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26-09-2019 (Important News Clippings)

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26-09-2019 (Important News Clippings)

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Date:26-09-19

Greta’s Revolt

It is time to come to grips with climate change, for our children’s sake

TOI Editorials

You might want to call Greta Thunberg, teenage climate activist, a world-historical figure. A short address by her was a highlight of the UN climate summit this week. “How dare you,” she asked assembled country heads, in the context of their inaction on climate change. Her rage encapsulates one of the prisms through which climate change is viewed, the need to avoid burdening the next generation with an intractable problem. Economic cycles and threat of conflict are indeed serious and immediate problems. But global warming caused by human activity is by far the world’s most impactful collective long-term problem. Tackling it needs special efforts.

Despite naysayers, the science on climate change reflects wide consensus and is the outcome of extensive collaboration. An IPCC special report last year observed that human activities are estimated to already have caused 1°C of global warming above pre-industrial levels. Its impact has begun to show up as an increase in the intensity and frequency of extreme events. In India, it is visible in the pattern of rainfall. If the evidence is overwhelming and countries are willing to set themselves national targets to limit emissions, why is international coordination on the issue difficult to achieve ?

Mitigation efforts, which address the causes, do have an immediate economic cost. The trade-off is tricky and everybody is not on the same page about how much price they want to pay in the present to save the world in the future. Moreover, the industrialised world appears unwilling to accept differentiated responsibilities for which, however, there is a scientific reason. Anthropogenic global warming is on account of both past and current emissions. Therefore, the responsibility of the industrialised world, which is also better endowed in terms of resources and technology for mitigation, is greater.

Even if it is challenging to arrive at a consensus on assigning responsibilities among countries for mitigation, a lot more cooperation is possible in another area. The adverse impact of climate change shows up periodically in all countries. Low income countries need help in adaptation, or ways to address the impact. This is an area where countries which make up a forum such as G20 should do a lot more. All country heads owe it to their youth to take a constructive approach. To quote Thunberg: “If you choose to fail us, I say we will never forgive you.”


Date:26-09-19

सोशल मीडिया पर सरकारी नकेल के अलावा चारा नहीं

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सोशल मीडिया के लिए गाइडलाइन्स तय करने के सख्त निर्देश दिए हैं। किसी भी स्वस्थ प्रजातंत्र में अभिव्यक्ति, चाहे वह किसी भी तकनीकी के जरिये हो, पर सरकार का अंकुश, दुखद स्थिति का संकेत होता है। संविधान निर्माताओं ने यह स्वतंत्रता हर नागरिक को दी थी लेकिन केवल चार निर्बंधों (रेस्ट्रिक्शन्स) के साथ। लेकिन संविधान अंगीकार करने के डेढ़ साल बाद ही तत्कालीन नेहरू सरकार ने तीन और ‘युक्तियुक्त’ निर्बंध जोड़ दिए। आठवां और अंतिम निर्बंध चीन से युद्ध के बाद जोड़ा गया। सोशल मीडिया गरीबों और ‘बेआवाज’ लोगों को सहज आवाज देने का टेक्नोलॉजी का अद्भुत वरदान है, लेकिन आज सोशल मीडिया को जिस गैर-जिम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि सरकारी गाइडलाइन्स के अलावा कोई और विकल्प संभव नहीं है। भारतीय समाज की तर्क-शक्ति अभी भी क्षीण है। अक्सर तर्क और वैज्ञानिक सोच पर भावना भारी पड़ जाती है। असम में सोशल मीडिया पर इलाके में बच्चा चोरों की मौजूदगी की अफवाह फैलाई गई और उग्र भीड़ ने दो युवकों पीट-पीटकर मार डाला। हर रोज दर्जनों खबरें आ रही हैं कि युवती से न केवल दुष्कर्म किया गया बल्कि उसका वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया में वायरल करने की धमकी देकर सालों उसका शारीरिक शोषण किया जाता रहा। सहज में उपलब्ध पोर्न साइटों को देखकर और शराब पीकर तीन साल की बच्ची से दुष्कर्म इसका खतरनाक पहलू बनता जा रहा है। हिमाकत यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जज भी सोशल मीडिया पर इस तरह की घटिया टिप्पणी के शिकार होने लगे हैं। कोई भी सभ्य समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। बेहतर विकल्प तो यह होता कि सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म स्वयं ही आगे आते, लेकिन तमाम चेतावनियों के बावजूद वे विषय-वस्तु पर अंकुश नहीं लगा पाए हैं। फेसबुक और वॉट्सएप पर जिस तरह किसी के खिलाफ ‘ट्रोलिंग’ और दुष्प्रचार किए जा रहे हैं वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विद्रूप चेहरा है। भारतीय समाज को सही तर्क-शक्ति और वैज्ञानिक सोच के साथ कानून का सम्मान करने की आदत डालनी होगी। सोशल मीडिया को आधार से जोड़ने की कोर्ट की सलाह का खतरा यह है कि दोषी की पहचान तो हो जाएगी, लेकिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद का भी सरकार को पता रहेगा जो डरावना होगा।


Date:26-09-19

ये छह कदम दे सकते हैं 10 फीसदी वृद्धि दर

नियंत्रण घटाने के साथ अचानक नीतिगत बदलावों के खिलाफ निवेशक को सुरक्षा देनी होगी

चेतन भगत , अंग्रेजी के उपन्यासकार

मौजूदा सरकार के लिए 10 फीसदी जीडीपी वृद्धि ठीक बेंचमार्क है, जो स्थिर है, सहयोगियों पर निर्भर नहीं है और यह उसका दूसरा कार्यकाल है। यदि वामपंथी झुकाव वाली और गठबंधन की सारी मजबूरियों व घोटालों वाली यूपीए सरकार 8 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर्ज कर सकती है तो छठे वर्ष में चल रही इस सरकार से 10 फीसदी की उम्मीद गैर-वाजिब नहीं है। हालांकि, इस वक्त हम 5 फीसदी वृद्धि के आसपास हैं। अब वक्त 10 फीसदी की दर कैसे हासिल हो, इस पर फोकस करने का है।

बुनियादी ढांचे में भारी निवेश जैसे लंबी अवधि के कदम अंतत: जीडीपी वृद्धि देंगे। हालांकि, यहां हम जल्दी और आसानी से अमल में लाने वाले ऐसे कदमों पर फोकस करेंगे, जो तेजी से हमारी वृद्धि दर बढ़ा सकते हैं। इनमें से कुछ कदमों के तहत हमें नियंत्रण छोड़ना होगा, जिसे हमारे नेता और नौकरशाह पसंद नहीं करते। लेकिन, कोई भी प्रमुख देश निजी क्षेत्र को कुछ ढील दिए बगैर 10 फीसदी की दर से नहीं बढ़ा है। आप पतंग उड़ाएं तो डोर से पतंग को नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन, यदि आप चाहते हैं कि पतंग ऊंची उड़े तो डोर को कुछ ढील देनी पड़ती है। भारत का मौजूदा 2019 का जीडीपी करीब 3 लाख करोड़ डॉलर (सरलता के लिए मोटा आंकड़ा लिया है) रहने की अपेक्षा है। 10 फीसदी की दर के लिए 300 अरब डॉलर की आर्थिक गतिविधियों की और आवश्यकता होगी। चूंकि हम पहले ही 5 फीसदी पर हैं और अतिरिक्त 5 फीसदी करीब 150 अरब डॉलर है। अतिरिक्त 150 अरब डॉलर का मतलब है देश भर में प्रतिदिन 40 करोड़ डॉलर या करीब 3,000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियां। पेश है छह व्यावहारिक कदम, जो 10 फीसदी वृद्धि दर देंगे।

1. रियल एस्टेट : यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियों व उपभोक्ता के मनोभाव को संचालित करता है। शायद दशकों में पहली बार रियल एस्टेट की कीमतें 5 साल से स्थिर हैं। इसका हल यह है अ) दूसरी संपत्तियों से अपेक्षित किराया (डिम्ड रेंट) हटाकर (क्योंकि यह तो वैसा ही हुआ कि नकदी पड़ी हो तो अपेक्षित ब्याज पर टैक्स वसूला जाए) ब) स्टैम्प ड्यूटी में भारी कटौती (राज्यों को इसकी भरपाई करनी होगी) स) सरकार को भी बड़े पैमाने पर अपनी बेशकीमती जमीन बेचकर पैसा खड़ा करना होगा।

2. कृषि : भारत में खेती को बढ़ावा दिए बगैर वृद्धि दर बढ़ाना कठिन है। यहां ज्यादातर बुनियादी ढांचे पर केंद्रित दीर्घावधि समाधान हैं। हालांकि, जल्दी किया जा सकने वाला एक समाधान है- मेडिकल मारिजुआना (भांग) को वैधता प्रदान करना। यह दुनिया में अरबों डॉलर का उद्योग हो चुकी है। यह भारतीय संस्कृति की पहले ही अंग रही है और कृषि प्रधान देश होने के बाद भी इस क्षेत्र में दुनिया में आई उछाल से हम वंचित हैं। वैसे भी बीस साल बाद दुनिया की राह चलकर हमें इसे वैधता देनी ही होगी। फिर अभी क्यों नहीं? बेशक, किसी भी मादक पदार्थ की तरह इसके लिए एक सुविचारित नियामक नीति बनानी होगी।

3. विनिवेश : सरकार विनिवेश की बात करती रहती है लेकिन, यह लक्ष्य अर्जित नहीं कर पाती, क्योंकि बिक्री में बहुत वक्त लगता है। बेहतर तरीका यह हो सकता है कि जैसे 20 सार्वजनिक इकाइयों को एक फंड या डायवेस्टको जैसी होल्डिंग कंपनी में एकीकृत करें। फिर निवेशकों को आकर्षित करने के लिए डायवेस्टको के शेयर काफी डिस्काउंट पर बेचें। इससे एक बार में ही सारी कंपनियां बेचकर हम बड़े सिरदर्द से बच जाएंगे।

4. कस्टम्स : भारतीय कस्टम ड्यूटी जिस तरह काम करती है उसमें कुछ गड़बड़ है। ड्यूटी में तो कोई बात नहीं है पर हमारे एयरपोर्ट-बंदरगाहों पर आयात-निर्यात में होने वाली देर से देश अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में टिकने लायक नहीं रहता। यदि तीव्र गति से बढ़ना है तो हमें यह दिक्कत दूर करनी होगी। सरल, एकसमान कस्टम्स ड्यूटी समाधान हो सकता है? जांच की मौजूदा प्रक्रिया को देखते हुए और भी काम करने की जरूरत है लेकिन, तय है कि यह हमारी आर्थिक वृद्धि को रोक रही है।

5. वित्तीय सुधार : कॉर्पोरेट टैक्स घटाना स्वागतयोग्य पहल है। कुछ और कदम जरूरी है। लॉन्ग टर्म कैपिटल गैन्स टैक्स हटाना चाहिए। रुपया पूर्ण परिवर्तनीयता की ओर जाना चाहिए। लोगों की वैश्विक आमदनी पर कर न लगाने पर भी सरकार विचार कर सकती है। यह कम से कम दस साल के लिए किया जा सकता है। इसमें राजस्व हानि सीमित होगी (क्योंकि विदेशी करों के भुगतान पर वैसे भी क्रेडिट मिलता है)। लेकिन, वैश्विक निवेशक और कंपनियां भारत की ओर आकर्षित होंगी, जिनकी बहुत जरूरत है अौर जो इस वक्त हमसे दूर चले गए हैं।

6. इन्वेस्टर प्रोटेक्शन बिल : हमें यह समझना होगा कि निवेशक भविष्य का अनुमान लगाकर निवेश करते हैं। कल्पना करें कि दस साल की टैक्स दरों व अन्य लागतों का अनुमान लगाकर फाइनेंशियल मॉडल बनाया गया है। जब सरकार अचानक दरें बदलती हैं, तो यह मॉडल बिगड़ जाता है। हमें ऐसा कानून चाहिए जो यह सुनिश्चित करे कि अचानक, अस्थायी और बार-बार ऐसे नीतिगत व कर संबंधी बदलाव न हो सकें, जो भारतीय बिज़नेस के खिलाफ हों। ये जल्दी उठाए जा सकने वाले उपाय हैं। अंततः हमें बढ़ती अर्थव्यवस्था को ठोस आधार देने के लंबी अवधि के कदम उठाने होंगे। बुनियादी ढांचा अकेला सबसे बड़ा क्षेत्र है, जहां सरकार बहुत कुछ कर सकती है- बेहतर सड़कें, बंदरगाह, विमानतल, सेलफोन नेटवर्क, बिजली व पानी की उपलब्धता। भारतीय बुनियादी ढांचे में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अब भी लंबा रास्ता तय करना है।

आखिरकार, इतिहास जब भारत के मौजूदा दौर का आकलन करेगा तो आर्थिक वृद्धि बहुत बड़ा मानक होगा। जरूरत से ज्यादा नकारात्मक बातें, जीडीपी के आंकड़ें का बहुत ज्यादा राजनीतिकरण और पराजयवादी रवैया हमें कहीं नहीं ले जाएगा और न जरूरत से ज्यादा नियंत्रण। ‘अब तक की सर्वाधिक टैक्स वसूली’ जैसी सुर्खियों की बजाय अब हमें ‘अब तक की सर्वाधिक ऊंची जीडीपी दर’ जैसी सुर्खियों की हसरत रखनी चाहिए! सकारात्मक बने रहें, रणनीतिक ढंग से सोचें और वह सब करें जो 10 फीसदी जीडीपी वृद्धि दर के लिए जरूरी हो। यह भारत का वक्त है। आइए, इसे साकार करें।


Date:26-09-19

विकास का संकट समझें, फिर योजनाओं की आलोचना करें

खेती और ग्रामीण भारत पर दबाव घटाना स्किल इंडिया व मेक इन इंडिया का उद्देश्य

एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

दुनिया के मशहूर अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ़्राइड 1972 में चीन की यात्रा पर गए और देखा कि सैकड़ों श्रमिक फावड़ों से नहर खोद रहे हैं। उन्होंने पूछा, ‘ये लोग फावड़े से जमीन की खुदाई क्यों कर रहे हैं, जबकि यह काम जेसीबी से कम खर्च में तेज़ी से हो सकता है?’ चीनी अधिकारी ने जवाब दिया, ‘दरअसल यह सरकार के रोजगार दिलाने के कार्यक्रम के तहत हो रहा है’। इस पर अर्थशास्त्री की त्वरित सलाह थी, ‘तब तो फावड़े की जगह चम्मच से खुदाई बेहतर होती, ज्यादा रोजगार पैदा होता’।

यह सही है कि एक बड़ा वर्ग ‘वन्दे मातरम’ न कहने पर, गाय के नाम पर ‘भीड़ न्याय’ में या बच्चा चोर के नाम पर पिटाई को ही नया राष्ट्रवाद समझ रहा है। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि एक अन्य वर्ग ‘मोदी-इफेक्ट’ से इतना प्रभावित है कि वह जहां भी है, स्थिति को बेहतर करने में लगा है। मोदी-2 में भारत सरकार के सचिवों की पहली बैठक (विगत जून 10) में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पशुपालन को वरीयता देने की बात पर बल दिया, क्योंकि देश का विकास वगैर कृषि को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाए संभव नहीं है। किसान केवल अनाज पैदा करके अलाभकर खेती ही करता रहेगा, जब तक कि साथ में दुग्ध, मत्स्य , कुक्कुट या अन्य व्यवसाय शुरू नहीं करता। देश की 68 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है और लगभग 55 करोड़ लोग कृषि श्रमिक हैं। खेती अलाभकर इसलिए है कि अगर एक हेक्टेयर (लगभग 2.5 एकड़) खेती में गेहूं की फसल की कटाई, थ्रेशिंग कराकर अनाज घर तक लाना हो तो हार्वेस्टर से यह काम 4000 रुपए और तीन घंटे में हो जाएगा, लेकिन अगर मजदूर लगाकर करना हो तो चार गुने से ज्यादा खर्च और करीब चार दिन लगेंगे। कृषि मंत्रालय के अर्थ एवं सांख्यिकी निदेशालय की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार कपास की खेती में मजदूरी, कुल उत्पादन-व्यय (58031 रुपए प्रति हेक्टेयर) का करीब 70 प्रतिशत होता है। तीसरी दिक्कत है किसानों के खेती के तौर-तरीकों में बदलाव के प्रति आदतन विरोध या उदासीनता। लिहाज़ा इतने खर्च के बाद भी गेहूं का औसत उत्पादन 34 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है यानी जिन लगभग तीन करोड़ हेक्टेयर में इसकी खेती हर साल होती है उसमें चरम औसत उत्पादन 10.20 करोड़ टन का हुआ। चीन और अमेरिका इससे कम क्षेत्र में 20 करोड़ टन उत्पादन करते हैं और लागत काफी कम रहती है। यही कारण है भारत को प्रतिस्पर्धा में दिक्कत आ रही है।

मोदी की स्कीमों की खूबी समझें: अब इसे समझने के लिए कोई आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि खेती का पूर्ण मशीनीकरण करते हुए मजदूरों और ग्रामीण युवाओं को गैर-खेती रोजगार में लगाना होगा ताकि ग्रामीण भारत और कृषि पर कम दबाव रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे अपने मुख्यमंत्रित्व काल में हीं समझ लिया था। लिहाज़ा स्किल इंडिया शुरू किया गया और इसके पूरक के रूप में मेक-इन-इंडिया या छोटे उद्योगों की तमाम योजनाएं शुरू कीं। ताकि उद्यमियों को ड्राइवर, फिटर, टर्नर ही नहीं कम्प्यूटर की औसत ज्ञान वाला युवा भी आसानी से मिल जाए।

एक अन्य तथ्य पर गौर करें। देश दुनिया में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है और आज इस उद्योग की कुल आय करीब साढ़े छह लाख करोड़ रुपए यानी गेहूं और चावल के कुल उत्पादन के मूल्य से ज्यादा है और इसी तरह मछली का उत्पादन भी एक लाख करोड़ रुपए का हो गया है यानी अगर किसान खेती के साथ दूध-व्यापार में और मत्स्य पालन में लगे तो उसकी आय दूनी हो सकती है, लेकिन यहां भी वही दिक्कत है। दुग्ध व्यापार 7-12 प्रतिशत विकास दर से हर साल बढ़ रहा है, लेकिन भारत के मवेशी 1805 लीटर दूध प्रति वर्ष देते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय औसत 2310 लीटर और इजराइल आदि में गायें सात गुना अधिक दूध देती हैं। तीसरा दूध के व्यापार अभी भी संगठित क्षेत्र में कम होने के कारण दूध बर्बाद हो जाता है। वहीं अमेरिका और न्यूजीलैंड बड़े पैमाने पर पाउडर दूध बनाकर विश्व-बाजार को बिगाड़ देते हैं और मनचाही कीमत लेते हैं। भारत में चार करोड़ गायें 7.60 करोड़ टन दूध हर साल देती है, जबकि अमेरिका में दो करोड़ गायें 16 करोड़ टन यानी वही उत्पादकता की समस्या जो केवल ‘माता’ मानने से नहीं नस्ल सुधारने से व बीमारी-मुक्त करने से होगा।

देश के वैज्ञानिकों में एक उत्साह है पर उनके नए शोध को जमीन पर अमल में लाना राज्य अभिकरणों का काम है। गन्ने की नई किस्म सीओ-0238 जो भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के डॉक्टर बक्सी राम ने विकसित की वह उत्तरप्रदेश में गन्ना किसानों व चीनी मिलों के लिए जीवनदयानी बन रही है। इन तथ्यों, मजबूरियों और योजनाओं के मद्देनज़र ही यह देखना होगा कि मोदी-2 में कितना विकास हो सका है या होगा।


Date:26-09-19

बच्चों को मशीनी युग के अनुरूप शिक्षण जरूर

भारत झुनझुनवाला , ( लेखक आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं )

चीन के सबसे अमीर व्यक्ति जैक मा ने कुछ समय पहले विश्व आर्थिक मंच पर कहा था कि आर्थिक तरक्की जारी रखने के लिए हमें अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देने होगी कि वे मशीनों से मुकाबला कर सकें। उनके मुताबिक शिक्षा में सुधार इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। शिक्षा में सुधार को लेकर भारत को इसलिए अधिक सक्रियता दिखाने की जरूरत है, क्योंकि उसके जरिये ही आर्थिक रूप से सशक्त हुआ जा सकता है। एक अर्से से यह दिख रहा है कि सरकारी और निजी स्कूलों के शिक्षकों के वेतन में अंतर के बावजूद सरकारी विद्यालयों के परिणाम कमतर हैं।

इस वर्ष उत्तर प्रदेश बोर्ड के हाईस्कूल की 21 छात्रों की मेरिट लिस्ट में एवं 12 वीं की 14 छात्रों की मेरिट लिस्ट में एक भी छात्र सरकारी विद्यालय से नहीं था। इसी तरह दिल्ली में दसवीं के रिजल्ट में सरकारी विद्यालयों में 72 प्रतिशत छात्र पास हुए, जबकि निजी विद्यालयों में 93 प्रतिशत। 2016-17 में उार प्रदेश सरकार द्वारा प्राइमरी एवं सेकेंडरी शिक्षा पर 25,000 रु. प्रति छात्र खर्च किया जा रहा था, जो 2019-20 में लगभग 30,000 रुपये होगा।

एक रपट के तहत बिहार के नौ जिलों में 4.3 लाख और झारखंड में 7.6 लाख फर्जी एडमिशन सरकारी विद्यालयों में पाए गए, क्योंकि इन दाखिलों के माध्यम से मध्यान्ह भोजन जैसी सुविधाओं का बजट बढ़ जाता है। यदि फर्जी छात्रों को हटा दिया जाए तो प्रति छात्र सरकारी खर्च 40,000 रु. पड़ सकता है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार 2014 में लगभग 64 प्रतिशत छात्र सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे थे। आज शायद उनकी संया 55 प्रतिशत हो। यदि सभी छात्रों को शामिल कर लिया जाए तो सरकार 22,000 रु. प्रति छात्र प्रति वर्ष खर्च कर रही है चाहे वह सरकारी में पढ़ रहा हो अथवा निजी स्कूल में। यदि इसमें से आधी रकम यानी 11,000 रुपये प्रति वर्ष सभी छात्रों को यूनिवर्सल वाउचर के माध्यम से वितरित कर दिए जाएं तो प्रत्येक छात्र को लगभग 1,000 रुपये प्रति माह मिल जाएगा।

सरकारी शिक्षा तंत्र में लगभग 90 प्रतिशत खर्च शिक्षकों के वेतन में लगता है। इन वाउचर से छात्र अपने मनचाहे स्कूल की फीस अदा कर सकेंगे और सहज ही हमारे छात्रों की शिक्षा में सुधार हो जाएगा। नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि 2014 में प्राइवेट स्कूलों की औसत फीस 417 रु. प्रति माह थी। वर्तमान में यह 1000 रु. प्रति माह होगी। वाउचर व्यवस्था लागू होने पर सरकारी स्कूलों के लिए जरूरी होगा कि वे प्राइवेट स्कूलों से प्रतिस्पर्धा में छात्रों को आकर्षित करें जिससे उन्हें वाउचर मिल सकें। इस प्रकार सरकारी विद्यालयों को मजबूरन अपनी कार्यकुशलता में सुधार करना होगा। प्राइवेट स्कूलों को अच्छी फीस मिलेगी और सरकारी स्कूलों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। इससे दोनों में सुधार होगा।

अमेरिका के नेशनल यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में वाउचर से लाई गई प्रतिस्पर्धा के कारण सरकारी स्कूलों में सुधार पाया गया। कोलंबिया में पाया गया कि जिन छात्रों ने वाउचर के माध्यम से प्राइवेट स्कूलों में स्थानांतरण लिया उनका रिजल्ट उाम रहा।

न्यूजीलैंड में पाया गया कि वाउचर व्यवस्था लागू होने के बाद सरकारी विद्यालयों में सुधार हुआ,क्योंकि वे अधिक संया में वाउचर प्राप्त करना चाहते थे। अपने देश में आंध्र प्रदेश में वाउचर व्यवस्था को प्रयोग के रूप में लागू किया गया तो पाया गया कि वाउचर के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों का अंग्रेजी और गणित में रिजल्ट अच्छा था। दिल्ली में पाया गया कि अंग्रेजी में प्रभाव अच्छा था, यद्यपि हिंदी और गणित में प्रभाव नहीं दिखा। लड़कियों की शिक्षा में वाउचर का विशेष लाभ दिखा। इन तमाम अध्ययनों से पता लगता है कि वाउचर की व्यवस्था से प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और शिक्षा में सुधार आता है। वाउचर व्यवस्था का नुकसान मुयत: असमानता को लेकर देखा जाता है। स्वीडन, न्यूजीलैंड, बेल्जियम, अमेरिका इत्यादि देशों में पाया गया कि वाउचर व्यवस्था से समाज के कमजोर वर्ग के छात्र पीछे रह जाते हैं और समृद्ध वर्ग के छात्र वाउचर के साथ अतिरिक्त धन देकर श्रेष्ठतम विद्यालयों में दाखिला ले लेते हैं, लेकिन इन देशों और हमारी परिस्थिति में मौलिक अंतर है। वहां हर छात्र को उसके क्षेत्र के सरकारी विद्यालय में ही दाखिला लेना होता है।

जर्नल आफ इकोनॉमिक लिटरेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वाउचर से आंध्र प्रदेश में शिक्षा के स्तर में कुछ सुधार हुआ, लेकिन सामाजिक समानता पर असर नहीं पड़ा। अपने देश में कमजोर वर्ग के लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजते हैं और समृद्ध वर्ग के लोग निजी विद्यालयों में। इसलिए अपने देश में वाउचर से केवल कमजोर को ऊपर बढऩे में सहायता मिलेगी और उससे समानता स्थापित होगी। सरकारी विद्यालयों के कमजोर रिजल्ट का एक कारण यह बताया जाता है कि उनमें कमजोर वर्ग के छात्र आते हैं। यह बात सही है। इस समस्या का सीधा उपाय यह है कि कमजोर छात्रों को वाउचर देकर उन्हें अच्छे सरकारी अथवा प्राइवेट विद्यालयों में स्थानांतरित कर दिया जाए।

निजीकरण का एक नुकसान यह है कि निजी विद्यालयों में नकल की छूट होती है। अन्य देशों में भी पाया गया कि निजी विद्यालय अपने मानकों को कमकरके अधिक संया में छात्रों को पास कर देते हैं। यह तर्क अपने देश में लागू नहीं होता, क्योकि हमारे यहां सीबीएसई अथवा राज्य बोर्डों द्वारा परीक्षा ली जाती है जो निजी और सरकारी विद्यालयों को सामान परीक्षा व्यवस्था उपल ध कराते हैं। यदि हमें अपने युवाओं को अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में खड़े होने की क्षमता देनी है तो सरकारी शिक्षकों को दिए जाने वाले वेतन में कटौती कर प्रति माह कुछ रकम सीधे सभी छात्रों को दे देना चाहिए, जिससे वे मनचाहे स्कूलों में दाखिला ले सकें। दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के लिए वाउचर की रकम को बढ़ाया जा सकता है जैसे हर छात्र को 1,000 के स्थान पर 2,000 रुपये प्रति माह का वाउचर दिया जा सकता है। इससे दूरस्थ क्षेत्रों में सरकारी अथवा निजी, दोनों प्रकार के विद्यालय चल सकेंगे और वहां के छात्रों को भी उत्तम शिक्षा मिल सकेगी।


Date:26-09-19

मोदी-ब्रांड कूटनीति का जलवा

प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया के विभिन्न् नेताओं से दोस्ताना रिश्ते कायम करना रास आता है। मोदी-स्टाइल की इस कूटनीति के फायदे भी हैं।

कमलेंद्र कंवर , (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)

अमेरिका के ह्यूस्टन में आयोजित ‘हाउडी मोदी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह 50000 अनिवासी भारतीयों के जोशीले समूह के समक्ष अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ मंच साझा करते और आखिर में करीबी दोस्तों की तरह हाथ में हाथ थामे सबका अभिवादन करते नजर आए, उसने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। यह मोदी-स्टाइल की कूटनीति है, जिसका जलवा दुनिया ने एक बार फिर देखा।

उन्होंने अनिवासी भारतीयों के समुदाय के समक्ष अपनी सरकार के कार्यों का जिक्र करने के साथ पड़ोसी देश को आतंकवाद के मुद्दे पर आड़े हाथ तो लिया ही, साथ ही साथ मेजबान राष्ट्रपति ट्रंप की तारीफों के पुल बांधने में भी कंजूसी नहीं की। वे जिस आत्मीय ढंग से अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ घुलते-मिलते नजर आए, वैसा अतीत में किसी भारतीय नेता द्वारा शायद ही किया गया हो। गौरतलब है कि अमेरिका में बसे भारतीय पारंपरिक तौर पर रिपब्लिकंस (जिस पार्टी से ट्रंप आते हैं) के बजाय डेमोके्रट्स के ज्यादा करीब रहे हैं। लिहाजा इस आयोजन में ट्रंप की शिरकत की एक वजह यह भी हो सकती है कि वह 2020 में होने वाले आगामी राष्ट्रपति चुनाव के लिए मोदी के करिश्मे का इस्तेमाल करते हुए अनिवासी भारतीय समुदाय को लुभाना चाहते हों।

बहरहाल, यह तो कहना होगा कि मोदी ने दुनिया के विभिन्न् नेताओं के साथ जिस तरह व्यक्तिगत रिश्ते बनाए हैं, उसका आज के दौर में कोई सानी नहीं। चाहे यह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन हों या चीन के राष्ट्र-प्रमुख शी जिनपिंग अथवा जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे या फिर वैश्विक नेताओं की बाकी जमात, मोदी भलीभांति जानते हैं कि कैसे उनके साथ दोस्ताना कायम किया जाए।

प्रधानमंत्री मोदी को अपने इस प्रयासों में पिछले कार्यकाल के दौरान तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी पूरा सहयोग मिला था। अब मौजूदा विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी यही करते नजर आ रहे हैं। जयशंकर शुरुआती जमीन तैयार कर देते हैं, जहां कि मोदी अपने वक्तृत्व कौशल और करिश्मे का इस्तेमाल कर सकें। जयशंकर विदेश सचिव रहे हैं और चीन व अमेरिका में भारतीय राजनयिक के तौर पर भी सेवाएं दे चुके हैं। इस नाते उन्हें कूटनीति का लंबा अनुभव है।

एक ओर मोदी रूस के साथ भारत के रिश्ते सुदृढ़ कर रहे हैं, वहीं अमेरिका के साथ भी दोस्ती गहरी हो रही है। इसके अलावा वे चीन के साथ भी कुछ मुद्दों पर गतिरोध के बावजूद सहजता से दोस्ताना संवाद विकसित करने में कामयाब हैं। यह दर्शाता है कि वैश्विक शक्तियां भी उनके कूटनीतिक कौशल की कायल हैं।

ट्रंप के पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने हिंद-प्रशांत और हिंद महासागरीय क्षेत्र में भारत के साथ एक ‘साझा सामरिक विजन संबंधी समझौता किया था, जिससे चीन बौखला गया था। जबकि यह समझौता सिर्फ खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान, सामुद्रिक निगरानी व समुद्र संबंधी नियम-कायदों का अनुपालन सुनिश्चित करने से जुड़ा था, लेकिन चीन ने इस पर नाखुशी ही जताई। इसके अलावा भारत-अमेरिका परमाणु करार व रक्षा संबंधी सौदों को लेकर भी चीन असहज रहता है। जब ट्रंप सत्ता में आए और उन्होंने चीनी सामग्रियों पर आयात शुल्क बढ़ाने का फैसला किया तो चीन खफा हो गया। ऐसे में भला चीन को भारत-अमेरिका की नजदीकियां कैसे रास आ सकती हैं।

इसके बावजूद भारत की चीन के साथ सद्भावनापूर्ण संवाद की कड़ी कायम है। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज चीन के दौरे पर गईं तो मेजबान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने प्रोटोकॉल को दरकिनार कर उनकी अगवानी करते हुए उनके साथ बैठक की, जबकि वे महज एक मंत्री थीं, न कि राष्ट्राध्यक्ष। उस बैठक के बाद शी जिनपिंग ने यह कहते हुए कई लोगों को आश्चर्य में डाल दिया कि ‘मैं चीन-भारत के रिश्तों के भविष्य को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हूं और मेरा मानना है कि दोनों देशों के आपसी रिश्तों को आगे बढ़ाते हुए वास्तविक प्रगति हासिल होगी।

यहां पर कहना होगा कि जहां मोदी भारत-अमेरिका परमाणु करार के परिप्रेक्ष्य में भारत को अमेरिका के करीब ले जाने में जुटे थे, तो वहीं सुषमा स्वराज चीन और भारत के मध्य सरहद को लेकर लंबे समय से जारी विवाद को सुलझाने की जमीन तैयार करने में जुटी थीं। सकारात्मक नतीजों को निगाह में रखते हुए यह एक सोची-समझी सफल कूटनीति है।

बहरहाल, ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी कार्यक्रम के दौरान मोदी ने यह भांपने में देर नहीं लगाई कि ट्रंप की 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका में बसे भारतीयों के वोट हासिल करने की लालसा को भुनाने के क्या फायदे हो सकते हैं। उन्होंने समझा कि ट्रंप के अहं को तुष्ट करने में हर्ज नहीं। लिहाजा जब मोदी ने इस कार्यक्रम के दौरान यह कहा कि ‘अबकी बार ट्रंप सरकार, तो उस वक्त ट्रंप के चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी।

वर्ष 2016 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप को वहां बसे भारतीयों के कुल मतों में से महज 14 फीसदी मत मिले थे। अब ट्रंप मोदी के प्रति प्रेम दिखाते हुए अनिवासी भारतीय समुदाय का समर्थन हासिल करने की उम्मीद संजोए हैं और शायद यही वजह रही कि उन्होंने अपने संबोधन में मोदी की तारीफों के पुल बांधने में कंजूसी नहीं बरती।

मोदी को दुनिया के नेताओं से दोस्ताना रिश्ते कायम करना रास आता है। इसके फायदे भी हैं। हालिया दौर में एक समय ऐसा भी था जब रूस भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों को देख इससे दूर जाता लग रहा था। लेकिन जिस तरह मोदी रूस का पुन: भारत के लिए समर्थन हासिल करने में कामयाब रहे, वह काबिले-तारीफ है।

गौरतलब है कि अमेरिका के विरोध के बावजूद भारत रूस से एस-400 लड़ाकू विमान के सौदे की राह पर आगे बढ़ा, जिससे रूस को यह भरोसा हुआ कि भारत अमेरिकी दबाव को दरकिनार कर सकता है। मोदी के रूस दौरे से भारत-रूस के रिश्तों में पुन: गर्माहट आई। यह अमेरिकी ऐतराज को तवज्जो न देने की चतुर कूटनीति थी।

भारत के जापान के साथ भी रिश्ते काफी हद तक जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मोदी के निजी ताल्लुकात के जरिए सुदृढ़ हुए। इसी तरह मोदी-नेतन्याहू के दोस्ताने की वजह से भारत-इसराइल के रिश्तों को भी नया आयाम मिला। यही बात भारत-यूएई के रिश्तों के बारे में भी कही जा सकती है, जिन्होंने हालिया वर्षों में सकारात्मक मोड़ लिया है। यह तब है जबकि पाकिस्तान यूएई का पुराना भरोसेमंद साथी रहा है। यह मोदी की व्यक्तिगत रिश्तों की कूटनीति की सफलता है।

अंत में, भले ही मोदी इस वक्त घरेलू मोर्चे पर कुछ जगह निराश करते लग रहे हों, लेकिन वैश्विक शक्तियों को उन्होंने जिस तरह चतुराईपूर्वक साधा है, वह वाकई उनकी एक बड़ी उपलब्धि है।


Date:25-09-19

एक देश एक कार्ड

संपादकीय

साल 2021 की जनगणना प्रक्रिया अभी शुरू नहीं हुई है, लेकिन यह किस प्रकार से कराई जाए, इसको लेकर विचार-मंथन जरूर चल रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय के नए भवन की आधारशिला रखने के अवसर पर यह कहा कि क्यों न हमारे पास आधार, पासपोर्ट, बैंक खाते, ड्राइविंग लाइसेंस और वोटर कार्ड जैसी सुविधाओं के लिए एक ही कार्ड हो। हालांकि सरकार अभी ऐसे किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही है, लेकिन उन्होंने यह विचार सार्वजनिक रूप से जरूर रख दिया है। पहली नजर में इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसमें सुविधा ही सुविधा है। अगर ये आंकड़े एक ही कार्ड में समाहित हो जाएं, तो अलग-अलग दस्तावेज लेकर चलने की झंझट से मुक्ति मिल जाएगी। साथ ही व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और कई तरह के फर्जीवाड़े पर भी रोक लग सकती है। लेकिन आंकड़े सुरक्षित नहीं रहे, तो इसके दुरुपयोग की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। चूंकि अभी तक ये आंकड़े बिखरे हुए हैं, मगर जब ये एक जगह हो जाएंगे, तो इसका खतरा और बढ़ जाएगा और निजता भी प्रभावित हो सकती है। इसलिए सरकार अगर इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो इन आंकड़ों की गोपनीयता को पुख्ता रखने की व्यवस्था भी करनी होगी। बहरहाल, सरकार द्वारा देश के मानव संसाधन के बारे में पर्याप्त आंकड़े एकत्र करने में कोई बुराई नहीं है। इन आंकड़ों की उपयोगिता खुद गृह मंत्री शाह ने यह कहकर स्वीकार किया कि 2011 की जनगणना के आधार पर मोदी सरकार ने 22 कल्याणकारी योजनाएं बनाई। यह बात समय-समय पर उठती रही है कि हमारी सरकारों के पास अपनी ही आबादी के बारे में पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं। जाहिर है सटीक आंकड़ों के अभाव में देश के विकास के लिए समुचित योजनाएं नहीं बनाई जा सकतीं। यह जरूरी है कि भावी जनगणना के लिए ऐसा तरीका अपनाया जाए, जिससे इसकी उपयोगिता बढ़ सके। ध्यान देने की बात है कि पहली बार जनगणना में मोबाइल एप का उपयोग किया जाने वाला है, जिससे कागज-कलम वाली जनगणना डिजिटल युग में प्रवेश कर जाएगी। अगर वैज्ञानिक तरीके से जनगणना कार्य संपन्न हो जाता है, तो भविष्य में इसका विभिन्न तरीके से राष्ट्र निर्माण में इस्तेमाल हो सकता है। जनता भी इसमें खुलकर भागीदारी करे।


Date:25-09-19

बात नहीं काम

संपादकीय

संयुक्त राष्ट्रसंघ के जलवायु आपदा शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह आह्वान काफी महत्त्वपूर्ण है कि अब उपदेश देने का नहीं काम करने का समय है। वास्तव में जलवायु परिवर्तन जिस तरह भयावह रु प अख्तियार कर रहा है, उसमें धरती के विनष्ट होने का खतरा मौजूद है। बढ़ते तापमान को देखते हुए दुनिया भर के वैज्ञानिक एवं पर्यावरणवादी कार्बन उत्सर्जन कम करने पर जोर दे रहे हैं, क्योंकि इस समय यह उच्चतम स्तर पर है। भारत को इसके पहले क्रम में ही बोलने का स्थान दिया गया था। इस समय प्रधानमंत्री मोदी की बात दुनिया ध्यान से सुनती है और भारत ने पर्यावरण, सतत विकास एवं सबको स्वास्य के संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य में तेज स्वर मिलाया है। प्रधानमंत्री मोदी की बात का महत्त्व इसलिए है, क्योंकि भारत ने पेरिस समझौते के अनुसार कदम उठाने की पूरी कोशिश की है। प्रधानमंत्री ने बताया भी कि भारत गैर-परंपरागत (नॉन फॉसिल) ईधन उत्पादन के लक्ष्य को दोगुने से अधिक बढ़ाकर 2022 तक 450 गीगावाट तक पहुंचाने के संकल्प को पूरा करने पर तेजी से कम कर रहा है। पेरिस जलवायु समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धता का पालन करते हुए भारत 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करेगा। जब मोदी ने कहा कि भारत सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पनबिजली जैसे गैर-परंपरागत ईधन के उत्पादन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाएगा तो चारों ओर तालियां गूंज गई। मोदी को सुनने के लिए कई नेता बिना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के वहां पहुंचे थे, जिनमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी शामिल थे। वास्तव में यह खबर तो सारे नेताओं एवं राजनयिकों को मालूम था कि भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के छत पर सोलर पैनल लगाया है जिसका उद्घाटन होना है। इसका लक्ष्य पर्यावरण संरक्षण का संदेश देना ही है। मोदी का यह कहना भी सही है कि अब इसे कमरे के विमर्श से निकालकर जन आंदोलन बनाना होगा। देशों को आगे आकर उसके लिए कदम उठाने होंगे। इस सरकार के शासनकाल में जितने महत्त्वपूर्ण सड़कें बनी हैं, सब पर पर सोलर पैनल लगाए गए हैं। भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा संगठन बनाया है, जिसमें करीब 90 देश भागीदारी कर रहे हैं। इस तरह भारत कुछ मामलों में धरती का तापमान घटाने के लक्ष्य की दिशा में नेतृत्व की भूमिका भी निभा रहा है। जब हम काम करते हैं तो फिर बोलते समय आत्मविास रहता है और यही मोदी के वक्तव्य में झलकता है।


Date:25-09-19

A New Approach

Awareness campaigns are needed to deal with climate change

Ajay Vir Jakhar , [ The writer is chairman, Bharat Krishak Samaj]

We are delighted that Prime Minister Narendra Modi made an impassioned appeal for the reduction in the use of chemicals in agriculture. Though, in time, the PM will realise it is easier to announce new approaches than to get the agriculture system to embrace the appeal. This does not have to be. Public policy and allocation of funds can play a critical role and change the trajectory. The biggest threat to India is climate change. Many civilisations disappeared and empires have collapsed due to shifting rainfall patterns or prolonged drought.

In the run-up to the climate change summit, these points were raised by the IPCC. Over 100 million hectares in India is in the process of serious degradation, desertification and salinisation. Situated in the tropics, India has witnessed a many-fold increase in extreme weather events since 1950 and will be severely impacted by production variability. Soils are being lost upto 100 times faster than they can form and high temperatures increase the incidence of pests and diseases. These will necessitate using more chemicals on the farm. Without the active participation of stakeholders and aid of indigenous and local knowledge, we cannot address these issues.

These alternative approaches require a paradigm shift towards principles of agroecology and weaning farmers by repurposing subsidies for ecosystem services. This requires a combination of different kinds of crop planting practices, different forms of mechanisation, aggregation and distribution of commodities. It is not easy and the myopic outlook of policymakers discourages them from believing it is feasible. As a society, we are not yet ready to commit to lifestyle trade-offs and more significantly, commoditisation of the food systems will impose stiff barriers in changing the status quo.

The bull run in commodity prices ended by 2013. Since then, food prices have generally remained subdued, instilling a sense of complacency amongst the public and those that influence policy. Consequently, there has been a steady but subtle shift in the narrative from agriculture to food, from yield to sustainability, from productivity to prosperity and from quantity to quality. Policies are being formulated where rather than supporting agriculture production, farmer livelihoods are to be supported by schemes like PM Kisan. Additionally, public funding for research and the subsequent deployment of funds for fundamental research and human resources has reduced in real terms. This is worrying as it comes at a time when scientists are warning of impending challenges in food availability arising from climate change.

Policymakers are blissfully unmindful of their own inadequacies. India’s population will peak in 20 years and wild claims are being made that it will have a problem of 20 per cent surplus production. The recent surge in surpluses are deceiving and too meagre to justify such smug satisfaction. Ironically, decision-makers are simultaneously targeting an increase in food production by 50 per cent by 2050. Sadly, this has become the cornerstone of our national policy and the metric for measuring farmer prosperity. To expect a system that nurtures the problem to transform itself is as ridiculous a notion as “zero budget farming” demonising “organic farming”.

Unrestrained profiteering by agri-businesses is expediting climate change. Starved of funds, the exhausted public research system has taken a similar and easier path to maximise farm yields by monocropping and use of chemicals, encouraging agricultural practices that emit human-induced greenhouse gases. Economists will disagree but farm-gate prices have to rise substantially to account for the real cost of growing food for farmers to change practices and for agriculture to sequester carbon. Present practices extract a heavy environmental footprint, completing a vicious circle that makes agriculture more problematic while agriculture itself also intensifies climate change, compelling yields to be maximised.

As a result, millions of acres of a few cereal crops are planted. This is at variance with conserving biodiversity, which is essential for safeguarding the global commons. Worse, higher yielding seeds are quickly adopted by farmers — now over 80 per cent of most crop production comes from a handful of varieties in each crop type. Additionally, growing ecologically unsuitable crops in particular ecosystems is literally killing the planet. But policymakers are failing to grasp that food systems are breaching a breaking point of unsustainability. Policies on food production are not reflecting the exigency for change.

It’s absolutely essential to invest billions in a decade-long awareness campaign to reduce wastage of food and change consumer behaviour. If not, climate change prophesies will come true.


Date:25-09-19

Climate for action

India’s call for solid steps on climate change must be matched by domestic measures

EDITORIAL

Prime Minister Narendra Modi’s assertive stance on the need for all countries to walk the talk on climate change action is to be welcomed as a signal of India’s own determination to align domestic policy with its international commitments. Mr. Modi’s comments at the UN Climate Action Summit in New York have turned the spotlight on not just the national contributions pledged under the Paris Agreement of the UN Framework Convention on Climate Change (UNFCCC), but also the possibility of India declaring enhanced ambition on cutting greenhouse gas emissions under the pact next year. Several aspects place the country in the unenviable position of having to reconcile conflicting imperatives: along with a declared programme of scaling up electricity from renewable sources to 175 GW by 2022 and even to 450 GW later, there is a parallel emphasis on expanding coal-based generation to meet peaks of demand that cannot be met by solar and wind power. The irony of the Prime Minister telling the international community in Houston that his government had opened up coal mining to 100% foreign direct investment was not lost on climate activists campaigning for a ban on new coal plants and divesting of shares in coal companies. No less challenging is a substantial transition to electric mobility, beginning with commercial and public transport, although it would have multiple benefits, not the least of which is cleaner air and reduced expenditure on oil imports.

Advancing the national climate agenda in the spirit of Mr. Modi’s action-over-words idiom requires the Central government to come up with a strong domestic action plan. The existing internal framework, the National Action Plan on Climate Change (NAPCC) is more than a decade old. It lacks the legal foundation to incorporate the key national commitment under the Paris Agreement: to reduce the emissions intensity of economic growth by a third, by 2030. Without an update to the NAPCC and its mission-mode programmes, and legislation approved by States for new green norms governing buildings, transport, agriculture, water use and so on, it will be impossible to make a case for major climate finance under the UNFCCC. It is equally urgent to arrive at a funding plan for all States to help communities adapt to more frequent climate-linked disasters such as cyclones, floods and droughts. There is, no doubt, wide support for India’s position that it cannot be held responsible for the stock of atmospheric carbon dioxide influencing the climate; even today, per capita emissions remain below the global average. Paradoxically, the country is a victim of climate events on the one hand and a major emitter of GHGs in absolute terms on the other. In New York, Mr. Modi chose to rely on the country’s culture of environmentalism to reassure the international community on its ability to act. In coming years, national actions will have to be demonstrably effective in curbing carbon emissions.


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अर्थव्यवस्था को समझदारी से संभालने का समय

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अर्थव्यवस्था को समझदारी से संभालने का समय

Date:27-09-19

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 हाल ही में ऑटोमोबाइल क्षेत्र से शुरू हुई मंदी का प्रभाव अनेक आर्थिक क्षेत्रों में दिखाई पड़ रहा है। इसके लिए सरकार क्रमशः विभिन्न क्षेत्रों को प्रोत्साहन राशि देकर इनकी स्थिति सुधारने का प्रयत्न कर रही है। डूबती हुई अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने में सरकार का हस्तक्षेप उचित है। परन्तु इसे आखरी दांव की तरह प्रयोग में लाया जाना चाहिए।

रचनात्मक विनाश एक गतिशील अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है। अगर सरकार निजी उद्यमों को इस प्रकार की प्रोत्साहन राशि देती रहेगी, तो ऐसा कदम उन्हें तमाम ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों से अलग कर देगा, जो पहले ही विपत्तियों से गुजर रहे हैं।

बाजार अर्थव्यवस्था में लाभ और हानि ही निवेश का रूख तय करते हैं। हानि होने पर उद्यमियों पर नए तरीकों से अधिक मेहनत और कीमतें कम करने का दबाव पड़ता है। अगर इन सबके बावजूद वे विफल रहते हैं, तो इसका अर्थ है कि निवेश की दिशा को मोड़ने का समय आ गया है। इस अस्थायी प्रक्रिया में सरकार तारणहार की भूमिका निभाती है। वह अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचाने पर काम नहीं करती है।

ऑटो उद्योग के मामले में सरकार द्वारा प्रशस्त बचाव कार्य संदिग्ध हैं। यह ऐसा उद्योग रहा है, जिसे स्वतंत्रता के बाद से ही विदेशी प्रतिस्पर्धा के विरूद्ध संरक्षण मिला है। जब आयात पर उदारीकरण शुरू हुआ था, तब भी आयात की उच्च दर के द्वारा इस उद्योग को बचाए रखा गया। आज भी 40,000 डॉलर से कम की नई कारों पर सीमा शुल्क 60 प्रतिशत, महंगी कारों पर 100 प्रतिशत और सेकंड हैण्ड कारों पर 125 प्रतिशत है।

सरकार की इस नीति ने भारत में छोटे-छोटे ऑटो प्लांट के उदय को प्रोत्साहन दिया है। भारत में पिछले दो दशकों में ऑटो उद्योग ने बहुत कमाई की है। अब मंदी के दौर में उसे अपनी बिक्री के तरीकों की राह स्वयं खोजनी चााहिए। उत्पादकता की समस्या से निपटने के लिए उसे अपने कुछ अकुशल प्लांट बंद कर देने चाहिए। उपभोक्ताओं की कीमत पर आखिर कब तक और कितना लाभ कमाया जाएगा?

प्रथम दृष्टया, इस उद्योग की समस्याएं, पिछले कई वर्षों से चली आ रही सरकार की नीति के फलस्वरूप उपजी हैं। अगर शुरू से ही यह क्षेत्र प्रतिस्पर्धा में खड़ा रहा होता, तो मंदी के इस दौर में आयात बढ़ाकर उद्योग ने अपने को संभाल लिया होता। दुर्भाग्यवश विश्वबाजार में भारतीय ऑटो उद्योग का शेयर मात्र 0.9 प्रतिशत है।

ऑटो क्षेत्र को प्रोत्साहन राशि देने से पहले सरकार को दो महत्वपूर्ण तथ्यों पर विचार करना चाहिए।

  • हानि में चल रहे आर्थिक क्षेत्रों की दुर्दशा को मीडिया में सुर्खियों में रखा जाता है, और ऐसा लगता है कि इन दो-चार सेक्टरों की दुर्दशा से जैसे समस्त अर्थव्यवस्था मंदी में आ गई है। दूसरी ओर देखें, तो मीडिया रिपोर्ट यह भी बताती है कि पिछले छः महीनों में फ्रिज, टी.वी., स्मार्टफोन आदि की बिक्री बढ़ी है।
  • उद्योगों को प्रोत्साहन राशि देने में सरकार को बड़ी दुविधा का सामना करना पड़ सकता है। अगर सरकार इसे राजकोषीय घाटे में लेती है, तो जाहिर है कि वह इसकी भरपाई या तो अनिवार्य व्ययों को छोड़कर करेगी या करदाताओं पर बोझ बढ़ाकर करेगी। अगर वह बाजार में ऋण बढ़ाकर प्रोत्साहन राशि देती है, तो भविष्य के निजी निवेश को कमजोर कर देगी।

निकट अवधि में, सरकार को चाहिए कि वह इस समस्या का समाधान ब्याज और विनिमय दर पर छोड़ दे। लंबे समय में सुधार के लिए,ढांचागत सुधारों की जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में सरकार को अपना शेयर 65 प्रतिशत से घटाकर 49 प्रतिशत या इससे कम कर देना चाहिए। अब सरकार को तेजी से गिरती अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने के लिए प्राथमिकता पर काम करने चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पन्गढ़िया के लेख पर आधारित। 21 अगस्त, 2019

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Life Management:27-09-19

27-09-19 (Daily Audio Lecture)

27-09-2019 (Important News Clippings)

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27-09-2019 (Important News Clippings)

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Date:27-09-19

Modi’s money pitch

To make investors come to India, focus relentlessly on economic competitiveness

TOI Editorials

Prime Minister Narendra Modi has used his current American sojourn to invite foreign investors to come to India, pitching it as a “golden opportunity to partner India” and promising steps to improve its business climate. This is essential, if the PM’s target of a $5 trillion economy by 2024 is to be reached. Domestically, the recent move to cut corporate tax rates suggests that the fear of being labelled a “suit boot ki sarkar” is finally being overcome. It was not so much Rahul Gandhi’s jibe that brought Modi 1.0’s initial attempts to reform India’s onerous land acquisition laws to an abrupt halt, as its intersection with important elements of RSS’s economic ideology – which privileges statism, protectionism and autarky.

The resultant business climate has led to a slowing of growth – UNCTAD projects India’s GDP growth to be 6% this year. The Modi government has ushered in a strong Pakistan policy, which could deliver India from the mud-wrestling pit into which Pakistan had boxed India in the decades since Partition. However, diplomatic heft will not count for much without economic heft, another good reason why Modi 2.0 must deliver a reset.

The steady decline in India’s quarterly growth rate since the beginning of last financial year was preceded by a drop in export intensity of economic growth over a five year period, signalling an erosion of competitiveness. Consequently, opportunities arising out of a shift in manufacturing production lines out of China on account of the US-China trade war have so far bypassed India. In Asia, Vietnam and Bangladesh have been the main beneficiaries.

The recent move to lower corporate tax rates to levels aligned with emerging market peers will not by itself ramp up competitiveness if India’s cost of setting up and operating a business remains high. The way ahead needs clear legislative changes to impart flexibility in areas such as land acquisition and hiring as they influence investment decisions. Red tape is a source of invisible costs. Bureaucratic and regulatory processes need to be made truly investor friendly. GST must be streamlined. Radical educational reforms are needed to unlock the enormous potential of India’s youth. It’s equally important to avoid regressive steps which hold up business such as demonetisation, raid raj, job quotas for locals, or repeating Assam’s disastrous NRC in other states. If Modi 2.0 can create those conditions not only will foreign investors take the PM at his word and flock to India, entrepreneurial animal spirits will be unleashed at home too.


Date:27-09-19

Unclutter the spending

Sachin Jain, [The writer is dean, Bennett University, Greater Noida, UP]

The Government of India has finally done the smart thing by making scientific research eligible for corporate social responsibility (CSR) expenditure. As highlighted by NITI Aayog in its Vision 2030 Report, compared to China’s 2% of GDP expenditure on research and 1,113 research professionals per one million people, India spends only 0.7% of GDP with only 218 research professionals per one million.

While in the US and China, only 30% of spending on research is done by government, the situation in India is the opposite — 75% of spending is done by GoI. The latest change in CSR criteria augurs well, and should spur the National Research Foundation (NRF) to strengthen overall research ecosystem in India by providing much needed non-government funding for research. But CSR still has a huge opportunity to deliver a truly unique model for India.

When CSR regulations were introduced in 2013, India became the first country to mandate specific spends on CSR for all corporate entities based on income, or profit, or net worth criteria.

This was unique when compared to the practices followed in the US, Britain or Europe, where CSR regulations follow a more ‘philosophical’ approach of ‘doing well by doing good’, and is driven through an overall corporate governance framework in which corporates are required to report on specific projects undertaken as socially conscious corporate citizens in the home country and abroad.

With a cumulative amount of approximately Rs 47,000 crore being spent by corporates during the four years since the CSR laws came into force in India (FY 2014-15 to 2017-18), its corporate community deserves a round of applause for spending an average of Rs 12,000 crore every year on diverse social projects across the country. To provide a context, the cumulative CSR spend is about 125% of the central government’s budget for 2019-20 on higher education. The average annual spend on CSR during the these four years has been equivalent to the 2019-20 Budget outlay of Rs 12,600 crore for GoI’s flagship scheme, Swachh Bharat.

With the magnitude of funds being deployed by corporates under CSR, one must relook at the existing CSR provisions. The recent recommendations made by the high-level committee on CSR, including tax deductibility for CSR spends, the carry-forward of unspent balance over 3-5 years, balancing local area preferences with national priorities while identifying CSR projects, exemption for companies below a threshold CSR spend to constitute a CSR committee, etc, will indeed help strengthen the efficacy and effectiveness of CSR spends by focusing on outcomes.

While we are in the process of revisiting the existing CSR regulatory framework, we should also consider the following areas as well that can help improve effectiveness of CSR regulations, besides acting as a dependable partner in India’s socioeconomic growth.

First, ‘size does matter’ for companies to spare financial and human resources towards CSR projects. As per Crisil CSR Yearbook 2019, the bulk of CSR spending — close to 80% — is done by large companies with an annual turnover of Rs 1,500 crore or more.

Interestingly, such large companies constituted approximately 30% of the overall eligible population. Consequently, 70% of currently eligible companies contributed only 20% to annual CSR spending in India.

Taking a cue from this, shouldn’t the eligibility criteria be relaxed to include only companies of a certain size (say, those with Rs 1,500 crore in revenue), while smaller companies are left to grow? On the same lines, aren’t the existing criteria of Rs 500 crore of net worth, or Rs 1,000 crore of revenue, or Rs 5 crore of average profit during the last three years too complicated? Shouldn’t it be simply based on revenues, provided the entity is making profits at profit before tax (PBT) level as per I-T Act during the immediately preceding year? This would be objective and makes sense from the ‘ease of doing business’ perspective.

Similarly, non-charitable trusts and other non-corporate entities of similar size should be brought under the CSR fold. They should also be partners in India’s socioeconomic growth along with their corporate colleagues.

There is no denying the fact that as a country, India has gained tremendously through CSR 1.0, which saw corporates come forward in last 4-5 years to build social infrastructure across India. But with data and spending patterns in front of us, CSR 2.0 can help create a sustainable socioeconomic infrastructure to achieve India’s $5 trillion economy goal based on this government’s principle of minimum government, maximum governance.


Date:27-09-19

धीमी लेकिन सधी शुरुआत

संपादकीय

केंद्र की महत्त्वाकांक्षी स्वास्थ्य सेवा योजना प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) की शुरुआत को एक वर्ष बीत गया है। इस अवधि में योजना ने कुछ प्रभावित करने वाले आंकड़े हासिल किए हैं। सबसे अहम यह कि इस योजना के तहत करीब 50 लाख लोगों को अस्पतालों में उपचार मिला। यदि देश भर के ऐसे संभावित मामलों को ध्यान में न रखें तो यह आंकड़ा बहुत बड़ा है। यह सच है कि समग्र रूप से देखा जाए तो यह आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं है और यह बात इस ओर इशारा करती है कि इस विषय में जन जागरूकता और पहुंच दोनों में सुधार लाना होगा। यह योजना 33 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों समेत देश भर में लागू है। दिल्ली, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना जैसे कुछ ही विपक्ष शासित राज्य ऐसे हैं जहां यह योजना लागू नहीं है। एक बात यह भी है कि अपेक्षाकृत अमीर राज्यों में दावों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। गुजरात में अब तक पीएमजेएवाई योजना के अंतर्गत सबसे अधिक 6.50 लाख दावे हासिल हुए हैं। इसके बाद तमिलनाडु का क्रम आता है जहां ऐसे 4 लाख मामले हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कुल 45 लाख दावों में से 10 लाख केवल इन्हीं दो राज्यों से हैं। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र से भी कुल मिलाकर लगभग 10 लाख दावे प्राप्त हुए। तमाम अन्य अखिल भारतीय योजनाओं की तरह यहां भी बेहतर संसाधन से लैस राज्य बेहतर ढंग से प्रबंधन कर रहे हैं।

धीमा क्रियान्वयन जहां समस्या की वजह है, वहीं इसका एक अर्थ यह भी है कि इसका राजकोषीय प्रभाव अभी पूरी तरह सामने नहीं आया है। यकीनन यह संभव है कि राजकोषीय प्रभाव के कारण ही कमजोर आर्थिक स्थिति वाले राज्यों ने शायद इसका उतना प्रसार नहीं किया जितना करना चाहिए था। आगे चलकर लागत नियंत्रण पर ध्यान देना होगा। पीएमजेएवाई के प्राधिकारियों को पहले लागत कम करने के लिए सक्रियता दिखानी होगी। उदाहरण के लिए औषधि कंपनियों और चिकित्सकीय उपकरण बनाने वालों के साथ मोलभाव करना।

भविष्य में निजी सेवा प्रदाताओं के पैकेज की दर भी विवाद का विषय बन सकती है। सरकार को उम्मीद है कि योजना में पंजीकृत निजी अस्पतालों की तादाद भविष्य में काफी बढ़ेगी। फिलहाल इसमें 9,000 अस्पताल पंजीकृत हैं जो इसमें शामिल शासकीय अस्पतालों की तुलना में कुछ भी नहीं। परंतु जब तक पैकेज की लागत को लेकर सही समझ नहीं बनती चीजें उम्मीद के मुताबिक नहीं घटेंगी। निजी अस्पतालों के विस्तार के साथ व्यापक धोखाधड़ी की आशंका भी बढ़ेगी। योजना के पहले ही वर्ष में छत्तीसगढ़ और झारखंड में अनावश्यक रूप से महिलाओं के गर्भाशय निकालने के मामले सामने आए हैं।

योजना के डेटा आधारित होने के कारण धोखाधड़ी की ऐसी घटनाएं सामने आ जाएंगी लेकिन आखिरकार विवाद का निस्तारण तो पुराने तौर तरीकों से ही करना होगा। हकीकत यह है कि केंद्र सरकार या राज्यों के स्तर पर ऐसे विवादों से निपटने की कोई व्यवस्था अब तक नहीं है। अलग-अलग राज्यों में यह योजना अलग-अलग मॉडल के साथ लागू की गई है लेकिन ऐसे किसी भी मॉडल की सफलता के लिए बुनियादी बात यह है कि राज्य की क्षमताओं में विस्तार हो। फिर चाहे यह नियमन की बात हो, विवाद निस्तारण की या सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों की। कम लागत में सार्वभौमिक स्वास्थ्य योजना बनाना नामुमकिन है। यह योजना अब तक राजकोषीय दबाव वाली साबित नहीं हुई है। अगर भविष्य में इसे सफल होना है तो बड़ी तादाद में संसाधनों की आवश्यकता होगी। तमाम संसाधन गरीब राज्यों को भी देने होंगे ताकि वे इसे सही ढंग से लागू कर सकें।


Date:27-09-19

मानसिक बीमारियों को लेकर बढ़े जागरूकता और उपचार

श्यामल मजूमदार

हाल ही में पुलित्जर पुरस्कार विजेता लेखक और जानेमाने चिकित्सक सिद्धार्थ मुखर्जी ने मानसिक स्वास्थ्य के मसले पर एक अहम बात उठाई। उन्होंने याद दिलाया कि कैसे सन 1950 के दशक में कैंसर को कलंक माना जाता था। उन्होंने कहा कि आज वही स्थिति मानसिक स्वास्थ्य की है। उन्होंने कहा कि उन दिनों कैंसर के मरीजों को अस्पतालों में पीछे की ओर ठूंस दिया जाता था। बाद में जागरूकता बढ़ी और इस बीमारी के साथ जुड़ा कलंक भी मिट गया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि तीन ऐसी शक्तियां हैं जिन्हें मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में मिलकर काम करना होगा। पहली शक्ति है राजनीतिक शक्ति और इसके तहत मानसिक स्वास्थ्य को जन स्वास्थ्य संकट के रूप में चिह्नित करना होगा। राजनीतिक क्षेत्र के सभी लोगों को साथ आकर राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान गठित करने की दिशा में काम करना चाहिए।

दूसरी शक्ति है सामाजिक शक्ति। मानसिक स्वास्थ्य के साथ जुड़े पूर्वग्रह को खत्म करने की दिशा में काम करना चाहिए। कैंसर के मामले में रोज कुशनेर, बेट्टी फोर्ड और हैप्पी रॉकफेलर जैसी महिलाओं ने अहम भूमिका निभाई थी और लोग कैंसर के मरीजों के साथ समानुभूति रखने लगे, उनके इलाज और ठीक होने की राह यहीं से निकली। कोलंबिया विश्वविद्यालय के मेडिकल सेंटर में मेडिसन विभाग के प्रोफेसर मुखर्जी ने कहा कि मानसिक स्वास्थ्य को भी ऐसे ही हिमायत करने वालों की आवश्यकता है।

तीसरी शक्ति जीवविज्ञान से जुड़ी है जिसे जेनेटिक या औषधि क्षेत्र से समझा जा सकता है। इसमें प्रयास करने और विभिन्न प्रकार के शोध करना भी शामिल है। ऐसा करके यह समझ विकसित की जा सकती है कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे लोगों का उत्पीडऩ न हो। वह इन बातों को अपने अनुभव से समझते होंगे क्योंकि उनके दो करीबी रिश्तेदार सीजोफ्रेनिया और बायपोलर डिसऑर्डर से पीडि़त थे। उनका रिश्ते का एक भाई भी सीजोफ्रेनिया से पीडि़त था और उसे भर्ती कराना पड़ा था। मुखर्जी शुरुआत में इस बीमारी की चर्चाओं से दूर रहते थे और आंशिक रूप से इस बीमारी को इसलिए समझना नहीं चाहते थे क्योंकि उनके मन में ढेर सारी आशंकाएं थीं। आखिरकार उन्होंने साहस जुटाया और एक किताब लिखी: द जीन: एन इंटीमेट हिस्ट्री।

उनका यह कहना सही है कि दुनिया के कई अन्य हिस्सों की तरह भारत में भी मानसिक बीमारियों के पीडि़त और उनके परिवार पहले-पहल इन बीमारियों को नकारने की कोशिश करते हैं। उनमें से अधिकांश चिकित्सक को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि उससे बीमारी का पता लगाने में चूक हुई है या उनकी बिगड़ी मनोदशा अपने आप ठीक हो जाएगी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोगों में जागरूकता की कमी है और उन्हें नहीं पता कि समय पर पता चल जाने पर इन बीमारियों का पूरा इलाज संभव है। इसकी एक अहम वजह यह है कि देश में मानसिक स्वास्थ्य सलाहकारों की भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में मानसिक बीमारियों के शिकार प्रत्येक एक लाख लोगों पर 0.301 मनोचिकित्सक और 0.047 मनोविज्ञानी हैं। मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वालों की कमी कोई नया मुद्दा नहीं है। सन 1982 में सरकार ने राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम का क्रियान्वयन आरंभ किया था। इसका लक्ष्य था मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल को सामान्य स्वास्थ्य से जोडऩा। परंतु इसमें अपेक्षित तेजी नहीं आई।

वर्ष 2015 तक यानी कार्यक्रम की शुरुआत के तीन दशक बाद तक यह देश के केवल 27 प्रतिशत जिलों में लागू था। हाल ही में संपन्न राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण बताता है कि देश में किसी भी मानसिक अस्वस्थता में उपचार में अंतर की दर 83 फीसदी तक है। यह भी कहा गया कि देश में करीब 15 करोड़ लोगों को उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए देखभाल की आवश्यकता है। देश के कारोबारी जगत को भी इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। एक चेतावनी भरा तथ्य यह है कि निजी क्षेत्र में काम करने वाले 42.5 फीसदी कर्मचारी अवसाद या तनाव जैसी मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2012 से 2030 के बीच भारत को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण 1.03 लाख करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान होगा। गरीब समुदाय मानसिक बीमारी की अनदेखी करते हैं क्योंकि ये बीमारियां अपंग नहीं बनातीं, इन बीमारियों से विरले ही किसी की मौत होती है और अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करने वाले ऐसे परिवारों को मानसिक बीमारियों पर पैसा खर्च करना ठीक नहीं लगता।

वर्ष 2018 में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करने वाले परोपकारी संगठन लाइव लव लाफ फाउंडेशन ने एक अध्ययन किया जिसमें यह पता लगाया गया कि देश के लोग मानसिक स्वास्थ्य के बारे में क्या सोचते हैं। यह अध्ययन देश के आठ शहरों में किया गया। अध्ययन में शामिल लोगों में से 87 फीसदी को मानसिक बीमारियों के बारे में कुछ जानकारी थी, 71 फीसदी ने इससे जुड़े पूर्वग्रहों की बात भी की। एक चौथाई से ज्यादा लोगों ने यह माना वे मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों के साथ तटस्थ रहेंगे। इन दिक्कतों को तत्काल दूर किए जाने की आवश्यकता है। यदि लोग मानसिक बीमारियों को आशंका की दृष्टि से देखते रहेंगे तो मानसिक बीमारियों से पीडि़त लोगों को जरूरी सहायता मिलने में भी मुश्किल आती रहेगी। ऐसे में सरकार के संस्थागत सहयोग की भूमिका बहुत अहम हो जाती है।


Date:26-09-19

संचार की हद

संपादकीय

हाल के वर्षों में आम जनजीवन में आधुनिक तकनीकी का दखल बढ़ा है, उससे कई स्तरों पर लोगों का जीवन स्तर बेहतर हुआ है, जीने के तौर-तरीकों में सहजता आई है। निश्चित तौर पर विज्ञान से जुड़ी उपलब्धियों के सकारात्मक उपयोग की मानव जीवन में यही भूमिका होनी चाहिए। लेकिन विडंबना यह है कि आमतौर पर हर देशकाल में मौजूद असामाजिक तत्त्व भी विज्ञान और आधुनिक तकनीकों का ही सहारा लेकर अराजकता फैलाते हैं। पिछले कुछ समय से भारत में वाट्सऐप या फेसबुक जैसे अन्य सोशल मीडिया के मंचों से अफवाहें फैलाने और उसके जरिए लोगों के बीच नफरत और उन्माद पैदा करके हत्या तक की घटनाएं सामने आर्इं। इसके अलावा, सोशल मीडिया आज किसी व्यक्ति के चरित्रहनन, झूठी और आक्रामक बातें करके परेशान करने, फर्जी खबरें फैलाने का भी हथियार बनता जा रहा है। कुछ वेबसाइटों पर आसानी से घातक हथियारों की खरीद-बिक्री के भी मामले देखे गए। मुश्किल यह है कि कई बार इस तरह की खबरें या अफवाह फैला कर हिंसक माहौल पैदा करने वालों का पता नहीं चल पाता और कानूनी कार्रवाई के दौरान असली दोषी आसानी से पकड़ में नहीं आता।

यों, सोशल मीडिया के नुकसान को देखते हुए इस पर लगाम लगाने के हक में आवाजें उठने लगी हैं। लेकिन मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर यह सख्त टिप्पणी की कि तकनीक ने एक खतरनाक रूप अख्तियार कर लिया है और समय आ गया है जब सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के लिए तय समयसीमा के भीतर दिशानिर्देश बनाए जाएं। इस मसले पर याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के एक जज को यहां तक कहना पड़ गया कि सोच रहा हूं कि अब स्मार्टफोन का इस्तेमाल बंद कर दूं। निश्चित रूप से सोशल मीडिया के भिन्न मंचों की अपनी अहमियत है और वे आज अभिव्यक्ति के एक अहम औजार के रूप में काम कर रहे हैं। लेकिन जिस पैमाने पर इसका बेजा इस्तेमाल बढ़ा है, उसमें इस बात की जरूरत है कि घातक असर पैदा करने वाले संदेशों का प्रसार करने वालों की पहचान करने और उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा करने के लिए सख्त नियम-कायदे बनाए जाएं। इस संबंध में अदालत ने केंद्र सरकार से यह भी स्पष्ट करने के लिए कहा है कि क्या वह सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों को आधार से जोड़ने पर विचार कर रही है।

इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया के मंचों पर ऐसी अनेक उपयोगी जानकारियां और किसी घटना के विभिन्न पहलू से जुड़े तथ्य भी साझा किए जाते हैं, जो किन्हीं वजहों से मुख्यधारा के सूचना-स्रोतों के जरिए सामने नहीं आ पातीं। लेकिन सच यह है कि चूंकि इसके ज्यादातर उपयोगकर्ता अभी इसके सकारात्मक इस्तेमाल को लेकर अपेक्षित स्तर तक संवेदनशील, सजग और जागरूक नहीं हैं, इसलिए कुछ लोगों को अफवाह और झूठी खबरें फैला कर अपनी मंशा पूरी करने में आसानी होती है। यह अपने आप में एक विद्रूप है कि महज अफवाह की आग की वजह से भीड़ में तब्दील होकर लोग किसी ऐसे व्यक्ति की भी पीट-पीट कर जान ले ली जाती है, जिसका उससे कोई ताल्लुक नहीं होता। यह न सिर्फ कानून-व्यवस्था और समाज की सोच को कठघरे में खड़ा करता है, बल्कि इससे उन तकनीकों पर भी विचार करने की जरूरत महसूस होती है, जिनके जरिए आज किसी झूठ को आग की तरह फैलाना आसान हो गया है। जाहिर है, इस पर लगाम के लिए एक ठोस व्यवस्था वक्त की जरूरत है, लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत होगी और सुप्रीम कोर्ट ने भी इससे सरोकार जताया है कि ऐसी पहलकदमी में लोगों की निजता का अधिकार, उनकी प्रतिष्ठा और देश की संप्रभुता का हनन न हो।


Date:26-09-19

Imagining a new india

Janmejaya Sinha, [The writer is Chairman, Boston Consulting Group, India. Views are personal]

Indulging one of my hobbies of listening to great speeches, I turned the other day to Martin Luther King’s immortal “I have a dream” speech, where he talked of the “fierce urgency of now” to address the tribulations suffered by the “negro seared in the flames of withering injustice”. I feel “the tranquilising drug of gradualism” is not good enough to allow Indians a fair chance if we do not address five major crises enveloping India. My own dream for India is one where it has addressed the crises in:

Water: The government has undertaken a multi-faceted mission mode approach that has three parts to it — revitalising rivers and fresh water lakes, harvesting rain water and changing the incentives in agriculture. A nationwide mission has been undertaken to restore our rivers ravaged by widespread encroachment and interference in their natural flows. Measures have been taken to address the colossal scale of sewage polluting the rivers. City sewage systems have been revamped and a big focus has been put on increasing the number and maintenance of sewage treatment plants in every city. At the same time, urgent measures have been taken to ensure rain water is better harvested during the monsoon so that ground water levels are managed up. Indian urban conglomerations that have become like plastic sheets and do not absorb rain water have taken firm steps to address this.

Finally, the plea of Ashok Gulati and others has been heard and agriculture has been freed from misdirected intervention. There has been a stop to the supply of free intermittent power that led to water pumps pulling out and wasting ground water and allowing for perverse cropping patterns to get established. Minimum support prices have been replaced by direct benefit transfers to farmers and the export of water (T N Ninan’s evocative phrase for rice and sugar exports from water-starved regions) has stopped. A more sustainable framework for water has led to a palpable increase in ground water and rivers have become cleaner and flow stronger.

Smart cities: One hundred smart cities have come up to absorb the out migration from the rural areas in UP and Bihar. These cities have affordable houses, piped water, power supply and toilets linked to the city sewage systems with well-developed waste sites. The cities minimise travel between residences and work places because work places are in close proximity to residential colonies. All work places have charging stations for electric vehicles and streets are lined with trees and broad walking pavements and cycle lanes. Taxes have been imposed on private car use in city centres to prevent congestion. Public toilets are plentiful as are trash bins so public areas stay clean. Training facilities have been established for training poorly educated people for low-skill service industries. The population of metros like Mumbai and Delhi are not growing. There are reports of out-migration from large metro aggregations to newer smart cities.

Digital apartheid: All Indians are provided with smartphones and cyber clinics have been funded to encourage ease with a digital environment. Citizen convenience has become a government mantra and most services can be accessed digitally. Services like police verification, getting an election card, obtaining a driving licence, making payments to government can be done remotely and all applications can be submitted through a digital interface. India has also joined the group of cyber-capable nations that can defend the country from cyber attacks and has the capability to inflict damage to other countries in the same way.

Health: All health records in India are digitised and are centrally stored. Privacy laws have been established and patient’s records can only be accessed with individual consent. People anywhere in India can call in to centres that deal with common concerns with ease. The primary health centres have all been transformed, digitised and linked to 30 specialist health centres for diagnosis and care. The PHCs are staffed by qualified nurses who engage with specialist’s centres by video and advise their patients. Patient visits have reduced and convenience has increased. The district hospitals are not crowded and it is easy to access the specialised hospitals in smart cities.

Education: The government has introduced a school voucher system where municipal schools are run by the private sector. All Indian children are enrolled in school. A strong accreditation council has been set up by government that maintains and publishes school outcomes widely. Parents can use their school vouchers to choose to send their children to schools within five km of their residences. Paid fully, private schools are fully residential and located out of the cities. Teacher training institutes have been set up and all teachers need to spend one week a year learning from each other on teaching methodologies and new course work. The ratio of teachers to students in primary schools has come down from 46 to 25. All schools are equipped with TVs, computers and phones and powered by renewable sources of energy. Digital penetration in education in India has taken off and a variety of models are being used — instructors joining over phone with the material presented via computer, over video conference or just by providing digital access on computers with drop down menus for further inquiry and more advanced learning. Teaching outcomes are better and the productivity of the Indian economy is showing improvement.

Yes, I have a dream that kids will be judged by the “content of their character”, not denied opportunities due to the lack of basic services. I dream that as a nation we have realised that “now is the time to make justice for all of God’s children” a reality. Yes, I have a dream that all Indians have an equal shot at pursuit of their own happiness.


Date:26-09-19

The pillar stands

Editorials

Last month, British Prime Minister Boris Johnson sought to circumvent the first principles of deliberative democracy through a procedural technicality.

The PM, by “advising” the titular head of state, Queen Elizabeth, to prorogue (suspend) parliament for five weeks, would have escaped a in-depth debate around the modalities of the Brexit deal Johnson is seeking to put in place before the October 31 deadline. There was also a very real possibility of a disastrous “no deal Brexit”.

On Tuesday, the highest court in the United Kingdom ruled unanimously to enforce the supremacy of parliament, and, in doing so, established the resilience of the institutions that form the pillars of democracy during a political crisis that has vitiated the public discourse.

In a sharp and unambiguous 24-page judgment, the 11-member bench highlighted the higher judiciary’s responsibility in defining the limits to the powers of the executive. To do so, it rightly concluded, is not judicial over-reach but rather the essential task of the higher courts in a democracy, which values checks and balances to power.

The court also established, rightly, that the legal precedent and conventions that form the bedrock of the UK’s constitutional morality cannot be discarded for the exigencies of partisan politics. By trying to avoid a debate on a contentious and important issue, Johnson undermined the core principle of parliamentary accountability, according to the court.

It said: “The Court is bound to conclude, therefore, that the decision to advise Her Majesty to prorogue Parliament was unlawful because it had the effect of frustrating or preventing the ability of Parliament to carry out its constitutional functions without reasonable justification.”

Accountability to parliament, as the judgment notes, “lies at the heart of Westminster democracy”. Since the people of Britain voted by a slender majority to leave the European Union, the country has been mired in a political crisis, with the threat of economic uncertainty looming.

Added to that, the prospect of the executive riding rough-shod over the legislature, claiming the backing of the will of the people, would be a challenge to the very idea of parliamentary democracy.

The Supreme Court of the United Kingdom has made it clear that it is parliament, collectively, that represents the will of the people, not merely those few members who lead the government. And that the institutions that make democracy a legal and moral endeavour can stand against populism. It is a lesson that has resonance beyond the British Isles.


Date:26-09-19

A hundred small steps

Government should restructure PDS to meet goal of ‘one nation, one ration card’

Subhashish Bhadra, Varad Pande, [The writers work at Omidyar Network India, an investment firm focussed on social impact through equity investments and grants, with an emphasis on technology] 

On Independence Day this year, Prime Minister Narendra Modi called for national integration through several “one nation” initiatives such as a singular mobility card, tax regime and electricity grid. One such initiative, “One Nation, One Ration Card”, is meant to enable a resident from, say, Darbhanga, to access her food rations in Patna or Mumbai. The Ministry for Food and Public Distribution has commenced pilots between Maharashtra-Gujarat and Andhra-Telangana, and has committed to a national rollout by June 30, 2020.

The Economic Survey 2017 estimated that over nine million Indians change their state every year. For them, the “One Nation, One Ration Card” is a gamechanger because it makes their rations “portable”, allowing them to pick up foodgrains from any ration shop in the country. It also benefits nonmigrants by allowing them to transact at better-performing shops locally. This local “choice effect” is extremely popular in Andhra Pradesh, which has introduced such portability within the state since October 2015. A study by researchers at the Indian School of Business (ISB) found that over 25 per cent of Public Distribution System (PDS) beneficiaries in the state now use portability.

However, we must approach this bold vision with utmost caution because PDS is a crucial lifeline for many of the 800 million Indians it reaches. It provides them with at least 5 kg of grain per person per month, equivalent to 25 per cent of an individual’s recommended calorie intake. Even well-intentioned changes that shock the system can therefore have potentially catastrophic outcomes for some. In 2017, it was reported that a 11-year old Dalit girl named Santoshi Kumari from Jharkhand died when her family was unable to access rations in the aftermath of large-scale revisions in the beneficiary list. Over 18 starvation deaths have been reported in the state since September 2017. Such tragedies must be prevented at all costs and we should therefore be cautious while restructuring the program.

We believe that three considerations are important to keep in mind while thinking about the “One Nation, One Ration Card” initiative. First, fundamental processes related to the PDS need to be redesigned to empower every individual. The State of Aadhaar Survey 2017-18 found that nearly 6.5 per cent of PDS beneficiaries in Rajasthan were denied ration because the shopowner claimed to be out of food grain. This translates to over 3.5 million people in Rajasthan alone. A beneficiary has no mechanism to question whether the shop owner is telling the truth or diverting rations. Portability and biometrics will not solve this problem completely.

Portability in Andhra Pradesh does well because it exists in an environment of accountability of ration shops. The state government collects feedback in real time through a mobile-based system. The central government should use this opportunity to make PDS more user-centric. It should track denial of service on a real-time basis through mobile-based surveys. It should commission research on the experiences of particularly vulnerable groups such as the elderly, migrants, disabled and tribals to modify the process where needed. It should enable beneficiaries to track the amount of food at nearby ration shops using their mobile phones.

Second, the operational backbone of the PDS needs to be restructured to promote portability. States should be brought together on a national platform that is based on the same technical standards and can therefore “speak” to each other (what technologists call “interoperability”), so that portability works seamlessly across states. The system should be based on what technologists call “open APIs” so that states can customise the user interface to their local needs, and add features and additional entitlements as they deem fit. The system should enable real time tracking of inventories and rapid response to low stock situations.

Thirdly, while leveraging the power of Aadhaar for PDS, the government should actively address privacy and exclusion risks that the use of Aadhaar and a centralised PDS platform can lead to. In early 2018, the UIDAI introduced privacy protecting features such as virtual ID and tokenisation. However, few actually use them. The government should enable every section of society to understand and use these features through both online and offline methods. The government should also acknowledge that authentication failures will happen in any biometric system. Studies by ISB in multiple states point to a 1-3 per cent failure rate, potentially affecting 8-24 million people at a national scale. To prevent denial of service, the government should ensure availability of non-biometric means of authentication (such as OTP or PIN), as well as manual overrides.

In conclusion, we suggest that the central government adopt a patient path of “a hundred small steps” while implementing this vision. It should start by encouraging all states to roll out within-state portability. This will also increase their operational and technical capacity. In the meantime, it should work on a national technical platform that works for all states. Such a gradual rollout will prevent transition glitches that show up as harmless statistics in reports, but are a matter of life and death for millions in our country. We owe this to Santoshi, and to many others like her.


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उत्तर लिखने के अभ्यास के लिए प्रश्न– 226

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उत्तर लिखने के अभ्यास के लिए प्रश्न– 226

28 September 2019

प्रश्न– 226 – गृहमंत्री के इस कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये कि “अनुच्छेद 370, कश्मीर में आतंकवाद का मुख्य कारण रहा है।” (150 शब्द)

Question– 226 – Critically analyze the Home Minister’s statement that “Article 370 has been the main cause of terrorism in Kashmir.” (150words)

नोट : इसका उत्तर आपको हमें नहीं भेजना है, यह आपके स्वयं के अभ्यास के लिए है।

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28-09-2019 (Important News Clippings)

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28-09-2019 (Important News Clippings)

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Date:28-09-19

Double the growth rate

Here are six doable, practical and quick ways to get to 10% GDP growth

Chetan Bhagat

A 10% GDP growth is the right benchmark for the current government, which is stable, not dependent on coalitions and in its second term. After all, if the more left-leaning UPA, with all its coalition compromises and scams could reach 8% GDP growth, it is reasonable to expect India to grow at 10% in the current regime, now in its sixth year.

However, we are currently only at around 5% growth. The reasons for this have been discussed threadbare in numerous articles. It is time now to focus on how to get that 10% growth. The recent big cuts in corporate taxes are a sure sign that the government now acknowledges this issue, and cares about growth.

There are longer term measures, such as investing heavily in infrastructure, which will ultimately deliver GDP growth. However, the focus of this article is relatively quicker, doable measures that can rapidly enhance our growth. Some of these measures do involve giving up control, which our politicians and bureaucrats don’t like. However, no major country has grown at 10% without ceding some control to the private sector. When you fly a kite, the thread helps you control it. However, if you want the kite to soar higher, sometimes you have to let the thread go loose.

India’s 2019 GDP is expected to be roughly $3 trillion (rounded for simplification). Since we are already at 5%, the additional 5% to reach 10% growth requires another $150 billion of economic activity per year. This amounts to around Rs 3,000 crore of extra economic activity per day over the entire country. Again, this is achievable. Here are six doable, practical and quick ways we can get that 10% growth.

Real estate – Real Estate drives a large amount of economic activity and consumer sentiment. For perhaps the first time in decades, real estate prices are stuck for the last 5 years. It can be fixed by massive stamp duty cuts (states will have to be reimbursed) and the government itself selling a fraction of its massive prime land holdings to generate revenue.

Agriculture – It is difficult to drive growth in India without growing agriculture. Most of the fixes here are long term, centring around infrastructure. However, one quick fix exists – legalising medical marijuana. Already a multi-billion dollar industry worldwide, cannabis is already part of India’s culture. As India is an agricultural country, we are missing out on a worldwide boom. Twenty years later, in line with the world we will probably legalise it anyway. Why not now? Of course, as with any drug like this, a careful regulatory policy has to be thought through.

Divestment – The government keeps talking divestment, but is often unable to meet targets as selling individual units takes a lot of time. A better way might be to consolidate, say, 20 PSUs into a fund or holding company called DivestCo. Then, sell the DivestCo shares at a significant discount to attract investors. Thereby, we sell all the companies at once and save a massive headache.

Customs – There is something wrong with the way Indian customs duty works. It is not so much the duty itself, as the delays imports and exports face at our airports and seaports that make the entire nation uncompetitive. If we want to grow at turbocharged pace, this bottleneck has to be fixed. A simple uniform customs duty maybe? Giving up the current inspection procedures? More work is required but this is definitely choking our growth.

Financial reforms – The lowering of corporate tax rates was a welcome move. Some more steps are still required. Long-term capital gains tax should be removed. The rupee must move towards full convertibility. Another huge move the government could consider is not taxing global income for residents, at least for the next ten years. The revenue loss from this will be limited (as one gets credit for foreign taxes paid anyway). However, it will attract much-needed global investors and firms, who are sitting on the sidelines right now, to incorporate themselves in India.

Investor Protection Bill – We have to realise investors invest based on projections. Imagine spreadsheets of financial models filled with assumptions on tax rates and other costs, going out ten years. When the government changes rates suddenly, the model goes awry. Investors hate that uncertainty. We need a law that essentially ensures no sudden, ad-hoc and frequent policy changes in taxation or regulations that might be adverse to Indian business.

The ideas above are relatively quick fixes to boost our GDP growth. Ultimately, we need longer term measures too to create a solid foundation for a growing economy. Infrastructure is the single biggest thing a government can do – better roads, ports, airports, cellphone networks, power and water availability. Indian infrastructure used to all be at Third World levels. Things have improved somewhat in the last two decades, but we still have a long way to go.

Ultimately, economic growth will be a big criterion when history will judge India’s current era. However disproportionate negative talk, excessive politicisation of the GDP number and a defeatist attitude will get us nowhere. Neither will too much control. Instead of headlines like ‘highest tax collections ever,’ we have to now aspire to headlines like ‘highest GDP growth ever!’ Stay positive, think strategically and do what it takes for 10% GDP growth, and it will happen. This is India’s time. Let’s do it!


Date:28-09-19

महिलाओं के लिए तोहफा होगा गर्भपात कानून में बदलाव

संपादकीय

भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट 1971 के अंतर्गत 20 हफ्ते से ज्यादा हो जाने के बाद महिलाएं गर्भपात नहीं करवा सकती हैं। इसके लिए अदालत की अनुमति जरूरी होती है। सरकार इन दिनों 48 साल पुराने इस कानून में बदलाव की तैयारी कर रही है। देेश और दुनिया में बदली मेडिकल दुनिया उसके और ज्यादा आधुनिकीकरण और विकास के बीच गर्भपात का हक महिलाओं और उनके डॉक्टरों को न देकर अदालतों को देना शायद आधुनिक भारत की महिलाओं के साथ नाइंसाफी है। इसका औचित्य और ज्यादा बढ़ जाता है जब आज देश में हर साल 1.5 करोड़ महिलाएं छिपकर गर्भपात करवाने पर मजबूर हैं, जो लैंसेट की रिपोर्ट का आकंड़ा है। पिछले कुछ सालों में गर्भपात के कई मामले अदालतों तक पहुंचे। कुछ फैसलों ने वाह-वाही लूटी तो कुछ फैसलों से लोग निराश भी हुए। इसी वजह से इस कानून में संशोधन की मांग तेजी से उठ रही है और अगर बदलाव हो गया तो यह महिलाओं के लिए किसी अनमोल तोहफे से कम नहीं होगा। हाईकोर्ट की याचिका में महिला और उसके भ्रूण के स्वास्थ्य पर खतरे को देखते हुए गर्भपात कराने की अवधि 20 से बढ़ाकर 24 से 26 हफ्ते करने की मांग है। याचिका में अविवाहित महिलाओं और विधवाओं के गर्भपात का भी जिक्र है। ये वे महिलाएं हैं जिन्हें गर्भपात जैसा फैसला लेने और उसे अंजाम देने में सबसे ज्यादा मानसिक त्रासदी जैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। आसान तो शादीशुदा महिलाओं के लिए भी नहीं होता। गर्भपात सिर्फ शारीरिक नहीं मानसिक पीड़ा वाली प्रक्रिया है। छिपकर या फिर अच्छे स्वास्थ्य केंद्र के बाहर गर्भपात करवाने की वजह अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन खतरा सीधे महिला की जान को होता है। इसके बावजूद वह ऐसा करने पर मजबूर हैं क्योंकि उनके पास गर्भपात का अधिकार नहीं हैं। कानून से जुड़ी एक पेचीदगी यह भी है कि महिला को गर्भपात न कराने से तो रोक दिया जाता है, लेकिन यदि उसका बच्चा स्वस्थ पैदा नहीं होता तो मां को जीवनभर होने वाली समस्याओं की सुध कोई नहीं लेता, न कानून, न डॉक्टर और न गर्भपात पर नाक-भौं सिकोड़ने वाला समाज। इसलिए अगर महिला को गर्भवती होने का अधिकार है, तो गर्भपात करवाना है या नहीं इसका भी अधिकार महिला के ही पास होना चाहिए।


Date:28-09-19

वैश्विक भूमिका में भारत

सयुंक्त राष्ट महासभा के वार्षिक अधिवेशन में भारतीय प्रधानमंत्री के संबोधन से यही स्पष्ट हुआ की भारत अपनी वैश्विक भूमिका बढ़ाने के लिए पूरी तरह तैयार और तत्पर है।

संपादकीय

यह अच्छा हुआ कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न तो कश्मीर का जिक्र करना जरूरी समझा और न ही सीधे तौर पर पाकिस्तान का नाम लेना, लेकिन उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत को रेखांकित कर परोक्ष तौर पर यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह आतंक के निर्यातक इस पड़ोसी देश की घेराबंदी करना जारी रखेंगे। उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ भारत की गंभीरता और आक्रोश को व्यक्त करने के साथ ही विश्व समुदाय को इसके लिए आगाह भी किया कि उसका बिखराव उस खतरे को बढ़ाने का ही काम करेगा, जो मानवता के साथ-साथ उन सिद्धांतों के लिए भी चुनौती बन गया है जिनकी रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया। भारतीय प्रधानमंत्री ने आतंकवाद के साथ ही दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बिगड़ते पर्यावरण की ओर दुनिया का न केवल ध्यान खींचा, बल्कि प्राकृतिक आपदाओं से मिलकर निपटने की आवश्यकता पर भी बल दिया। इस सिलसिले में उन्होंने वैश्विक सहयोग की एक रूप रेखा भी खींची। यह ठीक वैसी ही पहल है जैसी भारत के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन के रूप में सामने आ चुकी है। इसके जरिये भारत ने ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के मामले में दुनिया के सामने जो उदाहरण पेश किया है उसकी कोई अनदेखी नहीं कर सकता।

भारतीय प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र की महिमा का बखान करते हुए आम आदमी की जिंदगी को बदलने वाली अपनी कई सफल योजनाओं का केवल जिक्र भर नहीं किया, बल्कि यह भी बताया कि भारत निर्धनता का मुकाबला करने के लिए हर संभव कोशिश कर रहा है और इस संदर्भ में वह दुनिया से सीख लेने और साथ ही उसे दिशा दिखाने के लिए भी तत्पर है। उन्होंने विश्व में शांति एवं सद्भाव की जरूरत पर जोर देते हुए जिस तरह यह कहा कि हम उस देश के वासी हैैं जिसने दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध दिए उससे यही रेखांकित हुआ कि वह संयुक्त राष्ट्र के मंच का उपयोग विश्व राजनेता के रूप में कर रहे थे। वास्तव में यही समय की मांग भी थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना अधिवेशन में भारतीय प्रधानमंत्री के संबोधन से यही स्पष्ट हुआ कि भारत अपनी वैश्विक भूमिका बढ़ाने के लिए न केवल तत्पर है, बल्कि हर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार भी है। यह देखना दयनीय रहा कि जिस मंच से भारतीय प्रधानमंत्री ने सारी दुनिया के हितों की चिंता की तब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान अपना पुराना राग अलापते नजर आए। ऐसा करके उन्होंने एक बार फिर दुनिया को अपनी संकीर्ण सोच से ही परिचित कराया।


Date:28-09-19

निर्यात और विदेशी बाजार

टी. एन. नाइनन

घरेलू मांग में कमी आने पर प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाएं निर्यात बाजारों की ओर रुख करती हैं। तेज गति से विकास करने वाला हर देश सफल निर्यातक होता है। हाल के वर्षों में देश में जो मंदी आई है उसकी बुनियादी वजहों में से एक है निर्यात को गति प्रदान करने में नाकामी। जीडीपी के संदर्भ में निर्यात में तेजी से गिरावट आई है। निर्यात को गति दिए बिना अर्थव्यवस्था मंदी से नहीं उबर सकती। सारी बातचीत आयात प्रतिस्थापन और शुल्क दरों में इजाफा करने के इर्दगिर्द केंद्रित है।

शंकालुओं का कहना है कि वैश्विक स्तर पर कारोबार मंदा है, ऐसे में निर्यात के प्रति जोश जगाना मुश्किल है। परंतु हमारे देश में वस्त्र व्यापार भी स्थिर है। जबकि वियतनाम, इंडोनेशिया और कंबोडिया में तेज निर्यात वृद्घि देखने को मिली है। बांग्लादेश भी भारत से आगे है। इसकी वजह यह है कि ये देश चीन की कमी पूरी कर रहे हैं। चीन हर महीने 20 अरब डॉलर मूल्य के वस्त्र निर्यात करता था जो अब घटकर 12 अरब डॉलर रह गया है (भारत को यह आंकड़ा पाने में नौ महीने लगते)। इस कमी को पूर्वी एशिया के देश और बांग्लादेश पूरा कर रहे हैं। भारत के पास इसका बहुत मामूली हिस्सा आया है। बांग्लादेश का निर्यात भारत के निर्यात का 60 फीसदी हुआ करघरेलू मांग में कमी आने पर प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाएं निर्यात बाजारों की ओर रुख करती हैं। तेज गति से विकास करने वाला हर देश सफल निर्यातक होता है। हाल के वर्षों में देश में जो मंदी आई है उसकी बुनियादी वजहों में से एक है निर्यात को गति प्रदान करने में नाकामी। जीडीपी के संदर्भ में निर्यात में तेजी से गिरावट आई है। निर्यात को गति दिए बिना अर्थव्यवस्था मंदी से नहीं उबर सकती। सारी बातचीत आयात प्रतिस्थापन और शुल्क दरों में इजाफा करने के इर्दगिर्द केंद्रित है। शंकालुओं का कहना है कि वैश्विक स्तर पर कारोबार मंदा है, ऐसे में निर्यात के प्रति जोश जगाना मुश्किल है। परंतु हमारे देश में वस्त्र व्यापार भी स्थिर है। जबकि वियतनाम, इंडोनेशिया और कंबोडिया में तेज निर्यात वृद्घि देखने को मिली है।बांग्लादेश भी भारत से आगे है। इसकी वजह यह है कि ये देश चीन की कमी पूरी कर रहे हैं। चीन हर महीने 20 अरब डॉलर मूल्य के वस्त्र निर्यात करता था जो अब घटकर 12 अरब डॉलर रह गया है (भारत को यह आंकड़ा पाने में नौ महीने लगते)। इस कमी को पूर्वी एशिया के देश और बांग्लादेश पूरा कर रहे हैं। भारत के पास इसका बहुत मामूली हिस्सा आया है। बांग्लादेश का निर्यात भारत के निर्यात का 60 फीसदी हुआ करता था लेकिन अब यह उलट कर दोगुना हो चुका है। वियतनाम भी हमसे काफी आगे हो गया है। विडंबना यह है कि बांग्लादेश कपास, धागा और कपड़ा भारत से आयात करता है। वस्त्र निर्यात, व्यापार घाटे को कम करता है, साथ ही कई जटिल समस्याओं को भी हल करता है। किसी भी अन्य बड़े औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में यह रोजगार को अधिक बढ़ावा देता है। वाहन या इंजीनियरिंग क्षेत्र की तुलना में यह 10 गुना तक और रसायन तथा पेट्रोकेमिकल क्षेत्र की तुलना में 100 गुना अधिक रोजगार प्रदान करता है। इस उद्योग की बिक्री का काफी हिस्सा वेतन-भत्तों में जाता है जो घरेलू खपत की मांग को बढ़ावा देता है। इस क्षेत्र के अधिकांश कर्मी महिलाएं हैं जिनकी श्रम शक्ति में कम होती भागीदारी चिंता का विषय बन चुकी है। चूंकि कपड़ा एवं वस्त्र क्षेत्र पहले ही कुल विनिर्माण रोजगार के एक तिहाई के बराबर है इसलिए वस्त्र निर्यात को बढ़ावा देने मात्र से विनिर्माण को जबरदस्त गति मिलेगी। अभी भी अवसर समाप्त नहीं हुआ है क्योंकि चीन के निर्यातकों को अमेरिकी शुल्क वृद्घि (अभी वस्त्र क्षेत्र पर लागू नहीं) के खतरे के अलावा बढ़ती लागत और घटते मार्जिन से जूझना पड़ रहा है। भारत की सबसे बड़ी दिक्कत समुचित परिस्थितियों का अभाव है। बांग्लादेश अत्यंत कम विकसित देश है और उसे यूरोप, कनाडा और जापान के बाजारों में शुल्क मुक्त पहुंच हासिल है। वियतनाम और श्रीलंका को भी मुक्त व्यापार समझौतों के तहत यूरोप में ऐसी पहुंच प्राप्त है। यूरोप में बांग्लादेश की शुल्क मुक्त पहुंच 2024 में समाप्त हो जाएगी लेकिन वह मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर सकता है। अत्यंत कम मार्जिन वाले कारोबार में शुल्क दर में 10 फीसदी की बाधा से बहुत बड़ी दिक्कत हो सकती है। भारत ने यूरोपीय संघ के साथ व्यापार को संतुलित किया है लेकिन जापानी कार कंपनियों की लॉबीइंग के चलते भारत मुक्त व्यापार समझौता नहीं कर सका है। सरकार ने श्रम कानूनों में बदलाव किया है और भविष्य निधि खातों में योगदान के जरिये भी उसने बांग्लादेश के साथ वेतन का अंतर कम किया है। नई विनिर्माण इकाइयों के लिए 17 फीसदी की कर दर की पेशकश के साथ यह अंतर और कम हुआ है। परंतु निर्यातकों को कमजोर बुनियादी सुविधाओं और बंदरगाहों पर समय खपाऊ प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ रहा है। रुपये के अधिमूल्यन में सुधार भी उतना ही अहम है।

वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने एक साक्षात्कार में कहा है कि वह यह नहीं समझ पा रहे कि सस्ता रुपया कैसे मददगार होगा जबकि देश का व्यापार घाटा खासा बढ़ा हुआ है। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि सन 1996 में रुपये के अवमूल्यन के बाद व्यापार के आंकड़ों में समय के साथ सुधार आया जबकि आयात कम हुआ। चार वर्ष में भारी भरकम व्यापार घाटा 80 फीसदी तक पूरा हो गया था। सन 1991 के अवमूल्यन के पहले पांच वर्ष का औसत व्यापार घाटा निर्यात का 40 फीसदी था लेकिन अवमूल्यन के बाद इसमें गिरावट आई और तकरीबन दशक भर तक यह काफी कम बना रहा। आज उतनी तीव्र गिरावट संभव नहीं है क्योंकि अमेरिका उन देशों पर नजर रखता है जिनके बारे में उसे लगता है कि वे मुद्रा दर के साथ छेड़छाड़ करते हैं। परंतु इससे निपटने के और भी तरीके हैं। निर्यात वृद्घि जल्द हासिल करने के लिए रुपये का तत्काल अवमूल्यन आवश्यक है।


Date:27-09-19

Childhoods lost in a troubled paradise

Kashmir’s children grow up traumatised by conflict and live in perpetual fear of being picked up by the state

Anna Mathew , R. Vaigai , Devika S. , (advocates at Madras High Court)

Every third child in Shopian district, Jammu and Kashmir (J&K), has a clinically diagnosable mental disorder, said a survey published in the Community Mental Health Journal earlier this year. Around 1.8 million adults in Kashmir Valley — 45% of its population — showed symptoms of mental illness in 2015, according to Doctors Without Borders. Thus, even prior to the incidents of August 5, the disastrous results of a history of violence, illegal detentions and torture in the Valley were visible on the region’s children.

The horror has since continued and got magnified, as chronicled in many reports. Media has reported illegal detention of scores of children, many of them whisked away at midnight by law enforcement officers with no record of their arrests, making it difficult to trace them. A report by economist Jean Dreze in August detailed illegal detention and torture of boys. A recent report by the Indian Federation of Indian Women and other organisations gave a first-hand account of the haunting spectre of mothers standing at their doorsteps in the desperate hope of their children’s return, not knowing where they are. These disappearances are in clear breach of the Supreme Court’s directions in the D.K. Basu case, where the court said that the next of kin have to be informed of every such arrest and the reasons thereof.

Pawns in a political game
Kashmir’s children have become pawns in a political game where the government wants to punish those protesting against its authority. Between 1990 and 2005, a total of 46 schools were occupied by the armed forces and more than 400 schools gutted between 1990 and 2005, according to a 2006 report of the Public Commission on Human Rights. Such destruction of educational infrastructure, in addition to the unlawful detentions, leaves a lifelong impact on children, perpetuating a cycle of trauma, fear and bitterness.

A report by the UN High Commissioner for Human Rights earlier this year found that children in Kashmir, many of whose ages were wrongly recorded, were being detained and mistreated for several days in police lock-up, without any charge, mostly under the Public Safety Act (PSA), which allows preventive detention for up to two years without any trial. The report found that the Armed Forces Special Powers Act remained a key obstacle to accountability.

In 2018, the Jammu & Kashmir Coalition of Civil Society (JKCCS) found through Right to Information applications that hundreds of children had been detained under the PSA between 1990 and 2013. In many of these cases, the police/magistrates had no procedure to verify the age of the detainees and minors were kept in custody along with adult criminals and released only after judicial intervention. About 80% of these detentions were held illegal by courts.

Such treatment of children is undoubtedly in violation of multiple laws and conventions. To begin with, all of them violate Article 14(4) of the International Convention on Civil & Political rights which states that “all proceedings against juveniles shall take into account their age and the desirability of promoting their rehabilitation.” The UN Convention on the Rights of the Child, ratified by India, provides that the arrest/detention of a child shall be in conformity with the law and used only as a last resort and for the shortest appropriate period. The guidelines of the National Commission for Protection of Child Rights clearly state that a blanket characterisation of adolescent boys as security threats during civil unrest should be avoided and authorities should investigate and take action against personnel involved in arbitrary detentions, mistreatment or torture of children.

A sledgehammer treatment
In 2003, the Madras High Court in Prabhakaran v. State of Tamil Nadu held that the Juvenile Justice Act is a comprehensive law and overrides preventive detention laws enacted for national security. Earlier, in 1982, the Supreme Court had in the Jaya Mala case condemned the preventive detention of a student and observed that young people, even if their acts are misguided, cannot be punished with a sledgehammer.

However, none of these laws and directives seem to be followed in Kashmir. Parents are now too scared to send their children to school, lest they be picked up by authorities or get caught in a crossfire. When such disappearances take place in a conflict-torn region, who does the aggrieved party complain to? Courts seem to be the only forums offering some promise of redressal. However, state actions since August 5, when J&K’s special status was abrogated, have taken away even this limited option from Kashmiris. Following the arrest of presidents of the J&K High Court and District Bar Associations and senior lawyers under PSA, most of Kashmir’s 1,050 lawyers have been on strike. Over 200 habeas corpus petitions have been filed till now. However, since most post offices are closed, lawyers are unable to serve notices on the respondents.

On August 5, all 31 cases shown in the ‘orders list’ of the Srinagar Bench of the J&K High Court were adjourned “due to restrictions on movement of traffic” as advocates could not be present. Weeks later, on September 24, out of the 78 uploaded cases, advocates were present for both parties in just 11, none appeared in nine cases, petitioner’s counsel alone in nine cases and only the government counsel in 47 cases.

Anticipating such contingencies, our Constitution provided for the protection of the citizens’ fundamental rights by empowering them to approach the Supreme Court directly in case the rights were violated. The right to constitutional remedies is by itself a fundamental right. Quite conscious of its obligations to protect the right to life of Kashmiris, the apex court has thus taken upon itself the task of inquiring into the allegations of state violence against children.

The observations made by the Inter American Court of Human Rights had observed in a 2005 case, concerning Colombia’s Mapiripán Massacre, are instructive here: “One does not combat terror with terror, but rather within the framework of the law. Those who resort to the use of brute force brutalise themselves, creating a spiral of widespread violence that ends up turning the innocent, including children, into victims.”

Noting that the terror sown among the surviving inhabitants caused their forced displacement, the court observed that the omissions, tolerance and collaboration by the state and the general population amounted to aggravated human rights violations in the name of ‘war on terror’.

Caged and disturbed
Children in Kashmir grow up caged and under the shadow of a gun. As the parents of many of them go missing, they are also forced to assume the responsibility of caregivers for their siblings. The strain on social structures due to the loss of family environment, safe spaces and education and health facilities severely traumatises many of them and snatches their childhood away. Gowhar Geelani, in his recent book Kashmir Rage and Reason says children in Kashmir learn terms like “custody killing”; “catch and kill”; “torture”; “interrogation”; “detention”; and “disappearance” — internalising a vocabulary they should not be privy to otherwise.

What kind of world can such children look forward to if they have to live in constant fear of being picked up for an unknown crime and taken to an unknown destination? Surely, this is not the firdous (heaven) on earth that many visualise Kashmir to be?

No curbs on democratic rights on the promise of development can justify inhumane treatment of children. We need to speak out for the children of Kashmir or we will also be complicit in the ‘aggravated crime’ by the state apparatus. The preventive arrests should be stopped lest the children of Kashmir go missing forever.


Date:27-09-19

Institutions weakened, economy crippled

The credibility of the RBI, the CSO and the Niti Aayog has taken a beating in recent times due to political interference

M. Suresh Babu (is a Professor at IIT-Madras)

Nobel laureate Oliver Williamson pondered over an important question, around 25 years ago: “Why are the ambitions of economic development practitioners and reformers so often disappointed?” According to him, “one answer is that development policymakers and reformers are congenital optimists. Another answer is that good plans are regularly defeated by those who occupy strategic positions. An intermediate answer is that institutions are important, yet are persistently neglected in the planning process.”

The question and all the three answers assume relevance in the context of India’s recent economic performance. The slowdown in GDP growth rate has been dissected, digressed and disowned by analysts, commentators and policymakers. However, the diagnosis is far from complete and the growth engine is running out of fuel. Both the demand- and supply-side factors have been central in all the analyses, but the crucial role of institutions in shaping the outcomes of both the factors in this episode of slowdown has been neglected. This has resulted in a series of banal policy measures for reviving growth.

A market-centred economic model necessitates creating and sustaining credible institutions that further the efficiency of market mechanism. Given the possibility of ‘market failures’, such institutions assume a larger role in the economy in shaping expectations and decisions. Journalist Henry Hazlitt grouped the pillars of market economy into private property, free markets, competition, division and combination of labour and social cooperation. Institutions are needed to strengthen these foundational pillars are a prerequisite for markets to work. The credibility of three such important institutions — the Reserve Bank of India (RBI); the Central Statistical Organisation (CSO); and the Planning Commission/NITI Aayog — has taken a beating in recent times.

Erosion in RBI’s autonomy
The RBI, which was clamouring for more autonomy, has been systematically brought under the ambit of the Central government. Starting from the sidelining of the central bank on the important issue of currency demonetisation, the attempt has been to steadily erode the central bank’s independence. A three-pronged strategy resulted in this — first, the RBI was bypassed on matters relating to currency; second, its role as regulator of the banking sector was questioned when banks faltered; and, finally, its reserves were siphoned. The net result has been that the RBI has been reduced into an institution which presides over a limited space of monetary policy, that is, inflation targeting.

It is also interesting to note that the only major policy tool available in the RBI’s armoury is cutting repo rates, which the central bank did four times this year. The last time the RBI made so many back-to-back cuts was after the global financial crisis over a decade ago, when most major central banks were desperate to revive economic growth. However, rate cuts alone could not help India’s economy this time, as banks, saddled with bad debt, were slow to reduce lending rates. This provides a classic case of an institution’s weakening, leading to questions on its role and credibility.

Markets, which work on information and expectations, rely on official data to arrive at decisions. In an era of ‘big data’, we find that India’s official data procuring and publishing agency has been crippled. Often we find that the official series, ranging from national accounts to unemployment, has been smothered with repeated revisions and change of data definitions. When data that needs ‘approval’ before release, as in the case of the unemployment data, questions are bound to arise on the credibility of the numbers. The veracity of the data is to be tested by researchers and the public who consume the data and not by ‘approving agencies’. It is altogether another matter that had we had admitted that the rate of unemployment was high, perhaps more private investment could have come due the expectations of finding labour at lower wages. Such a possibility was shut out by an attitude of denial on the part of the government.

Space for course correction
NITI Aayog presents the case of an institution that lost its character in the process of transformation. By abolishing the erstwhile Planning Commission and transforming it into the NITI Aayog, the government lost the space for mid-term appraisals of plans and policies. Course correction and taking stock of the economy have now become routine exercises, with uncritical acceptance due to a lack of well-researched documents.

As another Nobel laureate, Douglass North, opined: “Institutions are the rules of the game in a society or, more formally, are the humanly devised constraints that shape human interaction.” Institutions are formed to reduce uncertainty in human exchange. Together with the technology employed, they determine the costs of transacting (and producing). While the formal rules can be changed overnight, as has been practised by the present government, the informal norms change only gradually.

In this context, it is useful to focus on understanding and reforming the forces that keep bad institutions in place, especially political institutions and the distribution of political power. This requires understanding the complex relationship between political institutions and the political equilibrium. Sometimes, changing the political institutions may be insufficient, or even counterproductive, in leading to better economic outcomes as has been the case in India in recent times. The use of high-quality academic information, which the present establishment lacks, is valuable both to think about these issues and generate better policy advice.


Date:27-09-19

Subject to people’s will

Disqualified rebels should not be barred from bypolls in Karnataka

Editorial 

With the Election Commission of India agreeing to defer byelections to 15 of the 17 vacant Assembly seats in Karnataka, the defectors from the Congress and JD(S) have got a breather. By the dint of this order, the question whether they can contest the elections will be answered by the Supreme Court before the bypolls. The rebel former legislators of the Congress and Janata Dal (Secular) had earlier this year resigned from the Assembly and were later disqualified by the then Speaker Ramesh Kumar. Following these actions, the BJP managed to get to power with the support of 105 of the 208 remaining legislators in the Assembly. The then Speaker’s actions disqualifying the legislators who had resigned till the end of the current term of the Assembly added a twist to the tale. This sent the fate of these disqualified legislators into a limbo, as it made it unclear whether they can contest following this ruling. Under the law (the Tenth schedule) though, it is not clear as to how the ex-Speaker could fix a period till which a member can remain disqualified and bar them for the rest of the assembly term. It is evident that the disqualified legislators should not be disallowed by the Supreme Court from contesting in the byelections for the seats.

However, the actions by the rebel legislators and the Speaker, cumulatively beg the question if the letter and spirit of the anti-defection law were undermined. It was clear that the legislators who quit the Congress-JD(S) coalition did so to curry favour with the BJP and to gain new loaves of power in the form of ministerial berths. The fact that the BJP government led by B. S. Yediyurappa has kept portfolios vacant in its council of ministers indicates that these seats have been kept warm for the turncoats. On the other hand, the Congress-JD(S) rigmarole of locking up legislators in resorts and hotels before trust votes, besides the machinations by the Speaker — sitting on the resignations for a long period and coming up with an unusual disqualification order — did not help matters. The fractiousness of the coalition had already led to a stasis in governance and had contributed to its loss in the Lok Sabha election and it is no wonder that the Congress and the JD(S) have decided to contest the byelections on their own. Besides deciding the future of the BJP government, which has a narrow margin of support in the Assembly, the byelections provide a good opportunity for voters of these constituencies to judge the parties and their representatives for their respective roles in the sordid drama this year. It is the people’s reasoned will that could ultimately bring a change in the political culture rather than just the implementation of the anti-defection law to regulate legislator behaviour.


 

The post 28-09-2019 (Important News Clippings) appeared first on AFEIAS.

Yojana : Water Conservation as a National Movement (28-09-2019)


Kurukshetra : Addressing Rural Poverty : Livelihood Development And Diversification (28-09-2019)

योजना : जल संरक्षण –एक राष्ट्रीय आंदोलन (28-09-2019)

कुरुक्षेत्र : अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में असीमित विकास (28-09-2019)

शस्त्र नियंत्रण प्रयासों की विफलता    

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शस्त्र नियंत्रण प्रयासों की विफलता

Date:30-09-19

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गत अक्टूबर, अमेरिका और रुस के इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्स ट्रीटी (आईएनएफ) की उलटी गिनती शुरू हो गई। अमेरिकी राष्ट्रपति ने इससे हाथ खींचने की घोषणा की और 2 अगस्त को ऐसा कर दिखाया। 1987 में सम्पन्न हुए इस समझौते में दोनों देशों ने निश्चय किया था कि वे 500 से 5,500 कि.मी. दूर तक मार करने वाली सभी जमीनी मिसाइलों को हटा लेंगे।

शीत युद्ध का दौर-

1985 में दोनों देशों ने तीन बिन्दुओं को आधार में रखकर समझौता किया था। इस समझौते को निशस्त्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम माना गया था। हालांकि इसके अंतर्गत हुए समझौते के अनुसार न तो कोई परमाणु हथियार नष्ट किए गए और न ही एयर लांच और सी-लांच मिसाइलों पर प्रतिबंध लगाया गया। आगे भी इस समझौते से अन्य देशों को किसी प्रकार के प्रतिबंधों के लिए विवश नहीं किया गया था। 1991 तक आई एन एफ को लागू किया गया। दोनों ही देशों ने पर्शिंग और क्रूज़ मिसाइल को नष्ट किया। इस समझौते में जमीनी स्तर पर सत्यापन भी किया गया था।

शीत युद्ध की समाप्ति और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद हथियारों की प्रतिस्पर्धा का दौर समाप्त हो गया। सोवियत के पुराने मित्र देश अब नार्थ एलायंसट्रिटी आर्गनाइजेशन (नाटो) से जुड़ने लगे, और यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की इच्छा रखने लगे।

अमेरिका और एंटी बैलिस्टिक मिसाइल समझौता

2001 में अमेरिका ने एंटी बैलिस्टिक मिसाइल ट्रीटी (ए बी एम) से एकतरफा हाथ खींच लिया। आई एन एफ समझौते पर भी काले बादल मंडरा रहे हैं। रूस में नोवाटर के उत्पादन के साथ ही ओबामा प्रशासन ने समझौते के उल्लंघन का आरोप लगाया। रूस ने उल्टे अमेरिका पर पोलैण्ड और रोमानिया में मिसाइलें तैनात करने का आरोप लगा दिया। रुस को लगने लगा था कि अमेरिका ने ए बी एम समझौते से पीछे हटकर एक प्रकार का धोखा दिया है।

2017 के अमेरिका के नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटजी एण्ड द न्यूक्लियर पोस्चर रिव्यू के दौरान रुस को बढ़ती विघटनकारी शक्ति के रूप में आंका गया। पहली बार चीन को हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र में अमेरिका का प्रतिस्पर्धी माना गया, जो भविष्य में इस क्षेत्र से अमेरिका का अस्तित्व मिटा सकता था।

भू-राजनैतिक स्थिति को देखते हुए अमेरिका को आई एन एफ समझौता खटकने लगा। चीन अपनी शक्ति बढ़ाने लगा था। अतः इस दिशा में 2011 को नए स्टार्ट फ्रेमवर्क को लाया गया, जिसकी समयावधि 2021 तक है। राष्ट्रपति ट्रंप ने इसके प्रति अपनी नापसन्दगी दिखाई है, और अगर वे 2020 का चुनाव जीत जाते हैं, तो निश्चित रूप से इसका हश्र भी आई एन एफ जैसा ही होगा।

कम-शक्ति वाले हथियारों का परीक्षण

अमेरिका ने 1999 में क्राम्प्रिहेन्सिव न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी को अस्वीकृत कर दिया था, परन्तु उसका हस्ताक्षरकर्ता बना रहा। सी टी बी टी के लिए अमेरिका, चीन, ईरान, इजरायल और मिस्र का समर्थन और भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया को पालन के लिए तैयार करना होगा। अगर अमेरिका फिर से परीक्षण शुरू करता है, तो यह समझौता भी विफल रहेगा।

शीत युद्ध के द्विपक्षीय समझौतों से अलग, अब परमाणु अस्त्र की दौड़ को रोक पाना मुश्किल है, क्योंकि इसमें कई देश शामिल हो चुके हैं। तेजी से होते तकनीकी परिवर्तनों ने अनेक विवादों को जन्म दिया है। इससे परमाणु अस्त्र नियंत्रण कार्यक्रम पर गहरा प्रभाव पड़ने वाला है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित राकेश सूद के लेख पर आधारित। 24 अगस्त, 2019

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Life Management:30-09-19

30-09-19 (Daily Audio Lecture)

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Today's Daily Audio Topic- ''मुख्य परीक्षा को समझें और वह भी अच्छी तरह से"

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30-09-2019 (Important News Clippings)

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30-09-2019 (Important News Clippings)

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Date:30-09-19

Set For a Climate of Fear ?

Chaitanya Kalbag

Greta Thunberg’s emotional speech at the UN Climate Action Summit on Sept.23 was followed by Donald Trump’s mocking tweet: “She seems like a very happy young girl looking forward to a bright and wonderful future.” But we all know that the 16-year-old Swedish schoolgirl-activist is right. The warnings are crowding in, fast and ominous.

The devastation caused by the ‘stationary’ Hurricane Dorian in the Bahamas in early September was shocking, but so is every bit of news outside of geopolitics and terrorism. Bird censuses in different countries speak of billions fewer feathered friends. Marine life is fast depleting. Glacier melt is accelerating as the cryosphere – the frozen parts of the Earth — shrinks day by visible day, as in the latest news from Mont Blanc. On Tuesday the World Meteorological Organization said rising sea levels, ice loss and extreme weather caused 2015-2019 to be the warmest five years on record. On Wednesday the Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) said warming oceans and rising sea levels as well as ice erosion affect 1.35 billion people in high altitudes and low-lying regions. Urgent action will only make the consequences of global warming more manageable, but not fend them off. “What is at stake is the health of ecosystems, wildlife, and importantly, the world we leave for our children,” said Ko Barrett, vice-chair of the IPCC.

Modi told the UN climate summit that India would spend $50 billion over the next few years on the Jal Jeevan Mission: water conservation and rainwater harvesting. He has also pledged piped water in every rural household by 2024.

Currently only 18% of rural households have water on tap. This is a cart before the horse challenge – how can you ensure universal water supply without water? India consumes more groundwater than the United States and China combined. I wrote recently about our vanishing groundwater and also the shocking evidence of the speed at which Himalayan glaciers are vanishing – which will lead to flooded rivers and more landslides.

In policymaking, the longest distance is between how it is and what you want it to be. This is true of India’s efforts to keep its promise to limit its contribution to global warming and trim greenhouse gas emissions by 33-35% by 2030.

In his brief climate summit speech, Modi said India’s policy was need, not greed. “We believe that an ounce of action is worth more than a ton of preaching,” he said, adding that India was committed to expanding its non-fossil fuel renewable energy capacity to 175 gigawatts by 2022, and beyond that to 450 GW. He did not say by when, but industry experts say it is doable by 2030, if the government attacks it on a war footing.

Take solar panels. Last year the Modi government abruptly imposed a 25% ‘safeguard’ duty on imports of solar panels from China and Malaysia; this is to be ‘diluted’ to 15% by March 2020. The duty has severely hit solar power providers. Then, the new Andhra Pradesh government headed by Y.S. Jaganmohan Reddy abruptly reneged on solar and wind contracts signed by his predecessor, asking for a halving of tariffs to Rs 2.44 per unit, making first-mover projects unviable. The AP High Court has set aside the swingeing cuts but ruled that the state regulator will have the final word. Tariff cuts should only go hand-in-hand with concessional loans for wind farms and solar parks – and the savings passed on to consumers. The trouble is, Vaibhav Chaturvedi of the Council on Energy, Environment and Water (CEEW) told me, 60% of a solar-power company’s costs now go towards servicing debt.

There is much symbolism. Modi spearheaded the International Solar Alliance in 2015, and last week inaugurated the Gandhi Solar Park on the rooftop of the UN headquarters in New York. India’s $1 million gift of 193 panels, one for each UN member country will generate 50 MW of electricity.

India has promised to generate 40% of its electricity from renewable sources by 2030. Will this happen? Renewable energy capacity stood at just above 80 GW, or 7%, at the end of June. The truth is that in absolute terms our carbon emissions will not reduce because of our growing economy and population.

The government’s policies are bafflingly countradictory. The day after Modi’s UN speech, Coal Minister Pralhad Joshi announced that India plans to sharply increase coal production from the current 730 million tonnes to 1.15 billion tonnes by 2023. Last month the government announced it would welcome 100% foreign direct investment in coal mining. Joshi said “despite the push for renewable energy, the country will require base load capacity of coal-based generation for stability.” Coal currently accounts for 75% of electricity generation. The government is opening new mines, expanding the capacity of existing mines and creating new evacuation infrastructure to ramp up domestic output, Joshi said.

Nevertheless, a recent paper by Chaturvedi and fellow researchers at the CEEW is cautiously optimistic. It sees solar-powered electricity generation rising rapidly over the next three decades. Non-fossil fuels could contribute 48% of electricity by 2030 and even 65% if the cost of solar and wind-based electricity generation drops sharply. It needs to rise to 98% of electricity generation by 2050 if India sticks to the target of limiting the rise of global temperatures to under 2°C.

India urgently needs a robust, non-partisan, strategic framework for climate-friendly development; the mission should be headed by a powerful figure, possibly even a deputy prime minister said Leena Srivastava, Deputy Director-General designate of science at the Austria-based International Institute for Applied Systems Analysis.


Date:30-09-19

निगरानी में नाकामी

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने गत सप्ताह देश के सबसे बड़े सहकारी बैंकों में से एक पंजाब ऐंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक में आसन्न संकट पर कदम उठाए। केंद्रीय बैंक ने कहा कि पीएमसी बैंक के बहीखातों की जांच से संकट का पता चला। परंतु सच तो यह है कि इस सहकारी बैंक का प्रबंधन स्वयं अपनी दिक्कतों के साथ आरबीआई के पास गया और उसे बताया कि उन्हें लंबे समय से बकाया फंसे हुए कर्ज का पता चला है। खासतौर पर हाउसिंग डेवलपमेंट ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड(एचडीआईएल) के ऋण। उन्होंने केंद्रीय बैंक से कहा कि उन्हें एक निस्तारण योजना की जरूरत है। समस्या सामने आने के बाद आरबीआई ने तेजी से कदम उठाए जिसके लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए। परंतु यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बतौर नियामक आरबीआई का प्रदर्शन सही नहीं है।

नियामकों को ऐसी समस्याएं शुरुआती संकेतों पर ही समझ जानी चाहिए। आरबीआई को इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि उसके अंकेक्षक वर्षों से चली आ रही इस समस्या को पकडऩे में नाकाम क्यों रहे? यह पहला मौका नहीं है जब आरबीआई निगरानी के काम में नाकाम रहा। इससे पहले वह पंजाब नैशनल बैंक में चल रही धोखाधड़ी को पकड़ पाने में भी नाकाम रहा था। उस मामले में भी तमाम अन्य तकनीक के अलावा स्विफ्ट इंटर बैंकिंग ट्रांसफर सिस्टम का दुरुपयोग किया गया था। बैंकिंग नियामक वर्षों तक धोखाधड़ी का पता लगाने या वहां लगातार हो रही गड़बडिय़ों को रोक पाने में नाकाम रहा। आईएलऐंडएफएस डिफॉल्ट ने गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को ऐसे संकट में धकेल दिया जहां से उबरने में उन्हें अभी भी वक्त लगेगा।

बैंकिंग निगरानी के मामले में आरबीआई की क्षमताओं में इजाफा करने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। पिछले आम बजट में आरबीआई को गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तथा आवास वित्त कंपनियों की निगरानी के और अधिक अधिकार सौंपे गए थे। जबकि एनबीएफसी क्षेत्र की निगरानी के अधिकार होते हुए भी बैंक अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाया था। आरबीआई का यह कहना सही है कि गड़बड़ी करने वालों को रोकने के क्षेत्र में उसकी क्षमताएं बहुत सीमित हैं लेकिन उसे अपने नियमन की गुणवत्ता और क्रियान्वयन पर अवश्य दृष्टि डालनी चाहिए। उसे केवल सुधारात्मक कदम उठाने संबंधी अधिकारों पर तवज्जो नहीं देनी चाहिए। दुख की बात है कि हाल फिलहाल ऐसा ही देखने को मिला है।

सवाल यह है कि आरबीआई की क्षमताओं में किस तरह के सुधार की आवश्यकता है? पहली बात तो यह कि उसके कदमों का स्पष्ट उल्लेेख होना चाहिए। अन्य केंद्रीय बैंक मसलन अमेरिकी फेडरल रिजर्व आदि दिशानिर्देश सार्वजनिक हैं। इनसे जाना जा सकता है कि वे बैंकों की निगरानी किस प्रकार करते हैं। आरबीआई को सार्वजनिक जांच और परिचर्चा की अपनी प्रक्रिया भी सार्वजनिक करनी चाहिए। अंतिम और स्वीकार्य प्रक्रिया तक पहुंचने के बाद आरबीआई अपनी अंकेक्षण और प्रवर्तन क्षमता को इस प्रक्रिया के इर्दगिर्द तैयार कर सकता है। इसी प्रकार नए कानून तैयार करते वक्त भी कठोरता का परिचय देना चाहिए। अब तक इन्हें बनाने में मनमानी और अदूरदर्शिता का परिचय दिया जाता रहा है।

इसके बजाय नए नियम प्रवर्तन क्षमता को ध्यान में रखते हुए तैयार किए जाने चाहिए। इन्हें बनाने के पहले आरबीआई के बोर्ड या उप समिति की मंजूरी से बाहरी विशेषज्ञों से भी राय ली जानी चाहिए। आखिरी बात, आरबीआई के फैसलों के खिलाफ अपील की व्यवस्था चालू होनी चाहिए। प्रतिभूति नियामक के मामले में हमने देखा कि अपील पंचाट की स्थापना के बाद उसके प्रदर्शन में काफी सुधार हुआ। एक बात तो स्पष्ट है कि बैंकिंग नियामक के मामले में यथास्थिति बरकरार नहीं रहने दी जा सकती।


Date:30-09-19

कश्मीर : आंतरिक होकर भी बना अंतरराष्ट्रीय मसला

शेखर गुप्ता

क्या दुनिया को कश्मीर की फिक्र है? उन्हें पता है कि यह उप महाद्वीप का हिस्सा है, जिस पर भारत और कश्मीर झगड़ते रहते हैं, लेकिन कभी-कभार झगड़े में परमाणु हमले की धमकियां सुनाई देने लगती हैं, जिसके बाद लोग यह देखने के लिए दुनिया के नक्शे में सिर खपाते हैं कि कश्मीर आखिर है कहां। अब तक तो हरेक बड़े देश के पास कश्मीर समस्या की एक फाइल ही तैयार हो गई होगी। डॉनल्ड ट्रंप शायद सबसे अच्छे उदाहरण पेश नहीं करते हैं। कम से कम तब तो नहीं, जब भारतीय उप महाद्वीप की बात पर वह पूछते हैं कि यह ‘बटन’ और ‘निपल’ (भूटान और नेपाल के लिए) क्या है। फिर भी जुलाई में इमरान खान के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब उन्होंने कहा कि कश्मीर सबसे खूबसूरत जगह है, जहां हर तरफ बम फटते रहते हैं तो यह बात गौरतलब थी।

वह बारीकियों में नहीं पड़ते और उनका सामान्य ज्ञान ‘यूपीएससी’ पार करने के लायक नहीं है। इसीलिए उनके दिमाग ने पहली बार कश्मीर को ‘बड़ी चीज’ तब माना, जब फरवरी में पुलवामा हमला हुआ। वास्तव में उनके अब तक के कार्यकाल में कश्मीर में यही पहला बड़ा धमाका था। इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि कश्मीर के बारे में कोई भी अच्छी खबर भारत के कूटनीतिक और राजनीतिक हित के लिए खबर नहीं है। कश्मीर में 30 वर्ष पहले आतंकवाद शुरू हुआ था और तब से केवल 1991 से 1994 के दरम्यान दुनिया का ध्यान कश्मीर समस्या पर गया था, जब पीवी नरसिंह राव ने आतंकवाद के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया और हरेक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन तथा बिल क्लिंटन की पहली सरकार आपा खो बैठी। उन्होंने इस मुसीबत को कुचला और उसके बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया को कश्मीर में दाखिल होने की इजाजत देकर और 1993 में खुद भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग गठित कर भारत तथा कश्मीर के बारे में दुनिया के नजरिये को कुछ बेहतर बनाया। उसके बाद से उन्होंने कश्मीर को ठंडे बस्ते में ही डालने की कोशिश की। वरना उन्होंने कश्मीर को रणनीति के तौर पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी। एक साक्षात्कार में जब मैंने राव से पूछा कि कश्मीर में उन्हें आगे क्या दिखता है तो उन्होंने कहा, ‘भाई, वे कुछ करेंगे, हम कुछ करेंगे, आखिर में हिसाब बराबर हो जाएगा।’ उन्होंने यह बात अपनी अंगुली हवा में कुछ इस तरह हिलाते हुए कही मानो दो समांतर रेखाएं बनाते हुए गणित का कोई सवाल हल कर रहे हैं और उनके बीच में ‘बराबरी’ दिखा रहे हैं। उनकी कोशिश यहीं तक रही।

शिमला समझौते के बाद के दशकों में अटल बिहारी वाजपेयी समेत विभिन्न प्रधानमंत्री कश्मीर मसले को कम महत्त्व देने की ही रणनीति पर ही चलते रहे। पाकिस्तान के बारे में तमाम सवाल, चाहे वे युद्घ के कगार पर पहुंचने (कारगिल, ऑपरेशन पराक्रम) के समय ही क्यों न पूछे गए हों, आतंकवाद तक ही सीमित रखे गए। कश्मीर को कभी मसला बनने ही नहीं दिया गया। यह नीति लंबे अरसे तक कारगर रही। 11 सितंबर के बाद जब अमेरिका पाकिस्तान को पुचकारने में जुट गया और पाकिस्तान के ‘सैन्य प्रशासन’ के हौसले बढ़ गए, उस वक्त भी कश्मीर पर बात नहीं हुई। पाकिस्ताान बेचैन हुआ तो अमेरिका और उसके साथियों ने उसे शांत रहने की राय दी। वे ध्यान बंटने नहीं देना चाहते थे। दूसरी ओर भारत ने नए हालात का चतुराई से इस्तेमाल किया: अपने बिगड़े बच्चे को काबू में रखो वरना अगर पूरी तरह पाकिस्तान के भरोसे बैठने के आपके मंसूबों पर हम पानी फेर दें तो शिकायत मत करना।

इसके तीन नतीजे हुए। पहला, दुनिया मानने लगी कि दोनों देशों ने सामरिक संतुलन बना लिया है, संकट छोटे स्तर पर ही रहेगा। दूसरा, खस्ता अर्थव्यवस्था वाले पाकिस्तान और फर्राटा भरती अर्थव्यवस्था वाले भारत को यथास्थिति बनाए रखने में ही हित दिखने लगा है। और तीसरा, कि दोनों देश नियंत्रण रेखा को ही वास्तविक सीमा मानने की दिशा में बढ़ रहे हैं। जैसा कि तंग श्याओ फिंग ने राजीव गांधी से कहा था, औपचारिक समाधान समझदार पीढ़ी के लिए छोड़ देना चाहिए। वास्तव में 1990 के दशक में कश्मीर पर खबरें करते समय मैंने सबसे बढिय़ा पंक्तियां दक्षिण एशिया के लिए अमेरिका की सहायक विदेश सचिव रॉबिन राफेल से सुनीं, जिन्हें यहां दोस्त के तौर पर नहीं देखा जाता था। कश्मीर को भारत में शामिल करने के समझौते पर सवाल उठाकर तूफान खड़ा करने के बाद उन्होंने दार्शनिक अंदाज में कहा, ‘कश्मीर को रखना या खोना भारत के ही हाथों में है।’

मोदी सरकार में भारत ने पिछली सरकारों की कश्मीर रणनीति से हटते हुए यथास्थिति खत्म कर दी। पाकिस्तान ने युद्घ की धमकी दी मगर फिर पीछे हट गया। उसे दिख गया कि उसकी सेना की क्षमता काफी कम है और दुनिया में कोई भी उसके साथ नहीं है। न्यूयॉर्क में इमरान खान की प्रेस कॉन्फ्रेंस की वीडियो क्लिप देखिए, जिसमें वह बौखलाकर कह रहे हैं: हम जो कर रहे हैं, उसके अलावा और क्या कर सकते हैं? हम भारत पर हमला नहीं कर सकते। यहां तक तो ठीक है। दिक्कत इसके बाद शुरू होती है। आप मानें या न मानें, करीब आधी सदी के बाद कश्मीर अंतरराष्ट्रीय मसला बन गया है। उसे अंतरराष्ट्रीय बनाने का काम पाकिस्तान नहीं भारत ने किया है। अगर आप पक्षपात करेंगे तो आपको यह स्थिति भारत के लिए उत्साहजनक लगेगी क्योंकि चीन और तुर्की के अलावा किसी भी देश ने इस बात का विरोध नहीं किया है कि 5 अगस्त का बदलाव भारत का आंतरिक मामला है और किसी ने 5 अगस्त से पहले की यथास्थिति पर लौटने की मांग भी नहीं की है। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है।

अमेरिका समेत कई देशों को चिंता है कि कश्मीर में अब क्या होगा। जब इमरान कहते हैं कि नरसंहार हो रहा है तो कोई यकीन नहीं करता। श्रीनगर में ‘सामान्य स्थिति’ दिखाती ड्रोन की तस्वीरों से भी किसी को राहत नहीं मिलती। माना जा रहा है कि घाटी को बलपूर्वक ठप कर दिया गया है और हजारों लोगों को मुकदमे के बगैर ही बंद कर दिया गया है। इस मामले में दुनिया का सब्र जल्द ही खत्म हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र का सप्ताह खत्म हो गया है। पाकिस्तान को अलग-थलग करने वाली ‘कूटनीतिक जीत’ पर जश्न मनाया जाएगा। नरेंद्र मोदी न्यूयॉर्क से नकारात्मक से ज्यादा सकारात्मक नतीजे लेकर लौट रहे हैं। ‘कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है’ के भारत के पुराने जुमले पर किसी ने आपत्ति नहीं की। व्हाइट हाउस से जारी रिपोर्ट के अनुसार मोदी के साथ मुलाकात में ट्रंप ने उनसे सामान्य स्थिति बहाल करने और कश्मीर के लोगों से किए वायदे पूरे करने के लिए ही कहा, 5 अगस्त से पहले की स्थिति पर लौटने के लिए नहीं। लेकिन कश्मीर में नए हालात ने पाकिस्तान को और अलग-थलग करने के बजाय दुनिया का ध्यान खींचने में और खुद को पीडि़त के तौर पर पेश करने में उसकी मदद की है।

यदि न्यूयॉर्क में भारत-पाकिस्तान की सालाना तू-तू-मैं-मैं के इस बार के मुकाबले में कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला स्वीकार किया जाना ही कूटनीति उपलब्धि है तो इसके भविष्य और भारत के सर्वोच्च राष्ट्रहित की कुंजी भी इसी में है। एक हफ्ता बीतेगा और संचार सेवाएं बंद किए दो महीने पूरे हो जाएंगे। संचार बंद हुए हफ्तों बीत चुके हैं। इसे बहाल करने में देर होने से कश्मीरियों का गुस्सा बढ़ रहा है। जितनी देर होगी, गुस्सा फूटने, हिंसा और खूनखराबे का खतरा उतना ही बढ़ जाएगा। ऐसे में हालात अक्सर बेकाबू हो सकते हैं।

दुनिया कश्मीर पर कुछ बोल नहीं रही है, लेकिन उसे फिक्र है। मामले का इतना अंतरराष्ट्रीयकरण तो हो ही गया है। 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद एक हफ्ते में कम से कम 40 लोग मारे गए थे। अब किशोर उम्र के असरार वानी की मौत से विवाद खड़ा हो गया है। दुनिया कश्मीर को देख रही है। 5 अगस्त से चल रही बंदी को आम बात या नई यथास्थिति मान लेना खतरनाक होगा।


Date:28-09-19

बदलते पर्यावरण के उलझे सवाल

सुनीता नारायण

आज प्रश्न यह नहीं है कि क्या जलवायु परिवर्तन वाकई एक हकीकत है? सवाल यह है कि हम अब क्या कर सकते हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ता तापमान और बदलता मौसम तबाही मचा रहे हैं। लिहाजा तत्काल जरूरत ऊर्जा प्रणालियों में संरचनात्मक बदलाव लाने की है। संयुक्त राष्ट्र का हालिया जलवायु परिवर्तन सम्मेलन इसी कड़ी का एक और उदाहरण था, जो इसलिए बुलाया गया, ताकि मौसम में हो रहे बदलाव को रोकने के लिए तमाम सदस्य देश अधिक से अधिक प्रयास कर सकें। इस समस्या का वास्तविक समाधान आखिर कहां है? इस लिहाज से कुछ अच्छी खबरें भी आई हैं। इन पर हमें गौर करना चाहिए। मगर इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले यह भी जरूर समझ लेना चाहिए कि ‘जलवायु न्याय’ (ग्लोबल वार्मिंग को विशुद्ध पर्यावरणीय मसला मानने की बजाय इसे नैतिक और राजनीतिक मुद्दा मानना) की अवधारणा को यदि हम स्वीकार नहीं करेंगे, तो मौसम का बदलाव कहीं अधिक परेशानी पैदा करेगा और दिन-ब-दिन यह दु:साध्य होता जाएगा।

तो अच्छी खबरें क्या हैं? दरअसल, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) की ‘ग्लोबल एनर्जी द सीओटू स्टेटस रिपोर्ट-2018’ जारी की गई है, जो बताती है कि वैश्विक ऊर्जा खपत में तेजी आई है। यह वृद्धि साल 2010 के बाद की औसत विकास दर की दोगुनी है। यह इसलिए बढ़ी है, क्योंकि दुनिया भर में आर्थिक विकास मजबूत हुए हैं और जलवायु परिवर्तन के कारण अजीबोगरीब मौसमी परिघटनाएं हो रही हैं। इस कारण ऊर्जा से संबंधित कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन का स्तर भी बढ़ गया है, क्योंकि बिजली उत्पादन क्षेत्र दो-तिहाई उत्सर्जन करता है। साल 2018 में तेल की मांग में 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई, और इसीलिए कोयले की मांग भी बढ़ी है; लेकिन पहले की तुलना में कोयले की मांग में वृद्धि दर धीमी है। फिर भी, कोयले पर हमारी निर्भरता सबसे ज्यादा है और कोयला आधारित बिजली संयंत्र अब भी (2018 में) कार्बन डाई-ऑक्साइड का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि औद्योगिक क्रांति के पूर्व के स्तरों की तुलना में आज जितना तापमान बढ़ा है, उसमें 0.3 फीसदी से लेकर एक फीसदी तक वृद्धि के लिए कोयला-दहन ही जिम्मेदार है।

इसमें कुछ नए रुझान दिख रहे हैं, जिन्हें यदि गति दी गई, तो निश्चय ही भविष्य के खतरे को हम टाल सकेंगे। पहला रुझान यह कि ऊर्जा-उत्पादन में कोयले की जगह अब प्राकृतिक गैस इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसमें दुनिया भर में करीब 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, क्योंकि बिजली संयंत्रों में प्राकृतिक गैस को कोयले का विकल्प माना जाने लगा है। यह ज्यादातर अमेरिका में हुआ है, और चीन में भी, जहां वायु प्रदूषण को थामने की नीति (ब्लू स्काई इनीशिएटिव) के तहत औद्योगिक बॉयलरों और बिजली संयंत्रों में कोयले के उपयोग को कम करने पर जोर दिया गया। आईईए का अनुमान है कि कोयले की बजाय यदि प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल नहीं किया जाता, तो कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन 15 फीसदी अधिक होता। हालांकि उल्लेखनीय यह भी है कि प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल से मीथेन का उत्सर्जन ज्यादा होता है, जो खुद एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, और आईईए ने फिलहाल इस रिपोर्ट में इसका लेखा-जोखा तैयार नहीं किया है।
दूसरा रुझान यह है कि सौर, पवन, पानी और जैविक उत्पादों से पैदा होने वाली अक्षय ऊर्जा की ओर दुनिया बढ़ने लगी है। आईईए के मुताबिक, अक्षय ऊर्जा आधारित बिजली उत्पादन में सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2010 के बाद की सालाना विकास दर से यह एक अंक ज्यादा है। अक्षय ऊर्जा में हुई कुल बढ़ोतरी में 40 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है, जबकि यूरोप की लगभग 25 फीसदी। दिलचस्प है कि अमेरिका और भारत भी अक्षय ऊर्जा में 13 फीसदी की बढ़ोतरी के साझीदार हैं। रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कोयले के बाद अक्षय ऊर्जा से ही सबसे ज्यादा बिजली (करीब एक चौथाई) पैदा की गई। जर्मनी और ब्रिटेन में भी बिजली जरूरतों का 35 फीसदी उत्पादन अक्षय ऊर्जा से हो रहा है। कुल मिलाकर कहें, तो प्राकृतिक गैस की तरफ यदि हम उन्मुख न हुए होते, परमाणु व अक्षय ऊर्जा में वृद्धि न हुई होती, तो पिछले साल कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन 50 फीसदी अधिक होता। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।

हालांकि यह पर्याप्त नहीं है। ऊर्जा प्रणालियों में यह संरचनात्मक बदलाव अधिक से अधिक संभव बनाया जाना चाहिए, क्योंकि दुनिया के कुछ खास हिस्सों को ज्यादा ऊर्जा की जरूरत है। यह एक बड़ी चुनौती है और इस मामले में हम पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। जैसे कि अमेरिका को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की सख्त जरूरत है। वह पहले से इन गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। करीब-करीब एक चौथाई उत्सर्जन वही करता है। उसे इसमें कमी लानी होगी। मगर 2018 में, कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में वहां 3.7 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। यह स्थिति तब है, जब कोयले की बजाय प्राकृतिक गैस की ओर वह उन्मुख हुआ है। इसका अर्थ यह है कि उसने अपने उत्सर्जन को इस हद तक बढ़ा दिया कि ऊर्जा प्रणालियों में संरचनात्मक बदलाव का फायदा उसे नहीं मिल सका। ‘ग्लोबल एनर्जी द सीओटू स्टेटस रिपोर्ट’ में मीथेन उत्सर्जन को शामिल नहीं किया गया है, अन्यथा यह तस्वीर और स्याह होती। इसे कतई सुखद स्थिति नहीं कह सकते। इसी तरह, अमेरिका में तेल की खपत बढ़ गई है, जिसका मूल रूप से इस्तेमाल सड़क-परिवहन में होता है। चीन और भारत से भी यदि तुलना करें, तो यह वृद्धि काफी अधिक है। जबकि अमेरिका में निजी गाड़ियों का स्वामित्व और उपयोग पहले से ही बहुत ज्यादा है। ऐसे में, सवाल यही है कि तमाम देश आखिर किस तरह उत्सर्जन कम करेंगे? अल्पविकसित व विकासशील देशों और गरीबों के विकास के अधिकार के साथ इसका किस तरह से तालमेल बिठाया जाएगा? क्या यह संभव हो सकेगा; अगर हां, तो कैसे? ये चंद ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें चर्चा करनी चाहिए। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जो हो रहा है, उसका सच यही है।


Date:29-09-19

सकारात्मक पहल

संपादकीय

स्वागतयोग्य है कि श्रम मंत्रालय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को रोजगार देने वाली सार्वजनिक एवं निजी कंपनियों को प्रोत्साहन देने पर विचार कर रहा है। खास बात यह कि श्रम मंत्रालय कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के जरिये सार्वजनिक ही नहीं, निजी क्षेत्र में काम करने वाले अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों के भी आंकड़े जुटा रहा है। इसका मकसद है इस प्रोत्साहन योजना के वित्तीय प्रभावों का आकलन किया जा सके। अगर यह योजना फलीभूत होती है, तो इसके दो फायदे होंगे। एक तो रोजगार प्रदाता को रोजगार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और दूसरे इन कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा मिल जाएगी। हालांकि इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाने में समस्या आएगी, लेकिन यह असंभव भी नहीं है। यहां सवाल यह उठता है कि सरकार को इस तरह की पहल की जरूरत क्यों पड़ गई? भारत सरकार पहले से ही अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को सकारात्मक पहल के तहत सरकारी क्षेत्र में आरक्षण प्रदान कर रही है, ताकि प्रशासन में उनके समुचित प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन पिछले तीन दशकों में उदारीकरण और निजीकरण ने रोजगार के परिदृश्य को बदल दिया है। सरकारी क्षेत्र में नौकरियां या तो स्थिर हैं या कम हो रही हैं, जबकि निजी क्षेत्र में नौकरियां बढ़ रही हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की जाती रही है। इनकी नजर में अगर उदारीकरण के दौर में निजी क्षेत्र में आरक्षण नहीं मिलता है, तो सामाजिक न्याय की अवधारणा मजाक बन जाएगी। लेकिन उद्योग जगत ऐसे किसी आरक्षण के खिलाफ है। उसे लगता है कि कुशल श्रम के अभाव में वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को आरक्षण देने के लिए उद्योग जगत कानूनी दृष्टि से बाध्य नहीं है। ऐसे में बीच का रास्ता यही था कि उद्योग जगत को इस समुदाय के उम्मीदवारों को रोजगार देने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। लेकिन इन दोनों समुदायों की बदहाल शैक्षिक स्थिति के मद्देनजर इस बात में संदेह है कि ये फिलहाल इसका समुचित लाभ उठा पाएंगे। सवाल केवल नौकरी का ही नहीं है, बल्कि अच्छे वेतन वाली नियमित नौकरी का भी है।


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बुनियाद को मजबूत करे सरकार

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बुनियाद को मजबूत करे सरकार

Date:01-10-19

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भारत में प्रतिवर्ष लगभग 1.2 करोड़ युवा रोजगार के लिए तैयार हो रहे हैं। संभवतः इसी के चलते सरकार ने 2030 तक भारत को 05 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुँचाने का स्वप्न देख लिया है। समस्या हमारी शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी है, जो इस स्वप्न की राह रोके खड़ी है। जब तक हम स्कूली स्तर पर सार्वभौमिक गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया नहीं कराते हैं, तब तक भारत के विकास की गाथा पूरी नहीं हो सकती है।

कुछ तथ्य

  • पिछले दस वर्षों में, शिक्षा के अधिकार कानून के बाद छः से 14 वर्ष तक की उम्र के 26 करोड़ से अधिक बच्चों का स्कूलों में नामांकन हुआ।
  • स्कूलों में नामांकन मात्र से बच्चों के पढ़ने-लिखने की क्षमता में विकास हुआ हो, ऐसा जरूरी नहीं है।

2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार तीसरी कक्षा के केवल एक-चैथाई बच्चे ही कक्षा दो की पुस्तकेें पढ़ने और दो अंको वाले समीकरण करने में सक्षम थे।

राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के अनुसार भी अपने प्रारंभिक वर्षों में बच्चे महत्वपूर्ण कौशल से लैस नहीं हो पा रहे हैं।

  • उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा व्यवस्था का लाभ तभी है, जब वह स्कूल पूरा करने वाले बच्चों में बुनियादी नींव को मजबूत कर दे।

ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के प्रादुर्भाव के साथ ही नई चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। अशिक्षित और अकुशल कार्यबल के साथ हम इसका मुकाबला नहीं कर सकते। प्राथमिक स्तर पर दी जाने वाली कमजोर शिक्षा के कारण उच्च शिक्षा और कौशल विकास में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं।

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में बुनियादी साक्षरता और संख्या गणित को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। पढ़ने, लिखने और छोटे गुणा-भाग आदि को आवश्यक शर्त माना गया है। अगर हम इस स्तर को प्राप्त करने में असफल रहते हैं, तो जनसंख्या के एक बड़े भाग के लिए किए जाने वाले हमारे प्रयास व्यर्थ समझे जाएंगे।
  • शोध बताते हैं कि शिक्षा के प्रारंभिक वर्षों में कक्षा तीन एक महत्वपूर्ण मोड़ होता है। इस उम्र तक आते-आते बच्चों को पढ़ना आ जाना चाहिए, तभी उनमें आगे सीखने की समझ विकसित हो पाएगी। इस उम्र से आगे निकल जाने पर बच्चों को बुनियादी ज्ञान देना बहुत मुश्किल हो जाता है।

आंध्र प्रदेश में 40,000 बच्चों पर किया गया सर्वेक्षण बताता है कि कक्षा एक से पाँच तक के अधिकतर बच्चे, बुनियादी कौशल की कमी से पिछड़ते जा रहे हैं।

  • बुनियादी शिक्षा और कौशल की सबसे अधिक कमी गरीब परिवारों और परिवार में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी होने वाले बच्चों में देखने को मिलती है। प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षक पाठ्यक्रम और आसानी से समझ जाने वाले बच्चों पर अधिक ध्यान देते हैं। इस सोच और पद्धति के कारण पीछे छूटे बच्चे और अधिक पीछे छूटते चले जाते हैं।
  • हमारे देश में गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करना अत्यंत जटिल है। हमारे पास तमाम चीजों को प्राप्त करने के लिए संसाधन भी नहीं हैं।

इन सब कमियों को दूर करके एक प्रभावशाली शिक्षा व्यवस्था को चार स्तंभों पर खड़ा किया जा सकता है।

1.सरकार को बुनियादी शिक्षा पर पूरा ध्यान देना चाहिए। इसके लिए मुख्य कारणों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। लिखने-पढ़ने की कुशलता तथा गणितीय योग्यता के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

2.कक्षाओं में दी जाने वाली शिक्षा की कमी को दूर करना दूसरा स्तंभ है। इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण चाहिए। शिक्षा देने और सीखने के लिए जरूरी सामग्री, उपकरण, प्रशिक्षण और शिक्षकों को सहयोग आदि पर काम किया जाना है।

3.शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक है। तभी वे प्राथमिक स्तर पर प्रभावशाली तरीके से बच्चों में पढ़ने-लिखने और सीखने की समझ विकसित कर पाएंगे।

4.पूरे तंत्र में सुधार के लिए निरीक्षण और पैमाइश को बढ़ाना देकर सुधार किया जा सकता है।

पेरु में कक्षा 2 के छात्र से एक मिनट में 40 शब्द व कक्षा 3 के छात्र से 60 शब्द पढ़ने की अपेक्षा रखी जाती है। यह उनका गुणवत्ता जाँच का निश्चित पैमाना है।

वैश्विक नेतृत्व के लिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना आवश्यक है। बुनियादी शिक्षा में सुधार करना समय की मांग है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित आशीष धवन के लेख पर आधारित। 13 सितम्बर, 2019

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01-10-2019 (Important News Clippings)

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01-10-2019 (Important News Clippings)

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Date:01-10-19

Workplace Not Darkplace

Employers should eliminate the stigma around discussing mental health at work

Jeffrey Pfeffer & M Muneer , [Jeffrey Pfeffer is a professor at Stanford Graduate School of Business, M Muneer is co-founder of Medici Institute Foundation]

Last year, an email sent by an employee to her colleagues went viral in social media. She just wrote she needed a break to focus on her mental health. The reason it went viral was her CEO’s reply: “I just wanted to personally thank you for sending emails like this… You are an example to us all.”

But such a response is all too often the exception. More frequently, depression and stress are ignored or stigmatised, not treated as the real illnesses – threats to physical and psychological health and productivity – that they are.

Mental health problems and associated costs are a worldwide issue. But a 2017 WHO report finds that 18% of global depression cases emanate from India. About 57 million people! A 2016 survey of 200,000 professionals in India found that 46% reported suffering extreme stress as a consequence of their work. An Assocham study shows 43% of private sector employees in India are afflicted with mental health issues at work. Adjusted for population size, India ranks first in the incidence of mental disorders, and low- and middle-income countries tend to have the highest incidence.

The cost burden of mental problems is enormous. Depression shows much comorbidity with other diseases, and research indicates that depression leads to other health problems including cardiovascular disease and diabetes. A systematic review of studies of work-related stress estimated costs to be as high as $1 trillion per year, with the majority of the expense coming from lost productivity, not direct health costs. We believe that learning and talking about mental health issues at work is a necessary first step to improving mental health in the workplace, and by extension, curbing the enormous costs they create.

Typical symptoms of depression amongst working professionals include mood-swings, anxiety, agitation and apathy; insomnia; difficulty in waking up in the morning; lethargy and drowsiness, lack of interest in daily affairs; over-eating, or conversely, loss of appetite, unexplained aches and pains in the body; and increased consumption of alcohol, tobacco.

As clinical depression has risen by around 50% in the last eight years, there has been an increase in other ailments including obesity, diabetes, hypertension and cardiac disorders. Major depression increases absenteeism, ‘presenteeism’ (reduced productivity) and has direct medical costs.

Employers should build cultures of physical and mental health in their workplaces through management practices that promote wellbeing. In order to get to a place where managers and employees understand the implications of mental health at work, enterprises should stop treating it as something distinct (and less important) than other forms of illness. They should provide comprehensive mental health coverage as part of their medical benefits, all while working to reduce the stigma.

Yet, in India, till a few months ago, mental illness has always been in the list of exclusions of health insurance policies. The Indian Mental Healthcare Act came into effect only in 2017, which prompted Irda to mandate insurers to offer this as part of the normal health policy in 2018. In contrast, the US had passed a mental health parity law mandating equal medical coverage for mental and physical illness way back in 2008, but big differences in coverage and access remain. One study found that behavioural care was between “4-6 times more likely to be out-of-network than medical or surgical care”, and insurers paid primary care providers 20% more for the same types of care than they paid addiction or mental health specialists.

An important first step is reducing the stigma associated with admitting any sort of mental distress. One board member said that he would vote out a CEO if he admitted to mental illness. An article about depression in the technology industry noted that admitting to depression could harm company perception and would put funding at risk. A second step entails recognising mental problems as “real” diseases like cancer or heart disease. Neuroimaging studies show changes in the physiology of the brain diagnosed with depression.

Ultimately, the best way companies can eliminate the stigma around mental health at work is to just start talking about it. EY, for example, launched a programme called We Care with the goal of educating employees about mental health issues and encouraging them to seek help. The programme is also centred on support for colleagues who may be struggling with it. Many companies are proactively tying up with an external partner to offer Employee Assistance Programmes. Some organisations are training managers regularly to spot symptoms and offer assistance early. And once the lines of communication are open, HR departments can (and should) consider offering benefits that provide more accessible mental healthcare.

Indian organisations can lead on this front by encouraging employees to get trained regularly, giving them frequent breaks, having stress buster sessions, urging them to break large assignments into smaller ones, and ensuring proper work-life balance. That’s probably easier said than done!

Mental illness is enormously costly, yet research advances make the effective treatment of disorders such as anxiety and depression much more possible. Recent research in psychology identified six specific neuro-imaged forms of depression. When treatment was matched to the specific manifestation of the disease – precision medicine applied to mental health – the effectiveness of treatment was substantially enhanced.

For reasons both economic and humane, employers should work to destigmatise mental disorders, increase insurance coverage of treatments and ensure that care uses the best, most recent available evidence.


Date:01-10-19

Give to Take in Trade Talks with US

ET Editorials

India must show flexibility in the course of the ongoing trade talks with the US. India can afford to be amenable to give and take in a few areas that can be leveraged for give and take in other areas. Freer trade that includes removing barriers for American companies will be in our interest, even if there is no re-instatement of tariff concessions under the Generalised System of Preferences (GSP). The US wants India to lower or remove the import duty on mobile phones and Ethernet switches. It has also sought more access to the Indian market for medical devices such as stents and knee implants, besides dairy and farm products. Some of them, such as lowering the duty on mobile phone and other information and communications technology (ICT) products and reviewing price controls on medical devices, are doable.

India had earlier raised the duty on mobile phones to 20% along with a host of telecom products ostensibly to promote Make in India. Although India is not a tariff king as accused by the US, such abrupt changes in policy harm investment, hurt user industries here and exporters to India. The notion that import substitution by raising tariffs will promote manufacture is flawed. Instead, the aim should be to at least halve the duties on ICT products, and eventually cut import duties to 5% across the board. The need is also for India to clean up the chaotic field of intellectual property, and provide efficient infrastructure to house production units.

A review of price caps on medical devices such as coronary stents is in order. Prices must be brought down, but the way to do that is through bulk purchases, roping in insurance firms and hospitals. This calls for coordination at home, on the basis of data analytics, rather than fancy negotiations abroad.


Date:01-10-19

आशावादी नजरिया

संपादकीय

यदि आशावादी दृष्टिकोण से देखें और वैश्विक भूराजनीति को प्रभावित करने वाले राष्ट्र के रूप में भारत के कद की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमेरिका यात्रा को सफल करार दिया जा सकता है। ह्यूस्टन शहर में 50,000 उत्साही प्रतिभागियों के समक्ष रैली में मोदी के साथ अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की उपस्थिति के बाद अमेरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान के समक्ष भारत और भारतीय-अमेरिकियों की महत्ता के बारे में कुछ भी छिपा नहीं रह गया है। इस रैली का प्रसारण 30 लाख भारतीय अमेरिकियों तक पहुंचा। प्रधानमंत्री की यात्रा के ऐन पहले कॉर्पोरेशन कर में कटौती के बाद निवेशकों और कारोबारियों तक प्रधानमंत्री की बात भी ज्यादा प्रभावी ढंग से पहुंची होगी।

बहरहाल प्रधानमंत्री की यात्रा के पहले देश में जिस तरह की अपेक्षाएं पैदा हुई थीं, उन्हें देखते हुए कहीं न कहीं कमी रह गई। सबसे अहम बात यह है कि दोनों देशों के बीच चले आ रहे कारोबारी तनाव में कोई प्रगति देखने को नहीं मिली। चीन व्यापारिक तंत्र को जिस तरह का बड़ा नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है, उसे देखते हुए कम से कम भारत और अमेरिका ऐसी लड़ाई को टाल सकते थे। चीन की गतिविधियां भारत और अमेरिका को एक समान नुकसान पहुंचा रही हैं। माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप के बीच छोटी मोटी व्यापारिक संधि हो सकती है और दोनों देशों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों की टकराहट समाप्त हो सकती है। हाल के दिनों अमेरिका द्वारा भारतीय निर्यातकों की शून्य टैरिफ कार्यक्रम की अर्हता समाप्त करने और भारत द्वारा इलेक्ट्रॉनिक्स और चिकित्सा उपकरण क्षेत्रों में संरक्षणवादी रुख अपनाने से दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा है। यकीनन ऐसा समझौता हो सकता है जिससे दोनों देशों को फायदा हो। बहरहाल, खेद की बात है कि इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो रही। यहां तक कि मोदी की यात्रा का रुख तय करने वाला माना जा रहा एलएनजी पेट्रोनेट और अमेरिकी कंपनी का समझौता भी दूसरे दिन आशंकाओं के घेरे में आ गया जब भारतीय शेयर बाजार इस सौदे को लेकर कुछ कड़े सवाल कर बैठे। बाद में पता चला कि यह समझौता नहीं बल्कि केवल एक और समझौता ज्ञापन था। दोनों देशों के व्यापारिक रिश्तों में सुधार की दृष्टि से ऊर्जा क्षेत्र का यह सहयोग उतना प्रभावी नहीं रहा जितनी अपेक्षा थी।

खेद की बात यह भी है कि आर्थिक रिश्तों को नए सिरे से तय करने के बजाय ढेर सारी ऊर्जा जम्मू कश्मीर (अब पूर्व) के बदले हुए राजनीतिक दर्जे के अंतरराष्ट्रीय असर पर खर्च कर दी गई। हालांकि यह हमारा आंतरिक मामला है लेकिन यह आशा करना व्यर्थ है कि ट्रंप या किसी भी अन्य नेता के नेतृत्व वाला अमेरिका इस मुद्दे की पूरी तरह अनदेखी करेगा या पाकिस्तान को पूरी तरह अलग-थलग करेगा। भले ही पाकिस्तान कितनी भी आक्रामकता दिखाए। ह्यूस्टन की रैली में शामिल होने के बाद ट्रंप प्रेस के साथ मुलाकात में लगातार पाकिस्तान के क्षेत्रीय आतंकवाद का गढ़ होने से जुड़े सवालों से बचते रहे। यह भी भारत के लिए दिक्कत की बात है। प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जो भाषण दिया उसमें उन्होंने जलवायु परिवर्तन के संकट से लड़ाई समेत तमाम व्यापक चिंताओं पर भारत की प्रतिबद्धता की बात की। आशावादी दृष्टिकोण से इस यात्रा को खारिज नहीं किया जा सकता और इसने घरेलू तौर पर प्रधानमंत्री की वैश्विक नेता की छवि को मजबूत ही किया है। परंतु सच तो यह है कि अपनी इस यात्रा के दौरान वह भारत के लिए गिनेचुने ठोस लाभ ही हासिल कर पाए।


Date:01-10-19

नियामकों द्वारा कानून का उल्लंघन और कारोबारी सुगमता का मसला

सोमशेखर सुंदरेशन

प्रतिभूति अपील पंचाट ने कहा है कि अधिग्रहण नियमों के अधीन किसी अवयस्क को खुली पेशकश नहीं करने के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता। प्रतिभूति बाजार में यह अवयस्क न्याय से जुड़ा इकलौता मामला नहीं है। पंचाट ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को प्रतिभूति नियमन से जुड़े एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की याद दिलाई और दोहराया कि सेबी को ऐसे अवयस्कों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए जिनके नाम का उपयोग करके वयस्कों ने प्रतिभूति का लेनदेन किया हो और जवाबदेही न निभाई हो।

इस मामले में त्रासदी यह है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सन 2008 में आया था। अदालत ने कहा था कि एक अल्पवयस्क जो कानूनन अनुबंध करने में अक्षम है, उसे प्रतिभूतियों के सार्वजनिक निर्गम से जुड़े प्रतिभूति नियमों के अधीन जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है। फिर भी करीब एक दशक बाद सन 2017 में सेबी ने एक अवयस्क को अधिग्रहण नियमों के कथित उल्लंघन के मामले में कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। इससे न्यायिक अनुशासन की कमी की बात सामने आती है।

न्यायिक अनुशासन तोडऩे के मामलों में देश की अदालतें उदार रही हैं। न्यायिक फैसलों में निचली अदालतों तथा उन नियामकीय प्राधिकारों की काफी आलोचना की जाती है जो बड़ी अदालतों के फैसलों को न मानते हुए न्यायिक अनुशासन भंग करते हैं। परंतु बहुत कम मौकों पर ऐसा होता है जब ऐसे लोगों के खिलाफ कोई गंभीर कदम उठाया जाता हो। कुछ न्यायाधीश सरकारी एजेंसियों पर जुर्माना आदि लगाते हैं। बहरहाल, नियामकीय अधिकारियों के प्रदर्शन के आकलन के क्रम में न्यायिक नियमों के उल्लंघन को मापने का कोई पैमाना नहीं है। हकीकत में नियामकों के सबसे वरिष्ठ प्रबंधन के प्रदर्शन का आकलन ही नहीं होता।

नियामकीय प्राधिकार की बात करें तो उनमें विधायी, कार्यकारी और अद्र्ध न्यायिक अधिकार शामिल होते हैं। परंतु न्यायिक अनुशासन भंग करने के मामले में वे अव्वल नजर आते हैं। अदालतों द्वारा घोषित कानूनों के बावजूद ऐसे अवसर आते हैं। इसका एक साधारण सा उदाहरण है ऐसे व्यक्ति को रिकॉर्ड की जांच न करने देना जिस पर नियमन के उल्लंघन का आरोप हो। अदालतों ने बारंबार कहा है कि रिकॉर्ड पर प्रस्तुत सामग्री का संपूर्ण अवलोकन उपलब्ध कराया जाना चाहिए, बजाय कि केवल उस सामग्री के जिसका इस्तेमाल आरोप लगाने के लिए किया गया हो।

जब कोई नियामक आप पर कानून उल्लंघन का आरोप लगाता है तो उसे न केवल आपको यह बताना चाहिए कि आपके खिलाफ उसके पास क्या है बल्कि उसे आपको भी तमाम सामग्री तक पहुंच उपलब्ध करानी चाहिए ताकि आप आरोपों को खारिज करने में उनका इस्तेमाल कर सकें। यदि कोई यह दर्शा सकता है कि नियामक के पास उपलब्ध सामग्री से उल्लंघन की बात सही तरीके से स्थापित नहीं होती है तो सच इसी तरह सामने आएगा। इसके बावजूद व्यवहार में देखा जाए तो आज के समय में भी समस्त रिकॉर्ड का स्पष्ट और निष्पक्ष अवलोकन देखने को नहीं मिलता।

मामला दर मामला आधार पर देखें तो उल्लंघन के आरोपित व्यक्ति की घबराहट या आरोप की आक्रामकता के आधार पर न्यायालय यह तय करता है कि अवलोकन प्रक्रिया में रिकॉर्ड पर मौजूद बुनियादी चीजों तक किस हद तक पहुंच सुनिश्चित की जाए। अवलोकन के अनुरोध को सिरे से खारिज करना भी एक सामान्य बात है। इस नियम का एक सटीक उदाहरण है भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग। आयोग ने फाइलों की निगरानी के लिए एक मानक परिचालन प्रक्रिया को संहिताबद्ध किया है। अन्य नियामक मसलन पूंजी बाजार नियामक आदि की बात करें तो वहां अलग-अलग सदस्यों या अधिकारियों का रुख अवलोकन की सुविधा देने के मामले में अलग-अलग रहता है।

जब अदालतों से संपर्क किया जाता है तो नियामक यह कह सकता है कि जांच की सामग्री में ढेर सारी ऐसी है जिसकी प्रकृति गोपनीय है इसलिए उसे साझा नहीं किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में अदालत यह निर्देश दे सकती है कि उक्त रिपोर्ट के संवेदनशील हिस्सों के अलावा शेष हिस्सा साझा किया जा सकता है। एक घटना में तो ऐसा भी हुआ कि एक ही जांच रिपोर्ट का दो समांतर प्रक्रियाओं में अवलोकन किया गया। पता यह लगा कि एक प्रक्रिया में दी गई रिपोर्ट में जांच एजेंसी द्वारा चाही गई हर जरूरी सामग्री को गायब कर दिया गया था।

इसी प्रकार बड़ी अदालतों द्वारा कानून के स्पष्ट उल्लेख के बावजूद नीचे स्थित प्राधिकार बार-बार यह दोहराते रहते हैं कि निर्णय के खिलाफ अपील की गई है। सर्वोच्च न्यायालय अक्सर यह कह चुका है कि ऐसा रुख सही नहीं है लेकिन फिर भी किसी पर कोई कार्रवाई न होने से ऐसे निर्णय महज दिखावटी उपदेश बन कर रह जाते हैं। जब कोई बड़ी अदालत कानून निर्धारित करती है और साथ ही उसकी व्याख्या भी करती है, तो समाज को यह दिशा मिलती है कि वह चीजों को ऐसी व्यवस्था में रखे जिससे नियमों का पालन सुनिश्चित हो। इसके बावजूद जब नियामक ही बड़ी अदालतों द्वारा की गई व्याख्याओं का उल्लंघन करते हैं तो समाज के मन में कानून नहीं लेकिन कानून के प्रवर्तकों को लेकर आशंका उत्पन्न होती है।

कारोबारी सुगमता की रैंकिंग कभी भी इस तरह की असहजता के लिए आदर्श नहीं हो सकती। जब शासकीय एजेंसियां कानून का मूल्य समझेंगी केवल तभी कारोबार में वास्तविक निवेश सुनिश्चित हो सकेगा। तब किसी सांख्यिकीय मॉडल द्वारा प्रस्तुत रैंकिंग की जरूरत नहीं रहेगी।


Date:01-10-19

आर्थिक झंझावात के दौर में कारगर रणनीति

लोगों का ध्यान आकृष्ट करने वाले नारों के बजाय सरकार को आठ फीसदी की वास्तविक वृद्धि दर को अपना लक्ष्य बनाने की जरूरत है।

जैमिनी भगवती , ( लेखक पूर्व राजदूत और विश्व बैंक के विशेषज्ञ सदस्य हैं )

वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की पांच फीसदी वृद्धि दर को देखकर केंद्र सरकार की त्योरियां चढ़ जानी चाहिए थीं। वर्ष 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली केंद्र सरकार को गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) के बोझ से दबे सार्वजनिक बैंक विरासत में मिले थे। सकारात्मक बात यह थी कि तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव अपेक्षाकृत निचले स्तर पर रहे हैं और घरेलू महंगाई भी पिछले कुछ ïवर्षों से काबू में रही है। सरकार के कट्टïर समर्थक व्हाट्सऐप पर बिन मांगे संदेश भेजकर आर्थिक सुस्ती की व्याख्या में जुटे हुए हैं। उनका दावा है कि भारत की पांच फीसदी की वृद्धि भी विकसित देशों की वृद्धि से अधिक है। जी-7 देशों के साथ ऐसी तुलना अप्रासंगिक है क्योंकि अधिकतर भारतीयों को अभी तक सामाजिक, स्वास्थ्य एवं रोजगार संबंधी वे लाभ नहीं मिल पाए हैं जो विकसित देशों के नागरिकों को अमूमन मिलते हैं।

कड़वा सच यह है कि भारत में ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र की मांग धराशायी हो चुकी है। इसके कई कारणों में से एक को मैं तिहरी बहीखाते की समस्या कहूंगा। दोहरे बहीखाते की समस्या निजी क्षेत्र के बड़े कर्जदारों और कर्जदाताओं को प्रभावित कर रही थी जिसकी वजह 2008-12 के दौरान गैरजिम्मेदाराना ढंग से बांटे गए बड़े कर्ज थे। तीसरा बहीखाता उन लोगों से संबंधित है जो अपने क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड के जरिये मासिक किस्त पर कार, स्कूटर, उपभोक्ता उत्पाद एवं सेवा लेते हैं। इनमें से बहुत लोग नोटबंदी के कारण आय को लगे तगड़े झटके और जीएसटी रिफंड की सुस्त दर के चलते अपने ईएमआई का भुगतान बढ़ाना नहीं चाहते हैं।

भारतीय उत्पादों की विदेश में मांग कम होने के पीछे एक अहम कारण रुपये का खासा अधिमूल्यन होना भी है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर ने गत 19 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) की जुलाई 2019 रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि रुपये की वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (रीअर) इसके सही मूल्य के करीब है। खुद आरबीआई ने भी जुलाई रिपोर्ट में कहा है कि रुपये की रीअर दर छह मुद्राओं के समूह की तुलना में 24.6 फीसदी ज्यादा है। ऐसे में यह अजीब है कि आरबीआई गवर्नर ने रुपये की दर के बारे में आईएमएफ रिपोर्ट का जिक्र करना पसंद किया।

भारतीय बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (एनबीएफसी) के अधिक कर्ज बांटने से घरेलू मांग बढ़ाने में मदद मिलती। लेकिन भारतीय वित्तीय संस्थान कर्ज बांटने को लेकर हिचक रहे हैं। कर्जदाताओं के चौकन्ना होने की वजह यह है कि चूककर्ता लेनदार उधारी के समय जमानत पर दी गई संपत्ति को अपने पास बनाए रखने में सफल हो जा रहे हैं जबकि दूसरी कंपनियां उस संपत्ति के लिए पारदर्शी ढंग से बोली भी लगा रही हैं। आरबीआई के 12 फरवरी, 2018 के परिपत्र में यह प्रावधान था कि कर्जदाताओं को भुगतान में चूक चिह्निïत होने के साथ ही उसे दिवालिया प्रक्रिया में लाना होगा और कर्जदारों को मामला राष्ट्रीय कंपनी कानून अधिकरण (एनसीएलटी) में भेजने के पहले 180 दिनों के भीतर मामला निपटाने का वक्त मिलता था। ऐसे में कर्जदारों के लिए यह जरूरी था कि वे भुगतान में चूक होने के पहले ही वित्तीय संस्थानों से संपर्क कर समय बढ़ाने या अन्य स्रोतों से अंतरिम ऋण लेने के प्रयास करें। इस परिप्रेक्ष्य में 12 फरवरी का परिपत्र उच्चतम न्यायालय द्वारा 2 अप्रैल, 2019 को निरस्त करना एक भयंकर भूल थी। आरबीआई और सरकार दोनों को ही इस परिपत्र के पक्ष में सम्मिलित रूप से दलील रखनी चाहिए थी। उद्दंड कर्जदारों के समर्थकों का कहना है कि उन्हें अपनी परिसंपत्ति बनाए रखने की इजाजत और सेहत दुरुस्त करने के लिए कर्जदाताओं से मदद भी दी जानी चाहिए। सीमित देनदारी विधान प्रवर्तकों को निजी संपत्ति अपने पास रखने की अनुमति देता है और गिरवी रखी गई संपत्ति को ही जब्त किया जा सकता है।

ऐसा लगता है कि सरकार ने सार्वजनिक बैंकों से बेहद संयम बरतने की उम्मीद फिर से लगा ली है। इन बैंकों पर अक्सर बड़े कर्जदारों के साथ मिलीभगत के आरोप लगते रहे हैं। बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) ने सार्वजनिक बैंकों के बोर्ड में अपने क्षेत्र की गहरी जानकारी रखने वाले और असंदिग्ध निष्ठा वाले लोगों को सदस्य नियुक्त किए जाने की सिफारिश की थी। इसके अलावा एनसीएलटी के पास लंबित मामलों के त्वरित निपटान की भी जरूरत है। इस स्तर पर यही लगता है कि ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) और भारतीय ऋणशोधन एवं दिवालिया बोर्ड शायद उसी तरह अप्रासंगिक हो गया है जैसे सरफेसी अधिनियम 2002 और ऋण वसूली अधिकरण हो गए थे।

सरकार एलआईसी और कोल इंडिया में अपनी हिस्सेदारी को 60 फीसदी पर लाकर बाहरी एवं घरेलू स्रोतों से संसाधन जुटा सकती है। एयर इंडिया, एमटीएनएल और बीएसएनएल में संसाधन नष्ट होते जा रहे हैं और यह समय सरकार के लिए इन कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी घटाने और विदेशी निवेश जुटाने के लिए एकदम माकूल है। अगर केवल घरेलू स्रोतों से ही फंड जुटाए जाते हैं तो वित्तीय समर्थन दूसरे स्थानीय निवेशों से खींचा भी जा सकता है। सरकार ने गत 20 सितंबर को कॉर्पोरेट कर में बड़ी कटौती की घोषणा की। यह कदम मांग में तेजी ला सकता है लेकिन शर्त यही है कि कंपनियां अपनी आय में वृद्धि का लाभ कर्मचारियों को देने और कीमतें कम करने में लगाएं। समय के साथ घरेलू एवं विदेशी निवेश बढ़ सकता है लेकिन उसके लिए कर दरों का निवेश विकल्पों की तुलना में प्रतिस्पद्र्धी रहना जरूरी है। लेकिन इस कदम का नकारात्मक पहलू यह है कि सरकार को इसी वित्त वर्ष में 1.4 लाख करोड़ रुपये की राजस्व क्षति होने और उसकी वजह से राजकोषीय घाटे को चार फीसदी तक पहुंच जाने की आशंका है। जीएसटी परिषद ने कारोबारी धारणा की बहाली के लिए कई कदम उठाएं हैं जिनमें से होटल कमरों पर जीएसटी कम करने का पर्यटन व्यवसाय पर अनुकूल असर पड़ सकता है।

वित्त वर्ष के पहले चार महीनों में ही भारतीय अर्थव्यवस्था से 5.8 अरब डॉलर रकम उदार धनप्रेषण योजना (एलआरएस) के तहत बाहर चली गई जबकि 2014-19 के दौरान इस तरह कुल 45 अरब डॉलर बाहर भेजे गए। इसकी तुलना में 2009-14 की अवधि में केवल 5.5 अरब डॉलर ही भेजे गए थे। इसके उलट भारत आने वाला प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 2018 में 42 अरब डॉलर रहा। इसके बावजूद एलआरएस के तहत बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा का बाहर जाना चिंता का विषय है।

निष्कर्षत: सरकार ने वर्ष 2024 तक अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर पहुंचाने का जिस तरह माहौल बनाया है वह भारतीय उत्पादों एवं सेवाओं के लिए घरेलू एवं विदेशी मांग बढ़ाने की फौरी जरूरत से ध्यान बंटाने का काम करता है। कुछ महीनों पहले वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने यह सुझाव देकर अपनी नासमझी दिखाई थी कि अगर भारतीय रुपये का भाव बढ़ता है तो पांच लाख करोड़ डॉलर अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को आसानी से हासिल किया जा सकता है। लोगों का ध्यान खींचने वाले नारों से दूर रहकर सरकार को रुपये के संदर्भ में आठ फीसदी की वास्तविक वृद्धि दर हासिल करने के प्रयास करने चाहिए। इससे रोजगार बढ़ाने और गरीबी कम करने में मदद मिलेगी।


Date:01-10-19

सच्चा इतिहास और तर्क शक्ति के कुंठित होने की आशंका

संपादकीय

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कश्मीर पर ‘सच्चा’ इतिहास लिखने की जरूरत बताई है। उनके अनुसार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर हिमालय से भी बड़ी भूल की। उनका यह भी मानना है कि आजतक झूठा इतिहास लोगों को परोसा गया, क्योंकि जिन्होंने गलतियां की वे ही इतिहास लिखने का काम भी करते रहे। पिछले छह वर्षों से देश में हर मुद्दे पर संवाद में एक तार्किक दोष का सहारा लिया जा रहा है। मसलन, अगर 500 साल पहले किसी बाबर ने मंदिर तोड़ा तो अब उसका प्रतिकार किया जाएगा, अगर जिलों या सड़कों के नाम मुसलमान या अंग्रेज़ शासकों के नाम पर हैं तो उन्हें बदल दिया जाएगा। खतरा यह है कि आने वाले दिनों में इस ‘सच्चा इतिहास’ के तहत हमारे बच्चों को कहीं यह न सिखाया जाए कि हम लाखों साल पहले कैसे शल्य चिकित्सा के जरिये मानव शरीर पर हाथी का सिर लगा देते थे और कैसे दसियों हजार साल पहले पुष्पक विमान से बिना गैसोलिन के एक देश से दूसरे देश समुद्र लांघ कर जाया जा सकता था। वैज्ञानिक ज्ञान की एक सर्वमान्य परिभाषा है- ‘मानव-ज्ञान की वह विधा जिसमें अपने तर्क-वाक्यों को गलत साबित करने की क्षमता अन्तर्निहित हो’। तर्क से परे गणेश भगवान हमारे आराध्य हो सकते है वैसे ही जैसे कि रावण विश्वकर्मा जी द्वारा ब्रह्मा जी के लिए बनाए गए पुष्पक विमान को चुराकर सिर्फ इच्छा-शक्ति से कहीं भी जा सकता था, यह हमारा व्यक्तिगत विश्वास हो सकता है। किंतु जब इसे इतिहास की तरह अपरिपक्व और सहज विश्वास करने वाले बाल-मस्तिष्क को परोसा जाएगा तो वह बच्चा अपनी तर्क-शक्ति और वैज्ञानिक सोच खो देगा। अगर सच्चा इतिहास ही तलाशना है तो कैसे हजारों वर्षों से हिन्दू समाज में दलितों को प्रताड़ित किया गया, कैसे जात-पात के भेद भाव और कुछ राजाओं की कायरता और लोलुपता हमें बाहर से आए यवनों, मुगलों और अंग्रेजों का गुलाम बनाती रही, इन मुद्दों पर फिर से इतिहास लिखा जाए। यह भी ऐतिहासिक शोध का विषय हो सकता है कि कैसे एक समाज जब कुंठा में भ्रष्टाचार का दंश झेलते हुए भी निष्क्रिय पड़ा रहा तो एक भी सामाजिक-धार्मिक संगठन इस रोग के खिलाफ कोई जन-चेतना नहीं जगा सका। ऐतिहासिक भूलों के विवेचन से वर्तमान भूख, किसानों की समस्या या भ्रष्टाचार का समाधान नहीं मिलेगा।


Date:01-10-19

जन-जन के सहयोग से स्वच्छ भारत

जन-सहयोग और जन-सहभागिता हमारी वह पूंजी है, जिसके जरिए देश स्वच्छता की दिशा में नए आयामों को छू रहा है।

गजेंद्र सिंह शेखावत , (लेखक केंद्रीय जलशक्ति मंत्री हैं)

हमारे देश में यह त्रासदी रही कि जिस स्वच्छता को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वतंत्रता से भी ज्यादा आवश्यक मानते थे, उस विषय को आजादी के बाद यथोचित प्राथमिकता नहीं दी गई। वर्ष 1947 से लेकर 2014 तक हम देश के केवल 39 प्रतिशत घरों तक ही शौचालय की सुविधा पहुंचा पाए थे। इसके अभाव में न केवल हमारी माताओं और बहनों को काफी परेशानी हो रही थी, बल्कि हमारे बच्चे भी इस अभाव के दुष्प्रभाव से पीड़ित थे। हमारी माताएं और बहनें तो आजाद देश में भी उजाले की कैदी की तरह थीं। उन्हें अंधेरे का इंतजार करना होता था, ताकि वे शौच के लिए बाहर जा सकें। यह मानवीय गरिमा के खिलाफ तो था ही, महिलाओं के स्वाभिमान पर सीधा आघात भी था। इसे बदलने की नितांत आवश्यकता थी।

गांधी जी ने अपनी युवावस्था में ही भारतीयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता को महसूस कर लिया था। उन्होंने किसी भी सभ्य और विकसित मानव समाज के लिए स्वच्छता के उच्च मानदंड की आवश्यकता को समझा। गांधी जी हमेशा कहते थे कि कार्यकर्ता को गांव की स्वच्छता और सफाई के बारे में जागरूक रहना चाहिए और गांव में फैलने वाली बीमारियों को रोकने के लिए सभी जरूरी कदम उठाने चाहिए। महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने देश की कमान संभालते ही वर्ष 2014 में लाल किले के प्राचीर से देशवासियों से यह आह्वान किया कि हम बापू के सपनों का स्वच्छ भारत निर्मित करें। उन्होंने यह संकल्प लिया कि अगले पांच वर्षों में लोक सहयोग से हम एक स्वच्छ भारत का निर्माण करेंगे और गांधी जी की 150वीं जयंती पर यह कृतज्ञ राष्ट्र उनके कदमों में एक स्वच्छ भारत समर्पित करेगा।

उस वक्त भला किसने यह यकीन किया होगा कि पांच वर्षों में 60 करोड़ लोगों का व्यवहार परिवर्तन संभव हो जाएगा और भारत सदियों से खुले में शौच की प्रथा से मुक्त हो जाएगा? आज हम गर्व से कह सकते हैं कि उनके संकल्प की सिद्धि हुई है। उन्होंने न केवल देश के आम जन-मानस को स्वच्छ भारत के लिए प्रेरित किया, अपितु निरंतर समाज के सभी वर्गों को अपने स्वच्छता के प्रति समर्पण से अनुप्राणित किया। उन्होंने स्वच्छता के लिए अभूतपूर्व धनराशि भी उपलब्ध कराई, ताकि स्वच्छ भारत के क्रियान्वयन में धन की कमी बाधा न बने। तमाम अवसरों पर तो वह स्वयं स्वच्छता की गतिविधियों के नेतृत्व करते देखे गए। देखते ही देखते बीते पांच वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान ने एक जन-आंदोलन का स्वरूप लिया और संभवत: यह दुनिया का सबसे बड़े व्यवहार परिवर्तन कार्यक्रम के रूप में स्थापित हुआ।

यह इस जन-आंदोलन का ही परिणाम रहा कि जहां 2014 में मात्र 39 प्रतिशत घरों के पास शौचालय की सुविधा उपलब्ध थी, वहीं आज वह बढ़कर 99 प्रतिशत हो गई है। स्वच्छ भारत अभियान के प्रारंभ के बाद से देशभर में 10 करोड़ से ज्यादा शौचालयों का निर्माण हुआ है। देश के तमाम जिले और सारे गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। आज जो आसान प्रतीत हो रहा है, वह हमारे लाखों स्वच्छाग्रहियों, सरपंचो, स्वयं सहायता समूह की महिलाओं, बच्चों, अभिभावकों और जन-सामान्य के असामान्य परिश्रम का प्रतिफल है। छह लाख से ज्यादा गांवों को स्वच्छता के लिए प्रेरित करना बहुत ही कठिन कार्य था। हमने सामुदायिक उत्प्रेरण की तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए इन गांवों को खुले में शौच से मुक्त बनाने की तकनीकों का सफलतापूर्वक उपयोग किया और यह सुनिश्चित किया कि लोग अपनी जिम्मेदारियों को समझें और अपने गांवों को स्वच्छ बनाने में अपनी भूमिका अदा करें।

स्वच्छ भारत वस्तुत: एक बहुत बड़ा सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक क्रांति का कार्यक्रम बना है। स्वच्छ भारत ने भारतीय समाज को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। सभी वर्गों और सभी धर्मो के लोगों ने एक साथ आकर स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाया है। स्वच्छ भारत अभियान के दौरान सभी जातियों के लोगों ने आपसी भेदभाव को भूलकर अपने ग्राम को खुले में शौच से मुक्त बनाया। इस कार्यक्रम में अनेक ऐसे पड़ाव आए, जब समस्त ग्रामवासियों ने एक साथ बैठकर आपसी बैरभाव को भूलकर अपने ग्राम को खुले में शौच से मुक्त बनाने हेतु उल्लेखनीय कार्य किया। इस कार्यक्रम ने महिलाओं को और अधिक मुखर बनाया। आपसी सहयोग से उन्होंने न सिर्फ अपनी खुले में शौच की समस्या का निदान किया, बल्कि अनेक कुरीतियों से भी निजात पाई। स्वच्छता कार्यक्रम ने गरीब वर्गों के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित किए और कई राज्यों में तो महिलाओं ने रानी मिस्त्री बनकर अपने लिए नए रोजगार खोजे। एक अनुमान है कि 10 करोड़ शौचालयों के निर्माण में लगभग 83 करोड़ से अधिक मानव दिवस रोजगार उत्पन्न् हुए होंगे। इस स्वच्छता कार्यक्रम ने महिलाओं के स्वयं सहायता समूह को भी बढ़ावा दिया।

खुले में शौच वाले गांवों में डायरिया के मामले ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त गांवों की तुलना में 46 प्रतिशत अधिक पाए गए। यूनिसेफ का अनुमान है कि मुख्यत: स्वच्छता की कमी के कारण भारत के पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में से लगभग 38 प्रतिशत बच्चे शारीरिक और संज्ञानात्मक रूप से कुपोषित हैं। हमारे भविष्य के कार्यबल का इतना बड़ा हिस्सा अपनी पूर्ण उत्पादक क्षमता तक नहीं पहुंच पा रहा था। अध्ययन से यह परिलक्षित होता है कि स्वच्छ भारत अभियान के क्रियान्वयन के बाद इस दिशा में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है।

मेरा मानना है कि हमने काफी सफलता हासिल की है, परंतु अभी बहुत कार्य किया जाना बाकी भी है। हमें देश के हर घर तक पहुंचना है और यह सुनिश्चित करना है कि सभी लोग स्वच्छता की सुविधाओं से युक्त हों और स्वच्छ व्यवहारों को सदैव अपनाते रहे। आने वाले दिनों में स्वच्छता एवं स्वच्छता संबंधी व्यवहार के स्थायित्व के लिए बड़े पैमाने पर कार्य किए जाएंगे। अगले एक वर्ष में हम सभी ग्राम प्रधान स्वच्छाग्रही और हितग्राहियों की क्षमता वर्द्धन का कार्य करेंगे, ताकि वे स्वच्छता सेवाओं के स्थायित्व को सुनिश्चित कर सकें। इसी सिलसिले में ओडीएफ प्लस के कार्यक्रम चलाए जाएंगे, ताकि गांवों में कूड़े-कचरे एवं ग्रे वाटर के समुचित निपटान की व्यवस्था हो सके। इसी क्रम में प्लास्टिक कचरे के निपटान की भी व्यवस्था की जाएगी। वास्तव में हम सबको मिलकर स्वच्छता के कई नए आयाम प्राप्त करने हैं। जन-सहयोग और जन-सहभागिता हमारी वह पूंजी है जो इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का माध्यम बनेगी। हमें भरोसा है कि देश वास्तविक रूप में गांधी जी के सपनों का स्वच्छ भारत बनकर रहेगा।


Date:30-09-19

बदलाव और आशंकाएं

संपादकीय

भविष्य के डर बहुत सारे हैं। पहला डर रोबोट से है, दुनिया भर के उद्योगों में इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है। दूसरा डर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस यानी कृत्रिम बुद्धि से है, जिसका इस्तेमाल शुरू हो गया है और तेजी से बढ़ रहा है। इसी तरह 3डी प्रिंटिंग है, जो ऐसी चीजों को कुछ ही मिनट में बना सकती है, जिन्हें बनाने में पहले हफ्तों लग जाया करते थे। इन तीनों ही तरह की तकनीक अब कोई सपना नहीं हैं, इनका व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू हो गया है। ये सारी तकनीक विकास के उस चरण में पहुंच गई हैं, जहां उनका औद्योगिक इस्तेमाल लगातार बढ़ता जाएगा। माना यह जा रहा है कि ये तीनों ही तकनीक दुनिया की चौथी औद्योगिक क्रांति का मुख्य आधार बनने वाली हैं। और यही चीज डर पैदा कर रही है। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि अगर ऐसा हुआ, तो ज्यादातर लोग अभी जो काम करते हैं, उसे मशीनें करने लगेंगी और फिर बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ेगी। यह सिर्फ आम लोगों की धारणा नहीं है, बल्कि आपको कई विशेषज्ञ तक यही कहते मिल जाएंगे। और तो और, मैकेंजी जैसी आर्थिक सलाहकार कंपनी का आकलन है कि चौथी औद्योगिक क्रांति की वजह से दुनिया के 42 देशों में 80 करोड़ लोग बेरोजगार हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में दुनिया की एक चौथाई आबादी बेरोजगार हो जाएगी। कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसी को देखते हुए यूनिवर्सल बेसिक इनकम की अवधारणा पर जोर देना शुरू कर दिया, ताकि अगर लोग बेरोजगार हों, तब भी उनका जीवन चलता रहे।

हालांकि सभी इससे सहमत नहीं हैं कि बेरोजगारी सचमुच बढे़गी ही। वे मानते हैं कि चौथी औद्योगिक क्रांति के बाद बहुत सारे वर्तमान कौशल बेकार हो जाएंगे, नए कौशल की जरूरत पडे़गी, जिन्हें लोग जल्द ही सीख लेंगे। लेकिन एशियाई विकास बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री व ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के फैलो जयंत मेनन इससे बिल्कुल अलग सोचते हैं। वह मानते हैं कि यह भी संभव है कि चौथी औद्योगिक क्रांति के बाद रोजगार की संख्या बजाय घटने के बढ़ जाए। उनका कहना है कि यही पहली औद्योगिक क्रांति के समय हुआ था, फिर यही कंप्यूटर क्रांति के समय हुआ, उसके बाद यही संचार क्रांति के बाद हुआ। हर बार हल्ला मचा कि रोजगार कम हो जाएंगे, जबकि रोजगार के अवसर वास्तव में बढ़ गए। उनका कहना है कि चौथी औद्योगिक क्रांति के बाद कुल मिलाकर उत्पादन की लागत कम होगी, जिससे बाजार में मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्थाओं का विस्तार होगा। इससे रोजगार के अवसर बढ़ भी सकते हैं। वह मानते हैं कि आम लोगों के लिए इसे सोचना और समझना हमेशा आसान होता है कि वे जो कर रहे हैं, उसे जब मशीन से किया जाने लगेगा, तो उनका रोजगार छिन जाएगा। लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था पर उसके असर और दीर्घकालिक प्रभाव को समझना उनके लिए आसान नहीं होता।

इसका एक अर्थ यह भी है कि बदलाव एक झटका तो दे ही सकता है, बाद में भले ही हालात पहले से भी बेहतर हो जाएं। ऐसे हालात का मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि बडे़ पैमाने पर लोगों को नए कौशल का प्रशिक्षण देने की व्यवस्थाएं की जाएं। जाहिर है कि जो देश ऐसा अच्छे तरीके से कर सकेंगे, वे ही इस बदलाव का फायदा उठा पाएंगे। यह समय आगे की आशंकाओं से डरने का नहीं, बल्कि नई व्यवस्थाएं तैयार करने का है।


 

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Life Management:01-10-19

01-10-19 (Daily Audio Lecture)

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Today's Daily Audio Topic- ''सिविल सर्विस परीक्षा के केंद्र में क्यों है मुख्य परीक्षा"

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आरक्षण से जुड़े अनेक प्रश्न

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आरक्षण से जुड़े अनेक प्रश्न

Date:03-10-19

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अरस्तू ने कहा है, ‘‘असमानता का सबसे खराब रूप, असमान को समान बनाने का प्रयत्न करना है।’’ भारत में सभी तरह के असमान जाति वर्ग रहे हैं, जो ऐतिहासिक तौर पर वंचित और शोषित रहे हैं। हाल ही में इसको लेकर एक बहस चल पड़ी है कि इन वर्गों को उच्च वर्णों की तरह ही स्थान दिया जाना चाहिए या नहीं ? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख, मोहन भागवत के उस वक्तव्य पर यह बहस छिड़ी है, जिसमें उन्होंने एक सद्भावपूर्ण वातावरण में उन दो पक्षों के बीच एक सार्थक बहस करवाने की बात की थी, जो कोटा के पक्ष में हैं, और दूसरे जो योग्यता के आधार पर आरक्षण की वकालत करते हैं।

विडंबना यह है कि ‘योग्यता’ और ‘क्षमता’ की बात करने वालों को स्वयं नहीं पता कि इनके क्या अर्थ हैं। मोहन भागवत भी समय-समय पर आरक्षण के बारे में विरोधी वक्तव्य देते रहे हैं, और विवादों में घिरते रहे हैं।

इस विवादित विषय से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत हैं –

  • संसद में पहले अनुसूचित जाति / जनजाति का आरक्षण दस वर्षों के लिए लागू किया गया था। अनुच्छेद 370 की तरह ही इसका कोई निश्चित समय नहीं था, और यह अस्थायी था।
  • शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में जहाँ तक आरक्षण की बात है, यह कोई मौलिक अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 15 और 16 केवल इस बात का प्रावधान देते हैं कि अगर राज्य चाहें तो अनुसूचित जाति / जनजाति / अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण दे सकते हैं। इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं समझा जाएगा।
  • कोई भी सरकार जब चाहे तब आरक्षण को समाप्त कर सकती है। धारा 370 को निरस्त किए जाने, प्रिवी पर्स के उन्मूलन, संविधान पूर्व के पूना समझौते आदि की अब कोई अहमियत नहीं है।

मोहन भागवत ने आरक्षण पर एक स्वस्थ व शांतिपूर्ण बहस की अपील पहले भी की थी। उन्होंने आरक्षण की समीक्षा के लिए एक ऐसी समिति बनाने की भी मांग की थी, जिसमें सामाजिक समानता और देश के हित से सरोकार रखने वाले कुछ सामाजिक प्रतिनिधि हों।

भाजपा का विरोधी रवैया

आर एस एस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अतः हाल ही में भाजपा द्वारा महाराष्ट्र में मराठाओं, राजस्थान में गुज्जरों और गुजरात में पाटीदारों को दिया जाने वाला आरक्षण समझ से परे है।

मंडल कमीशन ने इन सभी जातियों को सक्षम व उग्र जाति के रूप में माना है। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग भी इससे सहमत है। इसके बावजूद सरकार ने ऐसा कदम उठाया है।

भाजपा ने 50 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की सीमा का उल्लंघन करते हुए चुनाव से पहले उच्च वर्गों के निर्धनों को दस प्रतिशत आरक्षण दिया है।

2018 के जरनैल सिंह मामले में भाजपा ने आरक्षण की वकालत भी की थी।

भाजपा के इन कदमों से यही सिद्ध होता है कि यह दल कहीं से भी आरक्षण का विरोधी नहीं है, बल्कि यह नए समुदायों को भी आरक्षण में शामिल किए जाने की पक्षधर है।

कुछ प्रश्न

राजनीतिक दलों की आरक्षण के पीछे की मंशा में बहुत से कूटनीतिक दांव छिपे होते हैं। लेकिन सामाजिक स्तर पर इसकी विवेचना से जुड़े अनेक प्रश्न सामने खड़े हो सकते हैं।

(1) आरक्षण की सीढ़ी में इसके लाभ कितने नीचे तक पहुँचे हैं? (2) क्या अनुसूचित जाति / जनजाति के ही अभिजात वर्ग ने इसके लाभों पर एकाधिकार जमा लिया है? (3) क्या अनुसूचित जाति / जनजाति के मलाईदार तबके को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए ? (4) क्या आरक्षण के लाभ सिर्फ प्रवेश और नौकरियों तक सीमित रहने चाहिए ? (5) क्या पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को हटा देना चाहिए। (6) पिछड़ेपन को कैसे परिभाषित किया जाए? (7) क्या सामाजिक पिछड़ेपन की जगह आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार बना दिया जाए, (8) क्या मंडल कमीशन और 1992 में इंदिरा साहनी के मामले में अपेक्स कोर्ट की पीठ द्वारा निर्धाति, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के 11 पैमानों की पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए ? (9) क्या आरक्षण को निजी क्षेत्र तक बढ़ाया जाना चाहिए। (10) आरक्षण की रिक्त सीटों को आगे के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाना चाहिए ? इसी प्रकार पदोन्नति में आरक्षण का लाभ उठाकर पदोन्नत हुआ सहकर्मी अनेक कर्मचारियों की कुंठा का कारण बनता जा रहा है।

विदेशों की सार्वजनिक संस्थाओं में भी सामाजिक विविधता को बनाए रखने के लिए अनेक प्रयास किए जाते हैं। आरक्षण से हमारे देश में भी विविधता को बनाए रखने में मदद मिली है। अगर हमें लगता है कि समानता को बनाए रखने की दिशा में आरक्षण ने एक सकारात्मक भूमिका निभाई है, तब तक उसे हटाने का विचार निरर्थक है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 3 सितम्बर,2019

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