने का काम बंद नहीं करेगी, उल्टे वह इसी में अपना नया कारोबार ढूंढ़ लेगी।

नासा के उपग्रह से लिए गए चित्र के अनुसार पंजाब और हरियाणा में 17,789 स्थलों पर पराली जलाई गई तो इसी दौरान लाख से डेढ़ लाख रुपए की वे मशीनें भी बिकी हैं जो पराली को खेतों में ही दफना देती हैं। इस बीच दिल्ली के दैनिक यात्री अगर मास्क खरीदने पर मजबूर हैं तो दफ्तरों में एअर प्यूरीफायर लग रहे हैं। एक एअर प्यूरीफायर की कीमत 7000 से लेकर 1,00,000 रुपए तक है जो दफ्तर के आकार के लिहाज से उसके प्रदूषण को दूर करने की क्षमता रखता है। दिल्ली और एनसीआर से शुरू हुआ एअर प्यूरीफायर का यह कारोबार अब जयपुर, कानपुर, लखनऊ, लुधियाना, चंडीगढ़, मुंबई और बेंगलुरू तक फैल रहा है। यानी प्रदूषण के मामले में सारा देश दिल्ली की नकल करने की होड़ में है। वाहनों से होने वाले प्रदूषण के बारे में सुप्रीम कोर्ट की डांट-फटकार अगर नाकाफी है तो गांव वालों को पराली जलाने से रोकने वाला कानून और मशीनें खरीदने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी भी बेअसर है। शुक्र है कि रविवार को कश्मीर से चलने वाली ठंडी हवाओं और थोड़ी फुहारों ने दिल्ली को कुछ राहत दी थी जो सोमवार को फिर कम हो गई। यह स्थितियां हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि बढ़ती आय और तरक्की के लिए हम अपने स्वास्थ्य को किस तरह दांव पर लगाते जा रहे हैं। अब जरूरत विकास की दिशा में अविलंब बदलाव किए जाने की है।


Date:06-11-18

बैंकों की सहायता

सरकारी बैंकों की मदद के साथ सुनिश्चित करना जरूरी है कि वे सही तरह चलें! उनके फंसे कर्ज एक सीमा से अधिक न होने पाएं।

संपादकीय

बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की योजना के तहत उन्हें 20 हजार करोड़ रुपए और देने की तैयारी यही याद दिलाती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गलतियों की सजा सरकारी कोष यानी आम आदमी को भुगतनी पड़ रही है। इस गलती में रिजर्व बैंक के साथ पिछली संप्रग सरकार भी शामिल है। हालांकि मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही लगातार घाटे में डूबते बैंकों की सुध ली, लेकिन तब तक शायद देर हो चुकी थी और इसीलिए पिछले वर्ष उसे यह घोषणा करनी पड़ी कि दो लाख 11 हजार करोड़ रुपए की सहायता से बैंकों की हालत सुधारी जाएगी।

फिलहाल कहना कठिन है कि बैंकों को सरकारी सहायता की जरूरत आखिर कब तक पड़ती रहेगी, क्योंकि बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की योजना के तहत उन्हें कुल दो लाख 11 हजार करोड़ रुपए दिए जाने हैं और उनमें डूबी रकम आठ लाख करोड़ रुपए से भी अधिक है। इसमें संदेह है कि अब बैंकों ने अपनी कार्यप्रणाली ऐसी कर ली है कि भविष्य में वे वैसी स्थितियों से दो-चार नहीं होंगे, जैसी स्थितियों से हुए और जिसके चलते वे एक तरह से बर्बाद होने की कगार पर पहुंच गए।

फिलहाल यह कहना भी कठिन है कि रिजर्व बैंक ने निगरानी और नियमन संबंधी अपनी खामियों से सबक लेकर ऐसी व्यवस्था कर ली है, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक सतर्क हो गए हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि अभी भी रह-रहकर ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जो यह बताते हैं कि बैंक घाटे में डूबी अपनी रकम अथवा फंसे हुए कर्जों के बारे में रिजर्व बैंक को समय पर सूचना देने से बच रहे हैं। यही कारण है कि अनुचित तरीके से कर्ज लेकर उसे लौटाने में आनाकानी करने वालों के नाम सामने आने का सिलसिला कायम है।

वैसे तो यह सरकार को सुनिश्चित करना है कि सरकारी बैंक सही तरह चलें और उनके फंसे कर्ज एक सीमा से अधिक न होने पाएं, लेकिन बैंकों की नियामक संस्था होने के नाते रिजर्व बैंक की भी जिम्मेदारी बनती है। अगर उसने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरह किया होता तो आज जो दिन देखने पड़ रहे हैं, उनसे बचा जा सकता था। ये जो लाखों करोड़ों रुपए एनपीए में तब्दील हो गए हैं, उसके लिए रिजर्व बैंक अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकता। यह एक विडंबना ही है कि जब सरकार ने इस जवाबदेही को रेखांकित किया तो रिजर्व बैंक की ओर से अधिकारों में कमी का रोना रोया गया। आखिर यह बात पहले क्यों नहीं सामने लाई गई कि रिजर्व बैंक के पास वैसे अधिकार नहीं हैं, जैसे होने चाहिए? कम से कम अब तो यह सुनने को नहीं ही मिलना चाहिए कि रिजर्व बैंक पर्याप्त अधिकारों से लैस न होने के कारण बैंकों की सही तरह निगरानी नहीं कर पा रहा है। यह भी समय की मांग है कि जिन 11 बैंकों को दुरुस्त करने के लिए एक विशेष ढांचे में रखा गया है, उनकी कार्यप्रणाली को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के मतभेद यथाशीघ्र दूर हों। यह ठीक नहीं कि जब रिजर्व बैंक और सरकार को आपस में मिलकर काम करना चाहिए, तब उनमें तनातनी की खबरें आ रही हैं।


Date:06-11-18

जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने का नतीजा

यह कंपनी मालिकों, स्वतंत्र निदेशकों व रेटिंग एजेंसियों के लापरवाह रवैये का नतीजा है। क्षमता से अधिक कर्ज उठाना भी आफत बना।

डॉ. भरत झुनझुनवाला , (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्राध्यापक हैं)

इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज यानी आईएलएंडएफएस एक विशालकाय कंपनी है। इस कंपनी के मुख्य शेयरधारक भारतीय जीवन बीमा निगम, भारतीय स्टेट बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया हैं। ये तीनों ही सरकारी उपक्रम हैं। आईएलएंडएफएस द्वारा बाजार से 91 हजार करोड़ रुपए का भारी-भरकम कर्ज लिया गया। इस धन का उपयोग कंपनी ने सड़कें, सुरंग, पुल और बिजली संयंत्र जैसी बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में किया, लेकिन कंपनी संकट में फंस गई और इस ऋण की अदायगी नहीं कर पाई। इस ऋण को लेने में भी कंपनी ने चतुराई की।

इसे ऐसे समझते हैं कि मान लीजिए आपके पास 25 हजार रुपए की पूंजी है। आपने इस पूंजी को दिखाकर बैंक से 75 हजार रुपए का कर्ज ले लिया। इस तरह आपके पास एक लाख रुपया हो गया। इस एक लाख रुपए को आपने फिक्स डिपॉजिट करा दिया और फिर इस फिक्स डिपॉजिट को दिखाकर दूसरे बैंक से तीन लाख रुपए का कर्ज ले लिया। फिर इस तीन लाख रुपए का फिक्स डिपॉजिट कराया और तीसरे बैंक से 9 लाख रुपए का कर्ज ले लिया। इस प्रकार आपने 25 हजार की पूंजी पर लगभग 12 लाख रुपए का कर्ज ले लिया। बैंकों द्वारा सामान्यत: ऋण पूंजी अनुपात 3:1 रखा जाता है, यानी 25 हजार की पूंजी पर बैंक अधिकतम 75 हजार रुपए का कर्ज देते हैं। इस दृष्टि से 12 लाख रुपए के कर्ज पर आईएलएंडएफएस को चार लाख रुपए की पूंजी मुहैया करानी थी, किंतु उसने मात्र 25 हजार की पूंजी पर 12 लाख रुपए का कर्ज ले लिया। बैंकों द्वारा ऋण पूंजी अनुपात 3:1 इसलिए रखा जाता है कि यदि कंपनी घाटे में आ गई तो पहले उसकी अपनी पूंजी का सफाया होगा और घाटे के बावजूद कर्ज की वसूली की जा सकेगी। इस काल्पनिक मामले में 12 लाख के कर्ज को 25 हजार रुपए की पूंजी पर लेने से कर्ज की सुरक्षा नहीं रह गई। यही आईएलएंडएफएस के संकट का मूल कारण है।

आईएलएंडएफएस के अधिकारियों का कहना है कि सरकारी उपक्रमों पर उनका हजारों करोड़ रुपया बकाया है। सरकार द्वारा यह भुगतान न किए जाने के कारण आईएलएंडएफएस संकट में आ गई। आईएलएंडएफएस का यह कहना सही है, लेकिन मूल रूप से अपनी क्षमता से अधिक कर्ज लेने के कारण यह कंपनी संकट में फंसी है। वित्त जगत में लोग इससे वाकिफ थे कि यह कंपनी अपनी क्षमता से अधिक कर्ज ले रही है। आईएलएंडएफएस के पूर्व निदेशक एवं मारुति-सुजुकी के चेयरमैन आरसी भार्गव ने एक साक्षात्कार में इसकी तस्दीक भी की है कि सभी को मालूम था एक दिन आईएलएंडएफएस संकट में फंसेगी। प्रश्न है कि आईएलएंडएफएस की यह तिकड़म समय रहते सरकार और जनता को क्यों नहीं बताई जा सकी? लगता है कि एलआईसी, एसबीआई और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों ने भी यह छिपाया कि आईएलएंडएफएस ने अपनी क्षमता से अधिक कर्ज ले रखा है। इसका प्रमाण यह है कि जब आईएलएंडएफएस पर संकट के बादल मंडराने शुरू हुए तो उसके अध्यक्ष रवि पार्थसारथी ने इस्तीफा दे दिया। फिर एलआईसी के प्रबंध निदेशक हेमंत भार्गव इसके अध्यक्ष बने। उन्होंने भी शीघ्र इस्तीफा दे दिया। इसके बाद एलआईसी के पूर्व प्रमुख एसबी माथुर को कमान सौंपी गई। इस घटनाक्रम से पता चलता है कि एलआईसी पूरे मामले पर नजर बनाए हुई थी, लेकिन उसने भी इस स्थिति को सार्वजनिक नहीं किया। यह भी माना जा सकता है कि वित्त मंत्रालय को भी इसकी भनक लग ही गई होगी।

इस संकट के गहराने के पीछे दूसरी भूमिका कंपनी के स्वतंत्र निदेशकों की है। हमारे कानून में व्यवस्था है कि मालिक या प्रवर्तकों के अतिरिक्त कुछ स्वतंत्र निदेशक कंपनी के बोर्ड में शामिल किए जाएंगे। इन निदेशकों की जिम्मेदारी है कि वे कंपनी के कार्यकलापों पर नजर रखें और जनता व शेयरधारकों को वस्तुस्थिति से अवगत कराएं। इस मामले में स्वतंत्र निदेशक भी चुप्पी साधे रहे। तीसरी भूमिका रेटिंग एजेंसियों की थी। इन एजेंसियों ने संकट आने तक आईएलएंडएफएस को ए-1 की रेटिंग दे रखी थी। फिर एक महीने के भीतर ही उसकी रेटिंग घटाकर जंक स्तर पर ले आए। यानी रेटिंग एजेंसियां भी इस मामले में अपनी भूमिका से न्याय नहीं कर पाई। एक तरह से आईएलएंडएफएस संकट कंपनी के मालिकों, स्वतंत्र निदेशकों और रेटिंग एजेंसियों के लापरवाह रवैये का नतीजा है।

आईएलएंडएफएस संकट का अर्थव्यवस्था से भी संबंध है। यदि आईएलएंडएफएस ने अपनी क्षमता से अधिक कर्ज ले भी लिया तो उसकी अदायगी क्यों नहीं हो सकी? यदि उससे सड़क बनाई और उस सड़क से कमाई हुई तो फिर भुगतान तो किया ही जा सकता था। लगता है कि आईएलएंडएफएस द्वारा जो बुनियादी ढांचा बनाया गया, उससे अपेक्षित आमदनी नहीं हो पाई और इसी कारण कंपनी संकट में पड़ गई। देखना होगा कि बुनियादी ढांचे से आय क्यों नहीं हुई? अर्थव्यवस्था इस समय बड़े शहरों और बड़ी कंपनियों द्वारा ही बढ़ रही है। उन्हें देश के विस्तृत इलाके में बुनियादी ढांचे की खास आवश्यकता नहीं है। जैसे बेंगलुरु के सॉफ्टवेयर पार्क से यदि देश को आय हो रही है तो उसके लिए जम्मू से कश्मीर तक बनाई गई सुरंग का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

चूंकि देश की अर्थव्यवस्था प्रमुख शहरों में सिमट रही है, इसीलिए देश के विस्तृत इलाके में बुनियादी ढांचे का जाल बिछाने का जो प्रयास सरकार कर रही है उससे अपेक्षित राजस्व प्राप्त नहीं हो रहा है। जैसे वर्तमान में बिजली कंपनियों की हालत खस्ता है, क्योंकि बिजली की मांग कम है। कारण यह है कि हमारा आर्थिक विकास मूलत: बड़े शहरों की चुनिंदा कंपनियों पर टिका है, जबकि शेष देश की अर्थव्यवस्था उतनी गतिशील नहीं है। अर्थव्यवस्था का केंद्रीयकरण भी आईएलएंडएफएस संकट का एक प्रमुख कारण है। देश के विस्तृत भूभाग में बुनियादी ढांचे की विशेष जरूरत नहीं रह गई है। उसे बनाने में जो निवेश किया जा रहा है, उससे अपेक्षित राजस्व नहीं मिल रहा है। अपनी क्षमता से अधिक कर्ज उठाना भी आईएलएंडएफएस के लिए आफत बन गया। ऐसे में सरकार को चाहिए कि अर्थव्यवस्था को शहरों में केंद्रित करने के स्थान पर पूरे देश में उसका विस्तार करने के लिए एक उपयुक्त रणनीति बनाए। इस मामले में एलआईसी, स्वतंत्र निदेशकों और रेटिंग एजेंसियों द्वारा जो हीलाहवाली की गई, उससे निपटने के कुछ संस्थागत उपाय किए जाएं। आईएलएंडएफएस संकट का असर हम और आप पर भी पड़ेगा। आपने जो रकम म्युचुअल फंड या जीवन बीमा पॉलिसी में लगा रखी है, उस रकम को आईएलएंडएफएस बांड में लगाया गया है। आईएलएंडएफएस के डूबने के साथ आपकी इस रकम पर भी संकट आ सकता है। इस लिहाज से यह मसला आम आदमी से भी जुड़ा हुआ है। भविष्य में ऐसे संकट की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए कुछ कारगर कदम उठाने होंगे।


Date:05-11-18

पड़ोसी देशों से कारोबारी रिश्तों का खराब होना

जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री

विश्व बैंक ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि दक्षिण एशियाई देशों का आपसी व्यापार दुनिया के अन्य क्षेत्रों के आपसी कारोबार की तुलना में सबसे कम है। यह भी कहा गया है कि वर्ष 2017-18 में भारत का दक्षिण एशिया के साथ कारोबार करीब 1,900 अरब डॉलर रहा है, जबकि दक्षिण एशिया क्षेत्र के पड़ोसी देशों के साथ भारत की कुल कारोबारी क्षमता करीब 6,200 अरब डॉलर की है। इसका मतलब यह कि भारत पड़ोसी देशों के साथ कारोबार क्षमता का महज 31 फीसदी कारोबार ही कर पा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण एशिया में भारत का विदेश व्यापार भारत के कुल वैश्विक व्यापार का महज तीन फीसदी है और भारत-पाकिस्तान के बीच वैमनस्य से दक्षिण एशिया में आपसी कारोबार की ऊंचाई नहीं बढ़ पा रही है।

इसका बड़ा कारण क्षेत्र के दो बडे़ देशों भारत और पाकिस्तान के बीच निरंतर विवाद बने रहना है। भारत-पाकिस्तान के बीच विश्वास के इसी संकट के कारण सात दशक बाद भी दोनों देशों के बीच आपसी कारोबार निराशाजनक स्थिति में है। पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री इमरान खान ने आपसी रिश्ते को बातचीत से व्यापार तक ले जाने का इरादा जताया था, लेकिन उसके तत्काल बाद आतंकवादियों को समर्थन और सीमा पर लगातार गोलीबारी के कारण नए व्यापार संबंधों की संभावनाएं क्षीण हो गई हैं। गौरतलब है कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) और इंटरनेशनल टे्रड नियमों के आधार पर व्यापार में एमएफएन का दर्जा दिया जाता है। एमएफएन का दर्जा दिए जाने पर देश इस बात को लेकर आश्वस्त रहते हैं कि उनके द्वारा आयात किए जाने पर उन्हें आयात संबंधी विशेष रियायतें प्राप्त होंगी। साथ ही उन्हें व्यापार में नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। भारत ने पाकिस्तान को 1996 में एमएफएन का दर्जा दिया था। पाकिस्तान को जब यह दर्जा मिला, तो इसके साथ ही उसे अधिक आयात कोटा देने के साथ उत्पादों को कम ट्रेड टैरिफ पर बेचने की छूट मिली है। एमएफएन दर्जे के कारण किसी भी स्थिति में पाक के साथ आयात दरों में भेदभाव नहीं किया जा सकता। यदि किसी आइटम पर आयात कर 10 फीसदी है, तो किसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी पाकिस्तान से 10 फीसदी से अधिक आयात कर नहीं वसूला जा सकता है।

डब्ल्यूटीओ का कहना है कि यदि कोई एक देश दूसरे देश को एमएफएन का दर्जा देता है, तो दूसरे देश द्वारा भी पहले को एमएफएन का दर्जा दिया जाना चाहिए। गौर करने वाली बात यह है कि 22 साल पहले भारत की ओर से पाकिस्तान को दिया गया यह दर्जा अब तक एकतरफा है। पाकिस्तान ने भारत को यह दर्जा नहीं दिया है। पाकिस्तान ने वर्ष 2012 में भारत को एमएफएन का दर्जा देने का एलान किया था, लेकिन अभी तक वह वादा नहीं निभाया है। पाकिस्तान को एमएफएन का दर्जा देने के बावजूद भारत के साथ उसका आपसी कारोबार नहीं बढ़ा, लेकिन दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन के जिन अन्य सदस्य देशों, यानी श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और अफगानिस्तान को भारतेने एमएफएन का दर्जा दिया है, उनके साथ हमारा विदेश व्यापार तेजी से बढ़ा है।

इस समय जब भारत डॉलर-संकट का सामना कर रहा है, तब पड़ोसी देशों में निर्यात बढ़ाकर व्यापार घाटे को कम किए जाने की अच्छी संभावनाएं हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि 31 अक्तूबर को विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित कारोबारी सुगमता (इज ऑफ डूइंग बिजनेस) रिपोर्ट 2019 में कारोबारी सुगमता की वैश्विक रैंकिंग में भारत 190 देशों की सूची में 23 पायदान की छलांग लगाकर 77वें स्थान पर पहुंच गया है। वहीं पूरे दक्षिण एशिया में भारत कारोबार सुगमता में पहले क्रम पर स्थित है। कारोबार सुगमता की ऊं ची अनुकूलताओं के आधार पर भारत दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के साथ अधिक कारोबार की संभावनाओं को साकार कर सकता है। उम्मीद है कि सार्क देश आपसी कारोबार बढ़ाने के लिए शुल्क बाधाएं दूर करने के साथ-साथ मंजूरी प्रक्रिया, नियमन और मानक जैसी बाधाओं के अलावा अविश्वास का संकट भी दूर करेंगे।


Date:05-11-18

Filling The Gap

The government’s move to improve credit availability to MSMEs is a welcome intervention that should aid growth

Editorial

It is an accepted fact that micro, small and medium enterprises (MSMEs) have been impacted adversely by the twin shocks of demonetisation and goods and services tax (GST). Demonetisation made it difficult for these units to pay their contractual labour in cash and access credit, which is again largely through informal channels. GST similarly led to an increase in compliance costs, apart from depriving them of the inherent advantages of doing business in cash without leaving a paper trail. The fact that outstanding gross bank credit to MSMEs has actually shrunk — from Rs 4.71 lakh crore to Rs 4.69 crore between September 2014 and September 2018 – despite refinancing schemes such as Pradhan Mantri Mudra Yojana is proof of formal lending institutions being unable to fill the void either. This is disconcerting because the MSME sector accounts for an estimated 30 per cent of the country’s GDP, 45 per cent of its manufacturing output and 40 per cent of merchandise exports. And given that MSMEs have contributed least to the banking system’s non-performing assets crisis, even while disproportionately bearing the brunt of demonetisation and GST, there is also a moral case to support the sector.

It is refreshing in this light to see the Narendra Modi government announcing a 2 per cent interest subvention on both fresh and incremental loans taken by MSMEs having GST registration, besides launch of a portal enabling credit sanctions of up to Rs 1 crore “in just 59 minutes”. The idea by itself is welcome. GST, along with digitisation, allows for creation of a database of transactions, bank account statements and tax returns of all firms. That, in theory, should make it possible for assessing the creditworthiness of any applicant in a reasonably short period, even if not “59 minutes”. Whether this would work on the ground will, of course, depend on the banks. If demonetisation and GST ultimately leads to an ecosystem, wherein MSMEs are able to obtain better access to formal finance and without fear of harassment by tax/enforcement authorities, the short-term pains may still turn out to be worth having endured. The Modi government has also promised that factory inspectors will be permitted to conduct visits through random computerised allotment, with compulsory publication of reports within 48 hours. In addition, there would be only a single environmental approval for both air and water pollution. But the implementation here, too, is dependent mainly on the states concerned.

The other thing that should be worrying is the state of non-banking finance companies (NBFCs), whose share in total formal credit to MSMEs has almost doubled from around 5.5 per cent in December 2015 to 10 per cent in March 2018. With these institutions themselves now facing a liquidity squeeze, following the IL&FS debt defaults, the danger of credit flows to MSMEs being further affected cannot be ruled out.


Date:05-11-18

Not Standing Up

Institutions need to stand up to bullying. That did not happen when ABVP protested Ramachandra Guha’s appointment

Editorial

Never in its history has the Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad (ABVP) been recognised for its expertise of handing out merit certificates to academics. But, mysteriously, Ahmedabad University (AU), a private university that boasts of an impressive faculty, appears to be suddenly beholden to the ABVP’s views on matters intellectual. The RSS student wing has objected to historian Ramachandra Guha’s appointment to the university, calling him a list of names (“anti-national”, “urban Naxal” and “Communist”) that reveals, among other unflattering things, a complete incomprehension of the academic’s wide-ranging work. But the alleged pressure brought to bear upon the university led to doubts about Guha’s physical safety on campus, and apparently forced Guha, a consistent critic of the BJP government, to pull out. By now, the strain of anti-intellectualism in Indian politics has a standard operating procedure in place: Cry offence, call inconvenient academics/writers/historians unpatriotic and shut one more window of liberal thought. It is, as if, there is an unspoken ease of intolerance index that is being nurtured by our political class.

But that begs the question: What is the role of institutions such as Ahmedabad University (AU) in such a scenario? A private university, with some of the most acclaimed academics and writers on its roll, AU appears to have simply capitulated. The top rung of the university administration has remained silent about the circumstances that led to this embarrassing situation. More importantly, there has been no attempt to dispute the canards being hurled against Guha, an acclaimed biographer of Mahatma Gandhi, who had been chosen to chair a programme of Gandhi studies in a city where the Mahatma sharpened his political acumen.

India’s ruling political establishment has a fair amount of blame to take for the fact that abuses such as anti-national and urban Naxal now are terms filled with political menace, and pressed into service whenever the government’s critics have to be answered. This is now, unfortunately, a project on auto-pilot, when freelance armies of lumpens feel empowered to take down scholars and popular writers whenever they are perceived to be against the ideology on the rise. But the university’s gatekeepers cannot simply walk away from battle. AU has the intellectual, financial and academic heft needed to stand up to the liberal values it claims to profess. It must ask itself why it did not find the courage to do so. Institutions, especially universities, need to stand up to the bullying.


Date:05-11-18

The ghosts of laws past

Communication about judicial decisions remains at the mercy of initiatives by diligent officers

Apar Gupta & Abhinav Sekhri ,  [ Apar Gupta is a lawyer and the executive director of the Internet Freedom Foundation. Abhinav Sekhri is a lawyer practising in Delhi. The article is based on their research paper that can be accessed from the Foundation’s website]

In 2015, the Supreme Court struck down Section 66A of the Information Technology (IT) Act, 2000, as unconstitutional. That decision, Shreya Singhal v. Union of India, was heaped with praise by domestic and foreign media alike.

But none of this stopped the police in Muzaffarnagar, Uttar Pradesh, from arresting and detaining 18-year-old Zakir Ali Tyagi in October 2017, for allegedly committing a crime under Section 66A — for posting some comments on Facebook. Mr. Tyagi’s case is not alone. Media outlets have reported other instances where Section 66A has been invoked by the police, all of which points to an obvious, and serious, concern: what is the point of that landmark decision if the police still jail persons under unconstitutional laws?

We decided to dig deeper and investigate how Section 66A and other legal zombies have a tendency to inhabit the Indian legal system after their legal deaths.

Widespread malaise

Media reports on the continued application of Section 66A lend themselves to a narrative: the oft-maligned police are abusing their power in hamlets to commit the most obvious wrongs. But the facts show that this is far from the truth. From police stations, to trial courts, and all the way up to the High Courts, we found Section 66A was still in vogue throughout the legal system.

Equally disturbing was the discovery that this issue of applying unconstitutional penal laws long preceded Shreya Singhal and Section 66A. Before the recent decisions that held provisions in the Indian Penal Code as unconstitutional (in whole or in part), the Supreme Court had famously done this, in 1983, by striking down Section 303 of the Indian Penal Code in Mithu v. State of Punjab. In 2012, years after Section 303 had been struck down, the Rajasthan High Court intervened to save a person from being hanged for being convicted under that offence.

The weakest branch?

Since we did not subscribe to a narrative of wanton abuse by the authorities in their applying unconstitutional laws, we examined why such instances would keep recurring. Notwithstanding other causes, we argue that a primary reason for poor enforcement of judicial declarations of unconstitutionality is signal failures between different branches of government.

Today, the work of the Supreme Court has firmly placed it within the public consciousness in India. It is common to read reports about the court asking States and other litigants for updates about compliance with its orders (an example being orders in mob lynching petitions). While this monitoring function is one that the court can perform while a litigation is pending, it cannot do so after finally deciding a case, even after directions for compliance are issued. Instead, it needs help from the legislature and executive to ensure its final decisions are enforced. This was one of the reasons why Alexander Hamilton famously labelled the judiciary as “the least dangerous branch”.

Commonly, in this context one thinks of active non-compliance that can undermine the work of courts — for instance, the aftermath of the Sabarimala verdict. But these publicised acts of defiance have hidden what is a systemic problem within the Indian legal system: there exists no official method for sharing information about such decisions, even those of constitutional import such as Shreya Singhal.

Identifying signal failures

For any bureaucratic structure to survive, it needs working communication channels for sharing information. The same analogy applies here. The probability of decisions taken at the highest echelons of a system being faithfully applied at the lowest rungs greatly depends on how efficiently word gets to the ground. At present, even getting information across about court decisions is an area where the judiciary needs help.

So, unless Parliament amends a statute to remove the provision declared unconstitutional, that provision continues to remain on the statute book. This is why both Sections 66A and 303 are still a part of both the official version of statutes published on India Code and commercially published copies. And while the commercially published versions at least put an asterisk to mention the court decision, no such information is provided in the official India Code version.

Besides reading statutes, what else might government officials consult while applying the laws? Notifications and circulars issued by relevant Ministries. These notifications are another official method to share information about judgments declaring a provision unconstitutional. But as nothing mandates issuance of these notifications, there is no means to ensure that they are issued.

What about the judiciary? We found that there is no formal system on information sharing in the hierarchical set-up of the Indian judiciary. However, we found that some High Courts and district judges for specific districts did issue circulars bringing important decisions to the notice of other members in the judiciary. Thus, if the official text of the IT Act still retains Section 66A, and there is no government notification informing officers about it having been declared unconstitutional, is it really unimaginable to hear about the continued application of this legal zombie?

Justice for all

There is a pressing need to move from a system where communication about judicial decisions is at the mercy of initiatives by scrupulous officers, to a method not contingent on human error to the greatest possible extent. The urgency cannot be overstated. Enforcing unconstitutional laws is sheer wastage of public money. But more importantly, until this basic flaw within is addressed, certain persons will remain exposed to denial of their right to life and personal liberty in the worst possible way imaginable. They will suffer the indignity of lawless arrest and detention, for no reason other their poverty and ignorance, and inability to demand their rights.


 

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सामाजिक न्याय का सुनहरा पक्ष

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सामाजिक न्याय का सुनहरा पक्ष

Date:08-11-18

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सार्वजनिक नीति से संबंधित उच्चतम न्यायालय के किसी भी निर्णय में नागरिकों को दो प्रकार की अपेक्षाएं होती हैं। (1) कोई भी निर्णय भारतीय संविधान से सुसंगत हो, और (2) उसके निर्णय से प्रशासन को शक्ति मिलनी चाहिए। न्यायालय के समक्ष अनुसूचित जाति/जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने का मामला था, जिसमें उसने उपरोक्त् वर्णित दोनों ही बिन्दुओं पर अपने को सिद्ध नहीं किया। न्यायालय ने 2006 के निर्णय में सरकार द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के सरकारी कर्मचारियों की संख्या को एकत्रित करने को दरकिनार कर दिया।

सरकार ने 1992 में इंदिरा साहनी के मामले में नौ सदस्यीय पीठ के उस फैसले का भी संज्ञान नहीं लिया, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति/जनजाति के मामले में क्रीमी लेयर पर विचार-विमर्श का कोई मतलब नहीं है। इंदिरा साहनी के मामले में संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि अनुसूचित जाति/जनजाति को आरक्षण इसलिए नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि वे गरीब हैं; बल्कि इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि वे अपवर्जित या समाज से बाहर रखे गए हैं।

अनुच्छेद 335 में इस वर्ग के आरक्षण को प्रतिनिधित्व के अधिकार के रूप में ही निर्धारित किया गया है, न कि कल्याणकारी कदम की तरह। इस संदर्भ में कोई नागरिक अनुसूचित जाति/जनजाति में अपेक्षाकृत कमजोर लोगों के कल्याण के लिए रोजगार उपलध कराने की अपील कर सकता है। परन्तु इसके लिए क्रीमी लेयर को सामान्य वर्ग में भी अलग करने का मुद्दा उठाया जाएगा।

न्यायालय क्या कर सकता है?

अनुसूचित जाति/जनजाति में क्रीमीलेयर के अंतर्गत आ चुके लोगों को आरक्षण की सुविधा से स्वयं बाहर निकलने का विकल्प न्यायालय दे सकता है। वर्तमान में इस वर्ग के पास आरक्षण को अस्वीकार करने का कोई विकल्प नहीं है।

किसी भी उम्मीदवार को सरकारी नौकरी के आवेदन के दौरान अपनी जाति लिखने की अनिवार्यता होती है। अनुसूचित जाति/जनजाति लिखते ही वह अपने आप आरक्षित सूची में आ जाता है। इस वर्ग को सामान्य वर्ग सूची में प्रतिस्पर्धा करने की छूट देकर, अनुसूचित जाति/जनजाति के तमाम पिछड़े लोगों को आगे आने का मौका दिया जा सकेगा।

इससे एक लाभ यह भी होगा कि इस वर्ग के लोग कुल जनसंख्या में उनके अनुपात की तुलना में अधिक पदों की मांग करना बंद कर देंगे। कुल-मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमारे देश और उसकी नीतियों को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि उसने देश के सबसे पिछड़े जाति वर्ग में से आज ऐसे क्रीमी लेयर का सृजन कर लिया है, जो सामान्य वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार हो चुका है। इन लोगों ने अपने समुदाय को आम भारतीयों की श्रेणी में खड़ा होने योग्य बना दिया है। यह अपने आप में क्रांतिकारी है।

अब इनकी राह में रोजगार और पदोन्नति को लेकर रोड़े अटकाना घातक सिद्ध हो सकता है। सामान्य वर्ग के लोगों में क्रीमी लेयर को शामिल रखकर चुनाव करने और आरक्षित वर्ग में केवल पिछड़े व गरीबों को रखकर चुनाव करने में कैसी समानता मिल सकेगी? आज का सक्षम वर्ग, कल पिछड़ा हुआ रहा होगा। यह एक सामान्य सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलती जाती है। भारत को अपनी जाति-व्यवस्था की कमियों से उपजी सामाजिक विसंगति को दूर करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों की आवश्यकता है, और इस हेतु देश के सर्वोच्च न्यायालय से निश्चितता और निरंतरता बनाए रखने की उम्मीद की जा सकती है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित डी. श्याम बाबू के लेख पर आधारित। 4 अक्टूबर, 2018

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