Today's Life Management Audio Topic- "एकांत का महत्त्व"
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Today's Daily Audio Topic- "मुख्य परीक्षा : सामान्य ज्ञान (1)"
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08-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:07-11-18
सुरिंदर सूद
किसान उत्पादक कंपनियों (एफपीसी) का प्रसार जितनी तेजी से हो रहा है वह इन कंपनियों के प्रति किसानों के बढ़ते विश्वास का स्पष्ट संकेत है। इससे पता चलता है कि किसानों को एफपीसी के जरिये अपनी आय में बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। वर्ष 2010 में महज 70 की संख्या में मौजूद एफपीसी की तादाद अब बढ़कर करीब 1,050 हो चुकी है जो सालाना 44 फीसदी की चक्रवृद्धि बढ़ोतरी को दर्शाता है। इन छोटी कंपनियों में से करीब आधी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही मौजूद हैं। बाकी जगहों पर एफपीसी का रफ्तार पकडऩा अभी बाकी है। वैसे कृषि के लिहाज से प्रगतिशील राज्यों में एफपीसी की संख्या धीरे-धीरे बढऩे लगी है।
एफपीसी का मुख्य कार्य सदस्य किसानों की तरफ से कारोबार करना है। वे अपनी सदस्य संख्या और कुशल प्रबंधन के चलते लाभ की स्थिति में होती हैं। संगठित समूह होने से इन कंपनियों की कृषि उत्पादों की खरीद एवं सेवाओं में मोलभाव की क्षमता अधिक होती है। इससे लेनदेन की लागत भी कम होती है और वे बड़े बाजारों तक अपनी पहुंच बना लेती हैं। वे निजी या सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के साथ भागीदारी के लिए भी अधिक सक्षम होती हैं। आज के समय में कृषि के लगभग सभी क्षेत्रों और बागवानी, पौधरोपण, दुग्धपालन, मुर्गापालन और मत्स्यपालन जैसे सहयोगी क्षेत्रों में एफपीसी काम कर रही हैं। यह काफी अहम है कि उनमें से करीब 25 फीसदी कंपनियां फसलों की कटाई के बाद के प्रसंस्करण एवं मूल्य-संवद्र्धन कार्यों से जुड़ी हुई हैं। उनमें से कुछ कंपनियां ऑर्गेनिक उत्पादों के कारोबार से भी जुड़ी हुई हैं जिनकी बाजार में ऊंची कीमत मिलती है।
इन नवोन्मेषी संस्थाओं का उदय होने का यह मतलब नहीं है कि भारतीय कृषि का निगमीकरण शुरू हो गया है। हालांकि यह कॉर्पोरेट संस्कृति और कृषि क्षेत्र में पेशेवर प्रबंधन के आगाज की ओर निश्चित रूप से इशारा करता है। संकल्पना के स्तर पर एफपीसी असल में सहकारी समितियों और निजी कंपनियों का मिला-जुला स्वरूप हैं जिसमें दोनों की खासियत स्वीकार की गई हैं लेकिन खामियों को तिलांजलि दी गई है। जहां भागीदारी, संगठन और सदस्यता का ढांचा काफी हद तक सहकारी समितियों से मेल खाता है, वहीं कारोबारी नजरिया और रोजमर्रा के कामकाज की प्रवृत्ति निजी कंपनियों की तरह है। हालांकि एफपीसी में निजी क्षेत्र या सरकार की कोई इक्विटी होल्डिंग नहीं होती है। इन कंपनियों के शेयरों की शेयर बाजारों में खरीद-फरोख्त भी नहीं होती है। लिहाजा इन कंपनियों का स्वरूप कभी भी सार्वजनिक या सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों की तरह नहीं हो सकता है। ऐसे में शेयर बिक्री के जरिये किसी अन्य व्यावसायिक समूह द्वारा इनके अधिग्रहण का खतरा भी नहीं है। वर्ष 2002 में कंपनी अधिनियम 1956 में संशोधन कर नया खंड 9ए जोड़ा गया ताकि किसानों के लिए ऐसी कंपनियों के गठन का प्रावधान किया जा सके। इसी नियम के तहत इन कंपनियों का पंजीकरण भी किया जाता है।
एफपीसी को लघु किसान कृषि-व्यवसाय कंसोर्टियम और नाबार्ड जैसी एजेंसियों के जरिये समर्थन दिया जाता है। केंद्र एवं कुछ राज्य सरकारें भी एफपीसी की वृद्धि के लिए मददगार नीतिगत परिवेश मुहैया कराने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि इस तरह के कदमों की अब भी जरूरत है ताकि जमीनी स्तर के किसान संगठनों का प्रभावी दस्ता बनाया जा सके। इंडियन जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज के अगस्त 2018 के अंक में प्रकाशित अनिर्वाण मुखर्जी और उनके सहयोगियों के एक समीक्षात्मक लेख में जिक्र है कि कई मायनों में एफपीसी के साथ सहकारी समितियों की तरह बरताव नहीं होता है। सहकारी समितियों को मिलने वाली कई तरह की रियायतें, कर छूट, सब्सिडी और अन्य लाभों का दायरा अभी तक एफपीसी तक नहीं विस्तारित हो पाया है। अभी कुछ समय पहले ही उर्वरक मंत्रालय ने खाद निर्माताओं को सलाह दी है कि वे सहकारी समितियों के लिए निर्धारित मानकों की ही तर्ज पर एफपीसी को भी अपनी डीलरशिप आवंटित करें।
किसानों के कारोबारी प्रतिष्ठान के तौर पर गठित एफपीसी को वित्तीय संस्थानों से कार्यशील पूंजी जुटाने में भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनके पास जमानत देने लायक परिसंपत्ति भी नहीं होती है। उनकी शेयर पूंजी भी आम तौर पर कम ही होती है। हालांकि उनके शेयरधारक सदस्यों को किसानों की तरह रियायती दर पर बैंक कर्ज लेने की सुविधा मिलती है लेकिन उनके सम्मिलित प्रयासों से बनी एफपीसी को इसी तरह की ब्याज छूट देने का प्रावधान नहीं है। इससे भी बुरी बात यह है कि बाकी क्षेत्रों में स्टार्टअप के लिए दी जा रही कई तरह की सरकारी सुविधाएं कृषि क्षेत्र की एफपीसी कंपनियों को नहीं मिलती हैं। किसानों की भागीदारी वाली इन कंपनियों के साथ इस तरह का भेदभाव अस्वीकार्य है। इससे प्रतिस्पद्र्धी बाजार में इन कंपनियों की संपोषणीयता खतरे में पड़ जाती है। कृषि आय बढ़ाने में एफपीसी कंपनियों की भूमिका को देखते हुए सरकार को इन्हें भरपूर समर्थन देना चाहिए। कृषि लागत में कटौती, मूल्य-संवद्र्धन और कारगर मार्केटिंग तरीकों से ये कंपनियां कृषि क्षेत्र के लिए काफी मददगार हो सकती हैं। असल में, एफपीसी कृषि को आधुनिक बनाने, इसकी लाभपरक क्षमता बढ़ाने और कृषि क्षेत्र में व्याप्त असंतोष को दूर करने में एफपीसी बेहद अहम हो सकती हैं।
Date:07-11-18
संपादकीय
विश्व व्यापार के लिए यह समय अत्यंत कठिनाई भरा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी तरह के तनाव के बिंदु से गुजर रहा है। वैश्वीकरण की व्यापक प्रवृत्ति जिसकी शुरुआत सन 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में हुई थी और जिसने सन 2000 के दशक के आरंभ में विश्व व्यापार संगठन में चीन के शामिल होने के साथ गति पकड़ी, अब उस पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। भविष्य पर नियंत्रण को लेकर दो बड़े रुझानों में टकराव देखने को मिल रहा है। पहला, बड़े वैश्विक व्यापार नेटवर्क की किफायत और स्थिरता ने व्यापारयोग्य वस्तुओं की कीमतों को अप्रत्याशित रूप से कम कर दिया और गुणवत्ता तथा उपलब्धता में इजाफा भी किया। दूसरी बात, राजनेताओं पर मतदाताओं का दबाव बना है कि वे व्यापार नीति में संशोधन करें ताकि रोजगारों का संरक्षण किया जा सके और नए रोजगार तैयार किए जा सकें। इस बीच बड़े क्षेत्रीय व्यापारिक धड़ों के साथ बातचीत चल रही है। यह सब शायद उस राजनीतिक पूंजी के शर्त पर हो रहा है जो अन्यथा सुधारों और विश्व व्यापार संगठन में नई जान फूंकने के काम में इस्तेमाल की जा सकती थी।
दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत ने विश्व व्यापार के भविष्य के शिल्प को आकार देने का कोई खास प्रयास नहीं किया। बीते वर्षों में विश्व व्यापार संगठन में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। उसने सबसे अधिक महत्त्व अपने गैर किफायती हो चुके कृषि खरीद तंत्र को बचाने को दिया। इसके लिए उसने डब्ल्यूटीओ के नियमों तक को ताक पर रख दिया। जबकि इसके बजाय उसे किसानों की आय बढ़ाने में सहयोग करने के लिए आधुनिक व्यवस्था अपनाने पर काम करना चाहिए। ऐसा करना डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप भी है। इस सीमित रुख की कीमत भी स्पष्टï है। भारत विश्व व्यापार में अलग-थलग पड़ चुका है। विश्व व्यापार का अधिकांश हिस्सा मुक्त व्यापार समझौतों और क्षेत्रीय संगठनों मसलन यूरोपीय संघ, उत्तर अटलांटिक मुक्त व्यापार समझौते, दक्षिण एशियाई देशों के संघ आदि से संचालित है। भारत इनमें से किसी का सदस्य नहीं है। नए व्यापारिक तंत्र के साथ रिश्ता कायम न कर पाने की भारत की अक्षमता भी स्पष्टï है। निर्यात में हालिया और अपेक्षाकृत अस्थिर चढ़ाव के बाद भारत का निर्यात वर्ष 2014 के बाद से ही सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में लगभग स्थिर रहा है। यह नितांत अस्वाभाविक है। दशकों में कभी भारतीय निर्यात में इस प्रकार का ठहराव देखने को नहीं मिलेगा। इस पूरी अवधि में अधिकांश वक्त रुपया अधिमूल्यित रहा है। परंतु यह इस ठहराव की इकलौती वजह नहीं हो सकती।
कई जटिल समस्याएं भी हैं जो अब सामने आ चुकी हैं। उनमें सबसे अहम हैं भारतीय राज्य और निजी क्षेत्र दोनों की नए बाजार और नए कारोबारी तंत्र में प्रवेश करने की अनिच्छा। उदाहरण के लिए भारत नई कारोबारी व्यवस्था को आकार देने की दिशा में क्यों नहीं बढ़ रहा है? विश्व व्यापार वार्ताओं में चीन के अलग-थलग पडऩे के बाद भारत के पास ऐसा करने का अवसर है। सितंबर के आखिर में यूरोपीय संघ, अमेरिका और जापान के व्यापार मंत्रियों की न्यूयॉर्क में बैठक हुई जहां अतिशय क्षमता और बाजार विरोधी सरकारी नीतियों के कारण उपजी विसंगतियों को दूर करने के साझा एजेंडा पर बात हुई। उन्होंने यह भी कहा कि वे डिजिटल संरक्षणवाद और जबरिया प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर भी ध्यान देना चाहते हैं। भविष्य के व्यापार को आकार देने वाले इन विषयों पर भारत क्या सोचता है? सरकार अपने हितों को बचाने और बढ़ावा देने के लिए क्या सोच रही है? केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय को इसका जवाब देना चाहिए।
Date:06-11-18
संपादकीय
बैंकों का बट्टाखाता यानी एनपीए लगातार बढ़ता गया है। इससे निपटने के लिए कर्ज न चुकाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग उठती रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्देश दिया था कि पचास करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज लेकर न लौटाने वालों का नाम सार्वजनिक किया जाए। मगर हकीकत यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक ऐसे कर्जदारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाय उनके नाम तक छिपाता रहा है। इससे नाराज केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को नोटिस भेज कर पूछा है कि जानबूझ कर भारी कर्ज न लौटाने वालों से संबंधित सूचना उपलब्ध न कराने पर क्यों न आपके खिलाफ अधिकतम जुर्माना लगाया जाए! इसके अलावा सीवीसी ने प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय से कहा है कि वे रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का वह पत्र सार्वजनिक करें जिसमें उन्होंने एनपीए के बारे में लिखा था। रिजर्व बैंक को फटकार लगाते हुए सीवीसी ने कहा है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर, डिप्टी गवर्नर की बातों और उनकी वेबसाइट पर दिए गए ब्योरे में मेल नहीं है। उसने रिजर्व बैंक से अगले हफ्ते तक इस पर जवाब मांगा है।
फिलहाल स्थिति यह है कि बैंकों के पास सरकारी योजनाओं के लिए धन मुहैया कराने का पैसा नहीं है। बाजार में पैसे का प्रवाह बाधित है। ऐसे में सरकार के सामने मुश्किल है कि वह अर्थव्यवस्था में अपेक्षित योगदान न कर पाने वाले क्षेत्रों को आसान शर्तों पर कर्ज मुहैया कराने की योजनाएं नहीं चला पा रही। पिछले दिनों बिजली कंपनियों के कर्जों में रियायत देने और छोटी इकाइयों को बिना शर्त कर्ज उपलब्ध कराने की योजना घोषित करने से पहले सरकार और रिजर्व बैंक में टकराव की स्थिति पैदा हो गई। इसके बावजूद बड़े कर्जदारों से पैसा वसूलने के मामले में कड़ाई नहीं बरती जा पा रही। छिपी बात नहीं है कि पिछली सरकार के समय बैंकों का जो एनपीए था, वह इस सरकार के वक्त बढ़ कर करीब दो गुना हो गया है। अगर वह पैसा बैंकों के पास आ जाए तो स्वाभाविक रूप से उन्हें कारोबारी ताकत मिलेगी। मगर रिजर्व बैंक उन कर्जदारों से पैसा वसूलना तो दूर, उनके नामों की सूची तक सार्वजनिक करने से बचता रहा है। सूचना का अधिकार कानून के तहत ऐसा करना उचित नहीं है, फिर जब सर्वोच्च न्यायालय तक निर्देश दे चुका है, तो उस पर चुप्पी साधे रखना उसके आदेश की अवमानना है।
बैंकों का कारोबार ग्राहकों के जमा धन से चलता है। वही पैसा वे कर्ज पर देते और फिर ब्याज कमाते हैं। इसलिए उस पैसे का डूबना एक तरह से आम लोगों का पैसा डूबना है। सार्वजनिक धन अगर बट्टेखाते में जाता है तो कर्जदारों का नाम छिपाने का अधिकार बैंकों को नहीं है। रिजर्व बैंक अगर बड़े कर्जदारों के नाम छिपा रहा है, तो जाहिर है, वह न सिर्फ अपनी नाकामी को छिपा रहा है, बल्कि उन लोगों का पक्ष भी ले रहा है, जिन्होंने जानबूझ कर सार्वजनिक धन दबा रखा है। उन कुछ बड़े कर्जदारों के नाम तो उजागर हैं, जिन्होंने घपला करके बैंकों से कर्ज लिया और विदेश भाग गए, पर ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जिन्होंने खेती या उद्योग-धंधों के नाम पर बड़े कर्ज लिए और उन्हें अब तक लौटाया नहीं है। इन रसूख वाले लोगों के नाम छिपाना एक तरह से देश की अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ करना है।
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सबरीमाला मंदिर पर लिया गया एक विवादास्पद निर्णय
Date:09-11-18 To Download Click Here.
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने केरल के सबरीमाला मंदिर में 10-50 वर्ष तक की उम्र की महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने का आदेश दिया है। ज्ञातव्य हो कि इस मंदिर में इस आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। इस प्रतिबंध के अपने कुछ धार्मिक कारण रहे हैं। उच्चतम न्यायालय ने इसे महिलाओं के साथ भेदभाव का विषय मानते हुए अपना निर्णय दिया है।
इस मामले की सुनवाई पाँच न्यायाधीशों की पीठ कर रही थी, जिसमें चार पुरुष और एक महिला न्यायाधीश थीं। मामले का मुख्य मुद्दा था कि
(अ) मंदिर से महिलाओं को अलग रखे जाने की प्रक्रिया, क्या अनुच्छेद 14 के अंतर्गत कानून के समक्ष सबको समान समझे जाने के प्रावधान का उल्लंघन करती है? साथ ही अनुच्छेद 15 और 17 के अंतर्गत भेदभावरहित व्यवहार अपनाने व छूआछूत को गैरकानूनी घोषित करने के प्रावधानों का उल्लंघन करती है?
(ब) क्या महिलाओं को अलग रखे जाने की यह ‘अनिवार्य धार्मिक प्रथा’ होने के चलते अनुच्छेद 25 के धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है?
(स) क्या स्वामी अय्यपा एक अलग धार्मिक संप्रदाय के हैं? इसलिए क्या उन्हें अनुच्छेद 26 के अंतर्गत विशेष छूट दी गई है?
(द) क्या केरल में हिन्दू धार्मिक स्थल नियम 3 (बी) के अनुसार 10-50 वर्ष की महिलाओं पर इस प्रकार का प्रतिबंध लगाना असंवैधानिक है?
न्यायाधीशों के बहुमत ने पहले प्रश्न के लिए ‘हाँ’ और दूसरे व तीसरे प्रश्न के लिए ‘नहीं’ में जवाब दिया। नियम 3 (बी) को चार पुरुष न्यायाधीशों ने गलत बताते हुए मंदिर के द्वार सभी उम्र की महिलाओं के लिए खोलने की कवायद की, जबकि महिला न्यायाधीश ने ठीक इसके विपरीत कहा।
न्यायाधीशो के तर्क : कितने सही, कितने गलत?
न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने सबरीमाला की प्रथा को छूआछूत से जोड़ते हुए अनुच्छेद 17 का हवाला दिया।
न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा का कहना था कि एक विशेष आयु वर्ग की महिलाओं के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध को अनुच्छेद 17 के दायरे में नहीं रखा जा सकता। छूआछूत की भावना से प्रेरित होकर दलितों के मंदिर-प्रवेश निषेध की तुलना महिलाओं पर लगे प्रतिबंध से नहीं की जानी चाहिए। मंदिर प्रवेश का मुद्दा सामाजिक नैतिकता के दायरे में आता है। न्यायाधीश मल्होत्रा ने इसे धार्मिक विविधता से प्रेरित मामला बताते हुए ‘भेदभाव’ से इसके सबंध को नकार दिया।
दोनों ही न्यायाधीश इस तर्क पर सहमत थे कि धर्म में अनिवार्य प्रथाओं के मामलों को न्यायालय में निर्णयों के लिए नहीं लाया जाना चाहिए। सती जैसी घातक प्रथाओं की बात अलग है। न्यायाधीश मल्होत्रा ने यह भी तर्क दिया कि प्रथाओं की अनिवार्यता की बाबत, धार्मिक समुदाय ही निर्णय ले सकते हैं। उन्होंने मामले का एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा कि अनुच्छेद 32 में वर्णित मौलिक अधिकारों के मामले में उच्चतम न्यायालय में तब अपील की जा सकती है, जब किसी याचिकाकत्र्ता को व्यक्तिगत तौर पर मंदिर में पूजा-अर्चना के अधिकार से वंचित किया गया हो। सबरीमाला मंदिर मामले में याचिकाकर्त्ता के साथ ऐसा कोई प्रकरण सामने नहीं आया है, वरन् स्वामी अय्यपा की वास्तविक भक्त महिलाओं ने तो “रेडी टू वेट” नामक अभियान चलाया है, जिसका उद्देश्य मंदिर में प्रवेश पर अस्थायी प्रतिबंध का समर्थन करना है।
निष्कर्ष
धर्म के नाम पर प्रगति का विरोध करने वालों पर संवैधानिक नैतिकता का अंकुश लगाया जाना जरूरी है। परन्तु अगर अंकुश की बेड़ियां अधिक जकड़ी गईं, तो ये विध्वंसक भी हो सकती हैं।
संवैधानिक नैतिकता, समानता और लैंगिक न्याय के विषयों पर अगर उच्चतम न्यायालय को कोई मामला उठाना ही था, तो उसे सबरीमाला से अलग कोई और मामला लेना था। एक अत्यंत व्यापक विषय पर व्याख्या करने के लिए सबरीमाला जैसे अपवाद को मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए था।
बहरहाल, उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का सामाजिक व धार्मिक विरोध लगातार किया जा रहा है। इसके विरोध में याचिकाएं भी दायर की जा रही हैं, जिन पर नवंबर माह में सुनवाई होनी है। उम्मीद की जा सकती है कि आगामी सुनवाई में कोई विवेकपूर्ण, सर्वस्वीकार्य, संवैधानिक निर्णय लिया जा सकेगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित आर. जगन्नाथन के लेख पर आधारित। 5 अक्टूबर, 2018
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Today's Life Management Audio Topic- "उम्मीद"
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Today's Daily Audio Topic- "सरकार एवं रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया"
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09-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:09-11-18
TOI Editorials
In the midst of an election season, the second anniversary of demonetisation was marked by sharp political exchanges. From an economic standpoint, demonetisation was an ill-conceived move as costs outweighed benefits. Some costs were transient but one that has lingered is the impact on employment. Employment data released by Centre for Monitoring Indian Economy (CMIE) shows that unemployment rate in October was 6.9%, the highest in two years. More worrying is the related data showing that the number of people in the job market was just 42.3% of the working age population, the lowest level since January 2016.
Demonetisation’s impact was felt primarily by agricultural and informal sectors, the two most cash-dependent parts of the economy. Research, both for India and other countries, shows that informality is largely a fallout of poverty. Consequently, the work force dependent on it is often unskilled. One of the trends thrown up by CMIE data is that it’s women who bore the brunt of adverse consequences of demonetisation on the job market – even if the problem of women dropping out of the work force precedes demonetisation. On balance, demonetisation clearly hurt the job market.
The best antidote is economic growth. Alongside there needs to be policy attention paid to patterns of growth. As the informal sector still provides the lion’s share of jobs, it requires a light touch regulatory framework. In fits and starts, Centre and states have tried to address this aspect. But a relatively neglected aspect is the boost job prospects in the informal sector can get through a combination of policy and targeted spending on infrastructure. It will improve the entire ecosystem of doing business. This can reverse the recent trend in the job market and also over time formalise a lot more firms.
Date:09-11-18
संपादकीय
नोटबंदी को दो साल पूरे होने पर सरकार ने उसे सही बताते हुए उसके फायदे गिनाए हैं वहीं विपक्ष ने फिर सरकार को चेताया है कि वह ऐसा दुस्साहस भरा कदम भविष्य में न उठाए। यह बहस चलनी चाहिए और इससे कम से कम भावना की बजाय तर्क पर आधारित चर्चा उठेगी और विवेक और तथ्य की बातें होंगी। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने नए संदर्भों में वह दलील पलट दी है, जिसमें कहा गया था कि नोटबंदी कालाधन और नकली नोटों को खत्म करने के साथ आतंकवाद और नक्सलवाद को कमजोर करने के लिए लाई गई है। जेटली ने अपनी फेसबुक पोस्ट पर लिखा है कि नोटबंदी का उद्देश्य बाजार में बिखरे नोटों को इकट्ठा करना था ही नहीं। इरादा तो यह था कि अर्थव्यवस्था का कर प्राप्त करने का आधार बड़ा हो जाए और एक औपचारिक वातावरण निर्मित हो।
जेटली ने दावा किया है कि नोटबंदी से प्रत्यक्ष कर का आधार तो बढ़ा ही है साथ में अप्रत्यक्ष कर के संग्रह में भी वृद्धि हुई है। अगर मई 2014 में आयकर दाताओं की संख्या 3.8 करोड़ थी तो अब वह 6.86 करोड़ हो गई है। इसी प्रकार अप्रत्यक्ष कर संग्रह भी जीडीपी के 4.4 प्रतिशत से 5.4 प्रतिशत तक चला गया है। इससे कल्याणकारी योजनाएं चलाने के लिए सरकार को धन मिला है और वह जनता का भला कर रही है। जेटली ने यह भी दावा किया है कि इससे अर्थव्यवस्था नकदी से डिजिटल हुई है। दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण कदम था और इसके जख्म अभी भी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़े हैं।
डॉ. सिंह ने प्रमाण के तौर पर लघु और मझोले उद्यमों की स्थिति का उल्लेख किया है जो बुरी हालत में है। उसी के कारण बाजार में नौकरियों का संकट है। डॉ. सिंह और जेटली की बहस में राजनीतिक पार्टीबंदी से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन, उसमें उन तथ्यों को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता, जो नोटबंदी के दौरान दावे के रूप में आए और बाद में आंकड़ों के तौर पर प्रकट हुए। डॉ. सिंह राजनेता से ज्यादा एक अर्थशास्त्री हैं और उन्हें नवउदारीकरण के कर्ताधर्ता के तौर पर हमेशा याद किया जाएगा। इसलिए इस आधार पर कि भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई सैद्धांतिक फर्क नहीं है, यह मानना पड़ेगा कि नोटबंदी जनता और अर्थव्यवस्था के लिए एक यातना देने वाला उपाय था।
Date:09-11-18
अभिनव प्रकाश
वर्तमान में आइसीडीएस के पास कई लक्ष्य हैं जैसे बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना, बच्चों के उचित मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और सामाजिक विकास की नींव रखने के लिए विभिन्न नीतियों के कार्यान्वयन में प्रभावी समन्वय को स्थापित करना, बच्चों के स्कूल छोडऩे के सिलसिले को थामना। मां को सामान्य स्वास्थ्य और पोषण संबंधी जरूरतों को सही तरीके से पूरा करने के लिए प्रशिक्षित करना भी इसके कार्यों में शामिल है। इसके लिए आइसीडीएस आंगनबाड़ी केंद्र पूरक पोषण, प्री-स्कूल गैर- औपचारिक शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच-पड़ताल और रेफरल सेवाएं प्रदान करता है। यह स्पष्ट है कि हम एक ही नीति से बहुत से उद्देश्यों को लक्षित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसके चलते किसी भी उद्देश्य में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है।
इसका सबसे अधिक प्रभाव पीडि़त गर्भवती और स्तनपान करने वाली माताओं पर पड़ता है। इससे सेवा वितरण मॉडल के प्रभावी होने पर गंभीर प्रश्न उठता है? इसीलिए नीति आयोग की ‘भारत राष्ट्रीय पोषण रणनीति ने आइसीडीएस में सुधार की वकालत की है। इस रणनीति में आंगनबाड़ी केंद्रों पर पोषण उपलब्ध करने के बजाय महिलाओं को सीधे बैंक खातों में रुपये देने की बात कही गई है। उज्ज्वला रसोई गैस सिलेंडर और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण मॉडल की सफलता के बाद इसे आइसीडीएस में लागू करना एक बड़ा कदम होगा। कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी और परिवार की आय में कमी होना है जबकि आइसीडीएस घरेलू खाद्य सुरक्षा को संबोधित नहीं करता। इसलिए किसी भी समग्र समाधान में आय की भरपाई करने का दृष्टिकोण शामिल होना चाहिए। इसके लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण यानी डीबीटी सबसे अच्छा उपलब्ध विकल्प है।
दूसरा कारण, घर में महिलाओं की सामाजिक स्थिति कमजोर होना है। ऐसे मेंउन्हीं के जन-धन खाते में सरकार की तरफ से सीधा पैसा आने से उनकी स्थिति मजबूत होगी और उन्हें अपने और बच्चे के पोषण और स्वास्थ्य के लिए फैसला लेने में आजादी होगी। घर और समाज में मां की स्थिति मजबूत होने से आने वाली पीढ़ी के पोषण, स्वास्थ्य, और शिक्षा पर अपने-आप ही सकात्मक प्रभाव पड़ता है। तीसरा कारण, महिलाओं को आंगनबाड़ी केंद्रों में मिलने वाले आहार पर निर्भर रहना पड़ता है जो कई बार उनके स्वाद के अनुकूल नहीं होने के साथ-साथ हर इलाके में एक समान होता है। डीबीटी से महिलाओं को अपना आहार चुनने की आजादी मिलेगी और वे स्थानीय भौगोलिक, जलवायु और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपना आहार और पोषण चुन सकेंगी।
Date:09-11-18
अजय शाह, (लेखक नई दिल्ली स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं।
निदेशक मंडल यानी बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स के कामकाज और उसकी भूमिका में नए सिरे से रुचि ली जा रही है। बोर्ड के कुछ काम तो ऐसे हैं जो तमाम निजी संस्थानों और सरकारी एजेंसियों में एक समान हैं। बोर्ड का काम है प्रबंधन को हर स्तर पर जवाबदेह बनाना। सरकारी व्यवस्था में बोर्ड की प्रक्रिया के चार पहलुओं में संशोधन करना होता है। अगर संस्थान पर प्रबंधन का नियंत्रण होता है तो यह जोखिम है कि प्रबंधन आलस बरतेगा, भ्रष्ट होगा या बिना किसी व्यवस्थित नीति के काम करेगा। इसके लिए मजबूत व्यवस्था वही होगी जहां संगठन के संचालन का काम बोर्ड के पास हो। संचालन और प्रबंधन दो अलग-अलग बातें हैं। प्रबंधन रोजमर्रा का कामकाज देखता है लेकिन यह काम बोर्ड की निगरानी में किया जाता है। हम अक्सर बोर्ड को समरूप इकाई के रूप में देखते हैं जबकि यह दो अलग-अलग लोगों का समूह है। इसमें प्रबंधन निदेशक भी होते हैं। ये निदेशक मंडल के वे सदस्य होते हैं जो संस्थान के पूर्णकालिक प्रबंधक भी होते हैं। इनके अलावा गैर प्रबंधन निदेशक (एनएमडी) भी होते हैं जो बाहरी होते हैं। बोर्ड की प्रक्रिया यह है कि एनएमडी प्रबंधन पर दबाव बनाएं कि वह बेहतर प्रदर्शन करे।
बोर्ड का अस्तित्व तीन समस्याओं की वजह से है। प्रबंधन हमेशा यह दावा करता है कि हालात ठीक हैं और किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। प्रबंधन अपने निर्णयों से प्रेम करता है जो अक्सर इस तरह लिए जाते हैं जो उनके लिए सुविधाजनक होते हैं। प्रबंधन विस्तृत ब्योरों में कहीं खो जाता है। प्रबंधन हमेशा यह दावा करता है कि चीजों को समझने के लिए उनका हिस्सा बनना पड़ता है। एनएमडी के पास तीन स्तर होते हैं जिनकी मदद से इन समस्याओं को हल किया जा सकता है। वे रिपोर्टिंग के ठोस तरीके निर्धारित करते हैं, जो संगठन का सही प्रदर्शन सामने लाते हैं। वे समीक्षा करते हैं और प्रदर्शन के लिए प्रबंधन को जिम्मेदार ठहराते हैं। वे संगठन की नीति तैयार करने में प्रत्यक्ष योगदान करते हैं। वे संगठन का वह डिजाइन तैयार करने में भी अहम भूमिका निभाते हैं जिसके जरिये नीति को आगे बढ़ाया जाता है।
इन कारकों के काम करने के लिए बोर्ड में एनएमडी का बहुमत होना आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि चेयरमैन स्वयं मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) न हो। एक अच्छे बोर्ड ढांचे में एक सीईओ, तीन डिप्टी और कम से कम पांच एनएमडी होते हैं। इस तरह बोर्ड कुल मिलाकर नौ सदस्य होते हैं। या फिर एक सीईओ, दो डिप्टी और कम से कम चार एनएमडी के अलावा सात सदस्य बोर्ड में होते हैं। आदिम किस्म के देशों में तानाशाहों का शासन होता है। एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता कई मस्तिष्कों के बीच बंटी रहती है। इसके परिणाम अधिक बेहतर होते हैं। इसी प्रकार अगर तानाशाही वृत्ति का सीईओ हो तो भी सात या नौ सदस्यों के बोर्ड में अधिकार वितरण अच्छे नतीजे देता है। सात या नौ सदस्य मिलकर सोचते हैं, बहस करते हैं और ऐसे में वे किसी एक व्यक्ति से बेहतर नतीजे दे सकते हैं। एक मजबूत संस्थान की यही पहचान है कि उसका सीईओ संस्थान के बारे में बात करते वक्त ‘मैं’ का प्रयोग नहीं करता। किसी देश को सत्ता में साझेदारी की बुनियादी समझ विकसित करने में कई दशक का वक्त लग जाता है। इसी प्रकार किसी संगठन के लिए भी यह काम सीखना मुश्किल है जहां कई दिमाग मिलकर निर्णय लें।
ये तमाम विचार एक सरकारी संस्थान में चार घुमावों के साथ नजर आते हैं। पहला, एनएमडी के लिए सरकारी व्यवस्था में प्रबंधन को जवाबदेह ठहराना मुश्किल होता है। वहां वित्तीय प्रदर्शन का तर्क काम नहीं करता। आईएलऐंडएफएस के बोर्ड के लिए राजस्व, बाजार हिस्सेदारी, मुनाफा, इक्विटी पर रिटर्न और शेयर कीमत आदि के रूप में गिरावट का आकलन करना आसान था। इसके विपरीत बोर्ड के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड के प्रदर्शन का आकलन कर पाना मुश्किल है। इसलिए सेबी के बोर्ड को गुणात्मक और मात्रात्मक आकलन तय करने के लिए काफी प्रक्रियाओं की स्थापना करनी होगी।
अगर आरबीआई केवल मौद्रिक नीति पर काम करे तो संभव है कि वह अपने प्रदर्शन का आकलन मुद्रास्फीति के लक्ष्य से विचलन के आधार पर कर सके। किसी संस्थान को तभी जवाबदेह ठहराया जा सकता है जबकि उसका लक्ष्य सहज और सामान्य हो। भ्रामक और विरोधाभासी लक्ष्य जवाबदेही की दृष्टि से अच्छा नहीं होता है और उसके लिए बोर्ड को बहुत सक्रिय होना पड़ता है। दूसरा, एक निजी संस्थान में मुनाफे की प्रेरणा देने वाले कारक प्रभावी होते हैं। बोर्ड सीईओ को मुनाफे में बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार मानता है और सीईओ लागत को न्यूनतम करने का काम करता है। एक सरकारी संस्थान में मुनाफे की प्रेरणा नहीं होती और अधिकारों के मनमाने इस्तेमाल की प्रेरणा से संगठनात्मक ढांचा खराब होता है। बोर्ड को संगठनात्मक ढांचे में सीधी रुचि लेनी चाहिए और हर विभाग की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। लागत में कमी और विधि सम्मत व्यवहार तय करना बोर्ड का काम है।
तीसरा, एक संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी निजी व्यक्ति को केवल कानूनी शक्तियों का प्रयोग करके ही रोका जा सकता है। यह कानूनी विधायी शक्तियों से आता है। परंतु नियामकों के पास कानून या नियमन तैयार करने का अधिकार होता है। इसके तहत निजी व्यक्तियों को भी विवश किया जा सकता है। यह एक विशिष्ट स्थिति है जहां राज्य की शक्ति निर्वाचित व्यक्तियों को हस्तांतरित की जाती है। इन निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए राजनेता के रूप में व्यवहार करके बाजार में विभिन्न प्रतिद्वंद्वियों को प्रश्रय देने लगता है। वे आलस कर सकते हैं और भ्रष्टाचार कर सकते हैं।
इस समस्या को हल करने के लिए सभी नियमन बनाने का काम बोर्ड के पास होना चाहिए। नियमन बनाने वाली परियोजना की शुरुआत के पहले बोर्ड की मंजूरी की आवश्यकता जरूरी है। स्टाफ को एक औपचारिक, पारदर्शी और मशविरे वाली प्रक्रिया तैयार करनी चाहिए। इसकी सहायता से नियमन तैयार किया जाना चाहिए। दस्तावेजीकरण का यह काम होने के बाद बोर्ड में इस पर दोबारा चर्चा होनी चाहिए और नियमन को मंजूरी दी जानी चाहिए। चौथा, नामित निदेशकों का मसला। कई सरकारी संस्थानों में नामित निदेशक होते हैं। मोटे तौर पर यह व्यवस्था कारगर नहीं रही है। नामित निदेशक आमतौर पर खामोश और निष्क्रिय रहते हैं और केवल अपने मातृ संगठन के हित को बढ़ावा देने के लिए ही पहल करते हैं। इससे मूल्यवर्धन नहीं होता है और यह व्यवस्था बदलनी चाहिए।
Date:09-11-18
संपादकीय
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में एक तीन सदस्यीय विवाद निस्तारण पैनल ने हॉट रोल्ड स्टील के आयात शुल्क को लेकर भारत और जापान के बीच असहमति के मसले में भारत के खिलाफ निर्णय दिया है। गत वित्त वर्ष के दौरान भारत ने जो 84 लाख टन स्टील आयात किया उसका 45 प्रतिशत जापान और दक्षिण कोरिया से आया। कुल मिलाकर 650 करोड़ डॉलर मूल्य का स्टील आयात किया गया। भारत ने घरेलू उत्पादकों की मांग पर बीते तीन वर्षों से लगातार यह प्रयास किया है कि वह अपने घरेलू स्टील उद्योग का बचाव करे। इस कदम के लिए आधिकारिक तौर पर यह दलील दी गई है कि चीन की अतिरिक्त क्षमता बाजार में विसंगति पैदा कर रही है। फिर भी यह स्पष्ट है कि जापान और कोरियाई स्टील निर्माताओं पर भी इसका काफी असर पड़ा है। अब स्थिति यह है कि भारत अपना यह दावा गंवा चुका है कि हॉट रोल्ड स्टील पर उसका संरक्षण शुल्क डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप था। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत यह स्थापित कर पाने में नाकाम रहा कि आयात में अचानक और तेज वृद्घि ने घरेलू उत्पादकों को नुकसान पहुंचाया है। इसका अर्थ यह हुआ कि दो बातों में से एक ही बात सही होगी। या तो स्टील उद्योग की शिकायत गलत थी या फिर सरकार उनकी दलील को ठोस तरीके से पेश नहीं कर सकी।
हाल में भारत ने व्यापारिक नीति में संरक्षणवादी कदम उठाए हैं और डब्ल्यूटीओ ने भी इन पर पर्याप्त ध्यान दिया है। इस वर्ष के आरंभ में एक अहम निर्णय देते हुए डब्ल्यूटीओ ने कहा था कि भारत के सौर पैनल में घरेलू सामग्री की जरूरत संबंधी प्रावधान व्यापारिक नियमों के खिलाफ थे। देश में नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की क्षमताओं में इजाफे के बीच देश में सोलर पैनल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए ये शर्तें लगाई गई थीं। सरकार के भीतर भी इस निर्णय का विरोध हुआ। नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने दलील दी थी कि देश के सौर अभियान के लिए सस्ते सोलर पैनल जरूरी थे जबकि औद्योगिक नीति एवं संवद्र्घन विभाग देश में सोलर पैनल निर्माण को बढ़ावा देने की बात कह रहा था। इस दौरान दो गलतियां हुईं। पहली, चूंकि असली भय चीन से आने वाले सस्ते पैनलों से जुड़ा था इसलिए सोलर पैनल बनाने वाले अन्य उपक्रमों को इसमें शामिल करना चाहिए था। इसके बजाय मामले को हाथ से निकल जाने दिया गया। आखिरकार अमेरिका ने इस मामले में अपील की और वह जीत भी गया। दूसरी गलती तब हुई जब हम यह बात साबित कर पाने में नाकाम रहे कि सोलर पैनल कीमतों में आई गिरावट भारतीय उद्योग जगत को तकलीफ में डाल रही है।
जहां तक डब्ल्यूटीओ में भारत के प्रदर्शन की बात है एक खास किस्म का रुझान देखने को मिलता है। विशिष्ट संरक्षणवादी कदम उठाए गए हैं और इसके परिणामस्वरूप भारत डब्ल्यूटीओ में अपने कदमों का समुचित ढंग से बचाव नहीं कर पा रहा है। कृषि खरीद से जुड़े सख्त रुख को लेकर भी ऐसा हो सकता है। कृषि क्षेत्र में भी भारत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अपने जटिल तंत्र का डब्ल्यूटीओ में बचाव कर रहा है। जबकि वह इस मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ चुका है। सरकार के पास आगे बढऩे के केवल दो ही विकल्प हैं। वह या तो घरेलू उत्पादन के नाम पर ऐसे अवरोध खड़े करना बंद कर दे जो भारतीय उपभोक्ताओं को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। या फिर उसे समुचित क्षमता निर्मित करनी होगी जो यह सुनिश्चित करे कि वह इन अवरोधों से उपजे अधिकांश विवादों में जीत हासिल कर लेगा। देश के संरक्षणवादी रुख को लेकर एक बड़ी बहस की आवश्यकता है क्योंकि यह उपभोक्ता कल्याण को भी नुकसान पहुंचा रहा है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदगी की वजह भी बन रहा है।
Date:09-11-18
ए के भट्टाचार्य
भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 पिछले कुछ समय से काफी चर्चा में है। इसके इस्तेमाल को लेकर कई तरह की चिंता जताई गई जो काफी हद तक उचित भी प्रतीत होती है। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार ने भले ही आरबीआई अधिनियम की धारा 7 का इस्तेमाल कर आरबीआई गवर्नर से मशविरा करने की बात कही हो लेकिन भविष्य में उसका इस्तेमाल कर केंद्रीय बैंक को निर्देश देना वित्तीय क्षेत्र के लिए सही नहीं होगा। ऐसा करने से देश के केंद्रीय बैंक और बैंकिंग नियामक की छवि को धक्का पहुंचेगा।
आरबीआई अधिनियम की धारा 7 केंद्र सरकार को यह अनुमति देती है कि वह जनहित में जरूरी समझने पर समय-समय पर केंद्रीय बैंक को निर्देश दे। इसके लिए अहम शर्त यह है कि ऐसे निर्देश आरबीआई गवर्नर से मशविरे के बाद जारी किए जाने चाहिए। अतीत में किसी सरकार ने इस प्रावधान का इस्तेमाल नहीं किया। ऐसा नहीं है कि आरबीआई और सरकार के बीच पहले मतभेद नहीं हुए। ऐसा हुआ है लेकिन उन्हें बिना धारा 7 का इस्तेमाल किए हल कर लिया गया। इस धारा का प्रयोग करना जोखिम भरा है। एक बार सरकार ने यह सिलसिला शुरू कर दिया तो समस्या पैदा हो सकती है। अगर गवर्नर सरकार के कदमों से पहले सहमत नहीं था तो वह इस धारा के इस्तेमाल से हुए मशविरे में क्यों सहमत होने लगा? माना जा सकता है कि सरकार गवर्नर का मशविरा लेकर अपनी मर्जी का निर्देश जारी कर देगी।
केवल दुर्लभ में दुर्लभतम मामलों में आरबीआई गवर्नर सरकार के विचार या उसकी सोच से सहमत होगा। अगर ऐसा होता है तो केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता को गहरा झटका लगेगा। सवाल यह पूछा जाएगा कि अगर धारा 7 के प्रयोग के पहले आरबीआई की राय अलग थी तो मशविरे के बाद उसने राय क्यों बदली? यह भी एक वजह है कि अतीत में आरबीआई के गवर्नरों ने ऐसे हालात ही नहीं बनने दिए कि सरकार धारा 7 के प्रयोग के बारे में सोचे भी। जब भी मतभेद होता, आरबीआई गवर्नर और वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री साथ बैठकर बात करते या फोन पर चर्चा करते। ऐसे मशविरे में गवर्नर अपना रुख स्पष्ट करते और सरकार भी अपना नजरिया रखती। अंत में आरबीआई सरकार के सुझाए रास्ते पर चलने को सहमत हो जाता।
यह भी संभव है कि सरकार धारा 7 के तहत आरबीआई गवर्नर के साथ मशविरे के बाद अपने कदम पीछे खींच ले और कहे कि वह गवर्नर की व्याख्या से सहमत है। उस स्थिति में सरकार की विश्वसनीयता जाएगी और आलोचक कह सकते हैं कि वित्तीय बाजारों में व्याप्त अनिश्चितता से बचा जा सकता था। चाहे जो भी हो लेकिन धारा 7 का प्रयोग केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता, सरकार की विश्वसनीयता और वित्तीय बाजारों के सहज कामकाज, तीनों के लिए जोखिम भरा है। यही वजह है कि इतने वर्षों कभी इसका प्रयोग नहीं किया गया।
परंतु धारा 7 का एक और पहलू है। हालांकि सरकार ने अतीत में इस प्रावधान का इस्तेमाल करके कोई निर्देश जारी नहीं किया है लेकिन सरकार को इसकी मौजूदगी का लाभ मिला है। क्योंकि इस प्रावधान की मौजूदगी के चलते ही रिजर्व बैंक हमेशा दबाव में रहा और बातचीत के लिए आगे आया। ऐसे में सरकार के लिए इस धारा ने उद्देश्यपूर्ति का काम बखूबी किया है। यह अत्यंत विरोधाभासी है। आरबीआई अधिनियम में इस धारा को शामिल करने की वजह एकदम उलटी थी। इसे इसलिए शामिल किया गया था ताकि सरकार अगर आरबीआई पर अपना निर्णय थोपना चाहे तो उसकी जवाबदेही सुनिश्चित हो सके। भारतीय रिजर्व बैंक का इतिहास के पहले वॉल्यूम (1935-1951) में धारा 7 को यह स्पष्ट करने के लिए एकदम वांछित माना गया कि जब सरकार गवर्नर की राय के विपरीत काम करे तो वह यह समझ ले कि संबंधित कदम की पूरी जिम्मेदारी भी सरकार को ही लेनी होगी।
अतीत में कई मौकों पर आरबीआई पर यह दबाव डाला गया कि वह सरकार की इच्छा के मुताबिक काम करे लेकिन सरकार ने कभी ऐसे कदमों की जिम्मेदारी नहीं ली। मिसाल के तौर पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में 2008 से 2014 तक बैंकों की ओर से बेतहाशा ऋण जारी करने का निर्णय सरकार का था जिसके कारण बैंकों को भारी भरकम फंसे हुए कर्ज से जूझना पड़ा। सरकार ने इस बेतहाशा ऋण वितरण को लेकर केंद्रीय बैंक की चिंताओं को एकदम किनारे कर दिया। केंद्रीय बैंक चाहता था कि इन ऋणों का इस्तेमाल निवेश और वृद्घि को गति देने के लिए किया जाए।
अगर आरबीआई ने उस वक्त आगे बढ़कर केंद्र की संप्रग सरकार से यह कह दिया होता कि अगर वह नियामकीय सहिष्णुता चाहती है तो वह निर्देश जारी करने के लिए धारा 7 का प्रयोग कर सकती है। अगर ऐसा किया गया होता तो बाजार में उथलपुथल मच गई होती लेकिन कम से कम केंद्रीय बैंक पर यह आरोप तो नहीं लगता कि उसने अत्यधिक नियामकीय सहनशीलता का परिचय दिया है। क्या अब वक्त आ गया है कि यह समझ लिया जाए कि आरबीआई अधिनियम की धारा 7 के मूल उद्देश्य का नकारा जाना ठीक नहीं? धारा 7 का निर्माण इसलिए किया गया था ताकि आरबीआई के हितों की रक्षा की जा सके। अगर केंद्रीय बैंक यह मानता है कि सरकार द्वारा मशविरे के बाद उस पर नीति को थोपना सही नहीं है तो उसे सरकार को धारा 7 का इस्तेमाल करके निर्देश जारी करने देना चाहिए ताकि वह अपने कदमों की जवाबदेही ले और इसके परिणाम भी भुगते। परंतु यह भी सच है कि धारा 7 के इस्तेमाल से आरबीआई साफ बच जाएगा और सरकार उसे अपनी पसंद के कदम उठाने के लिए मजबूर नहीं कर सकेगी।
Date:08-11-18
Ramesh Abhishek, (The writer is secretary, department of industrial policy and promotion, ministry of commerce and industry, GoI)
India was ranked a modest 142 out of 189 economies in the World Bank’s Doing Business Report (DBR) 2015, last among the Brics (Brazil, Russia, India, China, South Africa) nations, and fifth among the eight South Asian economies. This acted as a catalyst to kick-start the journey of improving ease of doing business in India. For the first time, a nodal department — the department of industrial policy and promotion (Dipp) — was appointed to spearhead this initiative, and also implement Prime Minister Narendra Modi’s vision of being ranked in the top 50 of the DBR.
India’s stunning improvement in the last four years — it is 77th on the 2019 DBR released last week — is culmination of the efforts of Dipp and the various implementing departments spanning central, state and municipal governments. To put things in perspective, India is now the highest-ranked South Asian nation and the third among the Brics. In two years, India has improved its rank by 53 points, a jump that has not been achieved by any economy that is comparable to India in size and scale. Along this remarkable journey, it has learnt several important lessons.
First, we have learnt that persistence pays off. This year’s results are the culmination of four years of effort, and not just that of the past year. This is particularly true of two indicators: ‘Trading Across Borders’, where India’s rank improved from 146 in 2018 to 80, and ‘Dealing with Construction Permits’, where it moved from 181 last year to 52. These dramatic improvements have resulted from the dedication of the customs, shipping, ports and municipal corporations of Mumbai and Delhi, who have been painstakingly working on business process reengineering, online single-window systems and infrastructure improvements since 2015.
Their hard work has only paid off this year, since deep and lasting reform takes time to have its intended impacts felt on the ground. We have learnt that the World Bank follows a rigorous feedback-driven process, and credit is only given once the reform reaches the users, not when the change is introduced by the government. Second, we have also learnt that the client experience matters the most. This means that no reform is complete until its effects are felt by its users. With this understanding, India has mainstreamed private sector feedback into its reform process. Today, both Dipp and implementing departments actively solicit feedback from users on whether the reforms are working as intended, or if any corrections are required.
This has helped authorities to identify gaps in the implementation of reforms and rectify them to have the intended impact. Many departments have innovated in this regard. All of this has been supplemented by a wide-ranging communications effort using not just tradi- tional media, but also social media like Facebook and Twitter. Several departments, including the municipal corporations, have established WhatsApp groups with their users, to address in real-time any challenges or constraints that are being faced by the users. These have enabled us to fundamentally transform how the government communicates with citizens and, thereby, transform the way the government machinery operates.
Third, in countries of the scale of India, coordination is critical. Since the beginning of the ‘ease of doing business’ project, Dipp has been coordinating the reform agenda across implementing departments within central, state and municipal governments. However, dramatic improvements were seen only since November 2016, when a nodal department was identified for each indicator. A task force was constituted in each nodal department consisting of senior officials from all relevant departments and Dipp. This led to much greater coordination between the departments and the reform being expedited.
Finally, we have found that there is great value in learning from the experience of other countries. For example, the best practices of other economies helped us drastically reduce the costs of ‘Dealing with Construction Permits’. We also look forward to sharing our experiences with other Asian and African countries, which have already expressed interest in learning from our business reform experience. Our experience over the last four years has shown that India can excel when a strong political leadership is committed to reforms, and a group of dedicated and hard-working officials is given the support they need to get things done. The lessons we have learnt till date will be fundamental in our efforts going forward to make India reach the top 50 in the Doing Business Report.
Date:07-11-18
Editorial
On Monday, India achieved a significant milestone in its strategic nuclear posture when it announced the completion of its survivable nuclear triad by adding maritime strike capability to land and air-based delivery platforms for nuclear weapons. With the country’s first nuclear ballistic missile submarine, INS Arihant, completing its maiden “deterrence” patrol, India joined the select group of five — US, Russia, China, France and UK — which can boast of this capability.
A deterrence patrol, as the term signifies, is meant to deter the adversary from conducting the first nuclear strike, as a nuclear ballistic missile submarine provides India with an assured second-strike capability. While land-based and air-based delivery systems are easier to track, seek and destroy, a SSBN can stay undetected at sea for a long duration, assuring a nuclear retaliation against the adversary. An assured second-strike capability also allows India not to promise a No First Use of nuclear weapons in the case of any conflict. Part of India’s nuclear doctrine, it is meant to be a major safeguard against any nuclear misadventure, particularly by Pakistan. Over the past three decades, Pakistan has ostensibly supported terrorism in India under the shadow of a nuclear umbrella, which makes a conventional war a rather risky option for India. While the prime minister assured that India “remains committed to the doctrine of Credible Minimum Deterrence and No First Use,” he also warned Pakistan without naming the country that “the success of INS Arihant gives a fitting response to those who indulge in nuclear blackmail”.
As we acknowledge this achievement, there is a need to step back and appraise the challenges that lie ahead. The command and control structures for an SSBN on a fully-loaded deterrence patrol have to be robust and fool-proof, for an inadvertent error can lead to mass destruction. Also, the range of missiles on-board INS Arihant are no match for the range of Chinese missiles. INS Arihant, which is an indigenously developed submarine and part of a supposedly five-submarine project, was in the making for more than two decades as a classified programme, directly under the PM. Designed in the 1990s, the INS Arihant development project was officially acknowledged in 1998 and the submarine was launched in 2009. The nuclear reactor of the submarine went critical in 2013 and it was commissioned three years later. As the country looks in satisfaction at INS Arihant’s maiden deterrence patrol, it must celebrate the hard yards put in the past to ensure India’s strategic independence.
Date:07-11-18
संपादकीय
वही देश सामरिक रूप से सशक्त माना जाता है, जिसके पास थल, जल और वायु तीनों जगहों से दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दे सकने की क्षमता हो। इस मामले में भारत सक्षम है। परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत के आने के बाद उसकी ताकत और बढ़ गई है। यह पनडुब्बी पूरी तरह देश में ही तैयार की गई है। इस तरह अब भारत दुनिया का छठा देश हो गया है, जिसके पास परमाणु पनडुब्बी है। अभी तक अमेरिका, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन और चीन के पास परमाणु पनडुब्बियां थीं। अरिहंत की खासियत यह है कि यह साढ़े सात सौ से लेकर पैंतीस सौ किलोमीटर तक मार कर सकती है। इसके जरिए पानी के भीतर और सतह पर से मिसाइलें दागी जा सकती हैं। पानी के भीतर से भी किसी विमान को निशाना बनाया जा सकता है। अरिहंत ने अपना पहला गश्ती फेरा पूरा कर लिया। इस तरह उसके तकनीकी पक्षों को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है। स्वाभाविक ही इस मौके पर प्रधानमंत्री ने वहां उपस्थित होकर अरिहंत के चालक दल को बधाई दी और उनका मनोबल बढ़ाया। साथ ही उन्होंने पाकिस्तान को आड़े हाथों लेते हुए चेतावनी दी कि अब उसके परमाणु हमले की धौंस सुनने के दिन समाप्त हो गए। पाकिस्तान अक्सर तनाव की स्थितियों में परमाणु हमले की धमकी देता रहता है।
ऐसे में अब निस्संदेह भारत को उसका दबाव झेलने की जरूरत नहीं होगी। दुनिया भर में तमाम देश परमाणु हथियारों का जखीरा इसीलिए जमा करते हैं कि वक्त आने पर उन्हें अपने दुश्मन देश के सामने दबना न पड़े। हालांकि आज दुनिया की जो स्थिति है, उसमें युद्ध की स्थितियां लगभग न के बराबर हैं। आज वही देश ताकतवर माने जाते हैं, जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्खा को मजबूत बनाया है। ऐसे में परमाणु हथियार सिर्फ दुश्मन देश पर धौंस जमाने के ही काम आते हैं। पर पाकिस्तान में जिस तरह परोक्ष रूप से सेना का शासन चलता है, उसमें अक्सर वह युद्ध का माहौल बनाए रखने का प्रयास करती है। यही उसके लिए अपनी जनता का ध्यान वहां की बुनियादी जरूरतों और समस्याओं से भटकाए रखने का सबसे बड़ा औजार है। फिर पाकिस्तान में आतंकी संगठनों को जिस तरह पनाह मिली हुई है, वे वहां की सेना से ही हथियार और दूसरे साजो-सामान लेकर भारत में अस्थिरता पैदा करने का प्रयास करते हैं।
वे कब युद्ध की स्थिति पैदा कर दें, कहना मुश्किल है। ऐसे में शक्तिशाली हथियार रखने जरूरी हैं, ताकि उनके भय की वजह से हमले करने से पहले वे सोचें। हालांकि परमाणु हथियारों का उपयोग कोई भी देश नहीं करना चाहेगा। उसका असर सिर्फ दुश्मन देश पर नहीं, बल्कि अपने देश पर भी पड़ेगा। यह बात पाकिस्तान भी जानता है। भले वह परमाणु हमले की धमकी देता रहा हो, पर वह जहां तक हो सकेगा, इसके इस्तेमाल से बचेगा। मगर सिर्फ इस तर्क पर भारत उसे मुंहतोड़ जवाब देने वाले हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने से परहेज नहीं कर सकता। समुद्री सीमा में पाकिस्तान ने अपनी ताकतवर पनडुब्बियां तैनात कर रखी हैं। उनका सामना करने के लिए अरिहंत जैसी पनडुब्बी की जरूरत थी। अरिहंत केवल पानी के भीतर दुश्मन से निपटने में सक्षम नहीं है, बल्कि वह पानी के भीतर से हवा में मार करने की भी क्षमता रखता है, इसलिए यह सेना के लिए ज्यादा कारगर साबित होगी। निश्चय ही इसके पहले गश्ती फेरे से लौट कर आने के बाद नौसेना का मनोबल बढ़ा है।
Date:07-11-18
संपादकीय
आईएनएस अरिहंत का पहला गश्त सफलतापूर्वक पूरा होना वाकई ऐतिहासिक है। यह नाभिकीय शक्ति से चलने तथा नाभिकीय हथियारों से लैस पहली स्वदेशी पनडुब्बी है। अरिहंत की टीम ने इसकी मारक क्षमता का सफल अभ्यास कर दुनिया के सामने भारत की सामरिक क्षमता की धाक जमाई है। इस गश्त अभियान के साथ भारत ने जल, थल और नभ से नाभिकीय हथियार दागने की क्षमता हासिल कर नाभिकीय त्रिकोण का मुकाम हासिल कर लिया है। यह क्षमता अभी तक अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन एवं चीन को हासिल थी। भारत भी इनकी श्रेणी में शामिल हो गया है। अग्नि मिसाइल के जरिए जमीन से और मिराज 2000 के द्वारा विमान से नाभिकीय हमले की क्षमता हमारे पास पहले से थी। यह 83 मेगावॉट के रिएक्टर से चलने वाली इस पनडुब्बी का 26 जुलाई 2009 को जलावतरण किया गया था। अगस्त 2013 में अरिहंत के रिएक्टर ने काम करना शुरू कर दिया था। दिसम्बर 2014 में इसके गहन समुद्री परीक्षण शुरू किए गए थे। इस त्रिकोण को हासिल करने का प्रमाण दुनिया के सामने पेश करने वाले अरिहंत की वापसी पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इसे ऐतिहासिक उपलब्धि बताना स्वाभाविक है। यह अच्छा है कि इसकी घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री ने की।
इस अभियान में शामिल पूरी टीम पर देश हमेशा गर्व करेगा। प्रधानमंत्री का यह कहना ठीक है अरिहंत टीम की सफलता नाभिकीय हथियारों के नाम पर ब्लैकमेलिंग का माकूल और मुंहतोड़ जवाब है। चीन और पाकिस्तान को हमारे लिए हमेशा चुनौती बताई जाती है। अरिहंत कहीं से भी पाकिस्तान और चीन पर मिसाइल दाग सकता है। लेकिन जैसा हम जानते हैं, भारत की रक्षा तैयारियों का लक्ष्य कभी भी दुनिया में किसी को धमकी देना, डराना या तनाव पैदा करना नहीं है। मकसद शांति एवं स्थिरता को बढ़ावा देना है। नाभिकीय त्रिकोण क्षमता हासिल करने पीछे भी यही भाव विद्यमान है। कई बार शक्ति भी शांति का वाहक बनता है। कमजोर होते हुए हम शांति एवं स्थिरता में योगदान दे ही नहीं सकते। अगर भारत की रक्षा क्षमता अपने प्रतिस्पर्धी देशों से बेहतर या समान है तो यह शांति की गारंटी है। इस मिशन की सफलता निश्चय ही भारत के इस मूल सामरिक लक्ष्य की दिशा में अपना योगदान करेगा। लिहाजा, अरिहंत की पूरी टीम को देश की तरफ से अभिनंदन किया जाना चाहिए।
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उत्तर लिखने के अभ्यास के लिए प्रश्न – 181
10 November 2018
प्रश्न– 181 – “चौथी औद्योगिक क्रांति” क्या है ? विश्व के समक्ष यह कौन-कौन सी चुनौतियां प्रस्तुत कर रही है? (150 शब्द)
Question– 181 – What is “Fourth Industrial Revolution”? What challenges does it present before the world? (150 words)
नोट: इसका उत्तर आपको हमें नहीं भेजना है, यह आपके स्वयं के अभ्यास के लिए है।
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10-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:10-11-18
Vishal R & Kala S Sridhar
Bengaluru’s civic governance is quite typical of Indian cities. Recently, the Karnataka High Court directed the city’s municipal body, the Bruhat Bengaluru Mahanagara Palike (BBMP), to fill up all potholes on the city’s roads. BBMP struggled to conform to this order, while commuters are still required to wade through stretches called ‘roads’. It is clear that if entirely dependent on taxes and user fees, the resources needed for urban development are not adequate in India.
In China, land reforms in 1988 generated revenue for local governments to invest in infrastructure, and provided benefits from enabling land development. The reform of the tax assignment system in 1994 shifted more revenues to Beijing, while shifting more expenditure responsibilities to local levels of government, increasing their need to develop extra-budgetary funding through development fees.
Subsequent reforms in 1997 and 2002 incentivised subnational governments — provinces, prefectures, counties and townships — to take control over their revenue sources to finance their expenditures. The reforms led to a sharp increase in both central and subnational fiscal revenue, with a large portion of the central revenue being transferred to the subnational level in the form of transfer payments.
Local governments in China finance expenditures through a combination of on-budget revenue shared with the central government and ‘formal off-budget’ revenue. The latter is agreed on by Beijing, but not shared and reported. Local governments also receive revenue from non-authorised fees and taxes. Among the revenue on which local governments have control over, a number of off-budget revenue sources are used for infrastructure financing, such as land leasing, development fees and asset income.
In 2007, the State Council of China required all land leasing revenues to be shown as part of on-budget accounts. The state council also ordered that all municipalities retain land-leasing revenues in a declining reserve for three years; honour the revenue-sharing arrangement whereby 5-10% of land-leasing revenue was sent to Beijing; local governments are allocated a portion of their land-leasing revenues to land reclamation and protection; and all land, including industrial land, are leased through public auction or open tenders.
In China, Urban Development and Investment Companies (UDICs), wholly owned subsidiaries set up by local governments to hold infrastructure-related assets, have become the main way to obtain financing for infrastructure from banks, with the local government guaranteeing that they will use all their revenue-raising power to repay the loans. The use of UDICs, and the practice of selling land for development to complement limited local governments revenues and pay for investment in the provision of local services, has allowed Chinese cities to dramatically increase the provision of infrastructure and services and accommodate a fast pace of urbanisation.
The major revenue source for city governments in India is property tax. There are a number of attempts to lease land by urban development authorities in India, to monetise the asset, as astudy for the 13th Finance Commission found. But these have not translated into substantial gains for municipal bodies.
Given this, Indian cities should capitalise on property taxes and user charges to increase their revenues substantially. There are many non-paying and unassessed properties in Indian cities, which need to be brought into the tax net. Further, scarce resources such as water need to be metered. While government departments need to make more attempts to rise to the occasion to deliver, citizens’ awareness of rights, most importantly their responsibilities, will go a long way in improving Indian cities and make them liveable.
Date:10-11-18
ET Editorials
An electoral dispute in Mizoram must be resolved on principle rather than guided by expedience. On November 28, Mizoram, the remotest state in India, will elect legislators for all 40 assembly seats.
With only one Lok Sabha seat, the state carries little weight in national politics, but recent events there are of pan-India importance. The state’s centrally appointed chief electoral officer (CEO) is at loggerheads with chief minister Lal Thanhawla and powerful organisations that swing opinion and policy. The latter want CEO S B Shashank removed. The CEO wants members of a tribe called Bru in Mizoram and Reang elsewhere in the northeast, to vote in these elections, but Mizos will have none of that.
From the late 1990s, Vaishnavaite-animist Reangs, whose origins lie in Tripura, have fled Mizoram following persecution by a section of Christian Mizos. Christians happen to comprise nearly 90% of Mizoram’s population. The Reangs want to vote either from refugee camps in Tripura and Assam, or in poll booths on the Tripura-Mizoram border. They fear for their safety if forced to vote in booths within Mizoram. Mizos, who refuse to acknowledge Reangs or Brus as members of ‘their’ society, believe this is a conspiracy of New Delhi to undermine Mizos. Things have come to such a pass that Lal Thanhawla was prevented from filing his nomination papers by agitators. All this goes against the grain of our Constitution that makes every Indian of any faith, caste or creed equal in the democratic process.
If Reangs or Brus are prevented from exercising their democratic right by majoritarian pressure in Mizoram, what is to prevent majority Hindus from snatching away voting rights from Muslims or other minorities in, say, Uttar Pradesh, Bihar or Assam? The rule of a majoritarian mob by brute force will wreck India’s claim to be the largest and most diverse democracy in the world. It has the potential to damage democratic institutions in India just as the persecution of Rohingyas and Balochs has dented reputations in Yangon and Islamabad. The Centre must back the election commission, and uphold democracy.
Date:10-11-18
टी. एन. नाइनन
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और सरकार के बीच का विवाद सार्वजनिक होने के बाद कुछ इस तरह की बातें सामने आ रही हैं: टकराव से बचा जाना चाहिए और दोनों को पीछे हट जाना चाहिए, व्यवस्था में और अधिक नकदी की जरूरत को लेकर सरकार की बात में दम है, राजकोषीय परिस्थितियों को नियंत्रण में रखने के लिए आरबीआई के भंडार का इस्तेमाल करना सही नहीं है, आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड को राजनीतिक लोगों से भर देने के बाद अब इस बोर्ड से वे निर्णय लेने को कहना जो अब तक प्रबंधन के हवाले होते थे, कतई सही नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए। बोर्ड निगरानी और दिशानिर्देश दे सकता है लेकिन तकनीकी मसलों पर निर्णय लेने का काम पेशेवर प्रबंधन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। व्यापक संदर्भ में देखें तो आरबीआई का पक्ष लिया जा रहा है लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि केंद्रीय बैंक को अधिक लचीला रुख अपनाना चाहिए और चर्चा को लेकर खुलापन दिखाना चाहिए। एक अन्य नजरिया भी है। वह कि आरबीआई के पास पर्याप्त भंडार है और उसे इसे सरकार को सौंप देना चाहिए क्योंकि यह भंडार आखिर उसी का है। तमाम विफलताओं के बावजूद केंद्रीय बैंक के प्रबंधन की जवाबदेही पर्याप्त नहीं रही है। इसलिए आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड को अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। आरबीआई को अपने मुख्य कामों पर ध्यान देना चाहिए। शेष कार्य उसे बाजार नियामकों और सरकार पर छोड़ देने चाहिए।
दोनों पक्षों को पीछे हटने की सलाह सबसे समझदारी भरी बात है लेकिन ऐसा करना कई वजह से आसान नहीं है। पहली बात तो यह कि अर्थव्यवस्था पर वास्तव में दबाव है। दूसरा, आरबीआई की भूमिका और उसके कामकाज को लेकर व्यापक बहस पिछले कुछ समय से चल रही है और उसे हल करना जरूरी है क्योंकि यह जब तब सर उठा लेती है। इसका ताजा उदाहरण भुगतान तंत्र को लेकर उपजी समस्या है। तीसरा कारक यह है कि रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर का रुख तो कड़ा है ही, उनके साथ संवाद की बहुत अधिक गुंजाइश भी नहीं है। पहले के गवर्नरों के मिजाज में भी सख्ती थी लेकिन वे बातचीत और संवाद के लिए हमेशा तैयार रहते थे। पिछले गवर्नर को जिस प्रकार (कार्यकाल के अंत में) हटना पड़ा उसे देखते हुए सरकार इस बार वैसा कोई कदम उठाने की इच्छुक नहीं दिख रही है।
यही वजह है कि सरकार अगली बोर्ड बैठक में तमाम मसलों पर चर्चा करना चाहती है। अगर दो डिप्टी गवर्नरों के हालिया भाषणों की भाषा और उनके तेवर को देखा जाए तो ऐसा लगता है कि आरबीआई के शीर्ष अधिकारियों के रुख में कड़ाई आ रही है। अगर बोर्ड प्रबंधन पर दबाव बनाता है तो उसे आरबीआई गवर्नर और प्रमुख डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के इस्तीफे के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो इसके चौतरफा नकारात्मक प्रभाव होंगे। यह बात ध्यान में रखनी होगी कि सरकार को अभी भी मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद के लिए योग्य व्यक्ति की तलाश है। विवादित माहौल में नए गवर्नर की तलाश करना और डिप्टी गवर्नर पद के लिए एक अन्य स्तरीय अर्थशास्त्री की तलाश करने का अर्थ शायद यह होगा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अन्य अधिकारी को गवर्नर बनाना और यह उम्मीद करना कि वह सरकार की बात सुनेगा। प्रभावशाली हलकों से यह आलोचना सुनने को मिलती आई है कि सरकार वरिष्ठï आर्थिक पदों पर तैनाती के लिए विदेशों से प्रत्याशी चुन रही है। ऐसे में योग्य प्रत्याशी का चयन करना भी मुश्किल काम होगा, हालांकि आंतरिक पदोन्नति के रूप में इस समस्या का समाधान तलाश किया जा सकता है।
ऐसे हालात में सबसे अच्छा जवाब यही है कि कुछ कूटनीतिक लेनदेन कर मामला हल किया जाए। बोर्ड को व्यवस्था में और अधिक नकदी के पक्ष में सलाह देनी चाहिए। क्या आरबीआई के पास देने लायक अधिशेष है या नहीं, ऐसे तकनीकी मसलों को परखने के लिए एक समिति नियुक्त की जानी चाहिए। सरकार को अपने संसाधनों का इस्तेमाल करके उन सरकारी बैंकों को पूंजी देनी चाहिए जिनके पास नकदी की कमी है। ऊर्जित पटेल को भी यह याद करना चाहिए कि कैसे मनमोहन सिंह सन 1980 के दशक में बतौर गवर्नर एक फर्जी विदेशी बैंक को शाखा चलाने का लाइसेंस देने के खिलाफ थे। जब सरकार ने इस पर जोर दिया और बैंक लाइसेंसिंग का काम आरबीआई से छीनने की धमकी दी तो सिंह (जिन्होंने अपना इस्तीफा भी दे दिया था) ने संस्थागत क्षति होने देने के बजाय पीछे हटना ठीक समझा। फिलहाल पटेल के समक्ष वैसे ही हालात हैं।
Date:09-11-18
बद्री नारायण
भारतीय लोकतंत्र में एक नए शब्द एवं अवधारणा का चलन शुरू हुआ है। यह शब्द है एस्पिरेशनल। इसका सरोकार आकांक्षाओं से है। इसके तहत नीति आयोग की पहल पर देश के 28 राज्यों के 108 जिलों का चयन प्रथम चरण में किया है। इन्हें एस्पिरेशनल जिलों के रूप में चिन्हित किया गया है। धीरे-धीरे कुछ अन्य जिले भी चिन्हित किए जाएंगे। इन जिलों का चयन स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव विकास जैसे मानकों पर अति पिछडे़पन को चिन्हित करके किया गया है। इसमें अति पिछड़ापन और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों जैसे दो मुख्य पैमानों को आधार माना गया है। इसमें दूरदराज के ऐसे क्षेत्रों को भी महत्व दिया गया हैं जो नक्सल, उग्रवाद जैसी समस्या से जूझ रहे हैं या प्राकृतिक दुरूहता के कारण विकास की दिशा में आगे नहीं बढ पा रहे हैं।
इन अति पिछड़े क्षेत्रों को विकास के मानकों पर उत्कृष्ट विकसित क्षेत्र बनाने की नीति को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘सबका साथ-सबका विकास‘ नारे की मूल आत्मा के रूप में देखा जा रहा है। यह बात और है कि अति पिछड़े, हिंसाग्रस्त और भौगोलिक रूप से दुरूह स्थिति वाले क्षेत्रों को एस्पिरेशनल यानी आकांक्षी कहना एक अवधारणात्मक समस्या को जन्म देता है। अकादमिक विमर्श में एस्पिरेशनल उस स्थिति को कहते हैं, जहां आगे बढ़ने की आकांक्षा प्रबल दिखती है। एस्पिरेशनल वह मनः स्थिति है, जहां हम भविष्य में बेहतर होने की प्रेरणा से आगे बढ़ने की जद्दोजहद कर रहे होते हैं। यह अति पिछड़ेपन की प्रतीक न होकर पिछड़ेपन से थोड़ा आगे बढ़ी हुई स्थिति है जहां आकांक्षा ही हमारे विकास का मूल तत्व हो जाती है। समाजशास्त्री अर्जुन अप्पादुरई का मानना है कि आकांक्षी होने की शक्ति हमें तब प्राप्त होती है, जब हम कुछ सामान्य सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास कर चुके होते है। यह किसी भी तरह से अति पिछड़ेपन का पर्याय नहीं हो सकता। हां, विकास की चाह में जहां जन-आंदोलन चल रहे हैं, उन्हें हम एस्पिरेशनल की अभिव्यक्ति मान सकते हैं, किंतु जहां लोग अति पिछड़ेपन के कारण विकास के सामन्य óोतों से वंचित हैं, जो विकास के मनोविज्ञान का पहला चरण है, उन्हें एस्पिरेशनल कहना कहां तक उचित है ?
बिहार एवं उत्तर प्रदेश से गरीबों का पलायन बेहतर भविष्य और रोजी-रोटी की आकांक्षा के कारण हो रहा है। जो युवा बिहार से निकलकर दिल्ली की कठिन परिस्थितियों में भी प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी करते हुए आईएएस या पीसीएस हो जाते हैं, इसमें उनकी प्रेरणा अपनी आकांक्षा है। बिहार में 18 ये 25 वर्ष की आयु के लगभग 1 करोड़ 25 लात्रा युवा रोजगार की तलाश कर रहे हैं, लेकिन पलायन के लिए भी क्षमता और संसाधन चाहिए। किसी जगह जाकर वहां अपने लिए उपयुक्त स्थान तलाशना व आने-जाने के खर्च की व्यवस्था करनी होती है। इसके बिना आकांक्षा भी नहीं की जा सकती।
उत्तर प्रदेश में चित्रकूट ,फतेहपुर और सोनभद्र आदि जिलों को एस्पिरेशनल जिले मानना समस्या को जन्म देता है । उत्तर प्रदेश एवं नेपाल सीमा पर अति पिछड़े जिलों को एस्पिरेशनल कहना उचित नहीं प्रतीत होता ,क्योंकि इनमें से कई जिलों कि वहां के लोग आकांक्षा करने की ही स्थिति में नहीं हैं ।
2014 के संसदीय चुनाव में राजनीतिक विश्लेषकों ने एस्पिरेशनल शब्द का व्यापक इस्तेमाल किया था। कइयों ने उस चुनाव में भाजपा की जीत और नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि की व्यापक स्वीकार्यता का कारण ही भारतीय समाज में एस्पिरेशनल समुदाय और आकांक्षापरक युवा वर्ग के व्यापक चुनावी हस्तक्षेप को माना था । यहां एस्पिरेशनल का अर्थ विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक सक्रिय आकांक्षा के रूप में किया गया था । अति पिछड़ेपन से शब्द से आकांक्षापरक का बोध नहीं होता । स्पष्ट है कि विकास की आकांक्षा से हीन अति पिछड़े जिलों के लिए उपयुक्त शब्द तलाशने की जरुरत है । भारत सरकार के एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम के तहत चयनित जिलों को स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्यपरक भोजन , शिक्षा , कृषि , जल स्रोत , आर्थिक दक्षता विकास के श्रेत्रों में उनके अति पिछड़ेपन को चिन्हित कर , उन्हें विकासशील अर्थव्यवस्था से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया । प्रशासनिक एवं चुनावी जनतंत्र में शब्दों एवं प्रतीकों की बड़ी भूमिका है । शब्द एवं प्रतीक वह आकर्षण रचते हैं , जो जनतंत्र को अवधारणात्मक स्तर पर और साथ ही आधार ताल पर आकर्षक बनाते हैं ।
जब समाज में एक ही शब्द के कई अर्थ टकराने लगें तो उनकी ऐसी अनुगूंज पैदा होती हैं जो प्रारंभिक स्तर पर प्रया : दुविधा पैदा करती हैं । देखा यह जाना चाहिए की क्या शब्द वास्तविक अर्थ को छिपा रहे हैं , भ्रमित कर रहे हैं या सही अर्थ देकर हमारी सोच को शक्ति दे रहे हैं । यदि शब्द या अवधारणा हमें ब्रमित करे तो उश्के आधार ताल पर रूपांतरण में भी समस्या आ सकती है । यहां पर इन जिलों के एस्पिरेशनल होने का अर्थ सिर्फ आंदोलन वाले हिंसाग्रस्त और नक्सल प्रभावित क्षेत्र इत्यादि के रूप में चिन्हित करने से ही हो रहा है। ऐसे क्षेत्र जहां आगे बढ़ने के लिए आंदोलन चल रहा है, उन्हें तो एस्पिरेशनल कहा जा सकता है, किंतु जहां सिर्फ अति पिछडापन है और उस अति पिछड़ेपन को वहां की जनता मूक होकर स्वीकार करती चली आ रही है, उन्हें आकांक्षापरक इलाके न कहकर कुछ और कहा जाए तो बेहतर या फिर ऐसा कुछ किया जाए जिससे वहां भी विकास की आकांक्षा पैदा हो। उचित होगा कि अति पिछड़ेपन को किसी और नाम से संबोधित किया जाए, ताकि कहीं कोई भ्रम की स्थिति न रहे और संबंधित जिलों के लोग भी विकास के लिए प्रेरित हो सकें।
हालांकि अपने प्रारूप के स्तर पर यह योजना समाज की अपनी शक्ति , अपनी दक्षता , अपने स्त्रोतों के बेहतर उपयोग , सरकारी योजनाओं के उक्त क्षेत्र के विकास के लिए समन्वय और बेहतर समायोजन के लिहाज से उपयोगी एवं सार्थक दिखती है। अगर सचमुच हम जनता के भीतर लगातार बलवती हो रही विकास की आकांक्षा को संतुष्ट कर पाएं तो इससे हमारा जनतंत्र सार्थक एवं मजबूत होगा । चूंकि इस योजना को शुरू हुए अभी एक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ , इसलिए उसके परिणामों का आकलन करना ठीक नहीं , लेकिन अगर इसके क्रियान्वयन की दिशा एवं दशा सही है तो हम कह सकते हैं कि विकास का उजाला अंधेरे कोनों तक भी ले जाने की कोशिश की जा रही है । ऐसी कोशिश होनी ही चाहिए , क्योंकि यह एक तथ्य है कि देश के कई हिस्से विकास की रोशनी से वंचित हैं या फिर वह सही मात्रा में नहीं पहुंच पा रही है । सरकार का कहना है की आकांक्षी जिलों के चयन में राजनीति नहीं , बल्कि आंकड़ों को महत्त्व दिया गया है । वही आलोचक कहते हैं की कई जिलों के चयन में आंकड़ों से अधिक राजनीतिक प्राथमिकताएं महत्वपूर्ण रही हैं । चयन के कारण चाहे जो रहे हों ,भारत में अगर ऐसे जिलों का विकास हो सके जो अति पिछड़े हैं तो इससे हमारा जनतंत्र ही मजबूत होगा ।
Date:09-11-18
Amitabh Kant & Indu Bhushan , [ Kant is CEO, Niti Aayog and Bhushan is CEO, PM-JAY ]
Ayushman Bharat-Pradhan Mantri Jan Arogya Yojana (PM-JAY) is the most ambitious health sector scheme since Independence. Prime Minister Narendra Modi has himself led the process. If implemented well, PM-JAY could dramatically change the picture of the health sector and directly benefit more than 50 crore poor people. Since its launch on September 23, it has already benefitted close to 2,00,000 people. A mission of such scale and ambition is bound to attract considerable public scrutiny. The discussion on PM-JAY is, therefore, welcome. Commentators (including K Sujatha Rao in “Insurance, false assurance,” IE, October 31) have raised several concerns about the scheme. We seek to address them.
Critiques of the scheme usually stem from the following five concerns. One, PM-JAY focuses on secondary and tertiary care, taking away the attention from primary care and public health-related investments. Two, in a supply-deficit environment, raising demand will not help. Three, the current package prices are too low to encourage private-sector hospitals to fully participate in the scheme. Four, hospital insurance addresses only a small amount of out-of-pocket expenditures. Finally, there is scepticism that either the required budget will not be available or provided at the expense of other critical needs.
There is no disagreement that strong primary care and effective public health interventions should be solid foundation of the health system. The health and wellness centres component of Ayushman Bharat seeks to ensure exactly that. However, irrespective of how effective and well-funded our primary healthcare system is, a large number of poor people will need secondary and tertiary care. Currently, they don’t have much choice when they fall seriously sick. Without PM-JAY, either they would delay or avoid seeking treatment, or sell their assets or borrow heavily to fund such care. There is no trade-off between investing in primary and preventive health for the general population and supporting curative health for the poor.
It is correct that the supply of quality healthcare is constrained in the country relative to international norms. We have only 1.3 beds per 1,000 people as compared to the WHO norm of five beds. However, even this limited supply disproportionately serves the non-poor section of the population. More than 80 per cent of hospital beds are in the private sector, yet the poorest 40 per cent can’t afford quality private healthcare. PM-JAY will increase access to both public as well as private sector services.
Where will the incremental supply of beds come from to support the anticipated increase in demand? In the short run, it will come from the spare capacity in the private sector as well as from the more efficient use of existing capacity. Private sector hospitals have an occupancy rate of 60-70 per cent. Improvement in efficiency and greater use of home-based care will release some constraints. In the medium-term, the market should respond through expanded private sector capacity in Tier 2 and Tier 3 cities. With significantly greater paying power due to PM-JAY, and government incentives for the private sector and PPP operations, the private sector’s supply of quality services is bound to expand. Over the last decade, approximately 1 lakh hospital beds have been added annually but this will need to increase by almost 1.8 times if we are to reach the target of 3.6 million beds by 2034. PM-JAY will catalyse these changes.
Package rates under PM-JAY have been fixed conservatively with a view to improve the scheme’s sustainability. We have also considered the large volume of business that the scheme will generate, creating economies of scale. States like Gujarat, Karnataka, Maharashtra and Tamil Nadu, where some schemes are already in operation, have been allowed to continue with their existing rates. The government is open to modifying the rates, when supporting evidence becomes available.
Some commentators point to the lack of evidence to show that government-funded health insurance schemes reduce out-of-pocket expenditure on healthcare. However, international experience goes against this argument. For example, when China embarked on reforms towards universal health coverage in 2007, out-of-pocket spending was around 60 per cent of the country’s health expenditure. It has come down to 30 per cent now. It is correct that there is no national-level evaluation of government-funded health insurance schemes in India. One study of Karnataka’s scheme did show a significant reduction in out-of-pocket spending for healthcare.
We also need to understand the intention behind PM-JAY. With a budget in the range of Rs 10,000-12,000 crore per year, it can realistically be expected to have only limited impact on overall out-of-pocket spending levels on healthcare, which amounts to around Rs 2,40,000 crore. However, PM-JAY will certainly have a significant impact on reducing the out-of-pocket spending incurred on the catastrophic health expenses by the poorest 40 per cent of the population.
Finally, the finance minister has assured Parliament about fully funding PM-JAY, and linked it with the newly-introduced health cess. In addition, public resources for the health sector are likely to expand significantly. The government has committed to increasing spending on health from the current 1.2 per cent of the GDP to around 2.5 per cent in the next seven years. Our country has a long way to go in reducing the high out-of-pocket expenditure on health, expanding access to quality health services for the poor, and improving the affordability and quality of health services. Only time will tell if PM-JAY will succeed in achieving these objectives. However, we know that the approach followed in the last 70 years did not work. Let us give PM-JAY a chance.
Date:09-11-18
Tom Tugendhat , [ The writer is a Member of Parliament in the U.K. ]
This Remembrance Sunday I will be in New Delhi to mark the 100th anniversary of the end of the First World War. While many Indians, both here and in the U.K., are celebrating Diwali, some will also be remembering. At first sight, the sombre ceremony of Remembrance and the joyous festival of Diwali might seem utterly unalike. Yet both represent the virtue of doing your duty, and the triumph of good over evil.
The contribution that Indians of all faiths made to the victory of good over evil in the First World War is little known, but it was crucial. Rushed to the Western Front, Indian soldiers fought tenaciously to stop a German breakthrough. Darwan Singh Negi won one of the first Victoria Crosses, fighting to retake British trenches from the enemy although he had been seriously wounded in the head and the arm. Without men like him, the war might quickly have been lost. In all, over one million Indians served overseas during the First World War. Over 74,000 never returned, a fact that makes India’s choice of the marigold to symbolise remembrance an apt one, given the secular association of saffron with sacrifice.
“Remember the blood of thy martyred sons,” Sarojini Naidu demanded in her famous poem, The Gift of India. Until recently, however, the acknowledgement and remembrance of India’s sacrifice in the war was an extremely delicate subject because it was so entangled with painful memories of Empire. Official silence on both sides meant that India’s immense contribution went unrecognised.
The centenary of the war has provided a welcome opportunity to recognise India’s role. The United Services Institution, backed by the Ministry of External Affairs, has taken the initiative, launching a commemoration project. Crucially, this has unearthed contemporary accounts by Indian soldiers, which will change how future histories of India’s war are written. These accounts confirm what might seem a surprising fact. The Indians who volunteered, just like their British counterparts, believed profoundly that the cause they fought for was just.
New threats to freedom and the world order confront us today, especially in the increasingly important Indo-Pacific region. In the U.K., the Foreign Affairs Committee, which I chair, is already looking into the way we should renew our relationship with India: remembering our shared past but focussing on our future. I hope the honest conversation sparked by this project, and our joint commemoration of the 100th anniversary of the armistice this weekend, will open a new era. I hope it will enable us to talk openly about our history, good and bad, remind us of our shared values, and signal our willingness as great democracies to stand shoulder to shoulder to defend them, should we be forced to, once again.
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Yojana : Sanitation Revolution : Cleansing Urban India (10-11-2018)
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कुरुक्षेत्र : खादी और ग्रामीण पुनर्निर्माण : गांधीवादी दृष्टिकोण (10-11-2018)
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योजना : महिलाओं के नेतृत्व में विकास से राष्ट्र का सशक्तीकरण (10-11-2018)
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Kurukshetra : Khadi : A Tool for Employment (10-11-2018)
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भारत के लिए दक्षिण एशियाई देशों का महत्व
Date:12-11-18 To Download Click Here.
किसी भी देश की सफल विदेश नीति की कसौटी, उसके पड़ोसी देशों से संबंध होते हैं। भारत जैसी उभरती हुई शक्ति के लिए यह और भी मायने रखते हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री के 2014 में शपथ ग्रहण के साथ ही पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने की नीति की शुरूआत हो गई थी। तब से लेकर आज तक भारत सरकार लगातार इस पर अमल करती आ रही है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए वर्ष के अंत तक प्रधानमंत्री का नेपाल, भूटान और मालदीव जैसे पड़ोसी देशों की यात्रा का कार्यक्रम तय किया गया है।
पड़ोसी देशों के प्रति सौहार्दपूर्ण नीति को बनाए रखने में चीन एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है। चीन की वन बेल्ट, वन रोड़ नीति का कई दक्षिण एशियाई देश विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे हिन्द महासागर में उसकी जगह बन जाएगी। यही कारण है कि इस क्षेत्र में चीन अपने लिए कुछ मित्र तैयार करना चाह रहा है। इस नीति के तहत उसने नेपाल को अपनी क्षेत्रीय प्राथमिकताएं बदलने के लिए किसी प्रकार से प्रभावित कर लिया है। इसका साक्ष्य इस बात से मिलता है कि नेपाल ने अगस्त में सम्पन्न बिम्सटेक (बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल एण्ड इकॉनॉमिक कॉर्पोरेशन) सम्मेलन के बाद, इन देशों के पूना में होने वाले सैन्य अभ्यास के लिए अपने दल को नहीं भेजा।
पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की भारत की विदेश नीति के साढ़े चार वर्षों के दौर में पाकिस्तान एक ऐसा देश रहा, जिसने भारत की दोस्ती के प्रति दुश्मनी का रवैया अपनाया है। इस मामले में सार्क संगठन भी अप्रभावी सिद्ध हुआ है। अतः पाकिस्तान को छोड़कर, भारत ने अन्य सभी पड़ोसी देशों को अपनी आर्थिक प्रगति का भागीदार बनाते हुए, उनके लिए न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने; संपर्क साधनों का जाल बिछाने एवं बंगाल की खाड़ी में सुरक्षित बाजार उपलब्ध कराने के अथक प्रयास किए हैं। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों की नियमित यात्राएं की हैं, और इन देशों में प्रमुखों की आवभगत भी की है।
प्रत्येक देश को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को चुनने की संप्रभुता होती है। चीन के आर्थिक कौशल और विकास की रफ्तार ने अनके दक्षिण एशियाई देशों को उसकी ओर आकर्षित किया है। इसी के चलते 2014 में श्रीलंका ने चीनी पनडुब्बियों का स्वागत किया था। अब नेपाल भी चीन की ओर झुकता दिखाई दे रहा है। मालदीव ने भी चीन के दोस्ताना रवैये का स्वागत किया है।
चीने के साथ हुआ डोकलाम विवाद भारत के लिए एक अग्नि परीक्षा थी। चीन ने चाल चलते हुए भूटान के माध्यम से भारत को संदेश देना चाहा था। परन्तु भूटान ने चीन की प्रभुता के सामने घुटने नहीं टेके। इसी प्रकार बांग्लादेश ने भी चीन के साथ संबंधों में चतुराई दिखाते हुए उससे दूरी बनाए रखी।
म्यांमार ने चीन की बेल्ट रोड़ नीति का विरोध किया है। श्रीलंका ने भी अपनी विदेश नीति को अपेक्षाकृत संतुलित कर लिया है। लेकिन चीन के ऋण से दबे होने के कारण उस पर अभी भी दबाव है।
अफगानिस्तान तो अतिवादियों से दूर ही रहना चाहता है। मालदीव से संबंध और बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है।
दक्षिण एशियाई देशों के साथ इतिहास और जड़ों की समानता ही भारत का स्थान बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। भारत को राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक स्तर पर ऐसे समाधान और विकल्प ढूंढने होंगे, जो इन देशों में उसकी सफलता को बनाए रख सके।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित दीपांजन रॉय चैधरी के लेख पर आधारित। 11 अक्टूबर, 2018
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Today's Life Management Audio Topic- "अवधारणायें"
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Today's Daily Audio Topic- "जल परिवहन"
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12-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:11-11-18
SA Aiyar, (Swaminathan S Anklesaria Aiyar is consulting editor of The Economic Times.)
The recent controversy on the independence of the RBI from the government raised important issues of principle. Some analysts said that the government was elected while the RBI was not, and in a democracy the elected body must take precedence over the unelected one. This is at best a partial truth and at worst a very dangerous argument. Successful democracies depend as much on unelected institutions as elected ones. Which institutions are the most respected in India? The Supreme Court, Election Commission and the armed forces.
All three are unelected. Some will mention a fourth (also unelected) institution, the Comptroller and Auditor General. By contrast, citizens view most elected politicians as rascals and brigands. This does not mean that elected politicians have no legitimacy. But their legitimacy flows from the fact that their power is temporary, given for a few years by voters and withdrawable for non-performance. The mere fact that politicians are elected does not place them above institutions like the courts, Election Commission or Constitution. Lalu Yadav won more than one election while being tried for corruption, and declared that he had been exonerated by the “people’s court”. That was rhetorical rubbish. An election is not a people’s court, and does not determine criminal guilt. That must be determined by a non-elected legal process that disregards totally the mere fact that the accused is politically popular.
James Madison, a key architect of the US constitution, said that elected governments could easily become instruments of majoritarian tyranny, or tyranny of powerful vested interests. He noted that true freedom required the primacy of individual rights, which should not be trampled on by temporary elected majorities. Hence he emphasised the need for checks and balances on elected governments, typically through empowered but unelected institutions, to check political actions that might have short-term attractions but carry long-term dangers. Individual rights flow from equality before the law, enshrined in the Constitution. Group rights, however, are mainly politics. Much political activity aims to secure advantages (or penalties) for this or that group, in the name of religion, caste, ethnicity, regionalism, or other such divides. Such activity can violate the fundamental rights of individuals, and hence can be struck down by the courts.
Remember, the Constituent Assembly that framed the Constitution was unelected. Did that diminish its legitimacy, or make it inferior to elected bodies? Not at all. Indeed, a key feature of the Constituent Assembly was that its members didn’t have to worry about getting re-elected, and so could resist pressures from this or that group. They were empowered to focus on the long run, on basic principles that merited precedence over short-term expedients, temptations and moods. Of course, the unelected Constituent Assembly could be challenged by subsequent elected governments, that amended the Constitution over a hundred times. But every amendment required a two-thirds majority in both Houses of Parliament plus the sanction of a majority of states. This ensured that Constitutional amendments were deliberated on at several levels, enjoyed very wide legitimacy, and could not be engineered for short-term political gains by politicians seeking to stay in power by hook or crook.
India’s top unelected bodies are not entirely independent of political control. Governments have a role in appointing judges, election commissioners, chiefs of the armed forces, and CAGs. This ensures some limited accountability to elected governments. Some analysts feel that the government has been robbed of a sufficient say in judicial appointments by the Constitutional interpretation of the Chief Justice. But even Supreme Court judges can be impeached by Parliament. Their independence is not absolute.
In sum, every democracy needs checks and balances. India needs independent, unelected institutions to check the power of elected governments. At the same time, India also needs political checks on independent institutions, that cannot remain completely unaccountable. Debates on the strength and legitimacy of such checks and balances are both inevitable and healthy in a democracy. There will always be potential or actual clashes between different principles. A Constitution is a living document that will sometimes need to change with the times, for all values are not written in stone. In the Odyssey, Ulysses told his crewmen to plug their ears to avoid being seduced by the songs of the sirens. He told his crew to tie him to the mast, and ignore all the pleas he might make when tempted by the sirens, for his own good. Every elected government should submit to being tied to the mast by unelected but independent institutions, to avoid succumbing to short-term siren temptations.
Date:11-11-18
संपादकीय
भारत के बारे में होने वाली वैचारिक बहसें किसी भी विचारधारा से क्यों न उत्पन्न हों, इस बात पर अवश्य सहमत होती हैं कि यहां सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और प्रतीकों की विविधता है। पर एक राष्ट्र-राज्य के रूप में ‘विविधता में एकता’ भारत की अद्वितीय विशेषता है। इस विशेषता को विरासत मानते हुए हम अपनी ‘परंपरा’ से जोड़ते और एक ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं जहां विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में कोई संघर्ष या द्वंद्व नहीं है और हर समूह को फलने-फूलने की सकारात्मक स्थिति उपलब्ध है। जबकि यथार्थ में यह परिकल्पना साकार होती नजर नहीं आती। ‘विविधता में एकता’ भारतीय समाज के जिन सांस्कृतिक प्रतीकों पर निर्मित है, वे इन समूहों के सामाजिक-आर्थिक संबंध को ऐतिहासिक ढंग से नहीं प्रस्तुत करते हैं।
वे भारत के राजनीतिक मानचित्र पर संस्कृति के बेलबूटों के समान हैं, जिनका होना एक-दूसरे के प्रभाव से मुक्त है। जबकि समूहों के पारस्परिक संबंध और अस्मिता एक भिन्न कहानी कहते हैं। इस कहानी में सहअस्तित्व के साथ संघर्ष की भी संभावनाएं हैं। भारत की परिकल्पना करने वालों का एक धड़ा ऐसा है जो एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा के नाम पर हर विविधता को एकरूपता में बदल कर ‘वृहद् भारत’ की रचना करना चाहता है। भला कोई व्यक्ति या समूह क्यों अपनी पहचान की कीमत पर किसी ‘अन्य’ द्वारा दी गई पहचान को अपनाएगा? और अगर दबाव में अपनाएगा तो भावानात्मक संबंध स्थापित नहीं कर पाएगा। स्वाभाविक है कि यह तरीका प्रतिरोध को जन्म देगा। इससे कमजोर समूहों में न केवल डर पैदा होगा, बल्कि घृणा और हिंसात्मक प्रतिरोध की प्रवृत्तियों को बल मिलेगा। कुछ समूह अपनी विशिष्ट पहचान में भारत-बोध को अस्वीकार करना चाहते हैं।
वे अपने सांस्कृतिक इतिहास के उन किस्सों-कहानियों को सर्वोपरि मानते हैं, जो उन्हें भारत से भिन्न सिद्ध करते हैं। न चाहते हुए भी यह स्वरूप एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा का पूरक बन जाता है। विडंबना यह है कि ये दोनों धाराएं हर सांस्कृतिक समूह को अपनी तरफ से प्रमाणपत्र देने को उत्सुक हैं। एक तीसरी धारा ‘निरपेक्षता’ की पैरोकार है। यह संविधान सम्मत है, लेकिन इसकी उतनी स्वीकृति नहीं बन पा रही है, क्योंकि अन्य दो धाराओं ने मीडिया जैसे साधनों के प्रयोग द्वारा ऐसी संकटकालीन स्थिति का प्रोपगंडा किया है, जहां बिना मजबूत समूह के अस्तित्व का संकट दिखाया जा रहा है। इसे ही स्टेन कोहेने ने मोरल पैनिक की संज्ञा दी है। इस तरह दो परस्पर विरोधी आख्यान एक-दूसरे के पूरक बन कर दो भिन्न राजनीतिक धाराओं को ऊर्जा दे रहे हैं। ये संवाद, सौहार्द और सह-अस्तित्व के बदले अलगाव की हर संभावना को खोजने और पुष्ट करने का कार्य कर रहे हैं। इनके प्रभाव में ही कभी क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को एक राज्य से खदेड़ा जाता है, तो कभी धर्म के नाम पर उन्माद फैलाया जाता है।
कभी भौगोलिक अवस्थिति को मुद्दा बना कर अलग राज्य की मांग की जाती है, तो कभी भाषायी पहचान को संवैधानिक दर्जा दिलाने के नाम पर एक अलग भाषा समूह के अस्तित्व को सिद्ध किया जाता है। प्रत्येक समूह अपनी पहचान को कानूनी वैधता दिलाना चाहता है। दरअसल, ऐसा करके वे देश के हिस्से में अपना हक बढ़ाना चाहते हैं, जिसके लिए वे अपनी विशिष्ट स्थिति को न्यूनतम शर्त मान रहे हैं। इनका मानना है कि इस शर्त का पूरा होना उन्हें दूसरे सांस्कृतिक समूहों से अधिक ताकतवर बना देगा। यह ताकत देश के लिए कितनी हितकर होगी? ‘अस्मिता की राजनीति’ का एक ऐसा माहौल बन चुका है कि हर सांस्कृतिक समूह ने समुदाय के कल्याण के सापेक्ष अपने लोगों को लामबंद कर लिया है। ये अपने को समुदाय का रहनुमा घोषित कर उसे ताकतवर बनाने के लक्ष्य से जोड़ते हैं। इस लक्ष्य को वैधता देने के लिए समूह, अपने साथ हुए अन्यायों, उपेक्षा, गैर-बराबरी अवसरों की असमानता के तर्कों और प्रमाणों को प्रस्तुत करते हैं। वे अपनी सामुदायिक पहचान को सबसे ऊपर रखते हैं। वे सिद्ध करते हैं कि इस पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए दूसरे समूहों के हितों से टकराव अनिवार्य है। इस समूह के निर्णय ‘साझा हितों की लड़ाई’ के लिए प्रचारित किए जाते हैं, जबकि ये सत्ता और आर्थिक प्रतिष्ठानों पर वर्चस्व के लिए होते हैं। ऐसे समूह जो सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से पीछे छूट जाते हैं, वे सामाजिक न्याय के नाम पर अपने समूह की मांग को जायज ठहराते हैं और दूसरे समूह से अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ने लगते हैं।
इससे दूसरे समूह के रीति-रिवाजों, लोकाचारों के प्रति नकारात्मक और हेय दृष्टि पनपती है। प्राय: अस्मिता की राजनीति की शुरुआत सामाजिक आंदोलनों से होते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप तक पहुंचती है। बाद में राजनीतिक हस्तक्षेप द्वारा बदलाव का लक्ष्य सत्ता पर कब्जा बनाने की लोलुपता में बदल जाता है। ऐसी स्थिति में अस्मिता की लड़ाई को हवा देना और उसे बनाया रखना एक राजनीतिक मजबूरी बन जाती है। इस राजनीतिक मजबूरी का प्रमाण राजनीतिक दलों की जातीय, भाषायी, धार्मिक और क्षेत्रीय संबद्धता में देख सकते हैं। हर सांस्कृतिक समूह में यह राजनीतिक चेतना विकसित हो चुकी है कि शक्ति के केंद्रीकरण और अवसरों की असमानता की खाई को राजनीतिक व्यवस्था पर कब्जा करके पाटा जा सकता है। उनके लिए सत्ता पर कब्जा राज्य के हस्तक्षेप के रास्ते उत्पादन के साधनों पर कब्जा करना है। विडंबना यह है कि समूह विशेष में शक्ति का केंद्रीकरण ‘अन्य’ के लिए अवसरों की असमानता और शोषण के रूप में प्रकट होता है। वे इस असमानता के लिए राज्य की व्यवस्था को उत्तरदायी मानने लगते हैं। इस तरह जिस व्यवस्था को सकारात्मक भेदभाव करते हुए उपेक्षितों और शोषितों का पक्ष लेना था वह उनके विरुद्ध खड़ी हो जाती है।
एक तरह से हमारी राजनीतिक चेतना प्रतिशोधात्मक बनती जा रही है। हर समूह सत्ता प्रतिष्ठानों पर वैसे ही नियंत्रण करना चाहता है जैसे इनके पूर्ववर्तियों ने किया था। तो फिर राजनीतिक चेतना के प्रसार द्वारा लोकतंत्रात्मक मूल्य व्यवस्था- स्वतंत्रता, उदारता, सहिष्णुता और बंधुत्व का क्या? गरीबी, असमानता, विस्थापन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौतियों के समाधान का रास्ता कैसा हो? क्या ये चुनौतियां विविधता के आयाम- धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के सापेक्ष केवल एक राजनीतिक मुद्दा हैं? क्या इन आयामों पर किसी समूह के पीछे रहने का कारण उनकी सांस्कृतिक अस्मिता है या वे सामाजिक-ऐतिहासिक कारण, जो आर्थिक असमानता और राजनीतिक वर्चस्व के लिए उत्तरादायी हैं? ऐसी स्थिति में एक संभावित और सबसे सरल उत्तर है कि इनका समाधान राज्य द्वारा किया जा सकता है। इस उत्तर से उत्साहवर्धक माहौल तो बनता है, लेकिन हमारे रोजमर्रा के आपसी संबंध, जो अपने समूह से भिन्न समूहों से या तो दूरी बनाए हुए हैं या उनके साथ अंत:क्रिया के दौरान संदेह का भाव रखते हैं, उसका क्या? हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं, बल्कि यह एक भाव और अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है। हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं, बल्कि यह एक भाव और अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है।
Date:11-11-18
पी. चिदंबरम
भारत में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति है। 182 मीटर ऊंची इस मूर्ति को चीनी उत्पादों और मजदूरों की मदद से एक भारतीय ने गढ़ा और खड़ा किया है। इसकी अनुमानित लागत तीन हजार करोड़ रुपए है और इस धारणा के विपरीत कि इसके लिए राज्य सरकार ने पैसा दिया है, इसकी लागत का पूरा खर्च सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उपक्रमों ने उठाया है। महात्मा गांधी के सिपहसालार, जीवनपर्यंत कांग्रेसी, जवाहरलाल नेहरू के सहयोगी और प्रखर देशभक्त, और एक रूढ़िवादी राष्ट्रवादी सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति बनने से मैं खुश हूं।
जब तक वे जीवित रहे, उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या करने वाले उन्मादियों को कभी माफ नहीं किया (बतौर गृहमंत्री उन्होंने आरएसएस पर सत्रह महीने का प्रतिबंध भी लगाया था), लेकिन आरएसएस और भाजपा दोनों ने ही पाया है कि इतिहास के इस अध्याय को भूल जाने में ही समझदारी है। हम कुछ पलों के लिए उत्सव मना सकते हैं, पर उस क्षण के बीत जाने के बाद हमें हर हाल में दुनियादारी के मुद्दों पर लौटना चाहिए।
डरावने तथ्य
भारत कुछ अन्य मामलों में भी ‘ऊंचाई’ पर आसीन है। अंतरराष्ट्रीय भुखमरी सूचकांक में भारत एक सौ तीनवें नंबर पर है जो भुखमरी की गंभीर स्थिति की ओर स्पष्ट इशारा है। इस सूचकांक में सिर्फ सोलह देश हमसे ऊपर हैं (मतलब हमसे भी खराब)। लैंगिक असमानता सूचकांक में कुल एक सौ अट्ठासी देशों में भारत का स्थान एक सौ पचीसवां है। आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में एक सौ अस्सी देशों में भारत का स्थान एक सौ तीसवां है। मानव विकास सूचकांक में कुल एक सौ नवासी देशों में हमारा स्थान एक सौ तीसवां है। भारत तीसरे पायदान के देशों में है। प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में एक सौ अस्सी देशों में हमारा स्थान एक सौ अड़तीसवां है। प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत एक सौ अट्ठासी देशों में एक सौ चालीसवें पर है। यहां भी हम सबसे नीचे तीसरे पायदान के देशों में हैं। शिक्षा सूचकांक में स्थिति और बुरी है : कुल एक सौ इक्यानबे देशों में हम एक सौ पैंतालीसवें नंबर पर हैं। हम इस बात से संतुष्ट हो सकते हैं कि अधिकतम एक सौ इक्यानबे देशों में सर्वेक्षणों के बाद बनाए गए किसी भी सूचकांक में हम एक सौ बयासी की ‘ऊंचाई’ पर नहीं पहुंच पाए।
यद्यपि सूचकांक में 103, 125, 130, 138, 140 और 145 पर होना कोई ऐसी संख्या नहीं है, जिसे हम संदेहास्पद आंकड़ों का हवाला देकर हल्के में खारिज कर दें। सूचकांक में हमारा क्रम या स्थिति हमें क्या बताते हैं? यह कि देश की ऊंची वृद्धि दर और आर्थिक क्षेत्र में अच्छी खासी उपलब्धियां और प्रगति भी आबादी के एक खासे बड़े हिस्से को अतिशय गरीबी से बाहर निकाल पाने में विफल रही है। हम इसकी संख्या या आकार पर बहस कर सकते हैं लेकिन अगर इसे बीस फीसद भी माना जाए तो इसका मतलब है कि पच्चीस करोड़ लोग पीछे छूट गए हैं। गरीबी यद्यपि हर धर्म, जाति और समुदाय में है, पर इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि इस पच्चीस करोड़ अति निर्धनों में अधिकतर संख्या दलितों, आदिवासियों, अति पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और दिव्यांगों की है।
अनाड़ी सरकार
सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों ने गरीबी को और बुरी शक्ल दे दी है। हमें स्कूली ढांचे, शिक्षकों और पढ़ाई के तरीकों को लेकर चिंतित होना चाहिए। हम चिकित्सकों, नर्सों, पैरा मेडिकल स्टाफ और तकनीशियनों की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। उदारीकरण के बावजूद, अब भी बहुत सारे नियंत्रण हैं, नियामक ही नियंत्रक बनते जा रहे हैं। दखलंदाजी वाले कानूनों, करों की ऊंची दर, फायदा लेकर अनुचित लाभ पहुंचाना और निरीक्षकों तथा जांचकर्ताओं के पास दंडात्मक शक्तियों- जैसी चीजों के जरिए सरकार की सख्ती ने उद्यमिता को हतोत्साहित किया है। लैंगिक असमानता महिलाओं को अवसरों से वंचित करती है और आर्थिक वृद्धि पर बुरा असर डालती है। मीडिया जगत में भय का माहौल है। ये बुराइयां हमेशा से ही रही हैं, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक माहौल के दिनोंदिन बेहतर और अधिक स्वतंत्र होते जाने के बजाय ये चार वर्ष बढ़ती असहिष्णुता, कानून का डर खत्म होने, भीड़ की हिंसा, भय और घृणा के प्रसार के साक्षी रहे हैं- और सरकार तमाशबीन है।
सबसे बड़ी निराशा संसद और विधायिका के चलने- या कहें कि न चलने- को लेकर है। संसद के प्रति कार्यपालिका का बर्ताव तिरस्कार का है। नतीजे में कार्यपालिका की ज्यादतियां और अकर्मण्यता दोनों ही भरपूर बढ़ी हैं। इस विधायी-प्रशासकीय शून्यता को भरने के लिए अदालत आगे आई और उसने न्यायपालिका के प्राधिकार को खासा विस्तारित कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्त अर्थव्यवस्था और सुव्यवस्थित बाजार में भरोसा कम ही है। मेरी राय में उदारवाद की सुई घड़ी के तीन बजे पर पहुंचा दी गई है और शायद इसे बारह बजे तक भी पहुंचा दिया जाए। इसमें घाटे में अर्थव्यवस्था रहेगी लेकिन इससे भी ज्यादा घाटा पीछे छूट गए उन लोगों का होगा जो अब काफी पीछे रहेंगे। एक आंकड़ा आंख खोलने वाला है : इस देश में औसत मासिक घरेलू आय 16480 रुपए है। आप उन परिवारों की गरीबी और दुर्दशा की कल्पना कर सकते हैं, जो इस औसत आंकड़े से नीचे या अत्यधिक नीचे हैं।
ताकि हम उन्हें भूल न जाएं
यह बहस पुरानी है कि सरकारी संसाधनों पर पहला अधिकार किसका है। धर्म, जाति, लिंग या दिव्यांगता के आधार पर दावे किए जाते हैं। मेरी राय में, इनमें कोई भी प्रासंगिक नहीं है। सरकार के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार उस बीस फीसद आबादी का है जो पीछे छूट गई है।गरीबी, जिसे कि हम सामान्य अर्थ में समझते हैं, आय की गरीबी है; यद्यपि आय की यह गरीबी-भोजन, आवास, पानी, रोजगार, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य- व तमाम अन्य वंचनाओं का भी कारण बनती है। इससे आगे, जब तक सबसे नीचे के बीस फीसद लोगों के पास पर्याप्त आमदनी नहीं होती, वे प्रतिकूल सामाजिक और राजनीतिक माहौल के शिकार बने रहेंगे। इसलिए, हमें सरकार या शासन प्रणाली पर नए सिरे से विचार करना होगा, बजट बनाने के सिद्धांतों को पुनर्लेखित करना होगा और उस माडल तथा प्रणाली को बदलना होगा जिसके जरिए सरकार अपनी योजनाओं के लाभ लोगों तक पहुंचाती है। ‘पीछे छूट गए लोग’ पिछले चार साल में सरकार के कुशासन से पूरी तरह उकता गए हैं और फिलहाल घटित हो रही चीजों और वादों से भौंचक्के हैं- भव्य मंदिर का निर्माण, शहरों के नाम बदलना और नई योजनाओं का एलान जिनके पास न पर्याप्त बजट है न फंड। किसी भी वादे का असली इम्तहान यह है कि वह पिरामिड में सबसे नीचे के लोगों के जीवन में क्या बदलाव ला सकती है।
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नवोन्मेष ही उच्च शिक्षा की कुंजी है
Date:13-11-18 To Download Click Here.
विश्व के बदलते परिदृश्य के अनुसार उच्च शिक्षा को भी समय की मांग के अनुकूल बनाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। भारत में उच्च शिक्षा के लिए यह सुनहरा अवसर है, जब वह अपने ज्ञान को विस्तार देकर एवं मानव, मशीन और जलवायु में संतुलन स्थापित करने वाली शिक्षा को अपनाकर अपने समकक्षों से आगे निकल सकता है।
मानव और मशीन का साथ तो सदियों पुराना रहा है। परन्तु आज के संदर्भ में वे संज्ञानात्मक स्तर पर बराबरी करते नजर आते जा रहे हैं। उनके बीच का अंतर धूमिल होता जा रहा है। वर्तमान स्थितियों में भारत के लिए कई प्रकार की चुनौतियां हैं, जिनका सार्थक समाधान उच्च शिक्षा के माध्यम से ढूंढा जा सकता है। हमारे पास युवा वर्ग की अपार शक्ति है। इसको रोजगार दे पाना एक चुनौती है। यह काम तब और भी मुश्किल हो जाता है, जब मशीनें मानव का विकल्प बनती जा रही हों। दूसरी ओर, जलवायु परिवर्तन के कारण वायु, जल और मृदा पर संकट बढ़ता जा रहा है।
इन स्थितियों में हम आने वाली पीढ़ी को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कैसे तैयार कर सकते हैं ?
वर्तमान स्थितियों से निपटने के लिए शिक्षा को एक ऐसा नया दृष्टिकोण देने की आवश्यकता होगी, जिसमें तकनीक, मानवता और नैतिकता का समन्वय हो। वह विचारों और कार्यप्रणाली में तादात्म्य स्थापित करने वाली हो।
भारत के उच्च शिक्षा संस्थान अपने स्नातकों को नौकरी या व्यवसाय के लिए तैयार करते हैं। विश्व में किसी व्यक्ति के जीवनकाल में छः बार व्यवसाय बदलने या अपने को नए कौशल में ढालने की उम्मीद की जाती है। ऐसे में भारत की उच्च शिक्षा की सोच बहुत सीमित लगती है। वर्तमान दौर में लिबरल आर्टस् को बहुत महत्व दिया जा रहा है, परन्तु इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। इसमें न तो लचीलापन है, और न ही तकनीक के साथ समन्वय स्थापित करने की क्षमता।
उच्च शिक्षा का उद्देश्य युवाओं को केवल करियर के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए तैयार करना होना चाहिए। आज जब पूरे विश्व में लोगों के पास समय की कमी होती जा रही है, और आपस के संबंधों में तेजी से बदलाव आ रहा है; ऐसे में विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा मिले कि वे अपने अंदर झांककर देखने की फुर्सत पा सकें। वे अपने जीवन के उद्देश्य को समझ सकें, समाज में अपनी भूमिका को जान सकें, और यह निश्चित कर सकें कि उनके विचारों और कामों का विश्व पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उन्हें ऐसी नैतिक चुनौतियों से जूझना सिखाया जाना चाहिए, जो आने वाले समय में अपरिहार्य होंगी।
एक उच्च शिक्षा संस्थान ऐसी शिक्षा कैसे प्रदान कर सकता है ?
अगर ऐसी शिक्षा को पाठ्यक्रम में विभाजित किया जाता है, तो आधार पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को सोचने और अभिव्यक्ति की शक्ति दी जानी चाहिए। ऐसी पहल समाज विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, मानविकी, कला एवं साहित्य के विषयों से की जानी चाहिए। कोर पाठ्यक्रम में जीवन के लिए कौशल विकास, नैतिकता पर आधारित तर्क-वितर्क, डाटा-विज्ञान, डिजाइन थिंकिंग एवं प्रभावशाली संप्रेषण आदि होना चाहिए। संकेन्द्रित पाठ्यक्रम में विषय से संबंधित विस्तृत अध्ययन के साथ वास्तविक जीवन में आने वाली समस्याओं से निपटना सिखाया जाए। अलग-अलग क्षेत्रों में गहन शोध को बढ़ावा देकर उन पर सम्पूर्ण दृष्टि से विचार किया जाए। इससे ज्ञान को निरंतर प्रवाह मिलेगा। शिक्षा के साथ अनुसंधान को जोड़कर उसे प्रासंगिक बनाया जा सकेगा।
क्या भारतीय उच्च शिक्षा वास्तव में विश्व पर राज कर सकती है ?
इसके लिए अलग-अलग क्षेत्रों को आपस में जोड़कर चलने वाली शिक्षा पद्धति को अपनाना होगा। सरकार ने उत्कृष्ट संस्थानों को चुनने का जो अभियान चलाया है, वह प्रशंसनीय है। परन्तु चयनित छः संस्थानों तक ही कार्य रुकना नहीं चाहिए। इन संस्थानों को आगामी दस वर्षों में विश्व के सर्वोत्तम 500 संस्थानों में अपना स्थान बनाने से परे भी सोचना होगा। इसके लिए संस्थानों को नवोन्मेष पर ध्यान देना होगा। सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा संस्थानों के नियमन में लचीलापन रखे। ऐसा करके बहुत से संस्थानों को नवोन्मेषोन्मुखी बनाया जा सकेगा।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित कपिल विश्वनाथन के लेख पर आधारित। 6 अक्टूबर, 2018
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