Kurukshetra: Role of Allied Sector in Rural Development(14-04-2018)
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कुरुक्षेत्र: ग्रामीण भारत में आधुनिक तकनीकों को बढ़ावा (14-04-2018)
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स्पेशल कोर्ट की सार्थकता पर विचार किया जाए
Date:16-04-18 To Download Click Here.
अक्सर यह सुनने में आता है कि किसी विशेष मुद्दे से जुड़े मामलों को निपटाने के लिए केन्द्र सरकार, विशेष या स्पेशल कोर्ट बनाने का प्रस्ताव रखती है। जैसे दिसंबर माह में सांसदों और विधानसभाओं से जुड़े 1,581 लंबित मामलों के निपटारे के लिए ऐसी सिफारिश की गई थी। इस प्रकार की सिफारिशों में अक्सर दो भिन्न न्यायालयों की बात की जाती है : स्पेशल कोर्ट और फास्ट-ट्रैक कोर्ट।
स्पेशल कोर्ट – इनका अस्तित्व स्वतंत्रता के पहले से अधीनस्थ न्यायालयों में मिलता है। इनका गठन उस क्षेत्र की न्यायिक प्रणाली की सीमा के अंदर आने वाले मामलों के लिए किया जाता रहा है। 1950 से लेकर 2015 तक 25 से भी अधिक स्पेशल कोर्ट निर्मित किए गए हैं। लगभग चार दशक पहले उच्चतम न्यायालय की एक पीठ ने स्पेशल कोर्ट विधेयक, 1978 पर अपना निर्णय दिया था। इसमें स्पष्ट किया गया था कि अपनी किन विधायिका शक्तियों के साथ संसद, स्पेशल कोर्ट का गठन कर सकती है। इसके अनुसार विशेष अदालतों या स्पेशल कोर्ट को कुछ यूँ समझा जा सकता है- “एक ऐसा न्यायालय“ जिसका गठन विशिष्ट प्रकार के मामलों को छोटी और सरल प्रक्रिया से निपटाने के लिए किया जाता है।
फास्ट-ट्रैक कोर्ट – इसकी संस्तुति ग्यारहवें वित्त आयोग ने की थी। इसका उद्देश्य बकाया मामलों को निपटाना था। स्पेशल कोर्ट से उलट, इनका निर्माण विधायिका की जगह राज्य सरकारों को उच्च न्यायालयों की मदद से करना था। इसे 2005 में ही खत्म किया जाना था। परन्तु 2011 तक इसका विस्तार कर दिया गया। दिल्ली ने बलात्कार के मामलों को निपटाने के लिए इस प्रकार के छः न्यायालय बनाए हैं।
स्पेशल कोर्ट की सार्थकता – दोनों में भिन्नता यह है कि जहाँ फास्ट ट्रैक कोर्ट और ट्रिब्यूनल के बारे में पर्याप्त स्पष्टता मिलती है, वहीं स्पेशल कोर्ट के गठन के बारे में अलग-अलग तरह के शब्दों के इस्तेमाल से उसके स्वरूप पर भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
इन न्यायालयों के उद्देश्य पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। कानून कहीं कहता है कि सरकार ‘चाहे तो’, और कहीं कहता है कि सरकार को ‘चाहिए’ कि वह स्पेशल कोर्ट का गठन करे। साथ ही विधान में यह भी स्पष्ट नहीं है कि ऐसे कोर्ट के गठन से विधायिका कौन सा ध्येय पूरा कर सकती है। ऐसे में राज्य सरकार और उच्च न्यायालय के लिए असमंजस की स्थिति हो जाती है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा इनकी संवैधानिक स्थिति के बारे में दिए गए वक्तव्यों के साथ इन न्यायालयों की आवश्यकता और क्षमता की शायद ही कभी समीक्षा की गई है। इसके बावजूद अलग-अलग प्रकरणों में इनकी स्थापना की जा रही है।
देश की त्रिस्तरीय न्यायिक प्रक्रिया में अधीनस्थ न्यायालयों के पास सबसे अधिक लंबित मामले हैं। सुनवाई की आवृत्ति और लंबित मामलों की संख्या देखते हुए ही स्पेशल कोर्ट की कार्यप्रणाली पर विचार किया जाना चाहिए। सरकारें यही सोचती हैं कि स्पेशल कोर्ट के गठन से न्यायिक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। परन्तु अभी तक ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। अतः इस पर चर्चा किए जाने की आवश्यकता है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अरिजीत घोष और रौनक चन्द्रशेखर के लेख पर आधारित।
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Today's Life Management Audio Topic-"जड़ों की ओर लौटो"
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Today's Daily Audio Topic- "इतिहास की तैयारी"
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16-04-2018 (Important News Clippings)
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संजय गुप्त, (दैनिक जागरण के प्रधान संपादक)
इस वर्ष जनवरी माह में जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपनी संस्था के आंतरिक प्रशासन की समस्याओं को सामने रखते हुए लोकतंत्र को खतरे में बताया था तब यह स्पष्ट हुआ था कि शीर्ष अदालत में सब कुछ ठीक नहीं है। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने सारे देश का ध्यान इसलिए खींचा था, क्योंकि चारों न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश पर यह आरोप भी लगाया था कि वह संवेदनशील मुकदमों को पसंदीदा बेंच में भेज रहे हैं। ऐसे आरोपों ने जनता को इसलिए अवाक किया, क्योंकि वह इस संस्था को निष्पक्ष संस्था के तौर पर देखने के साथ ही यह मानकर भी चलती है कि जब कहीं से न्याय नहीं मिलेगा तो सुप्रीम कोर्ट सहारा बनेगा। उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ये संकेत दिए गए कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश आपस में मिल-बैठकर समस्या हल कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट में उठापटक कायम रही। इस उठापटक के जारी रहने से यही जाहिर हो रहा कि वरिष्ठ न्यायाधीशों की चिंता केवल सुप्रीम कोर्ट की कथित आंतरिक समस्याओं तक ही सीमित है और उनके एजेंडे पर ऐसा कुछ नहीं कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक की व्यवस्था सुधरे। अब तो ऐसा भी लगता है कि वरिष्ठ न्यायाधीशों की चिंता को सुप्रीम कोर्ट के चुनिंदा वकीलों ने भी अपने अहं की लड़ाई का हिस्सा बना लिया है। इसका संकेत इससे मिलता है कि न्यायिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात कोई नहीं कर रहा।
पिछले दिनों न्यायाधीश चेलमेश्वर ने एक साक्षात्कार में कहा कि अगर दीपक मिश्र के बाद रंजन गोगोई को मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया जाता तो वे आशंकाएं सच साबित होंगी जो उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में जताई थीं। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाया जाना समस्या का हल नहीं। ज्ञात हो कि उन दिनों कुछ राजनीतिक दल और खासकर कांग्रेस जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग लाने की कवायद कर रही थी। न्यायाधीश चेलमेश्वर के इस साक्षात्कार के बाद उनके साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले एक अन्य न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों को एक चिट्ठी लिखकर कोलेजियम की सिफारिश पर केंद्र सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाए। उनका आग्रह था कि इस मामले में सरकार से सवाल पूछना चाहिए।
कोलेजियम ने फरवरी में न्यायाधीश केएम जोसेफ और इंदु मल्होत्रा को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त करने की सिफारिश की थी, लेकिन केंद्र सरकार ने न तो यह बताया कि कोलेजियम की सिफारिश मानने में देर क्यों हो रही है और न ही सिफारिश पर अपनी कोई आपत्ति प्रकट की। कोई स्पष्टीकरण न आने के चलते यह माना गया कि केंद्र सरकार केएम जोसेफ को इसलिए सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त नहीं करना चाहती, क्योंकि उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने संबंधी फैसले को उन्होंने ही खारिज किया था। समस्या केवल यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश सवाल पर सवाल कर रहे हैं, बल्कि यह भी है कि कुछ वकील मुकदमों के आवंटन की व्यवस्था को लेकर अपनी मुहिम छेड़े हुए हैं। वे मुकदमा आवंटन की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए याचिकाएं भी दायर कर रहे हैं। बीते दिनों एक ऐसी ही याचिका का निपटारा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह तय करने का अधिकार मुख्य न्यायाधीश को ही है कि कौन सा मामला किस बेंच को सौंपा जाएगा, लेकिन इसके बाद इसी आशय की एक और याचिका दायर कर दी गई। इसके पहले न्यायाधीश चेलमेश्वर ने ऐसी याचिका सुनने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वह नहीं चाहते कि उनके फैसले को पलट दिया जाए। ऐसा कहकर उन्होंने एक बार फिर दीपक मिश्र को निशाने पर लिया। यह रवैया इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मुकदमों के आवंटन में न्यायाधीशों की वरिष्ठता कोई आधार ही नहीं। इस फैसले के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के तो सभी जज अनुभवी होते हैं, चाहे वे हाईकोर्ट से आए हों या फिर बार से।
सुप्रीम कोर्ट के जो न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश पर निशाना साध रहे हैं वे यह नहीं स्पष्ट कर रहे हैं कि किस तरह मुकदमों के आवंटन में मनमानी हो रही है? एक ओर वे से आंतरिक मामला बता रहे हैं और दूसरी ओर उसे सार्वजनिक भी कर रहे हैं। उनकी ओर इसे यह भी साफ नहीं किया जा रहा कि संवेदनशील मामलों से उनका क्या आशय है? वे यह भी माहौल बना रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश केंद्र सरकार के नजदीक हैं और फैसले केंद्र सरकार के मन मुताबिक दिए जा रहे हैं। विपक्ष इस माहौल का लाभ उठाने में लगा हुआ है। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की पहल से तो यही साबित होता है। क्या यह विचित्र नहीं कि विपक्षी नेताओं ने महाभियोग लाने की बातें तो कीं, लेकिन यह नहीं बताया कि किस आरोप में?
यह कोई पहली बार नहीं जब सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच के मतभेद सामने आए हों। सुप्रीम कोर्ट में तमाम मसले ऐसे होते हैं जिनमें नैतिकता का सवाल होता है। इसे लेकर न्यायाधीशों के बीच मतभेद होते ही हैं और कई बार फैसला बहुमत के जरिये होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन यह स्वाभाविक नहीं कि न्यायाधीशों के बीच के मतभेद हद से ज्यादा बढ़ जाएं। सुप्रीम कोर्ट में विवाद को देखते हुए केंद्र सरकार को न्यायिक व्यवस्था में सुधार के साथ जजों की नियुक्ति प्रणाली में बदलाव की पहल करनी चाहिए। वैसे भी कोलेजियम के जरिये न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली दोषपूर्ण साबित हो चुकी है। ऐसा शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जहां जजों की नियुक्ति खुद जज ही करते हों। कोलेजियम प्रणाली के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को प्रस्तुत किया गया था, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया और मेमोरेंडम आफ प्रोसिजर का मामला भी अभी अधर में है।
आवश्यक केवल यह नहीं कि केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्ति आयोग को नए सिरे से बनाने की पहल करे, बल्कि यह भी है कि निचली अदालतों में मुकदमों के बढ़ते बोझ को कम करने का कोई उपाय निकाले, क्योंकि इससे बड़ी विडंबना कोई और नहीं कि आम लोगों को समय पर न्याय न मिले। यह समय पर न्याय न मिल पाने का ही दुष्परिणाम है कि सामाजिक असंतोष के साथ-साथ उत्पीड़न-शोषण और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। अगर निचले स्तर पर न्याय आसानी से और समय पर उपलब्ध हो तो उसका सीधा लाभ समाज में बढ़ती खाई को पाटने के रूप में मिलेगा। चूंकि सुप्रीम कोर्ट में जारी उठापटक का समाधान केवल उच्चतर न्यायिक प्रणाली को ही राहत देगा इसलिए निचली अदालतों के न्यायिक ढांचे को सुधारने की पहल कहीं ज्यादा जरूरी है। ध्यान रहे कि निचली अदालतों में जहां करीब पौने तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं वहीं न्यायाधीशों के लगभग पांच हजार पद रिक्त हैं। इसके अतिरिक्त निचली अदालतों की संख्या बढ़ाने की भी जरूरत है। हैरत की बात है कि इस जरूरत की पूर्ति हो, इसके लिए मुश्किल से ही कोई जनहित याचिका लगती है और दूसरी और सुप्रीम कोर्ट की कथित समस्याओं को लेकर याचिकाओं का अंबार लगा है। अब जब यह स्पष्ट है कि निचली अदालतों के समाधान को लेकर न तो उच्च न्यायालय सक्रियता दिखा रहे हैं और न ही राज्य सरकारें तब फिर केंद्र सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना ही चाहिए।
राजकिशोर
धर्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कल्पना डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में की थी। कहते हैं, हेडगेवार को हिन्दू समाज और संस्कृति से बहुत लगाव था। तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बजाय हिन्दू स्वयंसेवक संघ की स्थापना क्यों नहीं की? ‘डॉ. हेडगेवार: परिचय एवं व्यक्तित्व’ में, जिसकी भूमिका संघ के पांचवे सरसंघचालक कुप्प. सी. सुदशर्न ने लिखी है, चन्द्रशेखर परमानंद भिशीकर बताते हैं : ‘संघ की स्थापना’ इन तीन शब्दों में डॉक्टर जी के चिंतन का सार समाया हुआ था। संघ यानी हिन्दुओं की संगठित शक्ति। स्पष्ट है कि भारत में हिन्दू ही राष्ट्र है। उसके राष्ट्र में वे लोग शामिल नहीं हैं, जो हिन्दू नहीं हैं।
दो बातें बिल्कुल साफ हैं। एक, संघ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दुओं को मजबूत बनाना था ताकि वे हिन्दू हितों की रक्षा कर सकें। लेकिन ‘हिन्दू हित’ क्या हैं, इसकी परिभाषा संघ ने कभी नहीं की। दूसरी, अंग्रेजों का सफलतापूर्वक सामना करना, लेकिन व्यवहार में यह गौण ही नहीं, उपेक्षित रहा। संघ ने अंग्रेजी सत्ता से कभी संघर्ष नहीं किया। राजनीति से अपने को दूर रखा। केवल हिन्दुओं को संगठित करने पर जोर दिया।
यह अभी तक अपरिभाषित है कि हिन्दू समाज ‘संगठित’ होकर करेगा क्या? जाहिर है, यह सांगठनिक मजबूती दूसरे धर्मो और विचारधाराओं से टकराने के लिए है। हिन्दू समाज में धार्मिंक सुधार किए जाएं, यह इसमें शामिल नहीं है। संघ ने कोशिश की होती तो अस्पृश्यता, जाति व्यवस्था, स्त्री की अधीनस्थता, दहेज आदि मामलों में काफी प्रगति हो सकती थी। संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगा। पहला, पंजाब राज्य ने 24 जनवरी, 1947 को लगाया था, पर चार दिनों के बाद 28 जनवरी, 1947 को इसे हटा भी लिया गया। दूसरी बार प्रतिबंध महात्मा गांधी की हत्या के बाद 4 फरवरी, 1948 को लगाया गया। महात्मा गांधी की हत्या में संभवत: संघ का सीधा हाथ नहीं था, पर जिस वातावरण में यह कुकृत्य हुआ, उसके निर्माण में संघ और हिन्दू महासभा का पूरा हाथ था। इन संगठनों को लगता था कि गांधी जी अनावश्यक रूप से मुसलमानों को तुष्ट करने में लगे हुए हैं। विभाजन के बाद पाकिस्तान के भारत पर 55 करोड़ रुपये बाकी थे। जब पाकिस्तान ने कश्मीर में उपद्रव करना शुरू किया, तब भारत ने इसका भुगतान रोक दिया। उस समय देश भर में पाकिस्तान-विरोधी वातावरण बना हुआ था। ऐसे वातावरण में गांधी जी ने सरकार को बाध्य किया कि बकाया चुकाए। इसके कुछ दिनों के बाद नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या कर दी। स्पष्ट था कि इसके पीछे प्रचंड सांप्रदायिक भावना थी। परिणामस्वरूप नेहरू सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। गोलवलकर गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी जी की हत्या पर संघ के लोग बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने मिठाई भी बांटी थी।
रिहा होने के बाद गोलवलकर ने पहले प्रधानमंत्री नेहरू से, फिर गृह मंत्री पटेल से संघ पर से प्रतिबंध हटाने के लिए मुलाकात की। पटेल ने इसके लिए शर्त रखी कि संघ अपना लिखित संविधान बनाए, भारतीय संविधान और राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता दे, संघ प्रमुख के अधिकार तय किए जाएं, आंतरिक चुनाव हों और हिंसा तथा गोपनीयता का परित्याग किया जाए। संघ ने एक संविधान बनाया जरूर पर उसमें इन सभी शतरे का पालन नहीं किया गया। बहरहाल, 11 जुलाई, 1949 को संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। संघ पर तीसरा प्रतिबंध इमरजेंसी के समय लगा, जब संघ के लोग जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। इमरजेंसी हटने के बाद भारतीय जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हो गया और प्रतिबंध हटा लिया गया। लेकिन जनसंघ के सदस्य संघ की सदस्यता छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। इस दोहरी सदस्यता के सवाल पर तथा आंतरिक कलह के कारण जनता पार्टी टूट गई और जनसंघ के धड़े ने भारतीय जनता पार्टी बना ली। ध्यान देने की बात है कि यहां भी हिन्दू जनता पार्टी नहीं कहा गया क्योंकि भाजपा के लोगों की मान्यता थी कि हिन्दू होना ही भारतीय होना है। इस तरह हिन्दू, राष्ट्रीय और भारतीय, तीनों शब्द पर्यायवाची बना दिए गए।
संघ ने हिन्दू समाज में धार्मिंक और सामाजिक सुधार का सूत्रपात न कर उसकी जड़ता, रूढ़िवादिता और दलित-विरोधिता को बनाए रखने में हिस्सा लिया है। संघ का दृष्टिकोण पूर्णत: अवैज्ञानिक है। वह वैज्ञानिक तथ्य नहीं मानता और पौराणिक मानसिकता से ग्रस्त रहता है। हिन्दू समाज को आगे नहीं, बल्कि महाराणा प्रताप और शिवाजी की दुनिया में ले जाना चाहता है। आर्थिक समता और सामाजिक न्याय में उसे विश्वास नहीं है। पूंजीवाद का समर्थक और समाजवाद का विरोधी है। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना करते समय अटल बिहारी वाजपेयी, जो संघ के प्रचारक रह चुके हैं, ने पार्टी का लक्ष्य गांधीवादी समाजवाद बताया था, लेकिन पार्टी में न गांधी के दशर्न हुए, न समाजवाद के। आज संघ सांप्रदायिकता, जातिवाद, दलित और स्त्री विरोध तथा पूंजीवाद का सबसे बड़ा समर्थक संगठन है। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि बार-बार आलोचना सुनने के बाद भी उसमें अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की क्षमता दिखाई नहीं देती। यह उसकी बौद्धिक जड़ता का स्पष्ट प्रमाण है।
Swaminathan S Anklesaria Aiyar is consulting editor of The Economic Times. He has frequently been a consultant to the World Bank and Asian Development Bank.
Once, India had a supposed problem called the population explosion. Today, in a dramatic reversal, India gets congratulations for garnering a huge demographic dividend. The working age (15-65 years) proportion of its population is growing fast and will keep growing for decades, boosting GDP growth, while other countries suffer from falling workforces and ageing populations that crimp growth. India will add maybe 200 million to its workforce in the next three or four decades while China suffers a declining workforce. The supposed population curse has suddenly become a global advantage.
This change has not been absorbed fully into popular or political thinking. The southern states have long been leaders in family planning, while northern states have long had the highest fertility and population growth rates. Between 2001 and 2011, population growth was 25.1% in Bihar against just 4.9% in Kerala.The south has long been congratulated for its fertility success, and the north slated for its failure. But, with the change in perceptions, the north can demand recognition for contributing the most to India’s demographic dividend. Many countries now offer large incentives (grants and free childcare) to induce parents to have large families. North Indians do the job free of charge.
Today, the southern states are outraged that the terms of reference of the 15th Finance Commission mandate the use of 2011 population data in its complex formula for sharing central tax revenues between different states. Earlier Finance Commissions used the state-wise population shares of the 1971 census, to avoid penalising states with good family planning and hence falling population share. This benefited the south at the expense of the north.
Now the 15th Finance Commission has been told to use the state-wise population shares of 2011, ending the reward for falling fertility. Some angry southern politicians want the south to secede from India. However, as a matter of basic equity, every citizen is entitled to a slice of tax revenue, and to that extent, using the latest population share (and not the 1971 share) is equitable. Moreover, the demographic dividend means rising population is now a blessing, not a curse. That constitutes a case for rewarding, not penalising the north.
Readers will ask, how did the population explosion morph into the demographic dividend? When a poor country improves health and nutrition, its death rate plummets, while its birth rate falls only gradually. Hence its population suddenly shoots up, and can look threatening. The ratio of dependents (children and aged) to workers rises, straining breadwinners.
In the next phase, rising incomes and education induce family planning. The birth rate falls. As kids of the preceding baby boom reach working age (15 to 65 years), the proportion of workers to dependents rises sharply. This is the demographic dividend — more workers for a given population. It is often buttressed by more women getting educated and joining the workforce, further increasing the demographic dividend. Some studies estimate that almost half the growth boom in Asian miracle economies was due to their demographic dividend. India has now joined the happy band.
However, in the next phase, the aged start living much longer, even as the birth rate falls below replacement levels. The rise in aged dependents can far exceed the fall in child dependents, so the ratio of total dependents to workers rises. This strains not only household budgets but also national budgets, which provide large sums for pensions and healthcare costs for the aged. This is one reason for reduced economic performance in Japan and Europe.
India’s southern states led the lowering of birth rates and initiated the demographic dividend, and were rewarded with rapid GDP growth. But the birth rate in Kerala and Tamil Nadu has already fallen below replacement levels. Their populations are ageing fast and will soon begin shrinking, portending serious problems. Fortunately, north India will provide an expanding population and workforce for decades. Bihar may keep this up until 2100. The demographic dividend launched by the south is now being carried forward by the north. Caveat: to maximise the dividend, India must improve worker skills and female labour participation.
The Finance Commission should incentivise good performance by giving some weightage to efforts by states in fiscal effort, quick justice, environmental protection, education and health. That will benefit the high-performance states of the south and west, and alleviate their grievance about the use of 2011 population figures. But they must adjust to the fact that what was once called poor performance in fertility by the northern states can, ironically, now be called high performance in creating future workers.
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एक राष्ट्र, अनेक धर्म
Date:17-04-18 To Download Click Here.
धर्म तो मानव अस्तित्व का अपरिहार्य हिस्सा है। भारतीय समुदाय तो वैसे ही बहुत धार्मिक है। धर्म हमारे जीवन का अटूट भाग है। हाल ही में कर्नाटक सरकार की केन्द्र सरकार को लिंगायत धर्म को हिन्दू धर्म से अलग एक धर्म मानने की सिफारिश की है। इससे 2003 में उच्चतम न्यायालय द्वारा जैन धर्म को पृथक धर्म के रूप में अस्वीकार करने की बहस ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। अपने एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया था कि ‘किसी ऐसे प्रजातांत्रिक समाज, जिसने समानता के अधिकार को अपना आधार माना है, का आदर्श बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के साथ-साथ अगड़े और पिछड़े वर्ग जैसे भेदभाव को मिटाना है।’ इस प्रकार के निर्णयों से उच्चतम न्यायालय ने ‘एक राष्ट्र, एक धर्म’ का समर्थन करने वालों पर मुहर लगा दी थी।
क्या इसका अर्थ यह माना जाए कि भारतीय संविधान सचमुच नए धर्म को अस्तित्व में लाए जाने पर प्रतिबंध लगाता है? क्या धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ, पहले से ही विद्यमान धर्मों का अनुकरण करना है? क्या इसका अर्थ धर्म के अंतर्गत स्व्तंत्रता या नए धर्म की स्थापना की स्वतंत्रता से नहीं लिया जाना चाहिए? क्या किसी नए धर्म के उत्थान को न्यायिक मान्यता दिया जाना आवश्यक है?
संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के धर्म को मानने का अधिकार दिया गया है। धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ धर्म से स्वतंत्रता भी है। अतः किसी एक धर्म के अंतर्गत अलग-अलग संप्रदाय बनाए जा सकते हैं। संविधान के मसौदे में सिक्ख, जैन और बौद्ध संप्रदायों को हिन्दू ही माना गया था। परन्तु संविधान के लागू होने के साथ ही जैनियों ने इसका विरोध किया। उन्हें अलग धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया। इसी प्रकार सिक्खों ने भी इसका विरोध किया। उन्हें भी अलग धर्म का दर्जा दे दिया गया।
दरअसल, प्रत्येक व्यक्ति अपनी अस्मिता के अधिकार के रूप में अपनी अंतश्चेतना और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए स्वतंत्र है। धर्म तो उसके एकाकीपन में किए गए क्रियाकलाप ही हैं। अतः धार्मिक अनुभव बहुत ही व्यक्तिगत अनुभव है। 1954 में रतिलाल बनाम बाम्बे की सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि ‘‘किसी भी व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार धार्मिक आस्था रखने का अधिकार है।’’ अतः भारतीय संविधान किसी व्यक्ति को अपनी कोई आस्था या धर्म को मानने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। अगर कुछ और लोग भी उसी मान्यता के हैं, तो वे उसे एक नए सम्प्रदाय या पृथक धर्म के रूप में माने जाने का दावा कर सकते हैं। इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता में किसी राज्य या कानून को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। मौलिक अधिकारों को संवैधानिक निर्भरता की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि किसी न्यायालय को धर्म के जरूरी और गैर जरूरी लक्षणों को निर्धारित करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
किसी के लिए आवश्यक तत्व क्या हैं, इसका निर्णय करना किसी व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। अमेरिका में इसे ही ‘एसर्शन टैस्ट’ या “अभिकथन का दावा“ कहा जाता है। अमेरिका के ही एक न्यायाधीश ने इस संबंध में कहा था कि ‘‘धर्म ऐसा अत्यंत व्यक्तिगत और पवित्र सोपान है, जिसे किसी मजिस्ट्रेट को विकृत करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’’
अगर लिंगायत समुदाय को यह लगता है कि वे हिन्दुओं से भिन्न हैं, तो उन्हें ऐसा मानने का पूरा अधिकार है। उन पर हिन्दू की पहचान थोपे जाने का कोई कारण समझ में नहीं आता। बल्कि अगर ऐसे समुदाय, किसी एक बड़े धर्म की छतरी में होने का दावा करते हैं, तो उन्हें उस धर्म में विचित्र नजरों से देखा जाता है।
लिंगायत समुदाय को यह भ्रम है कि किसी धार्मिक समुदाय की पहचान, कानून की गुलाम है। सच्चाई यह है कि किसी समुदाय का अस्तित्व कानून पर निर्भर नहीं करता। जैसा कि ग्रेसियों-बल्गेरिया समुदाय के संदर्भ में परमानेंट कोर्ट ऑफ इंटरनेशल जस्टिस ने कहा था कि “किसी संप्रदाय का अर्थ उसके सदस्यों की संख्या से नहीं, वरन् उनकी धार्मिक, जातीय एवं भाषायी परंपराओं की सहभागिता से लिया जाना चाहिए।” कोर्ट ने यह भी कहा था कि किसी संप्रदाय की पहचान कानून पर आश्रित नहीं है। अगर कोई संप्रदाय अपनी परंपरा से भिन्न कुछ सांस्कृतिक तत्वों का रक्षक है, और वह इन तत्वों को सहेजने के लिए तत्पर है, तो उसे एक पृथक संपदाय के रूप में मान्यता देने के लिए यह एक पर्याप्त कारण है।
यहाँ तक कि एन. अहमद बनाम एम.जे.हाई स्कूल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी यही कहा था कि अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना तो तथ्यों पर निर्भर करता है। इसमें सरकार की मुहर की कोई आवश्यकता नहीं है। साथ ही, राज्य द्वारा चिन्हित अल्पसंख्यकों के मामले में भी केन्द्र की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैज़ान मुस्तफा के लेख पर आधारित।
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Today's Life Management Audio Topic-"संघर्ष से शिक्षा"
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Today's Daily Audio Topic- "इतिहास की तैयारी , भाग -2"
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सुरिंदर सूद
बीते दशकों में कृषि क्षेत्र में होने वाले निवेश का बड़ा हिस्सा सिंचाई के खाते में गया है। इसके बावजूद इस दौरान शुद्ध सिंचित क्षेत्र में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। कृषि क्षेत्र को संस्थागत ऋण का प्रवाह करीब एक दशक में तिगुना से भी अधिक हो चुका है। लेकिन कर्ज लेने वाले लोगों की संख्या अधिक नहीं बढ़ी है। किसानों की कर्ज जरूरतों का बड़ा हिस्सा अब भी लालची साहूकारों जैसे अनौपचारिक स्रोतों के जरिये ही पूरा होता है। अनाज, दूध, बागवानी उत्पादों और मछली का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। फिर भी भारत वैश्विक भूख सूचकांक में निम्न स्तर पर बना हुआ है। वर्ष 2017 के भूख सूचकांक में भारत 119 देशों की सूची में 100वें स्थान पर रहा है। एक साल पहले के 97वें स्थान की तुलना में तीन पायदान की गिरावट ही देखने को मिली। एक सच यह भी है कि दुनिया के कुपोषित एवं भूखे लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई हिस्सा भारत में ही रहता है।
‘कृषि क्षेत्र में नीतियों एवं विकास प्राथमिकताओं के बीच असंतुलन’ शीर्षक से जारी नीति पत्र में कृषि क्षेत्र की चिंताओं को खत्म करने के लिए कुछ अन्य सुझाव भी दिए गए हैं। इनमें से एक महत्त्वपूर्ण सुझाव असिंचित, पारिस्थितिकी रूप से वंचित एवं कृषि के लिहाज से पिछड़े इलाकों में कृषि प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाने और बाजार ढांचे के विकास से जुड़ा हुआ है। इससे कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही कृषि आय भी बढ़ाई जा सकेगी और क्षेत्रीय असमानता भी कम हो पाएगी। कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों में ग्रामीण युवाओं की रुचि बहाल करना भी जरूरी है। ऐसा होने से कृषि को वैज्ञानिक कलेवर देने और सतत वृद्धि को सुनिश्चित किया जा सकेगा। युवाओं को कृषि में तकनीक के इस्तेमाल के लिए तैयार किया जाना चाहिए ताकि कृषि उत्पादकता और आय बढ़ाई जा सके और लागत में भी कमी आए। इसके अलावा व्यापक स्तर पर कौशल विकास कार्यक्रम भी चलाने की जरूरत है जिसमें गैर-कृषि ग्रामीण क्षेत्र में आय बढ़ाने पर जोर दिया गया हो। इससे किसानों को अपनी आय पर पडऩे वाले दबावों से निपटने में सहूलियत होगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो किसानों का असंतोष और कृषि क्षेत्र की खराब हालत और भी बिगड़ती जाएगी।
संपादकीय
नक्सल प्रभावित जिलों की सूची से 44 जनपदों को बाहर किया जाना इस बात का सूचक है कि सरकार नक्सली हिंसा पर लगाम लगाने में एक हद तक सफल हुई है, लेकिन वह इस सफलता पर संतुष्ट होकर नहीं बैठ सकती और न ही उसे बैठना चाहिए। इसका कारण यह है कि नक्सली संगठन अपनी ताकत बटोरकर नए सिरे से हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने में माहिर हैं। कई बार वे सुरक्षा बलों की सक्रियता के चलते अपने कदम पीछे खींच लेते हैं, लेकिन अतीत में यह सामने आया है कि वह इस दौरान अपनी ताकत बढ़ाने का काम करते हैं। इस बार वे ऐसा न करने पाएं और जिन जिलों में उनकी निष्क्रियता दर्ज की गई है वहां फिर से सक्रिय न होने पाएं, इसके लिए सरकार को सतर्क रहना होगा। नक्सली हिंसा में आई कमी के पीछे एक बड़ा कारण नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास योजनाओं को पहुंचाने में मिली सफलता है। अब इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सली न केवल विकास विरोधी हैं, बल्कि वे निर्धन एवं वंचित तबकों की झूठी आड़ भी लेते हैं। नक्सलियों के इस रवैये को बेनकाब करने की जरूरत है। यह काम मुश्किल इसलिए नहीं, क्योंकि आए दिन यह देखने को मिल रहा है कि नक्सली किस तरह विकास के कामों में बाधा पहुंचाते हैं। वे न केवल सड़कों के निर्माण के विरोधी हैं, बल्कि यह भी नहीं चाहते कि ग्रामीण इलाके संचार सेवा से जुड़ें और यही कारण है कि हाल के समय में सड़क निर्माण वाली कंपनियों को धमकाने और मोबाइल टॉवरों को नष्ट करने के मामले बढ़ते हुए दिखे हैं।
अब यह एक सच है कि नक्सली संगठन निर्धन आदिवासियों एवं ग्रामीणों की आड़ में उगाही करने वाले संगठन में तब्दील हो गए हैं। वे माफिया गिरोह की तरह से काम कर रहे हैं। गांव-गरीब के हित से उनका कोई लेना-देना नहीं। यह तो पहले से ही स्पष्ट है कि संविधान और कानून में उनका कोई भरोसा नहीं। वे लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को भी कोई महत्व नहीं देते। ऐसे लोगों के खिलाफ सख्ती दिखाने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन विडंबना यह है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में कई ऐसे राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक संगठन हैं, जो अपने स्वार्थो के चलते नक्सलियों की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मदद करते रहते हैं। इन संगठनों के खिलाफ भी सख्ती बरतने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त इस पर भी प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि आखिर नक्सली संगठन आधुनिक हथियार एवं विस्फोटक कहां से हासिल कर ले रहे हैं? पता नहीं नक्सलियों की हथियारों तक पहुंच को रोकने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? दरअसल यह काम भी प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी देखने की जरूरत है कि नक्सल प्रभावित राज्यों की पुलिस और अधिक सक्षम कैसे बने। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नक्सलियों की कमर तोड़ने का काम मोटे तौर पर केंद्रीय सुरक्षा बलों ने किया है। नक्सली फिर से सिर न उठाने पाएं, यह सुनिश्चित करने का काम राज्य सरकारों और उनकी पुलिस को ही करना चाहिए।
श्रीराम सिंह (पूर्व ओलंपियन)
ऑस्ट्रेलिया का गोल्ड कोस्ट भारत के लिए शुभ साबित हुआ है। वहां आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में हमारे खिलाड़ियों ने अच्छा खेल दिखाया। दर्जन भर से अधिक स्वर्ण पदक हमारी झोली में आए हैं। बैडमिंटन (टीम के रूप में) में तो हमें पहली बार सोना मिला ही,भारोत्तोलन, कुश्ती, शूटिंग, बॉक्सिंग जैसे खेलों में भी हमने मेडल जीते। एथलेटिक्स के लिहाज से राष्ट्रमंडल खेल कभी हमारे लिए सुखद नहीं रहे थे, पर अब इसमें भी हम मैदान मारने लगे हैं। यह उपलब्धि काफी कुछ बयां कर रही है। बता रही है कि देश में खेल का माहौल बनाने का जो काम हो रहा है, वह असर दिखा रहा है। फिर भी, मैं मानता हूं कि कुछ कमियां हैं, जिनको दूर करने की जरूरत है।
हमें यह सोचना चाहिए कि राष्ट्रमंडल या एशियाई खेलों में अच्छा प्रदर्शन करता भारत ओलंपिक में क्यों पिछड़ जाता है? इसका एक जवाब यह है कि राष्ट्रमंडल या एशियाई खेलों में वे देश शामिल ही नहीं होते, जिनके खिलाड़ियों की तूती ओलंपिक में बोलती है। दक्षिण कोरिया, जापान, चीन जैसे देशों का नाम यहां लिया जा सकता है, जो ओलंपिक का हिस्सा तो होते हैं, लेकिन राष्ट्रमंडल में शामिल नहीं होते। यही हाल कुश्ती, बॉक्सिंग, शूटिंग जैसी इवेंट का है, जिसमें तकनीक व क्षमता के मामले में हम पर बीस साबित होने वाले दूसरे देशों के खिलाड़ी राष्ट्रमंडल खेलों में नहीं दिखते।
एक बात और। राष्ट्रमंडल जैसे आयोजनों में इसलिए भी हमारा खेल काफी अच्छा रहता है, क्योंकि कभी-कभी अच्छे खिलाड़ी उनमें शामिल नहीं होते। ऐसा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रमंडल और एशियाई खेल, दोनों इवेंट एक ही साल आयोजित किए जाते हैं। खिलाड़ी दूसरे आयोजन में अच्छा प्रदर्शन करने की चाह में पहला टूर्नामेंट छोड़ देता है। कुछ खिलाड़ी इसलिए भी इनमें नहीं आना चाहते, क्योंकि वे ओलंपिक में भागीदारी को लेकर पूरी तरह समर्पित होते हैं।
सुखद बात है कि यह परिदृश्य अब बदल रहा है। राष्ट्रमंडल व एशियाई खेलों में हमारे खिलाड़ियों का खेल काफी सुधरा है। अब हम टेबल टेनिस जैसे टीम वर्क वाले खेलों में भी पदक जीतने लगे हैं। मगर ओलंपिक में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हमें देश की खेल संस्कृति को नई धार देनी होगी। एक स्तर के अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में जीत दर्ज कराने का अर्थ यह नहीं है कि हम अगले स्तर पर जीत दर्ज कराने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इसकी तैयारी हमें निचले स्तर से करनी होगी।
हमें ग्रामीण इलाकों पर अधिक से अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योेंकि वहां से हमें काफी टैलेंट मिल सकता है। टूर्नामेंट कराके हम वहां से बच्चों को चुन सकते हैं, और उन्हें एक स्पोट्र्स पर्सन में रूप में ढलने में मदद कर सकते हैं। उन्हें कोच की सुविधा देकर और उनका डाइट ठीक करके हम उनका उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। यह एक लंबी योजना जरूर है, मगर इस पर संजीदगी से आगे बढ़ना चाहिए। मुश्किल यह है कि हम सिर्फ उसी साल सक्रियता दिखाते हैं, जिस साल इवेंट होने वाले होते हैं। जबकि हमें काफी पहले से अपनी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। जैसे 2020 में जापान में हो रहे ओलंपिक की तैयारी अपने यहां 2016 से ही शुरू हो जानी चाहिए थी। और 2024 के पेरिस ओलंपिक की 2020 से।
दरअसल, छोटी उम्र में सीखने की क्षमता कहीं ज्यादा होती है। अगर जूनियर लेवल पर ही अच्छे कोच दिए जाएंगे, तो न सिर्फ बच्चों की नींव मजबूत होगी, बल्कि बचपन में ही उन्हें तकनीक का ज्ञान हो जाएगा। मगर अपने यहां अच्छे कोच हाई-लेवल पर दिए जाते हैं। बड़े शहरों की बात छोड़ दें, तो हमारे ग्रामीण इलाकों में ऐसे-ऐसे स्कूलों को भी मान्यता मिली हुई है, जिनके पास बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। उनके पास अच्छे मैदान नहीं हैं। बच्चे अगर खेलेंगे नहीं, तो फिर खेल की तरफ उनका रुझान कैसे बढ़ेगा?
जमीनी स्तर पर काम करना ज्यादा जरूरी है। जिस तरह की ट्रेनिंग हमारे बच्चों को कॉलेज या विश्वविद्यालयों में मिलती है, वह दूसरे देशों में स्कूलों में ही मिलने लगती है। जाहिर है, उनकी तैयारी हमसे कहीं पहले शुरू हो जाती है। हमारी सरकार ने अब ‘खेल इंडिया’ कार्यक्रम शुरू किया है। देर से ही सही, लेकिन अच्छी मंशा के साथ शुरू की गई यह एक अच्छी पहल है। इनमें से जो अच्छे बच्चे निकलेंगे, उन्हें अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए तैयार करना चाहिए। संभव हो, तो यह सुविधा उन्हें अपने घर के आस-पास ही मिले। इससे बच्चे की पढ़ाई भी नहीं छूटेगी और वह खेल पर भी ध्यान दे पाएगा।
एक जरूरत हमारे खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अधिक से अधिक भेजे जाने की भी है। विदेशों में खेलने से खिलाड़ी को अपनी क्षमता का एहसास होता है। साल 1976 के ओलंपिक में बतौर खिलाड़ी भाग लेने के लिए जब मैं कनाडा के मॉन्ट्रियल पहुंचा था, तो मुझे कुछ पता ही नहीं था। तब अगर 10-15 दिन पहले हम पहुंचते और विश्व स्तर के खिलाड़ियों के साथ हमें 4-5 रेसिंग मिल जाती, तो संभव है कि तस्वीर कुछ और होती। हमें पता चल जाता कि हम कहां खड़े हैं? इससे हमें अपनी गलतियों को सुधारने का वक्त मिलता। जब तक इस तरह के कॉम्पिटिशन नियमित अंतराल पर खिलाड़ियों को नहीं मिलेंगे, उन्हें अपने बारे में पूरा पता नहीं चल पाएगा।
यह भी अच्छी बात है कि अब लोगों में खेल को लेकर रुझान बढ़ा है। अभिभावक इसमें रुचि लेने लगे हैं। खेलों में पैसा भी आया है। हरियाणा जैसे राज्य पदकवीर खिलाड़ियों को अच्छा-खासा इनाम देने लगे हैं। नौकरी मिलने की उम्मीद भी होती है। इन सबका खासा असर पड़ा है। अभी तो एक खिलाड़ी ही हमारा खेल मंत्री है। इसका भी प्रभाव पड़ रहा है। देश में खेल की संस्कृति बदल रही है। इस बदलाव का आगे की प्रतियोगिताओं में निश्चय ही अच्छा असर पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Dhiraj Nayyar is Officer on Special Duty and Head, Economics, Finance and Commerce, NITI Aayog. The views expressed are personal.
The 115 Aspirational Districts Programme (ADP) conceived by Prime Minister Narendra Modi is radical not because this is the first time that a government in India has focussed on India’s most backward districts but because the exercise envisages a serious re-imagination of government and governance, and deepens cooperative federalism. The programme is informed by the failures of the past and therefore has a more contemporary vision of how public services are best delivered to those who need them most.
Aspirational districts
The 115 districts were chosen by senior officials of the Union government in consultation with State officials on the basis of a composite index of the following: deprivation enumerated under the Socio-Economic Caste Census, key health and education performance indicators and the state of basic infrastructure. A minimum of one district was chosen from every State. Unsurprisingly, the largest concentration of districts is in the States which have historically under-performed such as Uttar Pradesh and Bihar, or which are afflicted by left-wing extremism such as Jharkhand and Chhattisgarh. Moving forward, the areas that have been targeted for transformation are: education, health and nutrition, agriculture and water resources, financial inclusion, basic infrastructure and skills. Deliberately, the districts have been described as aspirational rather than backward so that they are viewed as islands of opportunity and hope rather than areas of distress and hopelessness. Attitudes and narrative matter for outcomes.
There is no financial package or large allocation of funds to this programme. The intent is to leverage the resources of the several government programmes that already exist but are not always used efficiently. The government doesn’t always need to spend more to achieve outcomes but instead to spend better. Many schemes of the Centre have flexible spending components which permit autonomy at the level of local governments but these are seldom used in practice due to controlling Central and State machineries.
Achieving success in this programme requires three tiers of government, the Centre, States and district administrations, to work in tandem. There is a structure in place. Each district is assigned a prabhari (in-charge) officer from the Centre (of additional secretary or joint secretary rank) and a prabhari officer from the State (of the rank of Secretary to State government) who will work in cooperation with the district administration. It is necessary for the Centre and States to be involved because not all decisions can be taken at the level of district. For example, if there is a shortage of teachers in a local school or a shortage of health personnel in a primary health centre, it needs the State capital to act, possibly through transfers of personnel from over staffed areas. On financial inclusion, the full cooperation of banks is necessary and only the Central government has leverage over them. But most crucial is the District Magistrate or Collector who is familiar with the challenges of his or her geography and has considerable power to implement government schemes. Partnership is not something which comes easily to the upper tiers of government, which are used to dictating terms to lower tiers.
The spirit of cooperation needs to be supplemented by a culture of competition. This programme takes the principle of competitive federalism down to district administrations. Each district will be ranked on the focus areas which are disaggregated into easily quantifiable target areas. So as not to bias the rankings on historical achievements or lack of them, the rankings will be based on deltas or improvements. The rankings will be publicly available.
India’s long history of a dominant state apparatus has led to an entrenched perception that government is the sole actor capable of and responsible for the transformation of India. The ADP has opened its door to civil society and leveraged the tool of corporate social responsibility to form partnerships which will bring new ideas and fresh energy with boots on the ground from non-government institutions to join the “official” efforts. The force multiplier on outcomes from such participation is potentially massive.
Smart data
One area which is being given serious attention is the collection of quality data on a real-time basis. Too often in India, data collection is delayed or lacking in quality which ends up leading to policymakers shooting in the dark. With continuously updated data dashboards, those running the programme on the ground can alter strategies after accurate feedback.
In a way, the ADP is a big pilot programme from reorienting how government does its business of delivering development. A decisive shift in the paradigm of governance is likely to finally fulfil the many broken promises of the past.
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आज विश्व की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का बहुत बड़ा योगदान है। विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में इसका भाग लगभग 9 प्रतिशत है। वैश्विक स्तर पर यह उद्योग 20 करोड़ रोजगार के अवसर उत्पन्न करता है। यही कारण है कि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग, निर्माण और वित्त की तरह ही सरकारी क्षेत्र, निजी क्षेत्र एवं पत्रकारिता जगत में पर्यटन को इतना महत्व दिया जाता है।
भारत के संदर्भ में पर्यटन उद्योग का बहुत महत्व है। भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थिति के चलते इसे अर्थव्यवस्था को गति देने के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए। इस दिशा में वर्तमान सरकार के प्रयास सकारात्मक रहे हैं। वीज़ा- ऑन-अराईवल, ई-टूरिस्ट वीज़ा, पर्यटन संस्थानों का विकास, सड़कों का निर्माण एवं सुधार तथा हवाई यात्रा को सुगम व सस्ता बनाना कुछ ऐसे सरकारी प्रयास हैं, जिनके कारण 2016 में पूरे विश्व में पर्यटकों की 4 प्रतिशत वृद्धि की तुलना में, भारत में यह 9.7 प्रतिशत दर्ज की गई।
अगर भारत को पर्यटन को अर्थव्यवस्था की गाड़ी का इंजन बनाना है, तो उसके लिए जीएसटी परिषद की तर्ज पर एक सुनियोजित और व्यवस्थित सहकारी संघ बनाना होगा।
भारत के अनेक राज्यों के पास पर्यटन को बढ़ावा देने की अनेक संभावनाएं हैं, परन्तु उनके पास नीतियों और संसाधनों का अभाव है। परिषद् के माध्यम से ऐसे राज्य राज्यों एवं केन्द्र की मदद से आगे बढ़ सकते हैं। परिषद् को चाहिए कि प्रतिवर्ष पाँच राज्यों को चुनकर उनके लिए एक एजेंडा बनाए। इसे वह इन राज्यों के जिला स्तर तक कार्यरूप में परिणत करे।
इस प्रकार राष्ट्रीय पर्यटन विधेयक एक ऐसा आधार सिद्ध हो सकता है, जो पर्यटन के क्षेत्र में समग्र एवं धारणीय विकास सिद्धान्त को अपनाकर चल सके।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अनुराग ठाकुर के लेख पर आधारित।
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म्यांमार की सीमा India–Myanmar barrier
ढोला सादिया सेतु Dhola-Sadiya Bridge
मोसुल नगर Mosul City
ट्राई जंक्शन Tri Junction
ओकिनोशिमा द्वीप Okinoshima Island
NH39
कांडला बंदरगाह Kandla Port
चांगी Changi
माउंट अगुंग Mount Agung
मालदीव Maldive
फारस की खाड़ी Persian Gulf
वांगानुई नदी Whanganui River
शेल गैस Shale gas
हैफा नगर Haifa City
चुंबी घाटी Chumbi Valley
व्हीलर द्वीप Wheeler Island
पनामा नहर Panama Canal
गुआम द्वीप Guam Island
हार्वे, इरमा, ओखी Hurricane Harvey, Tropical Storm Irma, Cyclone Ockhi
भूपेन हजारिका सेतु Bhupen Hazarika Setu
डोकलाम Doklam
ज़ोजिला सुरंग Zojial Pass Tunnel
रखाइन Rakhine State
38’’ अक्षांश 38’’ Latitude
सुपर मून Super Moon
जैव सुदृढ़ीकरण Bio-fortification
बैंकिंग विनियमन संशोधन अधिनियम, 2017 The Banking Regulation (Amendment) Bill, 2017
अधिकृत पूंजी Authorized Capital
एंजेल इन्वेस्टर Angel Investor
iCreate
न्यूनतम समर्थन मूल्य Minimum Support Price (MSP)
वित्तीय समाधान एवं जमा विधेयक, 2017 Financial Resolution and Deposit Insurance (FRDI) Bill, 2017
पेट्रो (क्रिप्टोकरेंसी) Petro (Cryptocurrency)
फिनटेक कम्पनी Fintech Company
मूल्य स्थिरता कोष Price Stabilisation Fund (PSF)
वैश्विक मानव पूंजी सूचकांक Global Human Capital Index
आर्थिक सलाहकार समिति Economic Advisory Council
एकल ब्रांड खुदरा व्यापार Single-brand Retail
जीवामृतम Jeevamrutham Organic Fertilizer
एकीकृत कृषि Integrated Farming System
मर्चेन्ट डिस्काउंट रेट Merchant Discount rate
ई-वे बिल E-WayBill System
रक्षा औद्योगिक गलियारा Defence Industrial Production Corridor
लांग टर्म कैपिटल गेन Long term capital gain
उद्द्येशिका, मौलिक अधिकार, राज्य के निति निर्देशक तत्व और मूल कर्तव्य
Preamble, Fundamental Rights, Directive Principles of State and Fundamental Duties
अनुच्छेद 324, अनुच्छेद 17, अनुच्छेद 35 (ए), अनुच्छेद 14, अनुच्छेद, 21, अनुच्छेद 19
Article-324, Article-17, Article-35(A), Article-14, Article-21, Article-19
राष्ट्रपति का चुनाव Presidential Election
दि प्रिवेंशन ऑफ क्रूएलेटी टू एनीमल एक्ट-1960 The Prevention of Cruelty to Animal Act-1960
समाजिक बहिष्कार (निषेध एवं निवारण) अधिनियम, 2016 Social Boycott (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2016
वित्त आयोग Finance Commission
123 वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2017 Constitution 123rd Amendment Bill, 2017
ग्रेटर नागालिम Greater Nagalim
इच्छामृत्यु Euthanasia
‘आल आउट’ अभियान Operation ‘All Out’
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर National Register of Citizens (NRC)
विश्व प्रसन्नता सूचकांक World Happiness Index
क़्वाड QUAD
अंतर्राष्ट्रीय सौर ऊर्जा गठबंधन International Solar Alliance
शंघाई सहयोग संगठन Shanghai Cooperation Organisation
वन बेल्ट वन रोड One Belt One Road Initiative
पनामा पेपर्स Panama Papers
रोहिंग्या शरणार्थी Rohingya Refugees
कैटेलोनिया Catalonia
वासेनार व्यवस्था Wassenaar Arrangement
अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय International Court
इस्राइल Israel
वियेना सम्मेलन-1961 Viena Convention-1961
इंटरनेशनल कम्पेन टू अबोलिश न्यूक्लीयर वेपन International Campaign to Abolish Nuclear Weapons (ICAN)
रायसीना संवाद Raisina Dialogue
हम्बनटोटा बन्दरगाह Hambantota Port
‘शक्ति’ नीति SHAKTI Scheme
‘स्वयं’ योजना ‘Swayam’ Policy
सौभाग्य योजना ‘Saubhagya’ Yojana
अंतरा ANTRA
‘सम्पदा’ योजना ‘Sampada’ Yojana
सहेली SAHELI
पेंसिल पोर्टल Pencil Portal
‘दर्पण’ योजना ‘Darpan’ Yojana
वैश्विक कौशल पार्क Global Skills Park
‘स्वयं प्रभा’ योजना ‘Swayam Prabha’ Yojana
‘स्वच्छ धन अभियान’ Operation Clean Money
‘मुस्कान’ अभियान The Smile Campaign
मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम, 2017 Maternity Benefit Amendment Act,2017
‘समीप’ कार्यक्रम SAMEEP Programme
FAME INDIA
मदर टेरेसा की साड़ी Mother Teresa Saree
रामानुजाचार्य Ramanujacharya
सीदी सैय्यद मस्जिद Sidi Saiyyed Mosque
‘पद्मावत’ – जायसी Padmavat by Malik Muhammad Jayasi
हरिकथा Harikatha
बहादुरशाह जफर का मकबरा Tomb of Bahadur Shah Zafar
स्वाभिमान आंदोलन ‘The Bharat Swabhiman Movement’
पाइका विद्रोह Paika Rebellion
अहमदाबाद: विश्व विरासत में Ahmedabad declared India’s first heritage city by UNESCO
पौराणिक स्मारक एवं पुरातात्विक स्थलों एवं अवशेष विधेयक, 2017 The Ancient Monuments and Archaeological Sites and Remains (Amendment) Bill, 2017
मानवता का अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर UNESCO Intangible Cultural Heritage of Humanity
चिरा Chira
लिंगायत Lingayat
खिलाफत आंदोलन The Khilafat movement
लाला लाजपत राय Lala Lajpat Rai
इबोला Ebola
इन्टरआपरेबिलिटी सिस्टम Interoperability System
ग्लोबल फूटप्रिट नेटवर्क रिपोर्ट Global Footprint Network Report
COP-23
बाँस Bamboo
प्रोजेक्ट लून Project Loon
स्नो लेपर्ड Snow Leopard
PM 2.5
स्टीफन हाकिंग Stephen Hawking
फोटोवोल्टेक हाइवे Photovoltaic Highway
फाल्कन हेवी Falcon Heavy
सी-गार्डियन ड्रोन Sea Guardian Drone
बंधन एक्सप्रेस Bandhan Express
टेस्ला रोडस्टर Tesla Roadster
Co25
iCMIS
अपाचे हेलीकाप्टर Apache Helicopter
आईएनएस कलवरी INS Kalvari
आईएनएस किलटॉन INS Kiltan
‘रुस्तम’ (ड्रोन) Rustom (Drone)
Middle east respiratory syndrome coronavirus (MERS-Cov)
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अनुच्छेद 324, अनुच्छेद 17, अनुच्छेद 35 (ए), अनुच्छेद 14, अनुच्छेद, 21, अनुच्छेद 19
Article-324, Article-17, Article-35(A), Article-14, Article-21, Article-19
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दि प्रिवेंशन ऑफ क्रूएलेटी टू एनीमल एक्ट-1960 The Prevention of Cruelty to Animal Act-1960
समाजिक बहिष्कार (निषेध एवं निवारण) अधिनियम, 2016 Social Boycott (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2016
वित्त आयोग Finance Commission
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राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर National Register of Citizens (NRC)
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रोहिंग्या शरणार्थी Rohingya Refugees
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वासेनार व्यवस्था Wassenaar Arrangement
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‘स्वयं’ योजना ‘Swayam’ Policy
सौभाग्य योजना ‘Saubhagya’ Yojana
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सहेली SAHELI
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‘मुस्कान’ अभियान The Smile Campaign
मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम, 2017 Maternity Benefit Amendment Act,2017
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पाइका विद्रोह Paika Rebellion
अहमदाबाद: विश्व विरासत में Ahmedabad declared India’s first heritage city by UNESCO
पौराणिक स्मारक एवं पुरातात्विक स्थलों एवं अवशेष विधेयक, 2017 The Ancient Monuments and Archaeological Sites and Remains (Amendment) Bill, 2017
मानवता का अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर UNESCO Intangible Cultural Heritage of Humanity
चिरा Chira
लिंगायत Lingayat
खिलाफत आंदोलन The Khilafat movement
लाला लाजपत राय Lala Lajpat Rai
इबोला Ebola
इन्टरआपरेबिलिटी सिस्टम Interoperability System
ग्लोबल फूटप्रिट नेटवर्क रिपोर्ट Global Footprint Network Report
COP-23
बाँस Bamboo
प्रोजेक्ट लून Project Loon
स्नो लेपर्ड Snow Leopard
PM 2.5
स्टीफन हाकिंग Stephen Hawking
फोटोवोल्टेक हाइवे Photovoltaic Highway
फाल्कन हेवी Falcon Heavy
सी-गार्डियन ड्रोन Sea Guardian Drone
बंधन एक्सप्रेस Bandhan Express
टेस्ला रोडस्टर Tesla Roadster
Co25
iCMIS
अपाचे हेलीकाप्टर Apache Helicopter
आईएनएस कलवरी INS Kalvari
आईएनएस किलटॉन INS Kiltan
‘रुस्तम’ (ड्रोन) Rustom (Drone)
Middle east respiratory syndrome coronavirus (MERS-Cov)
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Today's Life Management Audio Topic-"सुविधाओं को सीमायें न बनने दें"
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Today's Daily Audio Topic- "सहकारी संघवाद"
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पांच दशक बाद दक्षिण भारत से फिर कुछ गैर-जिम्मेदार आवाजें उठ रही हैं। कुछ दक्षिण भारतीय नेता भारतीय संघ के भीतर ही अलग द्रविड़नाडु बनाने की मांग कर रहे हैं जिसमें दक्षिण के पांचों राज्य शामिल हों। वहीं कुछ नेताओं की मांग है कि इन पांचों राज्यों को भारतीय संघ से अलग हो जाना चाहिए, क्योंकि यहां उन्हें उत्तर भारत की तुलना में कम तवज्जो मिलती है। इसकी शुरुआत अभिनेता से नेता बने कमल हासन ने की जब उन्होंने कहा कि अगर सभी दक्षिणी राज्य एक ‘द्रविड़ पहचान’ के तहत लामबंद हो जाएं तो फिर हमारी आवाज और ज्यादा बुलंद हो जाएगी। द्रमुक नेता एमके स्टालिन ने भी इसमें सुर मिलाते हुए कहा कि उन्हें खुशी होगी अगर सभी दक्षिणी राज्य साथ में आएं और द्रविड़नाडु की मांग करें।
तेलुगु फिल्मों के अभिनेता और जनसेना पार्टी के नेता पवन कल्याण ने भी उत्तर-दक्षिण के बीच बढ़ती खाई को लेकर चेतावनी दी। यहां तक कि उन्होंने तो ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ साउदर्न इंडिया’ का विचार भी पेश कर दिया। इस पर तेदेपा सांसद मुरली मोहन आजादी की बात करके इस बहस को अस्वीकार्य स्तर पर ले गए। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत खुद को भेदभाव का शिकार महसूस करता है और अगर आगे भी ऐसा रहा तो पांचों दक्षिणी राज्य खुद को ‘स्वतंत्र देश’ घोषित कर देंगे। भले ही उत्तर-दक्षिण की यह अदावत पुरानी हो, लेकिन मौजूदा असंतोष 15वें वित्त आयोग के उस नजरिये से भड़कता दिख रहा है जिसमें राज्यों के लिए संसाधनों के बंटवारे की व्यवस्था की गई है। निश्चित रूप से केंद्र की ओर से राष्ट्रीय संसाधनों और कोष से अपने लिए उचित वितरण की मांग करने का दक्षिणी राज्यों को पूरा अधिकार है। इन मुद्दों पर चर्चा या बहस हो सकती है, लेकिन ये भारत से अलगाव की वजह नहीं बन सकते।
दक्षिण के लिए अलग पहचान की ये मांगें असल में हैरान करने वाली हैं, क्योंकि पिछले सत्तर वर्षों में एकीकरण की दिशा में राष्ट्र ने काफी प्रगति की है और अलगाव के पक्ष में उठे सुरों को प्रभावी तरीके से शांत भी किया गया है। आजादी के बाद देश ने पहली बार किसी सार्वजनिक मंच पर अलगाव के पक्ष में आवाज तब सुनी थी जब सीएन अन्नादुरई ने 1 मई, 1962 को राज्यसभा में भाषण दिया। द्रमुक नेता अन्नादुरई ने तमिलनाडु (उस समय मद्रास प्रांत) की आजादी को लेकर अपनी पार्टी की विवादित मांग का तुर्रा छेड़ा। उनकी बातों से तमाम सदस्यों को धक्का लगा।
अन्नादुरई ने कहा, ‘हमें पुनर्विचार करना होगा। निश्चित रूप से हमारे पास संविधान है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम पुनर्मूल्यांकन और राष्ट्र शब्द की नए सिरे से व्याख्या करें।’ पुनर्मूल्यांकन से अपना आशय स्पष्ट करते हुए अन्नादुरई ने कहा था, ‘मैं अलग परिवेश वाले देश से आता हूं जो मेरे ख्याल से तमाम मामलों में अलग है। मैं द्रविड़ तबके से ताल्लुक रखता हैं और मुझे खुद को द्रविड़ कहने में गर्व महसूस होता है। द्रविड़ों में काफी कुछ अलग है जिनसे एक देश बन सकता है। इसलिए हम आत्मनिर्णय चाहते हैं।’ उन्होंने कहा कि दक्षिण का बंटवारा हुआ तो उसमें भारत के विभाजन जितनी मुश्किलें भी नहीं आएंगी, क्योंकि प्रायद्वीप के रूप में यह एक भौगोलिक इकाई है और विस्थापन और शरणार्थियों की समस्या भी पैदा नहीं होगी।
अन्नादुरई ने विभाजन के दौरान कपूरथला में प्रधानमंत्री नेहरू के एक भाषण का हवाला भी दिया। उसमें नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस भारत को एक सूत्र में पिरोने की पूरी कोशिश करेगी, लेकिन अगर कोई भारतीय हिस्सा आत्मनिर्णय की मांग करता है तो कांग्रेस उसका समर्थन करेगी। उन्होंने कहा, ‘इस तरह जब कांग्रेस
आत्मनिर्णय या स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार करती है तो फिर प्रायद्वीपीय भारत को आजादी क्यों नहीं दी जाती।’ अन्नादुरई ने कहा कि भारत को यहां-वहां फैले बेमेल राज्यों का केंद्र बनने के बजाय देशों के सौहार्दपूर्ण समूहों का रूप लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि द्रविड़नाडु एक ‘छोटा, सुगठित, सजातीय और एकीकृत देश होगा।’ दूसरे शब्दों में कहें तो अन्नादुरई ने अलग तमिलनाडु की मांग रखी जिसे और व्यापक रूप देते हुए उन्होंने समूचे दक्षिण को समाहित करते हुए अलग द्रविड़नाडु का खाका पेश कर दिया।
अन्नादुरई की इन मांगों पर भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कड़ा विरोध जताया। अन्नादुरई के भाषण के अगले दिन राज्यसभा में उन्होंने कहा, ‘कल हमने इस सदन में खतरे की घंटी सुनी। स्वतंत्रता प्राप्ति और देश के विभाजन के 15 वर्ष बाद फिर से भारत को बांटने की एक आवाज उठी है। विघटन का यह स्वर भारत के विनाश का स्वर है। भारत से अलग होने के और भारत के टुकड़े करने के क्या कारण दिए गए हैं कि मद्रास के साथ न्याय नहीं होता? हम किसी भी राज्य में जाएं तो हमको यह शिकायत मिलेगी। केवल राज्यों में ही नहीं, बल्कि एक राज्य के तो भिन्न-भिन्न हिस्से हैं उनमें भी इस तरह की शिकायत है। इन शिकायतों में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन ये शिकायतें हमें इस बात के लिए प्रेरित नहीं कर सकतीं कि हम राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दें और यह कि हम अपनी स्वतंत्रता की पहली शर्त को समाप्त कर दें और हम यह मांग करें कि भारत टुकड़ों में बंट जाना चाहिए, भारत का वॉलकेनाइजेशन हो जाना चाहिए। मुझे बड़ा खेद है कि यह आवाज आत्मनिर्णय के आवरण को ओढ़ कर आई है। उसे सैद्धांतिक स्वरूप प्रदान करने का प्रयत्न किया गया है और पृथकतावादी मांग को एक ऊंचे धरातल पर रखने की कोशिश की गई है और कहा गया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं, राष्ट्रों का समूह है और दक्षिण को इस बात की छूट होनी चाहिए कि वह उत्तर से अलग हो जाए। मैं नहीं मानता कि कोई भी देश इस प्रकार की मनोवृत्ति के साथ समझौता कर सकता है। मुस्लिम लीग ने दो राष्ट्रों के सिद्धांत की बात कही थी और हम उसके खिलाफ लड़े। हमने कभी दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं माना।’
सदन में वाजपेयी के विचारों को तमाम सांसदों का समर्थन मिला जिनमें कई दक्षिण भारत के भी सांसद थे। एक साल बाद चीनी आक्रमण के दौरान जब राष्ट्रीय एकता पहली प्राथमिकता बन गई तब द्रमुक ने अपनी यह मांग वापस ले ली। वह चुनावी तंत्र से जुड़कर मुख्यधारा की पार्टी बन गई और 1967 में उसने राज्य में सरकार भी बनाई। इसके साथ ही लगा कि एकता की हिमायती ताकतों को मजबूती मिली।
राज्यसभा में उस बहस के छप्पन साल बाद हमें फिर से वैसे ही स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इसमें आजादी की बातें भी हो रही हैं जिन पर चर्चा करना भी बेतुका है। भारत की एकता और अखंडता पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। देश को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए बीते सात दशकों में भारतीयों की तीन पीढ़ियां खप गईं। दुनिया में हमारे जितना कोई भी लोकतांत्रिक और विविधता भरा समाज नहीं नहीं है और कुछ क्षुद्र हितों की पूर्ति के लिए हम विविधता में एकता की इस गौरवमयी यात्रा पर विराम नहीं लगा सकते। वाजपेयी के 1962 के भाषण की बातें आज भी उतनी खरी हैं। हमें भारत की एकता को लेकर उनके आह्वान पर विचार करते हुए अखंडता को चुनौती देने वाली आवाजों को जवाब देना चाहिए।
शशि थरूर (विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री)
मैंने पिछले लेख में वित्त आयोग के नए संदर्भ बिंदु को लेकर दक्षिण के राज्यों में उठे विवाद की चर्चा की थी। इन राज्यों को लगता है कि शासन, महिला सशक्तीकरण और आबादी रोकने में नाकाम राज्यों को इसमें गलत ढंग से पुरस्कृत किया गया है। मैंने तब इससे बड़े खतरे की ओर ध्यान दिलाया था कि यदि 1971 की आबादी के आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व स्थिर रखने की मौजूदा व्यवस्था 2026 में खत्म होने पर यदि यही तर्क गंभीर स्थिति पैदा करेगा। तब दक्षिणी राज्यों को वित्तीय रूप से शिकार बनाए जाने के साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व से भी वंचित होने का अहसास होगा व राष्ट्रीय एकता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
पहले ही कुछ गर्मदिमाग अलगाव पर गंभीर विचार करने की बात कर रहे हैं और चेन्नई के आसपास तो कुछ ‘द्रविड नाडु’ का मामला फिर जीवित कर रहे हैं। ऐसा कोई विचार चाहे तमिलनाडु के सीमित हलकों को ही लुभाता हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इससे जुड़ी चिंता की उपेक्षा की जाए। अपने लेख में मैंने सुझाव दिया था कि दक्षिण की इस फैलती बेचैनी का एक ही इलाज है कि हम अधिक विकेंद्रीकृत लोकतंत्र की जरूरत को पहचानंे। यहां कर संसाधनों की हिस्सेदारी में केंद्रीय हिस्सा इतना महत्वपूर्ण न हो और नई दिल्ली का राजनीतिक अधिकार इतना हावी होने वाला न हो। इससे हाल के आबादीगत आंकड़ों से पैदा हुई चिंताएं उतनी प्रासंगिक नहीं रहेगी।
हम यह कैसे तय करें कि एक विकेंद्रीकृत लोकतंत्र का क्या मतलब है? कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने दलील दी है कि भारत एकीकृत राज्य (यूनियन) से संघ-राज्य (फेडरेशन) में विकसित हो रहा है। यह कुछ स्तर तक तो खुशफहमी है। क्योंकि इस दौर में तो ‘सहकारी संघवाद’ जैसे चिकने-चुपड़े जुमलों के पीछे अधिक-केंद्रीकरण की वास्तविकता छिपा दी गई है, लेकिन कोई कारण नहीं है कि हम भारत को उस दिशा में ले जाने के बारे में न सोचें फिर चाहे हम अभी वहां तक पहुंचे न भी हों।
बेशक हमारी ‘अर्ध-संघीय’ व्यवस्था में संघीय करंसी सर्वोपरि है। वैसे भी भारत में संघ ने राज्यों का गठन किया है बजाय इसके कि राज्य एकत्रित होकर संघ का निर्माण करते। कुछ नए राज्य तो हाल के वर्षों में संसद में कानून पारित करके गठित किए गए हैं। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि संघ का प्रभुत्व इस हद तक बढ़ा दिया जाए कि जहां राज्यों को न के बराबर या बिल्कुल ही स्वायत्तता न रहे और उन्हें लगे कि वे तो नई दिल्ली के खिलौने बन गए हैं। इसी धारणा ने मौजूदा बेचैनी को जन्म दिया है और वित्त आयोग के संदर्भ बिंदुओं में तकनीकी सुधार को बड़ा मुद्दा बना दिया है।
लेकिन, अधिक संघीय भारत कैसा दिखाई देगा? पहले तो हमें यह आशंका दूर करनी चाहिए कि अधिक संघवाद उस बंधन को ढीला कर देगा, जिसने सारे भारतीय राज्यों को सहभागी राष्ट्रीयता में बांध रखा है। जब कर्नाटक ने अपने आधिकारिक राजकीय ध्वज को मंजूरी दी तो खतरा महसूस किया गया और पुकार उठी कि ऐसा ध्वज तो भारतीय ध्वज को चुनौती है। कई अन्य संघीय राष्ट्रों में प्रदेशों के अपने ध्वज और प्रतीक हैं, लेकिन उनकी राष्ट्रीय सरकारों को खतरा महसूस नहीं हुआ। सच तो यह है कि मजबूत क्षेत्रीय पहचानों को मान्यता देना एक शक्तिशाली व आत्मविश्वास भरे राज्य की पहचान है। केवल कमजोर ही अपने मातहतों को अधिकार संपन्न बनाने के प्रति उदासीन होते हैं।
एकाधिक पहचानों को बढ़ावा देने और उसका उत्सव मनाने की भारत की क्षमता उसकी विशिष्टता रही है। आप एक साथ अच्छे मुस्लिम, अच्छे केरली और अच्छे भारतीय हो सकते हैं और इनमें से हर एक पर गर्व कर सकते हैंं बिना यह महसूस करे कि इनमें कोई दूसरे का महत्व घटाता है। महान मलयाली कवि वल्लथोल ने लिखा है, ‘यदि कोई भारत का नाम सुनता है तो उसका दिल गर्व से भर जाना चाहिए, यदि कोई केरल का नाम सुनता है तो उसकी धमनियों में खून को उछाले मारना चाहिए।’ इसी तरह कन्नड़ कवि कुवेम्पु ने ‘जय भारता जननीय तुनजाथे’ की रचना की, जिसमें कर्नाटक को भारतीय राष्ट्र की बेटी बताकर उसकी सराहना की है।
इस तरह दक्षिण के राज्य पृथक होने में रुचि नहीं रखते, वे अधिक ईमानदार संघवाद चाहते हैं। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने सिर्फ ऐसी व्यवस्था की वकालत की है, जिसमें राज्यों को उनसे इकट्ठा किए गए टैक्स में अधिक बड़ा हिस्सा मिले। इससे तुलनात्मक रूप से विकसित दक्षिणी राज्य अधिक हिस्सा अपने पास रख पाएंगे, जो वे अभी केंद्र को योगदान में देते हैं। इस सुझाव के साथ कठिनाई यह है कि इससे भारत के गरीब राज्यों को सहायता करने के लिए केंद्र सरकार के पास उपलब्ध फंड घट जाएगा। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया दलील देते हैं कि ‘केंद्रीय योजनाओं का हिस्सा कम होना चाहिए।’ यह उक्त सवाल का जवाब हो सकता है। हां, अधिक संपन्न राज्यों से राजस्व लीजिए, ताकि गरीब राज्यों में केंद्रीय योजना के लिए पैसा जुटाया जा सके, लेकिन उन योजनाओं को अधिक लचीलेपन के साथ लागू करें ताकि हर राज्य आकलन कर सके कि क्या उसे इसकी जरूरत है और साथ ही उन्हें अधिकार हो कि वे इन योजनाओं को अपनी जरूरतों के मुताबिक आकार दे सकें। इससे केंद्र की बजाय राज्यों की प्राथमिकताओं के लिए अधिक पैसा मिल सकेगा।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की यह भी शिकायत है कि देश की आर्थिक नीति तय करने में राज्यों को कुछ कहने का हक नहीं है। वे मुक्त व्यापार समझौते के तहत श्रीलंका के जरिये वियतनाम से सस्ती काली मिर्च के आयात का उदाहरण देते हैं कि समझौते में केरल व कर्नाटक जैसे राज्यों को कुछ कहने का हक नहीं है, जबकि काली मिर्च के उनके किसानों की आजीविका इससे गंभीरता से प्रभावित होगी। वे जीएसटी काउंसिल की तर्ज पर संस्था गठित करने का सुझाव देते हैं, ताकि ‘व्यापार नीति और कृषि संबंधी मुद्दों पर नीतियां बनाने में हम बेहतर ढंग से बात रखें, जो हमारे किसानों को प्रभावित करती हैं।..हमें तत्काल ऐसे तंत्र की जरूरत है, जिसमें हमें राष्ट्रीय नीतियों में अपनी बात रखने का मौका मिले।’ यह प्रस्ताव विचार करने लायक है। अब दूसरे उदारीकरण का वक्त है। जैसे 1991 के मूल उदारीकरण ने भारतीयों को लाइसेंस राज के बंधनों से मुक्त किया उसी तरह अब हमें राज्यों को उनकी क्षमता के अनुसार और सुशासन से विकसित होने के लिए मुक्त करना होगा।
एस श्रीनिवासन
दक्षिणी राज्य 15वें वित्त आयोग की शर्तों को लेकर काफी नाराज हैं। उनका आरोप है कि केंद्र संविधान की संघीय भावना का उल्लंघन कर रहा है। इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए पिछले हफ्ते तिरुवनंतपुरम में जुटे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल व पुडुचेरी के प्रतिनिधियों का लहजा तो काफी तल्ख था। तमिलनाडु, ओडिशा और तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों ने भी इस मसले पर केंद्र सरकार को अलग से चिट्ठियां लिखी हैं, जिनमें उन्होंने अपनी चिंता का इजहार किया है। वित्त आयोग की शर्तों से नाराज राज्यों की अगली बैठक विशाखापट्टनम में हो सकती है, जिसमें शामिल होने के लिए पश्चिम बंगाल, पंजाब और दिल्ली के अलावा भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों को भी न्योता भेजा गया है। लेकिन टकराव मूलत: केंद्र और दक्षिणी राज्यों के बीच ही है।
सांविधानिक प्रावधानों के तहत हरेक पांच साल पर वित्त आयोग का गठन किया जाता है, ताकि यह तय किया जा सके कि केंद्र व राज्यों के बीच और राज्य-राज्य के बीच राजस्व के बंटवारे की रूपरेखा कैसी होनी चाहिए? दरअसल, राजस्व सामूहिक रूप से इकट्ठा किया जाता है और फिर उसके बंटवारे का एक फॉर्मूला तय होता है। इस संदर्भ में शर्तें तय करते समय वित्त आयोग किसी भी राज्य के राजस्व प्रदर्शन के अलावा कई अन्य मानदंडों पर भी गौर करता है। विवाद इन शर्तों को लेकर ही है। वित्त आयोग अक्सर राज्य की आबादी और उसकी आय के फासले को ध्यान में रखता है। इससे राजस्व बंटवारे की बड़ी शर्त अधिक गरीबी हो जाती है।
दक्षिणी राज्यों की मुख्य आपत्ति वित्त आयोग के इस फैसले को लेकर है कि उसने 2011 की आबादी को अपना आधार बनाया है, जबकि अब तक 1971 की जनसंख्या को ही मानदंड माना जाता रहा है। वैसे 14वें वित्त आयोग ने 2011 की जनसंख्या को 10 फीसदी अतिरिक्त महत्व दिया था, पर इस बार राजस्व बंटवारे में 2011 की आबादी को ही पूर्णत: आधार बनाया जाएगा। दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में अच्छा काम किया है। जैसे, 1971 से 2011 के बीच दक्षिण में ‘स्थानापन्न प्रजनन दर’ 2.1 या इससे भी कम रही है। दरअसल, यह दर इस बात से तय होती है कि प्रति महिला कितने बच्चों ने जन्म लिया? इससे यह पता चलता है कि स्थानानांतरण के बगैर एक पीढ़ी की जगह दूसरी पीढ़ी की जनसंख्या में कितनी बढ़ोतरी हुई? इस लिहाज से उत्तर प्रदेश और बिहार के मुकाबले दक्षिणी राज्यों की जनसंख्या वृद्धि कम रही है। ऐसे में, इन राज्यों को लग रहा है कि आबादी के नियंत्रण में बेहतर प्रदर्शन के लिए उन्हें वित्त आयोग ‘दंडित’ कर रहा है।
ऐसा आकलन है कि 1971 से 2011 के बीच तमिलनाडु और केरल की आबादी क्रमश: 56 और 75 फीसदी बढ़ी, जो देश के सभी राज्यों में सबसे कम हैं। दूसरी तरफ, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश की जनसंख्या दोगुनी हो गई। चूंकि लोकसभा में सदस्यों की राज्यवार संख्या का आधार 1971 की आबादी है, इसलिए दक्षिणी राज्य आर्थिक संसाधनों के बंटवारे की बुनियाद भी उसी को बनाने की मांग कर रहे हैं। आलोचकों का यह भी कहना है कि 15वें वित्त आयोग ने अपनी शर्तों में उन विषयों को भी शामिल कर लिया है, जो उसके दायरे में आते ही नहीं। जैसे, शर्तों में यह भी शामिल है कि ‘न्यू इंडिया 2022’ के लिए चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं में राज्यों के प्रदर्शन का भी आयोग मूल्यांकन करेगा। इसे राज्यों पर केंद्र प्रायोजित योजनाएं थोपने के रूप में देखा जा रहा है।
तमिलनाडु ने पूर्व में ऐसी अनेक केंद्रीय योजनाओं का यह कहते हुए विरोध किया था कि वे योजनाएं अब बेमानी हो चुकी हैं या फिर राज्य के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने के अनुकूल नहीं हैं। जैसे, केंद्र की नि:शुल्क चावल वितरण योजना का उसने यह कहते हुए विरोध किया था कि वह इससे कहीं बेहतर योजना पहले से अपने राज्य में चला रहा है। अगला मसला ‘लोक-लुभावन’ कार्यक्रमों की समीक्षा का है। चूंकि नेताओं द्वारा चुनावों के वक्त मुफ्त में बिजली देने या उपहार बांटने से जुड़े कार्यक्रमों और राज्यों द्वारा कर्ज माफी को लोक-लुभावन माना जाता है, इसलिए वित्त आयोग इनकी भी समीक्षा करना चाहता है। लेकिन राज्य इसका जोरदार विरोध कर रहे हैं। उनकी दलील है कि ऐसी योजनाएं राज्य के आर्थिक विकास और सामाजिक उत्थान में मददगार साबित होती हैं। जैसे, मीड-डे मील योजना और बकरी व गाय बांटने की योजनाओं ने ग्रामीण आबादी के जीवन स्तर में सुधार किया है।
दक्षिणी राज्यों का आरोप है कि आयोग की शर्तों ने वित्तीय अनुशासन के महत्व को घटा दिया है। उनके मुताबिक, इन शर्तों ने राजस्व आवंटन को अधिक जनसंख्या वाले प्रांतों की तरफ झुका दिया है। दक्षिणी राज्य केंद्र के इस दावे को भी खारिज करते हैं कि 14वें वित्त आयोग में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए कुल राजस्व का 42 फीसदी हिस्सा राज्यों को हस्तांतरित कर दिया था, जो कि पूर्व के वित्तीय वर्ष के आवंटन में 10 प्रतिशत का इजाफा था। राज्यों का कहना है कि यह ‘अधिक धन’ आवंटन नहीं था, बल्कि ‘अधिक संगठित’ कोष का आवंटन था। केंद्र सरकार का कहना है कि उसका खुद का राजस्व दायरा सीमित है और दक्षिणी राज्यों को रक्षा व राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़े खर्चे को भी ध्यान में रखना पड़ेगा। मगर दक्षिण के राज्य इस दलील से संतुष्ट नहीं हैं। उनका सवाल है कि यदि बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए केंद्र सरकार ने 80,000 करोड़ रुपये दिए, तो इसमें गलती किसकी है?
बहरहाल, दक्षिणी राज्यों के वित्त मंत्रियों की इस बैठक ने, जिनमें से अनेक एनडीए के बाहर के दल हैं, केंद्र को बेचैन तो किया ही है। इसीलिए प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने उनकी चिंताओं को ‘अनावश्यक’ बताया है। प्रधानमंत्री मोदी ने तो पिछले दिनों चेन्नई में एक बैठक में बेहतर जनसंख्या नियंत्रण करने वाले राज्यों को पुरस्कृत करने की बात भी कही। लेकिन दक्षिणी राज्य विभिन्न आकलनों से यह दिखा रहे हैं कि उन्हें राजस्व का नुकसान होने जा रहा है।
साफ है, 15वें वित्त आयोग की शर्तों के विरोध की वजह आर्थिक तो है ही, राजनीतिक भी है। राज्य इसे अपने अधिकारों के अतिक्रमण के रूप में देख रहे हैं। अगले आम चुनाव में अब बस एक साल बचा है। ऐसे में, क्षेत्रीय दल और विरोधी पार्टियां संघवाद का मुद्दा उठाएंगी ही। यह मसला चुनाव में अहम भूमिका निभाएगा।
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Date:19-04-18
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भारत में बाल-विवाह की प्रथा सदियों से चली आ रही है। इसे कानून बनाकर प्रतिबंधित करने और सामाजिक जागरुकता कार्यक्रम चलाए जाने के बाद भी यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गत वर्ष कई नाबालिग लड़कियों का विवाह हुआ है।
बाल विवाह के अनेक नकारात्मक परिणाम होते हैं। लड़कियों का स्वास्थ्य खराब होता है। वे अशिक्षित रह जाती हैं या बहुत कम शिक्षा ले पाती हैं। सशक्त होने के अभाव में वे घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। यह सब देखते हुए केंद्र सरकार, राज्य सरकार और न्यायालय ने अनेक प्रयास किए हैं।
इन समस्याओं से निपटने के लगातार प्रयास किये जा रहे हैं।
कुल मिलाकर यह कहा सकता है कि लड़कियों को सशक्त, शिक्षित और आत्म-निर्भर बनाकर बाल-विवाह को बंद किया जा सकता है।
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में प्रकाशित बिओर्न लॉम्बोर्ग और मनोरमा बक्शी के लेख पर आधारित
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Today's Daily Audio Topic- "ब्रिटेन"
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Today's Life Management Audio Topic-"अवसर तलाशें"
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