Today's Life Management Audio Topic-"अकेलेपन की ताकत",भाग-2
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Today's Daily Audio Topic- "स्थानीय स्वशासन"
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25-04-2018 (Important News Clippings)
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Date:25-04-18
TOI Editorials
The Centre’s decision to withdraw the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) totally from Meghalaya as well as from eight out of 16 police stations in Arunachal Pradesh, with effect from March 31, is a shot in the arm for these regions. The Centre’s move was motivated by the fact that insurgency-related incidents in the north-east have come down by 85% from peak levels almost two decades ago. In fact, areas of Meghalaya and Arunachal Pradesh bordering Assam were declared disturbed in 1991 to avoid a spillover of insurgency by Assam-based outfits like the United Liberation Front of Asom (Ulfa). However, the security situation has changed significantly today with Ulfa – main pro-talks faction – and other big insurgent groups like the Naga NSCN (I-M) entering into ceasefire agreements and negotiations with government.
True, AFSPA continues to be in force in the whole of Assam and Nagaland, and all of Manipur except the Imphal municipal area. But the law – which gives special powers and immunity to the armed forces deployed in disturbed areas – is already loosely implemented in large parts of Assam. Neighbouring Tripura completely revoked it in 2015. All of this indicates a change in ground realities and exemplifies the need to expeditiously withdraw the heavy-handed security arrangements. The continued imposition of AFSPA would be onerous and hinder the normalisation of the north-east region.
Besides, the north-east states comprise a critical pillar of the government’s Act East policy. The policy aims to make these states serve as a bridge between the rest of India and southeast Asia, boosting two-way trade and other exchanges. That will be inhibited if AFSPA remains in place. If government wants investors to flock to the north-east, it must create the right atmosphere. The same goes for tourism – the north-east is blessed with abundant natural beauty, but tourists will flock to the region only if travel and movement are made easy.
With development and connectivity improving in the north-east, removal of AFSPA is certain to add to the momentum for change. Apart from unfortunate incidents like the Manorama Devi case in 2004, the imposition of AFSPA also created vested interests that benefited from the extraordinary security arrangements and special status. Perhaps a metric can be devised for levels of insurgency in various parts of the north-east, and AFSPA automatically revoked if it falls below a defined threshold value.
Date:25-04-18
ET Editorials
The government has done well to remove all of Meghalaya and parts of Arunachal Pradesh from the ambit of the Armed Forces (Special Powers) Act (AFSPA), which gives security forces immunity for their actions in areas declared as disturbed. That is progress, but the real challenge is to repeal the law altogether. Such a law has no place in a democracy and its scrapping has been recommended by various committees and commissions appointed by the government. Its core impunity has been frowned upon by the Supreme Court. The law results in the armed forces of the state carrying out atrocities against citizens and producing more alienation and inspiration for violence than is quelled by use of the law.
The army claims it cannot enforce law and order without impunity and politicians have plumped for the safety of giving in to the armed forces’ conditionality rather than risk an uprising that goes out of hand. Only strong political will can remove the law. After news broke of AFSPA being lifted in parts of the northeast, the demand has already been made for Kashmir. Even as political consensus on repeal of the law is coagulated, the government can exempt regions removed from the border, across which terrorists are infiltrated into India, from the ambit of the law. While the breakdown of trust between the government and the people is near-total, political engagement in good faith remains the best bet and lifting AFSPA would help matters.
The state police forces can and should stand at the ready to confront disrupters determined to not give political engagement a chance. Truth and reconciliation end civil strife; brute suppression does not. AFSPA corrodes the voluntary allegiance of free people, the only glue that can hold together a diverse nation like India.
Date:25-04-18
गुरजीत सिंह, (लेखक जर्मनी, इंडोनेशिया व इथियोपिया में भारत के राजदूत रहे हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया यूरोपीय दौरा कई मायनों में खास रहा। राष्ट्रमंडल सम्मेलन से इतर नॉर्डिक देशों के साथ संवाद और बर्लिन में उनका कुछ समय रुकना नई रणनीति का ही हिस्सा था। मोदी सरकार की विदेश नीति में मेलजोल को लेकर प्राथमिकताएं शुरुआत से ही तय थीं। एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शपथ ग्र्रहण समारोह में दक्षेस के सभी राष्ट्रप्रमुखों को बुलाया था। इसके बाद अमेरिका, चीन, रूस, जापान और जर्मनी के अलावा फ्रांस और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली व महत्वपूर्ण देशों को साधने की कवायद शुरू हुई। फिर इसका दायरा और बढ़ा और कई क्षेत्रीय संगठन साथ आए। इस कड़ी में 2015 में अफ्रीका सम्मेलन और इस साल आसियान का नाम लिया जा सकता है। नॉर्डिक पहल भी इस खांचे में पूरी तरह सटीक बैठती है। बहुपक्षीय मेलजोल अब लगातार तेजी पकड़ रहा है। कुछ दिन पूर्व अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा सम्मेलन और अब राष्ट्रमंडल बैठक में यह पूरी तरह झलकता है।
मोदी के यूरोप दौरे की शुरुआत स्वीडन के साथ हुई। स्वीडन ने भारत के साथ एक उभरती शक्ति के तौर पर मेलजोल बढ़ाने की बात कही जो आर्थिक मामलों पर ठोस और वास्तविक प्रगति दर्शाता है। तमाम देश भारतीय बाजार के आकार और उसके महत्व की अनदेखी नहीं कर सकते और स्वीडन दौरे से यह बात एक बार फिर साबित हुई। स्वीडन मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया का प्रबल समर्थक है। भारत में स्वीडन का निवेश लगातार बढ़ रहा है, किंतु व्यापार सीमित है। साथ ही वह भारतीय छात्रों को भी बड़ी तादाद में आकर्षित कर रहा है। स्वीडिश प्रधानमंत्री स्टीफन लॉफेन भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बहुत गर्मजोशी से पेश आए और उन्होंने भी अप्रत्याशित नॉर्डिक सम्मेलन की सह-मेजबानी में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। इसमें डेनमार्क के प्रधानमंत्री एलआर रासमुसीन, फिनलैंड के प्रीमियर जुहा सिपिला, आइसलैंड के प्रीमियर कार्टिन जैकोब्सदोतिर और नॉर्वे की प्रीमियर एर्ना सोल्बर्ग ने भी शिरकत की।
सम्मेलन का शीर्षक ही था ‘भारत-नॉर्डिक सम्मेलन : साझा मूल्य एवं परस्पर समृद्धि। यह भारत-आसियान सम्मेलन की ही तरह था, जिसके लिए वही प्रारूप अपनाया गया। हालांकि नॉर्डिक देशों के लिए यह बहुत अनोखा था, क्योंकि वे समूह के रूप में किसी देश के राष्ट्रप्रमुख की अगवानी नहीं करते। नॉर्डिक देशों ने भारत के साथ वैश्विक सुरक्षा, आर्थिक वृद्धि, नवाचार और जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों पर साथ मिलकर काम करने पर सहमति जताई। उन्होंने स्वीकार किया कि एक-दूसरे से जुड़ी हुई दुनिया में नवाचार और डिजिटल रूपांतरण ही वृद्धि को धार देता है और भारत एवं नॉर्डिक देशों के बीच बढ़ते मेलजोल के मूल में यह पहलू शामिल है। मुक्त व्यापार, पीपीपी मॉडल, सतत विकास और नवाचार जैसे मुद्दे इसमें प्रमुखता से छाए रहे। इससे दुनिया में भारत की बढ़ती ताकत का एहसास हुआ। यहां यूरोपीय संघ की छाया का भी असर देखने को नहीं मिला। पांच में से केवल दो नॉर्डिक देश ही यूरोपीय संघ के सदस्य हैं। तीन नाटो सदस्य हैं। इसीलिए व्यापार एवं भूमंडलीकरण में रिश्तों को परवान चढ़ाने पर सहमति बनी, जो यूरोपीय संघ के मंच पर दशकों से अटकी हुई है। उनमें से तमाम ईएफटीए का हिस्सा हैं, जिनके साथ बातचीत का सही दिशा में बढ़ना एक सकारात्मक संकेत है। भारत की बढ़ती रक्षा जरूरतों को पूरा करने के अवसरों की भी अनदेखी नहीं हुई और अगर यह पहल सिरे चढ़ती है तो मेक इन इंडिया को बहुत प्रोत्साहन मिलेगा। खासतौर से स्वीडन ग्रिपेन लड़ाकू विमान में भारत को सहयोग देने के लिए बहुत उत्सुक है।
लंदन प्रधानमंत्री मोदी के दौरे का दूसरा पड़ाव रहा, जहां उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे के साथ द्विपक्षीय वार्ता के साथ-साथ राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भी भाग लिया। हालियादौर में ब्रिटेन के साथ भारत के रिश्ते उस गति से परवान नहीं चढ़े हैं, जैसी गर्मजोशी फ्रांस और जर्मनी के साथ बढ़ी है। लेकिन ब्रेक्जिट के बाद बने हालात में ब्रिटेन ने भारत को प्राथमिक सूची में रखा हुआ है। यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के बाद भारत के हाथ बेहतर दांव लग सकता है, लेकिन फिर भी आवाजाही और वीजा के मसले अब ब्रिटेन के स्तर पर ही तय होंगे। अब यह ब्रिटेन पर निर्भर करता है कि भारत का भरोसा जीतने के लिए वह इन मुद्दों पर कितनी तत्परता से कदम उठाकर ब्रेक्जिट के बाद अपनी संभावनाएं तलाशता है। भारत की मांग है कि पर्यटकों और छात्रों को आसानी से ब्रिटिश वीजा मिले। वहीं यूरोपीय संघ के तमाम देशों की तरह ब्रिटेन को भी लगता है कि तकनीशियनों के लिए स्पेशल विंडो खोलकर इस मसले को सुलझाया जा सकता है। भगोड़ों और अवैध प्रवासियों से जुड़ा सियासी मसला भारत के लिए कड़वाहट का सबब बन गया है। यह बात फ्रांस या जर्मनी के साथ रिश्तों के आड़े नहीं आती। सामरिक अर्थों में ब्रिटेन एक अहम साझेदार है जो कई मामलों में भारत जैसी सोच ही रखता है व वैश्विक स्तर पर भारत की व्यापक भूमिका का भी पक्षधर है।
लंदन दौरे का दूसरा भाग राष्ट्रमंडल सम्मेलन में बहुपक्षीय सहयोग में नूतन प्रयोग से जुड़ा था। अपनी भूमिका की समझ को लेकर राष्ट्रमंडल की सोच में आया बदलाव इसका खास पहलू रहा। इसके लिए ब्रिटेन के साथ ही कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों के व्यावहारिक आकलन का भी शुक्रगुजार होना पड़ेगा, जो अन्य सदस्य देशों के साथ मेलजोल में अक्सर मानवीय व नैतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। साथ ही एक ताकत के रूप में भारत को मान्यता मिलना भी सम्मेलन की एक थाती रही। अफ्रीका, कैरेबियाई और दक्षिण प्रशांत के तमाम राष्ट्रमंडल देशों ने भारत के साथ सहयोग की जो पींगें बढ़ाईं, उन्हें अब बेहतर रूप से मान्यता मिली है। ऑस्ट्रेलिया भी भारत के साथ कई मोर्चों पर सक्रिय है। यानी राष्ट्रमंडल समूह भारत को बेहतर नजरिये से देखता है और जहां ब्रिटिश शक्ति का पराभव हो रहा है, वहीं भारत के उदय को देखते हुए इसकी सक्रिय भागीदारी राष्ट्रमंडल को और ताकत देगी। यह राष्ट्रमंडल को फ्रैंकोफिन मॉडल के बजाय लूजोफोन मॉडल की ओर अग्र्रसर करेगा, जहां पुर्तगाल की भूमिका सिकुड़ रही है तो ब्राजील का दबदबा बढ़ रहा है। मोदी के दौरे का अंतिम पड़ाव बर्लिन रहा। एक साल से भी कम समय में यह प्रधानमंत्री मोदी और जर्मन चांसलर मर्केल की तीसरी बैठक थी। यहां भूमंडलीकरण की रफ्तार तेज करने के उपायों के साथ ही अक्षय ऊर्जा और कौशल विकास में दोनों देशों के प्रगाढ़ सहयोग को बढ़ाने पर सार्थक चर्चा हुई। भारत की विकास गाथा में और अधिक जर्मन निवेश की जरूरत पर भी बात हुई।
यूरोपीय दौरे का लेखाजोखा यही रहा कि इसमें भारतीय कूटनीति की नई शैली के दर्शन हुए, जो कहीं अधिक व्यावहारिक है। भारत ने दर्शाया कि वह अपनी सहयोगी भूमिका निभाने और मुक्त व्यापार, जलवायु परिवर्तन और नवाचार जैसे वैश्विक लक्ष्यों में अपने योगदान से नहीं हिचकेगा।
Date:25-04-18
संपादकीय
नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने सही कहा है कि देश के उत्तर और पूर्व के राज्य उसे पिछड़ा बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में खान अब्दुल गफ्फार खान स्मृति व्याख्यान में उन्होंने स्पष्ट तौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान का उल्लेख करते हुए कहा कि इन राज्यों के कारण मानव विकास सूचकांक में भारत दुनिया के 188 देशों में 133 वें पायदान पर है। विडंबना देखिए कि आजादी की लड़ाई में सर्वाधिक योगदान देने वाले और आजादी के बाद देश की राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले ये राज्य विकास के मोर्चे पर पिछड़े ही रह गए।
आज भी देश के सबसे पिछड़े जिलों में कई जिले इन्हीं राज्यों से हैं। आबादी के लिहाज से सबसे बड़े और देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश का श्रावस्ती जनपद अपने पिछड़ेपन और गोंडा जिले अपनी गंदगी के कारण देश में शीर्ष पर है। श्रावस्ती वह जनपद है, जिसका नगर बौद्धकाल में इतना समृद्ध था कि वहां हर वस्तु मिलती थी और उसके सेठ अनाथ पिंडक ने स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर बुद्ध के लिए गंधकुटीर की जमीन खरीदी थी।
दरअसल बीमारू राज्य कहे जाने वाले ये प्रदेश दक्षिणी और पश्चिमी प्रदेशों के मुकाबले इसलिए पिछड़े हुए हैं, क्योंकि यहां राजनीतिक आंदोलन तो हुए लेकिन सामाजिक सुधार के आंदोलन कम से कम हुए। ध्यान देने की बात है कि 1991 में शुरू हुए उदारीकरण के दौर में उत्तर भारत के राज्य मंडल और मंदिर के आंदोलनों में उलझे रहे तो दक्षिणी और पश्चिमी राज्य भूमंडलीकरण का लाभ लेते रहे। उत्तर भारत में दिल्ली और एनसीआर के अलावा पंजाब और हरियाणा को जरूर भूमंडलीकरण का लाभ मिला लेकिन बिहार, राजस्थान अपने सामंती ढांचे से जूझता रहा तो उत्तर प्रदेश भगवान राम के मंदिर आंदोलन में उलझा रहा। पूरे देश की राजनीति तय करने के जोश में इन राज्यों ने अपने विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया। यह एक तरह की बादशाहत की बीमारी है।
इन राज्यों को विकास की जब तक सुध आई तब तक दक्षिण के राज्य काफी आगे निकल गए। इसके विपरीत दक्षिण के राज्यों के नेताओं का सरोकार राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय रहा है। आज सवाल यह है कि विकास का यह असंतुलन कैसे दूर होगा। नीति आयोग के सीईओ की तरफ से उधर ध्यान दिलाया जाना तो उचित है लेकिन राजनेताओं का ध्यान बदले बिना उसका समाधान नहीं होगा।
Date:24-04-18
जयंतीलाल भंडारी
एक ओर जब अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर तथा ब्रिटेन सहित दुनिया के कुछ विकसित देश भारतीय आईटी प्रफेशनल्स के कदमों को रोकना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर देश और दुनिया में आईटी क्षेत्र में भारत की संभावनाओं का नया परिदृश्य दिखाई दे रहा है। हाल में प्रकाशित भारत की चमकीली आईटी संभावनाएं प्रस्तुत कर रहीं कुछ नई नियंतण्र रिपोटरे में सबसे महत्वपूर्ण र्वल्ड बैंक द्वारा जारी की गई रिपोर्ट है। इसके अनुसार, जिस तरह अमेरिका के शहर सैनजस सिलिकॉन वैली ने पूरी दुनिया में सबसे बड़े आईटी हब के रूप में पहचान बनाई है, उसी तरह अब भारत पांच साल में दुनिया की नई सिलिकॉन वैली के रूप में पहचान बनाने की संभावनाएं रखता है। यह भी कहा गया है कि इसके लिए भारत इनोवेशन के अनुकूल माहौल को विस्तार देने की पूरी संभावनाएं रखता है। एक अन्य नियंतण्र संगठन की नई अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि बेंगलुरू 2020 तक सिलिकॉन वैली को पछाड़ कर दुनिया का सबसे बड़ा आईटी क्लस्टर होगा। यह भी महत्वपूर्ण है कि जापान के उद्योग और व्यापार को बढ़ावा देने वाली सरकारी एजेंसी जापान विदेश व्यापार संगठन (जेईटीआरओ) ने अपनी रिपोर्ट 2018 में कहा है कि जापान की नई औद्योगिक और कारोबारी आवश्यकताओं के मद्देनजर जापान ने आगामी दो वर्षो में भारत से दो लाख आईटी पेशेवरों की पूर्ति हेतु कार्ययोजना बनाई है। ऐसे में निश्चित रूप से भारत पूरी दुनिया में आईटी की एक नई शक्ति के रूप में परचम फहराते हुए आगे बढ़ते हुए दिखाई दे सकेगा।
नियंतण्र स्तर पर आईटी सेक्टर में भारत की धाक बरकरार है। वैसे तो एशिया-प्रशांत क्षेत्र में कई और देश आईटी हब के रूप में उभर कर सामने आए हैं, लेकिन इनमें से कोई भी इस सेक्टर में भारत के वर्चस्व को चुनौती नहीं दे पा रहा है। जानी-मानी रिसर्च फर्म गार्टनर ने कहा है कि जैसे-जैसे दुनिया में नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिग (केपीओ) उद्योग की मांग तेजी से बढ़ रही है, वैसे-वैसे इस उद्योग में भारत के कारोबार की संभावनाएं बढ़ रही हैं। देश और दुनिया के आईटी विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में आउटसोर्सिग पर खतरे नहीं हैं। दुनिया का कोई भी देशअपने उद्योग और व्यवसाय को किफायती रूप से चलाने के लिए भारत की आउटसोर्सिग इंडस्ट्री को नजरअंदाज नहीं कर सकता। बेशक, दुनिया में भारत को आउटसोर्सिग के लिए सबसे सस्ता, सुरक्षित और गुणवत्ता वाला देश माना जा रहा है। आउटसोर्सिग के क्षेत्र में भारत की प्रगति के पीछे एक कारण यह भी है कि यहां संचार का मजबूत ढांचा कायम हो चुका है। दूरसंचार उद्योग के निजीकरण से नई कंपनियों के अस्तित्व में आने से दूरसंचार की दरों में भारी गिरावट आई है।
उच्च कोटि की त्वरित सेवा, आईटी एक्सपर्ट और अंगेजी में पारंगत युवाओं की बड़ी संख्या ऐसे कारण हैं, जिनकी बदौलत भारत पूरे विश्व में आउटसोर्सिग के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है। कल तक जो भारत प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) से चिंतित रहता था, आज आईटी के क्षेत्र में प्रतिभा वापसी लाभ (ब्रेन गेन) से विकास की नई डगर पर तेजी से आगे बढ़ने की संभावनाएं दिखा रहा है। लेकिन इन सब भारतीय आईटी विशेषज्ञताओं के साथ भारत में नई सिलिकॉन वैली को आकार देने और भारतीय आईटी प्रफेशनल्स की नई नियंतण्र उपयोगिता बनाने के लिए हमें कई बातों पर ध्यान देना होगा। भारतीय आईटी कंपनियों द्वारा तकनीक में बदलाव और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रॉबोटिक्स और क्लाउड प्लेटफॉर्म जैसी तकनीकों को तेजी से अपनाया जाना जरूरी होगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि ऐसी सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन बढ़ाई जाएं जो बिना किसी अड़चन के चलें और इन्हें स्मार्टफोन जैसी डिवाइसों पर भी इस्तेमाल किया जा सके।
चूंकि सॉफ्टवेयर उद्योग में हमारी अगुवाई की मुख्य वजह हमारी सेवाओं और प्रोग्राम्स का सस्ता होना है, अतएव इस स्थिति को बरकरार रखने के लिए हमें तकनीकी दक्ष लोगों की उपलब्धता बनाए रखनी होगी। भारतीय कंपनियों को आगे बढ़कर अपनी क्षमता निर्माण को मजबूत करना होगा। एक ऐसे क्षेत्र में जहां पुरानी आईटी तकनीक बहुत जल्दी बाजार से बाहर हो जाती हैं, वहां नई तकनीकों के साथ तालमेल बिठाना बेहद जरूरी है। ऐसे में आईटी कंपनियों द्वारा कर्मचारियों को डिजिटल तकनीक और डिजाइन थिंकिंग जैसे नये तकनीकी प्रशिक्षण पर जोर दिया जाना चाहिए ताकि आईटी का कारोबारी माहौल बना रह सके और आईटी उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। आईटी कंपनी से जुड़ने वाले हर युवा को केवल प्रोग्रामिंग के लिए ही नहीं वरन मार्केटिंग तथा फाइनेंस के लिए भी कुछ कोर्स सीखने की ओर आगे बढ़ना होगा। भारतीय आईटी कंपनियों को कोडिंग और मेंटेनेंस से आगे बढ़कर समन्वित विशेषज्ञ सेवाओं की पेशकश भी करनी होगी।
यह जरूरी होगा कि सरकार द्वारा आईटी क्षेत्र में कौशल प्रशिक्षण को दी जा रही प्राथमिकता के नतीजे धरातल पर दिखाई दें। इस परिप्रेक्ष्य में पिछले दिनों इलेक्ट्रॉनिक एवं सूचना प्रौद्यगिकी मंत्रालय ने तकनीकी क्षेत्र की कंपनियों के संगठन नैस्काम के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, वर्चुअल रियल्टी, रोबोटिक प्रोसेस ऑटमेशन, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, बिग डाटा एनालिसिस, 3डी ¨पट्रिंग, क्लाउड कंप्यूटिंग, सोशल मीडिया-मोबाइल जैसे आठ नये तकनीकी क्षेत्रों में 55 नई भूमिकाओं में 90 लाख युवाओं को अगले तीन साल में प्रशिक्षित करने का जो अनुबंध किया है, उसे कारगर तरीके से कार्यान्वित करना होगा। जरूरी होगा कि नैस्कॉम द्वारा कौशल प्रशिक्षण के लिए विश्व के सबसे बेहतर कुशली प्रशिक्षकों और विषय-वस्तु मुहैया कराने वाली व नियंतण्र स्तर की विभिन्न संस्थाओं से सहयोग लिया जाए। देश में आईटी क्षेत्र के विकास से संबंधित इन बातों पर ध्यान दिया गया व आईटी क्षेत्र में इनोवेशन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई तो आशा कर सकते हैं कि विश्व बैंक और अन्य एजेंसियों की रिपोटरे में भारत में नई सिलिकॉन वैली बनने की जो संभावनाएं प्रस्तुत की गई हैं, वे चमकीली संभावनाएं आईटी हब बेंगलुरू में मूर्तरूप लेंगी। साथ ही, भारत दुनिया में आईटी की एक नई शक्ति के रूप में परचम फहराते हुए आगे बढ़ता हुआ दिखाई देगा।
Date:24-04-18
संपादकीय
यह तो होना ही था। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस के महाभियोग प्रस्ताव की यात्रा ज्यादा लंबी नहीं होगी, यह तो शुरू से ही माना जा रहा था। देखने वाली बात यही थी कि किस स्तर पर इसका खेल खत्म होगा? अगर उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू इसे खारिज न भी करते, तब भी इसके बहुत आगे जाने की उम्मीद न थी। उसके बाद यह हो सकता था कि तीन जजों की इस पर निर्णय के लिए बनाई गई समिति में यह गिर जाता। मान लीजिए, यह वहां से भी आगे बढ़ जाता, तो सदन में मतदान के समय इसका गिरना तय ही था। कई विपक्षी दल इसके समर्थन में नहीं थे। खुद कांग्रेस के कई नेताओं की भी इसे लेकर असहमतियां थीं। राज्यसभा में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता मनमोहन सिंह ने ही इस प्रस्ताव पर दस्तखत नहीं किए थे।
यही हाल कांग्रेस के बडे़ नेता पी चिदंबरम का भी था। और तो और, सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की विरोधी लॉबी माने जाने वाले जजों ने भले ही उनके खिलाफ मोर्चा लिया हो, लेकिन वे भी महाभियोग चलाए जाने के पक्ष में कतई नहीं हैं। और शायद कांग्रेस को भी महाभियोग प्रस्ताव के बहुत आगे जाने का भरोसा नहीं था, इसीलिए उसने मीडिया के आगे प्रस्ताव का ब्योरा रख दिया था। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और संसदीय राजनीति का जितना अनुभव उसके पास है, किसी और के पास नहीं है। उसे अच्छी तरह पता होगा कि इस तरह के प्रस्ताव का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जाता। संभव है कि उसकी दिलचस्पी महाभियोग चलाने से ज्यादा दीपक मिश्रा से जुडे़ मुद्दों पर देश का ध्यान खींचने में हो। उप-राष्ट्रपति ने महाभियोग प्रस्ताव को खारिज करने के विस्तृत कारण गिनाए हैं, जो यही कहते हैं कि आरोपों में कोई दम नहीं है। कांग्रेस अब उनके फैसले को अदालत में चुनौती देगी। अदालत की जो लड़ाई वह राजनीतिक स्तर पर लड़ना चाहती थी, उसे अब अदालत में जाकर लड़ना होगा।
यह कोई नहीं मानेगा कि कांग्रेस का असल निशाना न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ही हैं। उनके हटने से न तो कांग्रेस को कुछ मिलने वाला था और न ही उसका कोई भला होने वाला था। प्रधान न्यायाधीश के बहाने वह प्रधानमंत्री पर निशाना साधना चाहती थी, यह शुरू से ही काफी स्पष्ट था। मान लीजिए, कांग्रेस इसमें सफल हो भी जाती, तो इसका राजनीतिक नफा-नुकसान कितनी दूर तक जा पाता, इसका ठीक-ठीक आकलन संभव नहीं है। पर यह तय है कि महाभियोग राजनीति, न्यायपालिका और लोकतंत्र किसी के लिए भी अच्छा नहीं होता।
हमारी सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं अपनी साख खोती जा रही हैं। महाभियोग इस प्रक्रिया को तेज ही कर सकता था। इस प्रक्रिया को रोकना है, तो सभी को अपने गिरेबान में झांकना होगा। राजनीतिक दलों से भले ही बहुत उम्मीद न हो, लेकिन प्रधान न्यायाधीश को यह जरूर सोचना चाहिए कि उनके सहयोगी उनसे नाराज क्यों हैं? और देश के सर्वोच्च न्यायालय में वह सब क्यों हो रहा है, जिसके चलते न्यायपालिका को राजनीति में खींचने के अवसर बन रहे हैं? उप-राष्ट्रपति ने अच्छा किया कि प्रस्ताव खारिज करने के पूरे कारण विस्तार से बताए। कारण जितने भी तार्किक हों, ये सवाल तो उठने ही लगे हैं कि प्रस्ताव को खारिज की ऐसी भी क्या जल्दी थी? यह बात अलग है कि उन्होंने महाभियोग प्रस्ताव को वहां पहुंचा दिया, जहां अंतत: उसे पहुंचना ही था।
Date:24-04-18
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी
पिछले कुछ दिनों से भारतीय मर्दों या लड़कों के वहशीपन के किस्से मीडिया में छाए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि ये पुरुष अचानक जानवर बन गए हैं। दुधमुंही बच्चियां, छोटी-बड़ी लड़कियां और यहां तक कि बूढ़ी औरतें भी पूरी तरह से भारतीय समाज में कभी सुरक्षित नहीं रही हैं। भारतीय संस्कृति की महानता के कुछ पैरोकारों के इन दावे पर कि इसके लिए तेजी से बढ़ती पाश्चात्य मूल्यों की नकल की प्रवृत्ति, फिल्में या महिलाओं के परिधान यौनिक उच्छृंखलता के जिम्मेदार हैं, सिर्फ हंसा जा सकता है। इस पर कोई गंभीर विमर्श नहीं हो सकता, क्योंकि भारतीय परिवारों, गांवों और कस्बों में जहां इन सब चीजों का दखल कम था, वहां भी महिलाएं बलात्कार से सुरक्षित थीं या हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। कई समाजशास्त्रीय अध्ययनों से स्पष्ट है कि बच्चियां सर्वाधिक असुरक्षित अपने परिवार में या अपने परिचित माहौल में हैं। बलात यौन संबंधों की खबरें पीछे कुछ वर्षों से अधिक सिर्फ इसलिए आ रही हैं, क्योंकि अब मां-बाप, समाज या खुद पीड़िता किसी दुर्घटना को छिपाने की जगह उन्हें खुलकर बताने में गुरेज नहीं करती। पश्चिम में ‘मी-टू’ आंदोलन दृष्टिकोण में आ रहे इसी परिवर्तन का एक उदाहरण है। पाकिस्तान में, जो हमसे भी रूढ़ समाज है, हाल में एक फिल्मी सेलिब्रिटी के खिलाफ कई सहकर्मी महिलाओं द्वारा लगाया गया इसी तरह का आरोप उस समाज में भी परिवर्तन की बयार का ही नमूना है। इससे मिलता-जुलता एक आंदोलन भारतीय सोशल मीडिया में भी चल रहा है, जिसमें महिलाएं अधिकार के साथ घोषित कर रही हैं कि बलात्कार पीड़िता अपना मुंह क्यों ढके, मुंह तो शर्म से अपराधी को ढकना चाहिए। भारत में विचलित कर देने वाली खबरों का जो विस्फोट हुआ है, उसे भी इसी सामाजिक साहस का उदाहरण माना जा सकता है।
डर यह है कि कहीं मीडिया के ऐसे तमाम शोर-शराबे सिर्फ वक्ती उबाल बनकर न रह जाएं। यह आशंका कुछ हद तक सरकार की फौरी प्रतिक्रिया से सही भी साबित हो रही है। सरकार ने आनन-फानन मेंअध्यादेश के जरिए 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वालों को फांसी पर लटकाने का प्रावधान लाने का फैसला कर लिया है। तुरत-फुरत के चक्कर में हम यह भूल गए हैं कि अमेरिका, चीन और इस्लामी मुल्कों को छोड़कर ज्यादातर सभ्य समाजों में मृत्युदंड समाप्त किया जा चुका है या क्रमश: किया जा रहा है। भारत धीरे-धीरे इसे खत्म करने के स्थान पर इसके अंतर्गत आने वाले अपराधों की संख्या बढ़ा रहा है, वह भी तब जब हम सबको मालूम है कि हमारी जेलों में बहुत सारे मृत्युदंड प्राप्त कैदी काल कोठरियों में सड़ रहे हैं। दो-चार साल में राजनीतिक कारणों से उनमें से किसी एक को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। अपराध शास्त्र का एक पुराना सिद्धांत है कि दंड की गंभीरता नहीं, बल्कि उसकी सुनिश्चितता से अपराध रुकते हैं। यदि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि बलात्कारी को एक निश्चित अवधि के दंड की सजा अवश्य मिलेगी, तब भी बहुत बड़ा परिवर्तन आ सकता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, बलात्कार के मामलों में दंड पाने वालों की संख्या एक चौथाई से भी कम है। कुछ मानवाधिकार संगठनों ने अभी से आशंका जाहिर करनी शुरू कर दी है कि फांसी का दंड निर्धारित होने के बाद लिखे जाने वाले मुकदमों की संख्या के साथ दंडित अभियुक्तों की संख्या में भी गिरावट आएगी।
पिछले दिनों दिल्ली महिला आयोग की एक्टिविस्ट अध्यक्ष स्वाति मालीवाल भी मृत्युदंड के पक्ष में अनशन पर बैठ गईं। सिर्फ उन्हें दोष देना व्यर्थ है, क्योंकि निर्भया कांड के बाद बहुत से मानवाधिकार कार्यकर्ता भी मृत्युदंड के पक्ष में खड़े हो गए थे। यह वही स्थिति है, जिसमें अंध देशभक्ति के ज्वार में बहने वाले आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने की मांग करते हैं। निश्चित रूप यह किसी परिपक्व लोकतांत्रिक समाज की चेतना का लक्षण नहीं। हमें कानूनों और अदालती प्रक्रिया में ऐसे बदलाव पर क्यों नहीं सोचना चाहिए, जो अपराधी को निश्चित दंड दिलाने में समर्थ हों?
इस पूरी बहस में एक और मुद्दा छूटा जा रहा है। यह मुद्दा है भारतीय पुलिस के चरित्र और संगठन में बुनियादी परिवर्तन करने का। उन्नाव और कठुआ, दोनों ही मामलों में पुलिस पेशेवर संगठन की तरह व्यवहार न करके अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने में लगी थी। बलात्कार का आरोपी उन्नाव का विधायक सत्ताधारी पार्टी से संबंधित है। राजधानी से थाने तक जातिगत समीकरण उसके पक्ष में थे, इसलिए यह बड़ा स्वाभाविक था कि पीड़िता साल भर तक बडे़-छोटे दरबारों के चक्कर लगाती रही और उसका मुकदमा तब दर्ज हुआ, जब उसके पिता की विधायक समर्थकों ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। फिर मीडिया में मामला इतना उछल गया कि उसे दबाया नहीं जा सकता था। कठुआ में भी लगभग यही हुआ। सत्ता गठबंधन में शामिल दो दल, सांप्रदायिक कारणों से अलग-अलग पीड़िता और दोषियों के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। मतभेद का सीधा असर कठुआ पुलिस पर दिखाई दे रहा था। पुलिस ने जो चार्जशीट दाखिल की है, उसका फैसला तो अदालत करेगी, पर जिस तरह से विवेचकों को मुख्यमंत्री द्वारा बार-बार बदला गया, उससे मन में संदेह होना लाजिमी है। उन्नाव में आरोपियों द्वारा प्रयास किया गया कि मामला सीबीआई के पास न जाने पाए, जबकि कठुआ में आरोपी मांग कर रहे हैं कि विवेचना सीबीआई को सौंप दी जाए।
यह समय है कि जब वक्ती उबाल के ठंडे पड़ जाने के बाद पुलिस सुधारों पर गंभीरता से विमर्श किया जाए। पुलिस को ज्यादा पेशेवर, विवेचना में दक्ष, बेहतर उपकरणों से सुसज्जित और प्रशिक्षित करके हम कठुआ या उन्नाव की पुनरावृत्ति रोक सकते हैं। बावजूद इसके कि पुलिस और कानून-व्यवस्था राज्यों का विषय है, इसमें कोई हर्ज नहीं है कि उन पर राजनीतिक आकाओं के नियंत्रण में कुछ कमी की जाए। तमाम पुलिस आयोगों की धूल खा रही फाइलों में यही सब अनुशंसाएं तो हैं, जिन्हें लागू करना अब बेहद जरूरी हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने कई निर्णयों में इन्हीं सब पर बल दिया है। दुराचार पर चल रही राष्ट्रीय बहसों के दौरान इस गंभीर मुद्दे की लगभग उपेक्षा हो रही है। आम चुनाव में अब सिर्फ एक वर्ष रह गया है और यदि जनमत तैयार करने वाली कोई सार्थक बहस चल सके, तो संभव है कि हमारे राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्रों में पुलिस सुधारों को भी उनकी वाजिब जगह दे दें।
Date:24-04-18
Jay Mazoomdaar
As India gives shape to its new forest policy, the votaries of forest conservation and tribal rights have come out strongly against commercial extraction of forests that undermines both local communities and ecology. It is a timely show of strength since the draft policy seeks to measure the productivity of our forests by the quantity of timber harvested instead of the quality of biodiversity and eco-system services they host and provide. Historically, though, the two groups continually undercut each other even as India’s appetite for growth devoured both forests and tribal land. Beneath the current truce, simmers the banal debate of rights versus conservation, fueled most recently by the historic march of the farmer and the forest-dweller from Nashik to Mumbai. Before the two resume sparring, examine this incongruity. Why did forest-dwellers join a farmers’ rally? Are farming solutions to be found inside forests? Isn’t a forest-dwelling farmer a contradiction in terms?
Forests promise fertility, nourish top soil and ensure ample water. But no farmer ever farmed inside a forest. Because wild animals in good numbers make farming impossible. Because it is no longer a forest when the wilderness have made way for ploughing and sowing. The Forest Rights Act (FRA) 2006 — legislated to remedy the “historical injustice” done to forest people with no ownership of land or traditional resources — empowers the tribal and other traditional forest-dwellers. While the individual land right under the Act is limited to 4 hectares of self-cultivated land, community rights may extend to entire forests.
Right to own self-cultivated land does not necessarily amount to deforestation. Not all forest land holds forests and many such plots have long become farmlands. And the “forest-dwellers” demanding ownership of those plots are for all practical purposes ‘farmers’. There is no point denying either on government records. But where the forestland does hold forests, felling is required if a forest-dweller decides to plough against all odds, if only to assert her occupation under the FRA. The yield may help subsistence. But it won’t be farming in the vocational or the commercial sense. Unless an entire community collectively converts vast tracts of forests into farmland.
And therein lie two ironies. The switch to agriculture marked the beginning of the end of natural sustainability on earth. It also put us on the path to surplus, capital and inequality — the pet peeves of the Left. Yet the predominantly Left-led movement justifies the demand for forest land citing the farming needs of traditional forest-dwellers who, at least in theory, are hunter-gatherers. On the other hand, most conservationists view forest-dwellers as encroachers and are suspicious of every claim over forest land. Never mind that having exploited their share of forests and prospered, the non-forest-dweller has no moral right whatsoever to object even if every forest plot sanctioned under the FRA is chopped clean or sold off.This presents a complex scenario: Ploughing inside forests is not a farming solution. But that is no reason to deny the forest-dweller her rights over forest land, or go back to the sham of a joint forest management regime dominated by the forest department.
More than a decade after the FRA was legislated, the process of settlement of rights is still incomplete. Conservationists view this as a conspiracy to keep open the window to regularise the ongoing appropriation of forestland. Doubtless, our forests are coveted. Land is a finite resource and an overcrowded India has already exhausted most of what is not under forest cover. For every encroachment, however, the rights activist can cite an instance of willful denial of rights. Indeed, the delay in completing the settlement process is as much due to too many false claims as it is to concerted efforts by the forest and revenue administrations against encumbering forest land earmarked for development projects or simply giving up their fiefdom.
Any which way, forest-dwellers are the victims, even when they become pawns of the rich and the powerful. It is the state’s job to curb misuse of the FRA. As the principle of justice goes, its failure to screen the undeserving cannot cost a genuine forest-dweller her rights. On their part, the rights activists should realise that forest-dwellers’ community rights over common resources or cultural sites extending to larger or entire forest tracts is a much stronger, non-negotiable instrument of empowerment than individual rights over a plot of forest land which can be compensated and substituted if the state proposes rehabilitation in some perceived national interest. As the Niyamgiri resistance against Vedanta showed in Odisha, community rights over an entire forest is virtually unassailable. Even if the state can afford to pay off for, say, an entire hill range, it cannot offer substitutes for culturally important sites and shift a population elsewhere. Yet, the focus tends to be on individual rights for farming.
Just as loan waiver alone cannot alleviate the farmer’s plight, distributing plots of forest land to traditional dwellers, irrespective of how they utilise it, will not secure them. Systemic reforms take time. Since many farmers may not survive the wait, a loan waiver is perhaps justifiable as an SOS. If anything, the forest-dweller’s lot is even worse than the farmer’s. But their SOS solution involves finite forestland. Should they need it again, the farmer may still be able to squeeze the exchequer for more subsidies. But nothing can replenish the forest disbursed under the FRA if the mandate to remedy the “historical injustice” is squandered. The conservationist and the rights activist may still get real and dispel their mutual mistrust for good. Forests are not for farming. But the future of conservation and grass roots empowerment may lie in community-managed forests.
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रोजगार की वास्तविक स्थिति
Date:26-04-18 To Download Click Here.
देश में बेरोजगारी की समस्या बहुत समय से चली आ रही है। वर्तमान सरकार ने अनेक क्षेत्रों में विकास कार्यों को बढ़ावा दिया है। इन विकास कार्यों ने रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि की है। अनेक सरकारी योजनाओं के माध्यम से अनेक बेरोजगार स्वउद्यमी बनने की क्षमता रखने लगे हैं। रोजगार के आंकड़ों के आधार पर नीति आयोग कार्यबल का डाटा, रोजगार के लिए उपलब्ध मौजूदा डाटा में दिखाई गई कमियों का आधिकारिकक अनुमान प्रस्तुत करता है। नीति आयोग के सितम्बर के त्रैमासिक रोजगार सर्वेक्षण में ही सही स्थिति का पता लग सकता है।
आज पूरे विश्व के रोजगार पैटर्न में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। लोग औपचारिक और दीर्घकालिक रोजगार अपनाने की जगह तरल और अल्पकालिक रोजगार लेने को तत्पर हैं। अब रोजगार के लिए विषय से संबंद्ध व्यापक ज्ञान, लगातार सीखने की इच्छा और कौशल विकास को अधिक महत्व दिया जा रहा है। भारत में भी इस प्रकार के रोजगार को महत्व दिया जा रहा है।
सरकार की मुदा्र योजना से लोगों को ऋण उपलब्ध करवाया गया है। इसमें महिला उद्यमी हैं। ऋण प्राप्त करने वालों में दर्जी, किराना, ब्यूटी पार्लर आदि उद्यमों के द्वारा अपने साथ-साथ और लोगों को भी रोजगार दिया गया है।
सरकार की विमुद्रीकरण और जीएसटी योजना के द्वारा अधिक से अधिक रोजगार को औपचारिक क्षेत्र में लाया जा सका है। डिजीटल भुगतान के बढ़ने के साथ ही कर्मचारी का वेतन बैंक में आने लगा है। उसे भविष्य निधि के अलावा अन्य लाभ भी मिलने लगे हैं। ई पी एफ ओ (एम्प्लॉईस प्रॉविडेंट फंड आर्गेनाइजेशन) की समीक्षा से पता चलता है कि प्रतिवर्ष 70 लाख रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए जा रहे हैं।
रोजगार के क्षेत्र की समीक्षा करने वाले अलग-अलग स्रोत बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार के अनेक अवसर बढ़ाए जा रहे हैं। नीति आयोग की त्रैमासिक रिपोर्ट में इसकी पुष्टि हो सकेगी।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में जयंत सिन्हा के लेख पर आधारित।
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Today's Life Management Audio Topic-"अकेलेपन की ताकत", भाग-3
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Today's Daily Audio Topic- "कार्यान्वयन"
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26-04-2018 (Important News Clippings)
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Date:26-04-18
कनिका दत्ता
दुनिया भर की कंपनियों में उनके कामकाज के विभिन्न पहलुओं की देखरेख और निगरानी आदि करने के लिए अंकेक्षक, स्टॉक एक्सचेंज, बोर्ड, नियामक, राजस्व और अन्य प्रवर्तन निकाय होते हैं। इनमें से किसी ने धोखाधड़ी रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया। सन 1990 के दशक के आखिर और 2000 के दशक के आरंभ के कुछ प्रमुख वैश्विक मामलों पर नजर डालें तो ऐसा ही लगता है। बैरिंग्स, एनरॉन-आर्थर एंडरसन, वल्र्ड कॉम, केमार्ट आदि कुछ ऐसे ही मामले हैं। बीते दो दशक के दौरान व्हिसल ब्लोअर के रूप में गड़बडिय़ां उजागर करने वाली एक नई कौम सामने आई है। क्या ये कारोबारी प्रशासन के ढांचे को बदल सकते हैं?
सजग कारोबारी घरानों के प्रशासनिक ढांचे में व्हिसल ब्लोअर की शक्ति को पहचाना जाने लगा है। अधिकांश बड़ी भारतीय आईटी फर्म और बैंकों ने कर्मचारियों के लिए आचार संहिता में व्हिसल ब्लोअर नीति शामिल कर ली है। इसमें दो राय नहीं है कि ऐसी व्यवस्था का उद्देश्य संस्थान को संभावित घोटालों से अवगत रखने का है। एक ओर कई ऐसे संस्थान हैं जो कारोबारी प्रदर्शन पर तयशुदा मानकों के अनुरूप दृष्टिï रखते हैं, वहीं व्हिसल ब्लोअर के बारे में कुछ तय ढंग से नहीं कहा जा सकता है। कोई भी कर्मचारी जिसने आचार संहिता पर हस्ताक्षर किए हों या फिर संगठन के बाहर का कोई व्यक्ति जो अंशधारक, आपूर्तिकर्ता या निवेशक आदि हो वह यह काम कर सकता है। इन दिनों आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ चंदा कोछड़ और उनके पति के कारोबारी सौदों के बीच हितों के टकराव को लेकर जो आरोप हैं उनके मूल में एक व्हिसल ब्लोअर है जिसने 2016 में इसका खुलासा किया था। व्हिसल ब्लोअर अरविंद गुप्ता कोई असंतुष्ट कर्मचारी नहीं हैं बल्कि वह वीडियोकॉन समूह के एक पुराने निवेशक हैं। उन्होंने कहा कि वह दीपक कोछड़ की कंपनियों और वीडियोकॉन के वेणुगोपाल धूत के बीच पुराने लेनदेन और हस्तांतरण को देखकर चकित रह गए थे। उन्होंने कोई खुफिया जानकारी नहीं जुटाई बल्कि उन दस्तावेजों का अध्ययन किया जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध थे लेकिन किसी ने जिन पर ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने यह जवाबदेही अपने ऊपर क्यों ली? यह स्पष्ट नहीं है लेकिन देश के निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक को लेकर उपजे इस विवाद ने इसके संचालन की उन कमियों को उजागर किया है जिन्हें उसे जल्दी से जल्दी दूर करना होगा।
अंदरूनी व्हिसल ब्लोअर द्वारा किए गए खुलासे केवल प्रतिष्ठा को ही नुकसान पहुंचाएं यह भी आवश्यक नहीं। दिनेश ठाकुर का मामला याद कीजिए। उन्होंने रैनबैक्सी के प्रवर्तकों द्वारा कंपनी को जापानी कंपनी दाइची सांक्यो को बेचे जाने के बाद यह खुलासा किया था कि कंपनी औषधि सुरक्षा परीक्षणों में गड़बड़ी करती रही है। यह उस वक्त किसी भी भारतीय दवा कंपनी का सबसे बड़ा सौदा था और इस खुलासे के बाद अमेरिकी संघीय औषधि प्रशासन न केवल नाराज हुआ बल्कि उसने रैनबैक्सी समेत तमाम भारतीय औषधि उद्योग की जांच कड़ी कर दी।
ठाकुर को इस सजगता का इनाम भी मिला। अमेरिका ने रैनबैक्सी पर 50 करोड़ डॉलर का जुर्माना लगाया और ठाकुर को 4.8 करोड़ डॉलर की राशि इनाम में दी। ध्यान देने वाली बात है कि भारतीय औषधि नियामक घरेलू बाजार में होने वाले छल कपट को लेकर उनके ऐसे ही खुलासों को लेकर नाखुश ही रहा। इस घोटाले से भारत की कारोबारी प्रतिष्ठा पर भी आंच आई। बाद में दाइची ने भी रैनबैक्सी को सन फार्मा को बेच दिया। व्हिसल ब्लोअर ने इन्फोसिस को जितना प्रभावित किया उतना शायद ही कोई अन्य भारतीय कंपनी इनसे प्रभावित हुई होगी। इन्फोसिस में 2003 से ही व्हिसल ब्लोअर पॉलिसी है। वर्ष 2013 में एक अमेरिकी कर्मचारी ने वीजा से जुड़ी धोखाधड़ी उजागर की थी। इसके बाद संघीय जांच आरंभ हुई और बाद में एक समझौता हुआ जिसमें व्हिसल ब्लोअर को पुरस्कृत किया गया। वर्ष 2016 के बाद से इन्फोसिस एक अन्य विवाद में उलझी हुई है जो कंपनी के तत्कालीन सीईओ विशाल सिक्का द्वारा एक इजरायली कंपनी के अधिग्रहण से जुड़ा था। इस मामले में एक गुमनाम शिकायत की गई और ऐसा लगता है कि मामले का व्हिसल ब्लोअर कोई आर्थिक लाभ नहीं चाहता। हाल ही में उसने इस सौदे की जांच शेयर बाजार नियामक से कराने की मांग की है।
ये तीन प्रमुख मामले हैं लेकिन इनसे कारोबारी प्रशासन के और जवाबदेह होने की भावना नहीं उत्पन्न होती। ध्यान रहे कि इन तीनों मामलों में ऐसी कंपनियां शमिल हैं जो वैश्विक निवेशकों और ग्राहकों वाली बड़ी कंपनियां हैं जिन्हें पेशेवर अंदाज में चलाया जाता है। परंतु भारतीय कारोबारी जगत काफी हद तक परिवार संचालित है। यह एक ऐसा ढांचा है जो कर्मचारियों को सच बोलने के लिए कतई प्रोत्साहित नहीं करता। टाटा समूह के मामले में हम ऐसा देख चुके हैं। भारत में जहां सरकारी कंपनियां तक सार्वजनिक जांच परख के लिए उपलब्ध नहीं हैं वहां निजी कारोबारी जगत स्वैच्छिक पारदर्शिता की अपेक्षा करना बेमानी होगा। देश के एकदम शुरुआती व्हिसल ब्लोअर में भारतीय स्टेट बैंक के एक मझोले दर्जे के कर्मचारी का नाम आता है जिसने 1990 के दशक में हर्षद मेहता की वित्तीय अनियमितताओं को उजागर किया था। आज उसे कोई याद नहीं करता। इंडियन ऑयल के षणमुगम मंजूनाथ जैसे कई व्हिसल ब्लोअर को तो अपनी जान देकर कीमत चुकानी पड़ी। संसद ने व्हिसल ब्लोअर संरक्षण अधिनियम पारित तो किया है लेकिन अभी उसे लागू होना है। इसे जिस तरह कमजोर किया गया उससे यही अंदाजा मिलता है कि सरकारी संस्थानों या परियोजनाओं की अनियमितता उजागर करने वालों को शायद ही कोई प्रोत्साहन मिले। अगर सरकारी व्हिसल ब्लोअर को नजीर मानें तो उन्हें अपनी जान के लिए डरना चाहिए।
Date:26-04-18
संपादकीय
चीन के वुहान शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच शिखर बैठक होने वाली है। गत वर्ष सिक्किम की सीमा के निकट डोकलाम में दोनों देशों की सेनाओं के बीच तनाव के बाद यह ऐसी पहली बैठक है। वुहान शिखर बैठक को दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के पुनस्र्थापन के अवसर के रूप में देखा जा रहा है। बीते वर्षों में हमारे आपसी रिश्ते तेजी से कमजोर हुए और डोकलाम इसका कटुतम चरण था। इस पुनस्र्थापन के पहले संकेत तब मिले थे जब गत वर्ष दिसंबर में देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने विशेष भारतीय प्रतिनिधि के रूप में चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यांग जिकेई से मुलाकात की। इसके बाद फरवरी में भारतीय विदेश सचिव विजय गोखले ने चीन की यात्रा की। कहा गया कि इस यात्रा को समय पूर्व आयोजित किया गया ताकि सरकारी अधिकारियों को यह चेतावनी दी जा सके कि वे दलाई लामा को भारत में शरण लेने की 60वीं वर्षगांठ के कार्यक्रमों से दूर रहें। तब से अब तक कई वरिष्ठï भारतीय मंत्री चीन की यात्रा पर जा चुके हैं।
आखिर रिश्तों की नए सिरे से स्थापना के पीछे क्या वजह है? क्या इसके पीछे कोई सामरिक नीति या विचार है? इसके पीछे दो वजह हो सकती हैं। पहली, भारत सरकार की यह इच्छा कि वह सीमा पर किसी तरह की दिक्कत में न पड़े या निकट आ रहे आम चुनाव को देखते हुए चीन के साथ किसी तरह का आमना-सामना नहीं हो। ऐसी घटनाएं अतीत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अतिशय राष्ट्रवाद की उद्वेलक बनाकर प्रस्तुत की जाती थीं। अब चुनावी साल में सरकार को ऐसी किसी घटना पर वह प्रतिक्रिया देनी पड़ सकती है जिसे अन्यथा समझदारी नहीं माना जाएगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो उसकी राष्ट्रवादी छवि को कुछ नुकसान पहुंच सकता है।
दूसरी प्रेरणा यह हो सकती है कि भारत ने चीन के समक्ष अपनी क्षमताओं का तार्किक आकलन किया हो। भारत की सैन्य शक्ति कमजोर है, वह जरूरी हथियार और प्लेटफॉर्म खरीदने या उनके उन्नयन में नाकाम रहा है और लंबे समय तक बिना किसी सुसंगत सैन्य नीति के उसका परिचालन हुआ। डोकलाम में उसे पहाड़ी इलाके का फायदा मिला। अन्य जगहों पर दोनों देशों की क्षमताओं का अंतर स्पष्टï नजर आएगा। भारत मालदीव की घटनाओं को अपने पक्ष में प्रभावित करने में नाकाम रहा। यह भी इसका एक उदाहरण है। इस बीच भारत को यह भी लगा है कि पाकिस्तान के राज्य समर्थित आतंकवाद को लेकर चीन का धैर्य अनंत काल तक अनुकूल नहीं बना रह सकता। ऐसा भी नहीं लगता कि भारत को नियंत्रित रखना या उसकी आकांक्षाओं को सीमित रखना चीन की रणनीति का मुख्य हिस्सा हो। एक बेल्ट, एक मार्ग पहल मोटे तौर पर आंतरिक आर्थिक और राजनीतिक वजहों से प्रेरित है। इस ढांचे के तहत दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती छाप भी शायद भारत की केंद्रीय चिंता न हो। इसलिए भारत ने कूटनयिक स्तर पर गुंजाइश छोड़ रखी है। ऐसे में कई लोग कह सकते हैं कि चीन के साथ मैत्री की नई शुरुआत भारत के हित में है।
इसके व्यापक और दीर्घकालिक प्रभाव क्या होंगे यह देखना होगा। दशकों तक पश्चिमी देश और भारत यह मानते रहे हैं कि मजबूत, समृद्घ और लोकतांत्रिक भारत चीन के साथ शक्ति संतुलन का माध्यम बनेगा। भारत ने इस धारणा का पूरा लाभ लेने की कोशिश की है। यह उसके लिए अन्य देशों से सहायता लेने का आधार बनता है वह भी बिना अपनी सामरिक स्वायत्तता के साथा समझौता किए। अब यह धारणा उस कदर तथ्यात्मक नहीं नजर आती। भारत के लिए इसके निहितार्थ स्पष्ट हैं।
Date:26-04-18
संपादकीय
देशभर से महिलाओं और बालिकाओं पर दुराचार संबंधी बढ़ती खबरों के बीच ऐसे ही मामले में आसाराम बापू को अदालत से उम्रकैद की सजा मिलने से कानून और न्याय व्यवस्था में भरोसा और मजबूत होगा। सराहना उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर की उस नाबालिग के परिवार की भी करनी होगी, जिसने सारी धमकियों के बीच अपनी लड़ाई जारी रखी। आसाराम उन बड़े बाबाओं में से है जो हाल के दिनों में कड़ी कानूनी व न्यायिक कार्रवाई के भागी बने हैं। इसके बावजूद ऐसा लगता नहीं कि देश में ऐसे बाबाओं के प्रति जनसाधारण का जुनून कुछ कम हुआ हो।
दरअसल, इसकी जड़ें कहीं ओर हैं। भारत के आर्थिक विकास की कितनी ही बात की जाए पर लगता नहीं कि यह अार्थिक तरक्की अामजन को सामाजिक न्याय व समानता देने में सफल रही है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि शासन के अधिकृत संस्थान अपनी जिम्मेदारियां निभाने में नाकाम रहे हैं। इसके कारण एक तरफ ऐसे बाबाओं को कानून से ऊपर अपनी सत्ता चलाने का मौका मिलता है तो दूसरी तरफ न्याय व राहत की तलाश में जनसाधारण इनकी ओर आकर्षित होते हैं। जितना देश समृद्ध होता जा रहा है। उसी अनुपात में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है, जिन्हें महसूस होता है कि वे पीछे छोड़ दिए हैं।
यहां कार्ल मार्क्स का यह कहना सही है कि धर्म आम लोगों के लिए अफीम अाज के समय में उसे अपनी सारी समस्याओं का समाधान इसी में नज़र आता है। सामाजिक विषमता के अलावा यह प्रवृत्ति शिक्षा की कमजोर गुणवत्ता की ओर भी इशारा करती है। वरना आमजन के साथ उच्चशिक्षित और समृद्ध तबका भी क्यों ऐसे बाबाओं के पीछे भागता। हमारी शिक्षा व्यवस्था समाज में अंधविश्वास व कुरीतियों के खिलाफ एक वैज्ञानिक सोच का वातावरण बनाने में नाकाम रही है, क्योंकि इसे अच्छा नागरिक बनाने की बजाय अच्छा करिअर बनाने की दिशा में मोड़ दिया गया है।
आप अगर गौर से देखेंगे तो ऐसे बाबाओं के पास आध्यात्मिक ज्ञान पाने के लिए जाने वाले बहुत ही कम होंगे, अधिसंख्य लोग आर्थिक व सेहत संबंधी समस्याओं और अंधविश्वास के कारण जाते हैं। जाहिर है इसका संबंध आर्थिक विषमता व स्वास्थ्य व शिक्षा की कमजोर व्यवस्था है। इन्हें मजबूत बनाकर ही हम ऐसी स्वस्थ व वैज्ञानिक सोच वाले समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहां ऐसे बाबाओं के लिए कोई स्थान नहीं होगा।
Date:25-04-18
पुष्पेश पंत
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा इस कारण बेहद महत्त्वपूर्ण समझी जा रही है कि इस समय भारत-चीन संबंधों में तनाव का दौर चल रहा है। पिछले कई महीनों से यह संभावना एक बार फिर प्रकट हो रही है कि एक नई शुरुआत इस अनौपचारिक शिखर वार्ता से हो सकती है। यों अंतरराष्ट्रीय राजनय में कुछ भी अनौपचारिक नहीं होता। जिसे अनौपचारिक कहा जाता है उसकी तैयारी विधिवत की जाती है, भले ही इसे जगजाहिर नहीं किया जाता। इस बार भी मोदी के चीन जाने के पहले भारतीय विदेश मंत्री चीनी विदेश मंत्री से भेंट कर चुके हैं, और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल अपने समकक्ष से बातचीत कर हाल में भारत लौटे हैं। इन दोनों ने मोदी की चीन यात्रा की जमीन तैयार की है, इसमें कोई संदेह नहीं। सात-आठ महीने तक लगातार जारी डोकलाम संकट ने यह बात साफ कर दी थी कि चीन के तेवर शी के नेतृत्व में नरम नहीं जुझारू ही रहने वाले हैं।
चीन के विदेश मंत्रालय के अधिकारी बारम्बार घोषणा करते रहे थे कि चीन अपनी एक इंच जमीन पर भी किसी देश को कब्जा नहीं करने देगा। जो चीन से टकराएगा उसे सबक सिखलाया जाएगा। इन चेतावनियों और धमकियों के जवाब में भारत के सेनाध्यक्ष और कुछ अन्य अधिकारियों ने मुंहतोड़ जवाब देने में देरी नहीं की। घोषणा करते हुए कि आज का हिन्दुस्तान 1962 का भारत नहीं और चीन ने कोई दुस्साहस किया तो उसे इसका खमियाजा भुगतना पड़ सकता है। जब चीन ने डोकलाम से पीछे हटने का फैसला किया तो भारत में कई देश प्रेमियों ने इसे अपनी जीत समझा। उस वक्त भी आलोचकों का कहना था कि चीन को भारत सरकार ने निश्चय ही परदे के पीछे कुछ आश्वासन दिया है, तभी चीन तनाव घटाने के लिए तैयार हुआ है। इस मत को निराधार भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसी समय भारत सरकार के काबीना सचिव ने केंद्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ सरकारी अवसरों को एक पत्र में यह सलाह दी कि दलाईलामा के भारत में शरण लेने की 60वीं जयंती के अवसर पर आयोजित जलसों में वह भाग न लें। कई स्वाभिमानी भारतीयों को यह लिखित सलाह कम आदेश ज्यादा खटका था क्योंकि अब तक भारत दलाई लामा को आदरणीय मेहमान बतलाता रहा था।
बारम्बार यह भी रेखांकित करता था कि भारत में रहने वाले तिब्बतियों को शांतिपूर्ण ढंग से तिब्बत में मानवाधिकारों के हनन के बारे में अपनी असहमति और आक्रोश प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता भारतीय जनतंत्र में है। इस मामले में चीन की संवेदनशीलता के प्रति अचानक सजग होना निश्चित ही नीति में बदलाव का लक्षण समझा जा सकता है। जब 2014 में शी ने भारत की यात्रा की थी तब मोदी ने उनके स्वागत-सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लगा कि इसका लाभ भारत को अपना राष्ट्रीय हित साध करने में निश्चित ही होगा पर बहुत शीघ्र यह आशा निर्मूल साबित हो गई। चीन ने पाकिस्तान में रह रहे और अन्तरराष्ट्रीय आतंकवादी करार किए जा चुके हाफिज सईद को बचाने के लिए अपनी राजनयिक ढाल का लगातार प्रयोग जारी रखा है।
भारत की परमाणु ईधन सप्लाई ग्रुप की सदस्यता को भी अधर में रखा। पाकिस्तान का बेहिचक समर्थन करने में चीन ने कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस वन बेल्ट वन रोड और चाइना-पाकिस्तान इकनॉमिक कोरिडोर को चीन आने वाले वर्षो में अपने और पूरे एशिया के लिए महत्त्वपूर्ण समझता है, उसे लेकर भी भारत के मन में आशंका है कि इसका एक मकसद भारत की सामरिक घेराबंदी है। इसे भारत के गले में जहरीले मोतियों की माला पहनाने वाले अभियान का अभिन्न हिस्सा ही समझा जाता है। इतना ही नहीं हाल के महीनों में नेपाल और मालदीव में चीन ने भारत के राजनयिक प्रभाव को कम करने में या उसके प्रति बैरभाव रखने वाले तत्वों को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन देने में कसर नहीं छोड़ी है। तब क्या यह समझा जाए कि भारत के सामने चीन के साथ समझौते का कोई विकल्प नहीं बचा है? ऐसा सोचना सही नहीं होगा।
सच है कि भारत चीन के साथ सैनिक या आर्थिक टक्कर लेने की हालत में नहीं है और दोनों की सैनिक और आर्थिक क्षमता की तुलना करना भी नादानी है परंतु इस बात को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि जब से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन के विरुद्ध व्यापार युद्ध (अर्थात कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की है, तब ही से चीन के लिए नये साथियों की तलाश वाला मुद्दा प्राथमिक बन गया है। इसी कारण लंबे अरसे से तनावपूर्ण रहे चीन-जापान संबंध भी अब सुधरते नजर आ रहे हैं। यहां इस बात को दोहराने की जरूरत है कि चीन-अमेरिका व्यापार बहुत बुरी तरह चीन के पक्ष में असंतुलित है। लगभग तीन अरब डॉलर के आंकड़े तक यह राशि पहुंच चुकी है। ट्रंप के प्रतिबंध से अमेरिकी उपभोक्ताओं सहुलियतें घटेंगी, परचीनी कंपनियों को नुकसान कहीं अधिक होगा जो इनका निर्माण करते हैं।
चीनी नेता इस बात से भी बहुत खिन्न है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने उनसे कन्नी काटते हुए उत्तर कोरिया के नेता किम जांग उन से सीधे संवाद शुरू कर दिया है। चीनियों को यह बात नागवार गुजरी है। शी जिनपिंग पुनर्निर्वाचन के बाद माओ की तरह सर्वशक्तिमान महामानव नेता के रूप में प्रकट हुए हैं, जो चीन को उसकी खोई हस्ती फिर से वापस दिलाना चाहते हैं। निश्चय ही वह एशिया में अमेरिका जैसी किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव बढ़ते नहीं देखना चाहते। चूंकि इस समय रूस के नेता पुतिन पश्चिमी मोर्चे पर अमेरिका और यूरोप के साथ आक्रामक राजनयिक तेवर अख्तियार किए हुए हैं, चीन इस अवसर का लाभ उठा अमेरिका के व्यापार युद्ध की चुनौती का सामना करने के लिए भारत के साथ कम से कम तात्कालिक सुलह का मार्ग चुन सकता है। भारत के लिए यह समय संभावनाओं के साथ खतरनाक चुनौतियों से भरा है। आगामी वर्ष लोक सभा चुनाव का है, और मोदी के लिए विदेश नीति के क्षेत्र में ठोस उपलब्धि आंतरिक नीतियों में शिथिलता या महंगाई आदि का प्रतिकार करने में सहायक हो सकती है। हालांकि, अनौपचारिक शिखर वार्ता के बाद न तो कोई प्रेस सम्मेलन होता है, और न ही संयुक्त विज्ञप्ति की परंपरा है। तब भी इस मुलाकात के तटस्थ मूल्यांकन को टाला नहीं जाना चाहिए।
Date:25-04-18
संपादकीय
आखिरकार उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने कांग्रेस समेत सात विपक्षी दलों की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव को खारिज कर दिया। जिस तरह देश के कई जाने-माने संविधानविदों ने इस प्रस्ताव के खिलाफ अपनी राय जाहिर की थी, उसे देखते हुए उपराष्ट्रपति के निर्णय पर शायद ही किसी को हैरानी हुई हो। यों इस प्रस्ताव को विचार और बहस के लिए स्वीकार कर भी लिया जाता, तो इसका पारित हो पाना नाममुकिन था, क्योंकि संसद में इसे पारित कराने लायक संख्याबल विपक्ष के पास नहीं था। यही नहीं, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक और राजद जैसी पार्टियां महाभियोग के प्रस्ताव से सहमत नहीं थीं। खुद कांग्रेस के भीतर इस मामले में एक राय नहीं रही है। ऐसे में, प्रस्ताव लाने वाले दलों की रणनीतिक कमजोरी भी जाहिर हुई है। राज्यसभा के सभापति ने प्रस्ताव खारिज करने के पीछे कुल बाईस कारण बताए हैं। इनमें से मुख्य कारणों में एक यह है कि प्रस्ताव लाने वालों ने प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ अपने आरोपों के समर्थन में कोई ठोस साक्ष्य और तथ्य पेश नहीं किए थे; इसके बजाय संदेहों और अटकलों को आधार बनाया था; ठोस साक्ष्यों और तथ्यों के बजाय ‘ऐसा लगता है’ और ‘हो सकता है’ जैसी शब्दावली का प्रयोग किया गया था।
ऐसे में प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ जांच का आदेश देने से न्यायपालिका की साख को गंभीर चोट पहुंचती। प्रस्ताव में एक आरोप मुकदमों के आबंटन और उनकी सुनवाई के लिए जजों के चयन में मनमानी का था। चार वरिष्ठ जजों के संवाददाता सम्मेलन से यह विवाद पहले ही तूल पकड़ चुका था। लेकिन उपराष्ट्रपति ने अनेक कानूनविदों से विचार-विमर्श के बाद कहा है कि ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ होने के कारण प्रधान न्यायाधीश को मुकदमों के आबंटन का अधिकार है। उन्होंने प्रस्ताव खारिज करते हुए यह भी जोड़ा है कि परंपरा के खिलाफ नोटिस का मसविदा सार्वजनिक करना गलत है; बारीकी से विचार किए बगैर महाभियोग से न्यायपालिका में भरोसा कम होता है।
सभापति ने अपने निर्णय में कहा है कि सात विपक्षी दलों के राज्यसभा के चौंसठ सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित नोटिस में प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ लगाए आरोपों के समर्थन में पेश किए गए दस्तावेजों से कोई पर्याप्त साक्ष्य सामने नहीं आता है और संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के तहत उन्हें महाभियोग के तहत हटाने का कोई मामला नहीं बनता है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति के निर्णय को जल्दबाजी में लिया गया निर्णय करार दिया है। कांग्रेस का कहना है कि संबंधित आरोपों के सबूत और अन्य दस्तावेज सीबीआइ तथा अन्य जांच एजेंसियों के पास हैं; अगर नोटिस स्वीकार कर जांच के लिए समिति गठित की जाती, तो सबूत और गवाह पेश किए जाते।
बहरहाल, प्रस्ताव खारिज होने के बाद भी यह प्रकरण खत्म होने के आसार फिलहाल नहीं दिखते। कांग्रेस ने राज्यसभा के सभापति के निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का इरादा जताया है। लेकिन इस पर सुनवाई कौन करेगा, इसका फैसला कैसे होगा, क्योंकि प्रधान न्यायाधीश ही तो मास्टर ऑफ द रोस्टर हैं। फिर, कांग्रेस कानूनी आधार क्या लाएगी, कौन-से उदाहरण पेश करेगी, क्योंकि प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पहले कभी नहीं लाया गया था। चाहे मुकदमों का आबंटन हो या जजों की नियुक्ति के लिए चली आ रही कोलेजियम प्रणाली, दोनों को आदर्श व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। पर इन मसलों का सामना करने का तरीका यह नहीं हो सकता कि शक्तियों के दुरुपयोग की धारणा बना ली जाए। इस तरह के विवाद से किसी को कोई राजनीतिक लाभ हो या न हो, न्यायपालिका की साख और गरिमा को जरूर चोट पहुंचती है।
Date:25-04-18
संपादकीय
मेघालय से अफस्पा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम) का हटाया जाना एक सकारात्मक कदम है। सेना को विशेषाधिकारों से लैस करने वाले इस बेहद कड़े कानून को पूर्वोत्तर की जनता ने लंबे समय तक एक खतरनाक और दमनकारी कानून के रूप में देखा और झेला है। इस कानून की आड़ में कई बेगुनाह नौजवान सैन्य कार्रवाई का शिकार बने। इसलिए अफस्पा को हटाने की लंबे समय से मांग होती रही है। मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला तो इस कानून के विरोध में सोलह साल तक अनशन पर रहीं। अभी तक मेघालय से लगने वाली असम की सीमा पर चालीस फीसद इलाके में यह कानून लागू था। त्रिपुरा और मिजोरम के बाद मेघालय तीसरा राज्य है जहां से अफस्पा को पूरी तरह हटा लिया गया है। अरुणाचल प्रदेश में भी इसका दायरा घटा दिया गया है। अरुणाचल में पिछले साल सोलह पुलिस थाना क्षेत्रों में इसे लागू किया गया था, लेकिन अब यह असम से लगने वाली सीमा के आठ थाना क्षेत्रों और म्यांमा सीमा से सटे तीन जिलों में ही लागू रहेगा।
अफस्पा छह दशक पुराना कानून है। इसे एक सितंबर 1958 को असम, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में लागू किया गया था। इन राज्यों की सीमाएं चीन, म्यांमा, भूटान और बांग्लादेश से मिलती हैं। इन राज्यों को राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून-व्यवस्था की दृष्टि से काफी संवेदनशील बताते हुए इस कानून को लागू किया गया था। वर्ष 1986 में हुए मिजो समझौते के तहत मिजोरम में अफस्पा स्वत: ही खत्म हो गया था। इसके बाद 2015 में कानून-व्यवस्था की समीक्षा के बाद त्रिपुरा से भी अफस्पा हटा लिया गया। दरअसल, पूर्वोत्तर का उग्रवाद सरकारों के लिए बड़ी चुनौती रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों में अलग प्रदेश की मांग को लेकर अलगाववादी संगठन हिंसा का सहारा लेते रहे हैं। इन संगठनों को देश के बाहर से मदद मिलती है, यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है। अफस्पा का मूल मकसद उग्रवादी हिंसा को कुचलना था। लेकिन इस कानून की आड़ में नागरिकों पर जो जुल्म हुए, वे रोंगटे खड़े कर देने वाले थे।
जम्मू-कश्मीर में भी अफस्पा 1990 से लागू है। हालांकि हालात को देखते हुए केंद्र ने वहां से इसे हटाने से इनकार कर दिया है। अफस्पा के तहत सेना को असीमित अधिकार हासिल हैं। इस कानून के तहत सेना किसी को भी बिना कारण बताए गिरफ्तार कर सकती है, बिना वारंट किसी भी घर की तलाशी ले सकती है। जब ऐसा कानून हाथ में आ जाता है और उसे इस्तेमाल करने वाले बेलगाम होने लगते हैं और किसी के प्रति उनकी जवाबदेही नहीं बनती तो हालात सुधरने के बजाय अराजक हो जाते हैं। हालांकि गृह मंत्रालय ने अब हालात सुधरने का दावा किया है।
मंत्रालय का कहना है कि पूर्वोत्तर राज्यों में हिंसा में तिरसठ फीसद की कमी आई है। उग्रवादी हिंसा में नागरिकों की मौतों में तिरासी फीसद और सुरक्षाकर्मियों की मौतों में चालीस फीसद की गिरावट आई है। वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने भी इसे औपनिवेशिक कानून बताते हुए भारत के सभी हिस्सों से हटाने की मांग की थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अफस्पा को भले जरूरी माना जाए, लेकिन इसकी दमनकारी संभावनाओं को रोकने के लिए क्या संशोधन किए जाएं इस विचार किया जाना चाहिए।
Date:25-04-18
जोरावर दौलत सिंह, फैलो, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च
भारत-चीन संबंध हमेशा से बहुत जटिल रहे हैं। समाज विज्ञान में प्रचलित मुहावरे ‘प्रतिस्पद्र्धा-सहयोग-विवाद’ के लिहाज से देखें, तो हम इसके अंतर्विरोधों या विरोधाभासी प्रवृत्ति को समझ सकते हैं। 2017 ने यह सब होते हुए देखा- बेल्ट ऐंड रोड पहल (बीआरआई) पर भारत का सख्त ऐतराज, शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में भारत का प्रवेश, उत्तरी सीमा पर डोका ला का नाटकीय संकट, ब्रिक्स में बहुपक्षीय सहयोग का बढ़ता माहौल और आर्थिक भागीदारी को बढ़ावा देना। दोनों देशों के रिश्तों का सबसे अच्छा उदाहरण हिमालय में खड़ा हुआ तनाव है, तीन दशक में पहली बार दोनों देश इस तरह आमने-सामने आए।
भारत-चीन संबंधों में आए इस पेच का आखिर राज क्या है? इसके सूत्र किसी घाटी या ऊपरी हिमालय की सकरी सड़कों में नहीं मिलेंगे, बल्कि इसके सूत्र बड़े ही व्यवस्थित तरीके से निर्मित उन नकारात्मक छवियों में छिपे हैं, जिनका निर्माण दोनों पक्षों ने कभी परस्पर विदेश नीतियों, तो कभी भू-राजनीतिक भरोसे के संकट के तौर पर किया। भारत जहां उप-महाद्वीप में चीन द्वारा आर्थिक और राजनीतिक कद बढ़ाने के प्रयास को उसके अतिक्रमण और पड़ोसी द्वारा अपनी प्रभुसत्ता पर सवाल के रूप में देख रहा था, वहीं चीन अपने प्रमुख रणनीतिक प्रतिद्वंद्वियों अमेरिका और जापान के साथ भारत की बढ़ती और गहरी सैन्य भागीदारी को अपनी सुरक्षा के भविष्य के लिए चुनौती मान रहा था। इस बात से आश्वस्त होते हुए कि अब एक मुखर नीति ही इस दिशा में कारगर होगी, दिल्ली और बीजिंग, दोनों ने ही बीते दो वर्षों में परस्पर संतुलन बनाने की दिशा में काम शुरू किया और कई बार इसके लिए दबाव की रणनीति भी अपनाई है। भारत का अमेरिका की ओर, तो चीन का पाकिस्तान की ओर कुछ इस तरह झुकाव देखने में आया, जैसा कि शीतयुद्ध के दौरान भी नहीं देखने को मिला था।
इन सबके बावजूद दोनों पक्षों को न तो कोई रियायत मिली, न ही द्विपक्षीय बातचीत की शर्तों में कोई सुधार आया। मसलन, एनएसजी सदस्यता, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, जलविद्युत सहयोग जैसे कई महत्वपूर्ण मसले थे, जहां चीन से कोई पुख्ता आश्वासन मिलना चाहिए था, लेकिन नहीं मिला। बीआरआई पर भारत के बहिष्कार के साथ ही चीन ने उसे न सिर्फ अपनी एक महत्वाकांक्षी अंतरराष्ट्रीय पहल के विरोधी के तौर पर देखा, बल्कि एशिया में अपने लिए सबसे अविश्वसनीय और असहयोगी पड़ोसी भी मानने लगा। बीजिंग ने यह भी माना कि दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में अपनी चीन विरोधी रणनीति में भारत अब खुलकर बाहरी ताकतों को शामिल करने लगा है। भारत के तिब्बत कार्ड ने इसमें और इजाफा किया। इस बेबुनियाद स्पद्र्धा और भारतीय व चीनी हितों के बढ़ते टकराव के बीच डोका ला ने एक ऐसे बिंदु पर ला खड़ा किया, जहां नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग, दोनों को ही महसूस हुआ कि इन नीतियों से कुछ हासिल होने वाला नहीं और इसमें कुछ बदलाव की जरूरत है।
अच्छी बात है कि दोनों ही नेतृत्व एक-दूसरे की कोशिशों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की मंशा रखते हैं। भारत-चीन मतभेद दूर कर उन्हें राजनीतिक परिपक्वता और रिश्तों के समग्र ढांचे में बहाल करने का दौर शुरू हुआ है। सुषमा स्वराज और वांग यी की हालिया बैठक से निकले संदेश एक निर्देश की तरह थे। अब तक ‘आधा गिलास खाली’ की कहानी आगे बढ़कर ‘आधा गिलास भरा है’ तक पहुंच गई है। भारतीय विदेश मंत्री का बयान कि- ‘हमारी समानताएं, हमारे मतभेदों पर भारी हैं’ या चीनी विदेश मंत्री का बयान- ‘हमारे आम हित हमारे मतभेदों से कहीं दूर हैं’ बहुत कुछ कहते हैं। सच है कि हम पहले भी ऐसे वक्तव्य सुनते आए हैं, लेकिन यह भी सच है कि इस वक्त संदर्भ नए हैं, क्योंकि दोनों ही नेतृत्व संबंधों की जटिलता के इस दौर में स्थिरता वापस लाने की उम्मीद कर रहे हैं।
चीन के साथ रिश्तों को पुनर्जीवन देने के सरकार के फैसले ने उस सामरिक समुदाय को नए तरह से सोचने का मौका दे दिया है, जो इसके नए-नए अर्थ निकालने को बेचैन है। दिल्ली वास्तव में एक ऐसी नीति को ठोक-बजा रही थी, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। सबसे पहले तो सरकार के अंदर बैठे यथार्थवादी लोग भी यह समझने लगे हैं कि चीन के साथ प्रतिकूल संबंधों से कुछ नहीं हासिल होने वाला और यह सुरक्षा संबंधी दुश्वारियां बढ़ाने वाला होगा, जिसे न तो भारत खुद हल कर सकने की स्थिति में है, न ही वे बाहरी शक्तियां इसमें सहायक हो पाएंगी, जो उप-महाद्वीप में चीन के बढ़ते प्रभुत्व पर लगाम लगाने को उत्साहित दिखाई देती रही हैं। दूसरा, भारत-चीन तनाव पाकिस्तान को मजबूत होने का अवसर देता है, जबकि सच यह है कि चीन खुद भी संतुलित क्षेत्रीय भूमिका में दिखते हुए दिल्ली के साथ एक रचनात्मक समीकरण बनाना ही पसंद करेगा। तीसरे, भारत-चीन विवादास्पद संबंध अमेरिका और जापान के साथ भारत की सौदेबाजी क्षमता को भी प्रभावित करता है। दिल्ली ने यह भी महसूस किया होगा कि बीजिंग के साथ उनके मतभेदों के बावजूद वाशिंगटन और टोक्यो, दोनों ही वास्तव में चीन के साथ अपनी परस्पर निर्भरता को महत्व देते हैं। कोरियाई परमाणु मुद्दा और उत्तर पूर्व एशियाई भू-राजनीति बदलने के प्रयासों पर चीन-अमेरिका सहयोग सिर्फ एक उदाहरण है। जापान भी चीन के साथ अपने 300 बिलियन डॉलर के व्यापारिक संबंधों के साथ सुनिश्चित कर देना चाहता है कि वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। उसने बीआरआई में भी सशर्त सहयोग की पेशकश कर रखी है।
भारत सरकार भी स्वीकार कर रही है कि चीन के साथ आर्थिक सहयोग का वादा भू-राजनीतिक स्थिरता के माहौल में ही सकारात्मक नतीजे दिला सकता है। स्वाभाविक है कि द्विपक्षीय संबंधों में अनिश्चितता नए आर्थिक खिलाड़ियों को मैदान में कूदने का अवसर देगी। मोदी ने चीन के साथ एक भव्य ‘विकासपरक साझेदारी’ की जैसी कल्पना की थी, अब उसे फिर से व्यावहारिक रूप देने की कोशिश शुरू हुई है। सौभाग्य से अब दोनों राजधानियों के बीच साझा भरोसे का माहौल बना है कि शत्रुता के भाव से दोनों के हितों को ठेस पहुंची है। लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाकी है।
Date:25-04-18
As Panchayati Raj Act turns 25, country must debate why grassroots churn has not found expression in politics above
Editorial
Political legitimacy arising from active participation of people in grassroots governance is regarded as a litmus test for democracy. On April 24, 1993, India took a decisive step in meeting that objective. The Panchayati Raj Act conferred constitutional status on Panchayati Raj Institutions (PRIs). Though there were long debates on local-level democracy in the Constituent Assembly, in its first 42 years, the republic’s Constitution reposed trust in the two-tier form of government — PRIs found a mention only in Directive Principles of State Policy. The Panchayati Raj Act not only institutionalised PRIs as the mandatory third tier of governance, it transformed the dynamics of rural development by giving a say to a large section of the people — significantly, women — in the administration of their localities. Yet, the churn precipitated by the Act has largely remained unexpressed in national-level politics. There are very few channels that connect the grassroots leader to the politics at higher levels.
Nowhere is this more true than in the representation of women. Women constitute more than 45 per cent of the nearly three million panchayat and gram sabha representatives in the country. In contrast, women’s representation in the current Lok Sabha is barely 11 per cent. It’s easy to dismiss the women in panchayats as proxies for their male relatives. However, as social scientists have argued, the fact that women come forward to contest elections, attend panchayat meetings and sit with men of different castes and age groups is itself a step towards empowerment. PRIs free women from the compulsion of tailoring politics to male-dictated agendas.
At the same time, the democratic potential of the PRIs remains limited. Most states have merely completed the formality of devolving powers. They have not followed this up with effective devolution, especially with respect to funds. Ideally, the PRIs should be formulating their own plans and executing them. But they remain dependent on Central and state government funds. At many places, PRIs have become adjuncts to Central and state-level administrative agencies. As the country celebrates 25 years of the Panchayat Raj Act, it should also debate why the churn at the grassroots has not found expression nationally.
Date:25-04-18
Mani Shankar Aiyar, [The writer is a former Union Minister for Panchayati Ra]
I write this as I fly to Thiruvananthapuram on April 24 for the Silver Jubilee National Panchayati Raj celebrations organised by the Kerala Institute of Local Administration. It is ironic that while the Left Front in Kerala and the BJP at the Centre, both of which voted against Rajiv Gandhi’s historic constitutional amendments on Black Friday, October 13, 1989, are observing this historic anniversary on an impressive national scale, the Congress, more modestly, has left it to its pradesh units to observe the occasion as each deems fit.
It is possible to bemoan the condition of Panchayati Raj in the country 25 years after it received the president’s assent and was proclaimed as incorporated in Parts IX and IXA of the Constitution. There is much that remains to be done. But I do not despair because when I asked Rajiv Gandhi how long he thought it would take for us to realise our goals, he smiled and replied, “At least a generation.” I was stunned. “At least a generation — that’s 25 years!” But, as usual, Rajiv Gandhi was right — and I was wrong. It has taken a generation to get to where we have and we need perhaps another generation (or more?) to achieve with satisfaction the evolution in grassroots governance and development that inspired the then prime minister to bring in what is arguably his single greatest legacy to the nation.
However, the obverse of the curious fact of political parties who opposed the amendment Bill in 1989 now celebrating the silver jubilee on such a nation-wide scale is that it reflects the national consensus that has evolved around Rajiv Gandhi’s original conception that the nation needs constitutional status, sanction and sanctity to ensure the third tier of local self-government. In consequence, Panchayati Raj has been made ineluctable, irreversible and irremovable — in sharp contrast to the four previous decades when local government was whimsical, uncertain, arbitrarily dissolved or even more arbitrarily extended.
It is important to recognise that all states have ensured the full and conscientious implementation of the mandatory provisions of the Constitution on local self-government institutions in both rural and urban India. Moreover, most state legislation has rendered statutory several of the recommendatory provisions of the Constitution such as the 29 and 18 subjects for devolution illustratively set out respectively in the 12th and 13th Schedules.
It is also very important to recognise that successive (central) Finance Commissions have so substantially increased funding to the local bodies, and progressively converted this into untied grants, that panchayats are flush with funds. If chairman NK Singh of the current 15th Finance Commission sees his way to increasing current funding by about 2 per cent of the divisible pool, we would be achieving standards of international best practice in respect of financing local bodies.
Next, it is very important to recognise how deep have been embedded the roots of grassroots democracy in the country. Till the Rajiv initiative that ended our being the “largest but least representative democracy in the world”, the total number of elected MPs and MLAs was about 5,000 to represent a population then approaching a billion. Today, we have in our 2.5 lakh panchayats and municipalities some 32 lakh elected people’s representatives. Uniquely, SC/ST representation is proportional to SC/ST population ratios in villages, talukas/blocks and districts respectively. Approximately one lakh sarpanches are SC/ST. Most staggering of all is the representation of women: Comprising about 14 lakh members, with some 86,000 chairing their local bodies, there are more elected women representatives (mostly from economically weaker and socially disadvantaged sections) in India alone than in the rest of the world put together!
Also, it must be noted that while the pace of implementation of genuine Panchayati Raj is highly variable — Karnataka and Kerala well in the lead, UP consistently bringing up the rear — every state is progressing, some at snail’s pace, others leapfrogging.
What remains?
First and foremost, effective devolution. The 2013 expert committee I chaired laid out in detail how to achieve this through the device of “activity mapping”. Further, it is imperative that activity maps be incorporated in the guidelines of all centrally sponsored schemes and that the massive amounts of money earmarked for poverty alleviation in all its dimensions be sent directly to gram panchayat accounts, reinforced by detailed activity maps to ensure genuine “local self-government”.
Second, financial incentivisation of the states to encourage effective devolution to the panchayats of the three Fs — functions, finances, functionaries. The World Bank offered me a billon dollar initial IFC soft loan to set up such an incentivisation fund. Unfortunately, the finance ministry turned it down, preferring to look the gift horse in the mouth. But outside funds are not really required if the ministry were to make provision for the domestic funding of such incentivisation.
Third, district planning based on grassroots inputs received from the village, intermediate and district levels through people’s participation in the gram and ward sabhas. In 2005, in full acceptance of the recommendations made by the V Ramachandran committee, the Planning Commission issued an extremely gratifying circular on the mechanics of this process — but then sabotaged its own directives largely because the only village the deputy chairman was acquainted with was the one in downtown Manhattan.
Fourth, following the example of Karnataka, to establish a separate cadre of panchayat officials who would be subordinate to the elected authority, not lording it over them, as happens, alas, far too often, especially in states with weak panchayat systems.Much else needs to be done. But for starters these four steps might constitute a useful beginning for second-generation reforms to secure grassroots development through democratic grassroots governance.
The post 26-04-2018 (Important News Clippings) appeared first on AFEIAS.
‘कुशल भारत’ (स्किल इंडिया) कार्यक्रम में सुधार की आवश्यकता
Date:27-04-18 To Download Click Here.
भारत में युवा जनसंख्या सर्वाधिक है। यह देश का एक अत्यन्त सकारात्मक पहलू है। इस जनसंख्या का लाभांश प्राप्त करने के लिए हमें युवा पीढ़ी की उत्पादकता का अधिक से अधिक सदुपयोग करने के मार्ग ढूंढने होंगे। 2016 में इस हेतु सरकार ने शारदा प्रसाद समिति बनाई थी। इस समिति का काम इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स व इंडस्ट्रीज द्वारा प्रवर्तित क्षेत्रीय कौशल परिषदों का औचित्य स्थापन करना था।
शारदा प्रसाद समिति ने व्यावसायिक शिक्षण एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में अनेक सुधारों की सिफारिश की थी। इन सिफारिशों पर जल्द से जल्द एक्शन लिया जाना देश के हित में होगा।
भारत में कौशल विकास की दृष्टि से दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं। एक तो यह कि नियोक्ता की अपेक्षा के अनुरूप कौशल पर्याप्त हो, और दूसरा, कर्मचारियों (युवा व वृद्ध) को एक सम्मानित आजीविका कमाने लायक बनाना। समिति की रिपोर्ट में खास बात यह है कि इसमें व्यावसायिक शिक्षा को पिछड़े व वंचित तबके तक ही सीमित न रखकर, प्रत्येक वर्ग के युवाओं के लिए आवश्यक माना गया है। समिति की अन्य सिफारिशों में अन्य कई महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं –
चीन में नौ साल की अनिवार्य स्कूली शिक्षा के पश्चात् आधे विद्यार्थी तो व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में चले जाते हैं।
भारत में एक तरह का ‘डिप्लोमा रोग’ फैला हुआ है, जिसका शिकार बनकर युवा बेरोजगार हो जाता है। छोटे-मोटे आई टी आई और निजी व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों से कोई बात नहीं बनेगी। इसके लिए खुद नियोक्ताओं को ही आगे आना होगा।
हमारे यहाँ पढ़ने, लिखने और गणित पर अधिक जोर दिए जाने की आवश्यकता है। इन आधारभूत कौशल के बगैर तेजी से बदलते विश्व में पैर जमाना मुश्किल है।
समिति ने सुझाव दिया है कि सेक्टर स्किल कांऊसिल (SSCs) की संख्या को नेशनल इंडस्ट्रियल एक्टिविटी क्लासिफिकेशन के अनुरूप रखा जाना चाहिए। इससे इनकी गुणवत्ता में सुधार होगा। हमारी अर्थव्यवस्था में ऐसी आर्थिक गतिविधियों की संख्या 21 है, जबकि यही ऑस्ट्रेलिया में मात्र 6 है।
‘कुशल भारत’ कार्यक्रम को कैसे सफल बनाया जाए?
व्यावसायिक शिक्षा प्रशिक्षण की सफलता के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि इसके सभी पाँच स्तम्भ आपस में तालमेल बनाकर काम करें।
फिलहाल भारत के संगठित क्षेत्र की केवल 36 प्रतिशत कंपनियां ही प्रशिक्षुओं को लेती हैं। शारदा प्रसाद समिति ने इसमें बढ़ोत्तरी करने के लिए सुझाव दिया है कि प्रशिक्षुओं को भर्ती करने और कौशल विकास करवाने की इच्छुक कंपनियों को इसकी प्रतिपूर्ति दी जाए। इस प्रकार संगठित क्षेत्र में 100 प्रतिशत कुशल कर्मचारी होंगे।
सरकार को चाहिए कि निजी क्षेत्र में अपेक्षित कौशल के संबंध में डाटा एकत्र करे। प्रत्येक पाँच वर्ष में राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में अपेक्षित कुशलता और उसकी पूर्ति के बीच की दूरी पर सर्वेक्षण कराया जाए।
नेशनल स्किल डेवलपमेंट कार्पोरेशन (NSDC) और नेशनल स्किल क्वालीफिकेशन फ्रेमवर्क (NSQF) जिस प्रकार और गति से कार्य कर रहे हैं, उसके हिसाब से हम विश्व के कौशल विकास का केन्द्र नहीं बन सकते। हमें अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित संतोष मेहरोत्रा और आशुतोष प्रताप के लेख पर आधारित।
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Today's Life Management Audio Topic-"अकेलेपन की ताकत", भाग-4
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Today's Daily Audio Topic- "राजनीतिक दलों का स्वरूप"
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27-04-2018 (Important News Clippings)
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Date:27-04-18
TOI Editorials
The misconceived attempt to remove Chief Justice of India Dipak Misra because Congress and other opposition parties might have found some of his decisions objectionable, was rightly rejected by Vice-President Venkaiah Naidu as it undermined judicial independence. But the government too is at fault for sitting on the Memorandum of Procedure for judicial appointments and nitpicking on some of those appointments, especially at a time when there is a desperate shortage of judges and enormous pendency of cases.
After much delay it has finally acted to elevate senior advocate Indu Malhotra to the Supreme Court, but moved to block Uttarakand high court chief justice KM Joseph. The reasons set out – overrepresentation of Kerala in higher judiciary, failure to consider 11 chief justices in other high courts more senior to Justice Joseph, the need to ensure balanced representation to all regions and to SC/ST community – are not entirely convincing. The collegium resolution of January 10 notes that Justice Joseph was “more deserving and suitable in all respects” and that factors like seniority, merit and integrity were considered in recommending him. Seniority has not been the sole yardstick for appointing high court chief justices or SC judges. Moreover, a disproportionate number of SC judges began their practice in Bombay and Delhi HCs. The nitpicking on these grounds fails to pass muster.
Further, five vacancies remain unfilled in SC if Malhotra and Joseph are included, and six more judges are retiring this year. That creates 11 vacancies where amends on yardsticks like regional diversity, affirmative action and seniority can be achieved quickly. Speculation has abounded that the government is yet to make peace with Justice Joseph’s verdict quashing President’s Rule in Uttarakhand in 2016. If true, the government and opposition are in effect just two sides of the same politics unhappy with the functional and administrative autonomy of the judiciary.
The delays and hindrances are a clear indication of government’s persistent unhappiness over the quashing of the National Judicial Appointments Commission. The collegium’s flaws – like avenues for nepotism and the lack of transparency – remain to be rectified. A good way to resolve this impasse would be for the government to revamp NJAC with majority representation for judges but other voices included in an institutional process. Judiciary’s independence is non-negotiable. Government as the largest litigant must desist from vetoing judicial appointments without valid reasons.
Date:27-04-18
संपादकीय
राजनीति से दूर भागती न्यायपालिका राजनीति के चक्कर में फंसती जा रही है और इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केएम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट भेजे जाने में आई अड़चन है। विडंबना देखिए कि कांग्रेस समेत सात राजनीतिक दलों के महाभियोग को न्यायपालिका को धमकाने वाली मुहिम बताने वाली भाजपा नीत सरकार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के निर्णय को रोककर उसकी स्वायत्तता को चुनौती दे रही है।सरकार पहले तो कॉलेजियम की उस सिफारिश को तीन महीने तक दबाए बैठी रही, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदु मल्होत्रा और केएम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश बनाने की बात थी। जब कॉलेजियम ने सरकार को बार-बार याद दिलाया तो सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम को मंजूरी दे दी लेकिन, न्यायमूर्ति जोसेफ के नाम को रोक लिया।
अभी तक वैधानिक स्थिति यही है कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिश को लागू करने में देरी कर सकती है लेकिन, उससे इनकार नहीं कर सकती। जबकि वास्तविक स्थिति यही बन रही है कि सरकार अपनी पसंद के नाम को मंजूरी दे रही है और जिससे असहज है, उसे दबाकर बैठी रहती है।न्यायमूर्ति जोसेफ का नाम क्यों नहीं मंजूर किया गया इस बारे में स्पष्ट कारण नहीं बताए गए हैं। सारी राजनीति अनुमान के आधार पर चल रही है और इसके चलते देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका के रिश्तों के बारे में लगातार खराब और संदेहपूर्ण छवि निर्मित हो रही है। एक कारण वरिष्ठता का बताया जा रहा है, जिसे परिभाषित करना कठिन है।
तर्क है कि विभिन्न उच्च न्यायालयों में जोसेफ से ज्यादा वरिष्ठता वाले तीन दर्जन जज हैं। इसलिए उन्हें ही क्यों सुप्रीम कोर्ट भेजा जाए। दूसरा तर्क उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य के कोटे का भी है। तीसरा कारण राजनीतिक है वह कारण उत्तराखंड में लगाए गए राष्ट्रपति शासन को न्यायमूर्ति जोसेफ द्वारा रद्द किया जाना है। उस फैसले के बाद राज्य में कांग्रेस के हरीश रावत की सरकार फिर बहाल हुई थी।यही कारण है कि देश के पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम को कहना पड़ा है कि मौजूदा सरकार अपने को कानून से ऊपर मानती है। सबसे ज्यादा चिंताजनक है देश के मुख्य न्यायाधीश की चुप्पी। इन स्थितियों के चलते हमारा लोकतंत्र कानून का राज और शक्ति का पृथकीकरण कायम रखने में कमजोर दिख रहा है।
Date:27-04-18
विवेक काटजू , (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
एक अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ दो दिवसीय अनौपचारिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन जा रहे हैं। शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ सम्मेलन में भाग लेने के लिए भी मोदी को जून में चीन जाना है, ऐसे में उससे पहले 27 अप्रैल को उनका वहां जाना अप्रत्याशित ही है। चूंकि मोदी विशेष रूप से यह दौरा कर रहे इसलिए यह उम्मीद स्वाभाविक है कि दोनों नेता रिश्तों को एक नई दिशा देंगे और उनकी मुलाकात से कुछ ठोस नतीजे निकलेंगे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनके चीनी समकक्ष वांग यी ने ऐसे कोई संकेत नहीं दिए कि कि सम्मेलन में आखिर किन बड़े मुद्दों पर चर्चा की जाएगी? हालांकि वांग ने कहा कि चीन यह जरूर सुनिश्चित करेगा कि अनौपचारिक बैठक पूरी तरह कामयाब रहे और द्विपक्षीय रिश्तों में मील का पत्थर साबित हो। क्या सफलता का अर्थ यह है कि द्विपक्षीय रिश्ते चीनी आक्रामकता से पैदा हुए डोकलाम विवाद से पहले के स्तर पर पहुंच जाएंगे या फिर चीन सहयोग के नए नजरिये के साथ आगे बढ़ने का इच्छुक है और इसमें वह भारत के हितों को पूरी तवज्जो देगा?
यह अच्छा संकेत है कि दोनों देशों ने डोकलाम में पैदा हुए तनाव को कम करने की दिशा में कदम उठाए। हालांकि ऐसी खबरें भी आईं कि बाद में चीन ने उस इलाके में निर्माण कार्य शुरू कर दिया तो अपने हितों को देखते हुए भारत को भी वहां निगरानी बढ़ानी पड़ी। इस साल फरवरी से ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और विदेश सचिव विजय गोखले जैसे शीर्ष अधिकारी चीनी पक्ष के साथ संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।एससीओ में शामिल देशों के विदेश मंत्रियों की उस बैठक के लिए सुषमा स्वराज के बीजिंग दौरे से यह प्रक्रिया आगे बढ़ी जिसमें सम्मेलन के प्रारूप को अंतिम रूप दिया गया। वांग के साथ बैठक में सुषमा स्वराज ने आंतकवाद विरोधी अभियान, जलवायु परिवर्तन, सतत विकास और हेल्थकेयर जैसे मुद्दों पर चर्चा की। इसमें परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी का कोई उल्लेख नहीं था।
पिछले कुछ महीनों में भारत ने भी दलाई लामा को लेकर चीन की आपत्तियों को खासी तवज्जो दी है। तिब्बतियों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों से सरकार और उसके अधिकारियों ने दूरी बनाए रखी। मोदी-चिनफिंग सम्मेलन ऐसे दौर में हो रहा है जब अंतरराष्ट्रीय संबंध भारी बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। अमेरिका की तरह महाशक्ति बनने की अपनी आकांक्षा को पूरा करने के लिए चीन हरसंभव कोशिश में लगा है। उसने अपना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई का प्रारूप ऐसा बनाया है कि उसे अपने साथ कुछ पिछलग्गू देश मिल जाएं।
चीन को लेकर अपने तमाम विरोधाभासी बयानों से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भ्रम ही पैदा करते हैं, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि चीन की चुनौती का तोड़ निकालने के लिए अमेरिका कुछ कदम जरूर उठा रहा है। चीनी वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ाना इसी दिशा में उठाया गया कदम है। चीन की काट के लिए अमेरिका भारत जैसे देशों के साथ सामरिक रिश्तों को मजबूत बना रहा है। स्वाभाविक रूप से चीन नहीं चाहेगा कि भारत पूरी तरह अमेरिका के पाले में चला जाए। बीते कुछ समय से दुनिया भर में भारत को एक उभरती हुई शक्ति के तौर पर स्वीकृति मिलती जा रही है। मोदी के हालिया स्टॉकहोम दौरे के दौरान स्वीडन के प्रधानमंत्री ने कहा, ‘भारत एक वैश्विक दिग्गज के रूप में उभरा है। चाहे जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हो या सतत विकास, कोई भी प्रमुख वैश्विक विमर्श भारत की राय के बिना पूरा नहीं होता।’ चीन भी भारत के अंतरराष्ट्रीय कद की अनदेखी नहीं कर सकता जो डोकलाम विवाद के दौरान मोदी के दृढ़ एवं संयत रुख के चलते और बढ़ा ही है।
ध्यान रहे कि इस दौरान चीन की टीका-टिप्पणियां और रुख उकसाने वाला ही था। सुषमा स्वराज और वांग यी ने बैठक के बाद कहा कि मोदी और चिनफिंग उन दीर्घावधिक और रणनीतिक मसलों पर चर्चा करेंगे जिनका वास्ता भविष्य के संबंधों से होगा। भारत-चीन संबंधों के साथ ही यह समूचे क्षेत्र के लिए भी सकारात्मक ही कहा जाएगा। इस दौरान मोदी को भी अवसर मिलेगा कि वह चीन के साथ बेहतर संबंधों की दिशा में भारत की आवाज बुलंद करें। यह क्षेत्रीय और वैश्विक हित में होगा। इसके साथ ही चीन को भी यह मंशा जाहिर करनी होगी कि वह सीमा विवाद को सुलझाने के प्रति गंभीर है। उसे भारत के साथ बराबरी का आर्थिक एवं वाणिज्यिक रिश्ता बनाना होगा। जाहिर है कि इसके लिए उसे अपने बढ़-चढ़कर किए जाने वाले उन दावों से पीछे हटना पड़ेगा जिनकी ऐतिहासिक पुष्टि नहीं होती।
भारत-चीन रिश्तों में तमाम बाधाएं इसलिए हैं, क्योंकि चीन आतंकवाद और अन्य मुद्दों पर पाकिस्तान की ढाल बना हुआ है। इसमें एनएसजी सदस्यता का मुद्दा भी शामिल है। बीते दिनों लंदन में भारतवंशियों के साथ बातचीत में मोदी ने पाकिस्तान को आतंक का निर्यातक करार दिया तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए चीन ने आतंक के खिलाफ मुहिम छेड़ने में पाकिस्तान का बचाव किया। अभी तक चीन ने यह भी संकेत नहीं दिए हैं कि वह मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन करेगा या नहीं? अगर अब वह इस प्रस्ताव का समर्थन करता भी है तो भारत को इसे बहुत बड़ी मेहरबानी के तौर पर नहीं देखना चाहिए। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी से जुड़े अपने आर्थिक एवं सामरिक हितों को देखते हुए चीन पाकिस्तान के साथ सभी मोर्चों पर रिश्ते मजबूत बना रहा है। चीन- पाकिस्तान के रिश्तों की बुनियाद अभी तक भारत के प्रति साझा नकारात्मकता पर टिकी हुई थी, लेकिन सीपीईसी ने इन रिश्तों को एक नया आधार दिया है। चीन को डर है कि भारत पाकिस्तान विरोधी बलूच समूहों और अन्य तत्वों को शह देकर उसका खेल बिगाड़ सकता है।
रणनीतिक रूप से भारत ऐसा कर तो सकता है, लेकिन उसने चीनी हितों के खिलाफ कभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सम्मेलन के दौरान सीपीईसी के मोर्चे पर कोई नई बात सामने आती है या नहीं? अगर मोदी चिनफिंग की सोच में बदलाव ला सकते हैं और यह बदलाव उनकी नीतियों में भी दिखता है तो यह इस सम्मेलन की बहुत बड़ी सफलता होगी। इसी तरह अगर चुनावी साल के पहले सीमा पर शांति को लेकर सहमति बनती है तो इसे भी सराहनीय कहा जाएगा। इस सबके बीच भारत को अपने रक्षा मोर्चे को और मजबूत बनाना होगा और साथ ही जापान एवं अन्य एशियाई देशों के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करने होंगे। उसे अपने उन पड़ोसी देशों में भी अपनी पैठ बनानी होगी जहां चीन उसे घेरने के लिए घुसपैठ कर रहा है। मालदीव इसका ज्वलंत उदाहरण है तो श्रीलंका में भी चीनी निवेश भारतीय सुरक्षा के लिए चुनौती खड़ी कर रहा है। इसी तरह नेपाल भी भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और वहां भी चीन का तोड़ निकालना होगा। इस सम्मेलन की मंशा स्वागतयोग्य है, लेकिन भारत किसी मोर्चे पर ढील नहीं दे सकता।
Date:26-04-18
फैजान मुस्तफा
अप्रत्याशित रुख अपनाते हुए सात विपक्षी पार्टियों ने आखिर, भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महा अभियोग चलाए जाने का नोटिस दे ही दिया। उपराष्ट्रपति एवं राज्य सभा के उपाध्यक्ष वेंकैया नायडू ने लगे हाथ इसे नामंजूर भी कर दिया। चूंकि इस प्रकार के नोटिस के गुण-दोष जजेस (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत गठिन जांच समिति द्वारा जांचे जाने का प्रावधान है, इसलिए तर्क-वितर्क का विषय है कि क्या उपराष्ट्रपति अपने से महा अभियोग के गुण-दोष की जांच कर सकते हैं। मामला जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में पहुंच सकता है। ऐसा होता है, तो प्रधान न्यायाधीश को इस बाबत याचिका की सुनवाईके लिए पीठ का गठन नहीं करना चाहिए क्योंकि तभी हमारी न्यायपालिका की विश्वसनीय बचाए रखी जा सकेगी। जस्टिस मिश्रा के खिलाफ एक आरोप यह है कि ‘‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ के तौर पर उन्होंने अपने अधिकारों का मनमाना उपयोग किया।
ग्यारह अप्रैल को प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में पुष्टि की कि पीठों का गठन करने के मद्देनजर प्रधान न्यायाधीश को पूरा अधिकार है। इसी प्रकार का आदेश प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने नवम्बर, 2017 में पारित किया था। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली दफा था, जब एक पीठ के न्यायिक आदेश, जो जस्टिस जे. चेलेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ ने पारित किया था, को चौबीस घंटों के भीतर पलट दिया गया था। जस्टिस एके सीकरी तथा जस्टिस अशोक भूषण की दो सदस्यों वाली अन्य पीठ भी इसी हफ्ते शांति भूषण की याचिका पर विचार करने वाली है। इस प्रकार, मौजूदा संकट के मूल में पीठ का गठन किए जाने का मुद्दा ही प्रमुख है, और प्रधान न्यायाधीश की मुखालफत किए बिना कुछ करना होगा।जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने 11 अप्रैल को दिए अपने 16 पृष्ठीय आदेश में कहा था, ‘‘संवैधानिक विास का संग्राहक होने के नाते प्रधान न्यायाधीश अपने आप में एक संस्थान हैं।’ इसलिए हमसे कहा जाता है कि प्रधान न्यायाधीश के फैसलों पर सवाल न किया जाए। तो इसी तर्क के आधार पर क्या राष्ट्रपति भवन संस्थान नहीं है? क्या प्रधानमंत्री कार्यालय हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण संस्थान नहीं है? क्या संसद सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्थान नहीं है?
इन सवालों के उत्तर सकारात्मक हैं, तो कैसे इन उच्च संवैधानिक पदधारियों के फैसले जब-तब उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा रोक लिए जाते हैं? सच तो यह है कि मनुष्य देवदूत होते तो संवैधानिक तरीकों से लोकसेवकों के अधिकार सीमित करने की जरूरत नहीं पड़ती। न्यायाधीश भी हमारी-आपकी तरह इनसान हैं, इसलिए दोषक्षम होते हैं। न्यायाधीश सरकारी मनमानी से बचने का हमारा आखिरी संबल होते हैं, इसलिएउन्हें सरकारी नियंतण्रसे पृथक बनाए रखना होगा। लेकिन इसी प्रकार का संरक्षण प्रधान न्यायाधीशों की ‘‘प्रशासनिक कार्यवाहियों’ से बचने के लिए भी जरूरी है। इसलिए नागरिक स्वतंत्रताओं को प्रधान न्यायाधीशों के अधिकारों से कोईखतरा महसूस होता है, तो प्रकाश चंद (1998) जैसे मामलों में पूर्व में दिए जा चुके फैसलों, जिनमें प्रधान न्यायाधीश को ‘‘अब्सॉल्यूट’ मास्टर ऑफद रोस्टर कहा गया था, की तत्काल समीक्षा की जानी चाहिए।
संवैधानिक रूप से देखें तो न्यायपालिका अनुच्छेद 12 के तहत ‘‘राज्य’ नहीं है। लेकिन नरेश एस. मिराजकर (1967) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं अदालत के ‘‘न्यायिक’ और ‘‘प्रशासनिक’अधिकारों के बीच अंतर किया था। इसलिए जब प्रधान न्यायाधीश ‘‘प्रशासनिक’ क्षमता में कोईफैसला करते हैं, तो उनके कार्य यकीनन समानता के अधिकार सहित मूलभूत अधिकारों का विषय होते हैं। समानता का अधिकार में मनमानेपन के खिलाफ अधिकार निहित है। ईपी रोयप्पा (1973) मामले ने सुप्रीम कोर्ट ने समानता संबंधी संरक्षण को विस्तार दिया जब उसने कहा कि ‘‘सकारात्मकता से देखें तो समानता मनमानेपन की विरोधात्मक है। वास्तव में, समानता और मनमानापन एक दूसरे के कट्टर शत्रु हैं; एक का गणतंत्र में कानून के शासन से वास्ता है, तो वहीं दूसरा पूरी तरह से किसी अधीश्वर की सनक और मर्जी से जुड़ा है।’
तुलसीराम पटेल (1985) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की पालना न होना भी समानता के अधिकार का हनन है। इसलिए प्रधान न्यायाधीश की अपने अधिकारों संबंधी मामलों में शिरकत प्राकृतिक न्याय के मूलाधिकार में विास रखने यानी ‘‘कोई भी अपने मामले में जज नहीं होगा’ जैसा सोचने वालों को नहीं जंचता। सुप्रीम कोर्ट रूल्स, 2013, जो संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत बनाए गए हैं, कहते हैं कि प्रधान न्यायाधीश मास्टर ऑफरॉल्स हैं। लेकिन पीठों का गठन एक ‘‘प्रशासनिक कार्य’है, इसलिए यह कार्य प्रधान न्यायाधीश की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए पीठ का गठन ‘‘कानूनन’ भले ही उल्लंघना न हो लेकिन यकीनन ‘‘कानून के शासन’ के आदशरे के विपरीत है। कई दफा कानून की भावना कानून से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।
कहना न होगा कि सभी न्यायाधीश समान हैं, वरिष्ठता का पीठ के गठन पर कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन समानता का यह भी तात्पर्य होता है कि कनिष्ठ न्यायाधीशों को वरिष्ठ न्यायाधीशों की तरह देखा जाए। उन्हें संवैधानिक पीठों से दूर रखने का यकीनन गलत संकेत गया है। चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा संवाददाता सम्मेलन करने के उपरांत प्रधान न्यायाधीश ने जो रोस्टर तैयार किया था, उसमें कुछ विषयों को एक से ज्यादा न्यायाधीशों को सौंप दिया गया। प्रधान न्यायाधीश अपने से ही तय कर रहे हैं कि किसे कौन सा मामला दिया जाए। इसलिए कह सकते हैं कि स्थिति में सुधार नहीं है। सबसे बड़ी बात तो यह कि प्रधान न्यायाधीश ने सभी महत्वपूर्ण मामलों को अपने लिए रख छोड़ा है। लेकिन उनके पास मौका है कि पीठ के गठन संबंधी सुप्रीम कोर्ट रूल्स में संशोधन की दृष्टि से सक्रियता दिखाएं। ऐसी प्रक्रिया बनाईजाए कि पीठों के गठन को लेकर किसी के पास मनमाने अधिकार न हों। मुख्य न्यायाधीश को अपने से आगे आकर ऐसी प्रक्रिया की तैयारी के लिए पहल करनी चाहिए ताकि भविष्य में पीठों के गठन में मनमानी की गुंजाइश रहने ही न पाए।
Date:26-04-18
चंदन कुमार शर्मा, प्रोफेसर, तेजपुर विश्वविद्यालय, असम
केंद्रीय गृह मंत्रालय का पूरे मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी अफ्स्पा को हटाने का फैसला स्थानीय लोगों की एक बड़ी मांग को मानना है। पूर्वोत्तर में इस अधिनियम के खिलाफ लोगों में काफी नाराजगी रही है। यह भी एक सच है कि इन इलाकों में सेना को कठिन परिस्थितियों में उग्रवादियों से मुकाबला करना पड़ता है, लेकिन इसके लिए इनके पास असीमित अधिकार नहीं होने चाहिए, क्योंकि उनके बेजा इस्तेमाल का खतरा बढ़ जाता है। पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए अफ्स्पा एक ऐसा ही कानून रहा है। ऊपरी तौर पर इसे अमन के लिए बनाया गया कानून कहा जा सकता है, लेकिन स्थानीय स्तर पर यह दमन की राह पर जाता दिखता है।
अफ्स्पा की एक दिक्कत तो यह है कि इसकी जड़ गुलाम भारत में है। साल 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन आकार ले रहा था, तो यह कानून ‘आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल ऑर्डिनेंस’ के रूप में मौजूद था। इसी तरह, 1947 में बंटवारे के समय बने हालात को काबू करने के लिए असम, बंगाल, मध्य प्रांत जैसे इलाकों में सेनाओं को विशेष अधिकार दिए गए। आजाद भारत में भी ‘असम डिस्टब्र्ड एरिया एक्ट’ बना, जो नगालैंड (उस समय यह असम का हिस्सा था) में पनप रही नगा अलगाववादी ताकतों के खिलाफ था। यहां 1958 में अफ्स्पा लागू किया गया था। असम में तो साल 1990 में यह कानून लागू हुआ। वहीं मेघालय व अरुणाचल प्रदेश में अफ्स्पा 1991 में लगा। हालांकि इन दोनों राज्यों में कोई अशांति नहीं थी, पर क्योंकि इनकी सीमा असम से मिलती है और मेघालय के भीतर 20 किलोमीटर तक के सीमावर्ती क्षेत्र ‘डिस्टब्र्ड एरिया’ घोषित किए गए थे, इसलिए यहां भी यह कानून लागू किया गया। अच्छी बात यह है कि पिछले साल 1 अक्तूबर से इस ‘एरिया’ को घटाकर 10 किलोमीटर कर दिया गया, और अब मेघालय में तो अफ्स्पा पूरी तरह हटा ही दिया गया है। अरुणाचल प्रदेश के भी आठ पुलिस थाने इसके दायरे से बाहर कर दिए गए हैं। इस तरह, अब अरुणाचल प्रदेश के तीन जिलों (म्यांमार की सीमा के नजदीक) और आठ पुलिस थाना क्षेत्रों में ही यह कानून लागू है, जहां उल्फा और नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड यानी एनएससीएन (खापलांग) उग्रवादी सक्रिय हैं। खबर यह भी है कि असम सरकार भी इसे अपने यहां से हटाने की सोच रही है।
इस कानून के खिलाफ पूर्वोत्तर के लोगों का गुस्सा भी गलत नहीं है। यहां के लोगों को इस कानून से खट्टे अनुभव ही ज्यादा मिले हैं। असल में, यह कानून किसी ‘नॉन कमिशंड’ सैनिक को भी हद से अधिक अधिकार देता है। अगर सैनिक को यह लगता है कि किसी शख्स से कोई खतरा है, तो वह न सिर्फ उसे बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है, बल्कि गोली भी मार सकता है। संदेह के आधार पर वह किसी घर की तलाशी ले सकता है, और सबसे बड़ी बात यह है कि उस सैनिक पर कोई मुकदमा भी नहीं चल सकता। कुछ विश्लेषक अशांत इलाकों में अफ्स्पा की खूब वकालत करते हैं, पर पूर्वोत्तर से इसके दुरुपयोग की खबरें ज्यादा आई हैं। जिसे हम राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं, वह इस स्थिति को करीब-करीब नजरअंदाज करता रहा है, लेकिन स्थानीय अखबार ऐसी खबरों से भरे रहते हैं। यहां पर हमेशा ही सवाल यह उठता रहा है कि उग्रवाद के खिलाफ लड़ने के नाम पर पूरे समाज पर ‘फौजी शासन’ थोप देना भला कहां तक उचित है? इरोम शर्मिला ने इन्हीं सबको देखते हुए साल 2000 में अपना ऐतिहासिक अनशन शुरू किया था।
इस कानून के खिलाफ लोगों के आक्रोश ने उस वक्त नया मोड़ लिया, जब मणिपुरी महिला थंगजाम मनोरमा के बलात्कार और हत्या की सूचना आई। आरोप था कि इस बर्बर कांड में असम राइफल्स के कुछ जवान शामिल थे और उनके खिलाफ सुबूत होने का दावा भी किया गया था, पर उन्हें कोई सजा नहीं मिली। इस विरोध को तब और हवा मिली, जब नवंबर 2004 में बने जस्टिस जीवन रेड्डी आयोग ने ‘सिंबल ऑफ हेट’ यानी नफरत का प्रतीक कहकर अफ्स्पा को गलत बताया था। संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी इस कानून पर सवाल उठाए गए हैं और हमारी शीर्ष अदालत भी इसके खिलाफ अपना मत जाहिर कर चुकी है।
इस लिहाज से यह सचमुच सुकूनदेह है कि सरकार ने इस कानून को कुछ इलाकों से हटाने का फैसला लिया है। यह एक अच्छी पहल है। मगर मैं इसे शुरुआती कदम मानता हूं, क्योंकि अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि भविष्य में इन क्षेत्रों में यदि अशांति बढ़ी, तो इसका फिर से इस्तेमाल होगा या नहीं। स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने के लिए इस कानून को पूरी तरह हटाना ही उचित है। कोई भी यह कह सकता है कि ऐसा करने से यहां की अलगाववादी ताकतें फिर से सिर उठा सकती हैं, मगर इससे इत्तफाक रखने की कोई वजह नहीं दिखती। हमारा कानून इतना सक्षम है कि वह ऐसी शक्तियों को जरूरी सजा दे सके। हां, इनमें कुछ कमियां हैं, जिन्हें दूर करने की जरूरत है।
आज पूर्वोत्तर को रचनात्मक नजरिए और चौतरफा विकास की जरूरत है। अफ्स्पा चूंकि एक अलोकतांत्रिक और गैर-जिम्मेदारी वाला कानून है, इसलिए इसे पूरी तरह से खत्म करना चाहिए। जरूरत यहां की कुछ अन्य मांगों पर भी गौर करने की है। जैसे, प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक को रद्द करना। स्थानीय लोग मानते हैं कि इस विधेयक के लागू होते ही यहां मौजूद अवैध हिंदू बांग्लादेशी स्वत: भारत के नागरिक बन जाएंगे, जिससे यहां का पूरा सामाजिक ताना-बना बिगड़ जाएगा। इसके अलावा, यहां के लोग अरुणाचल प्रदेश में प्रस्तावित बड़े बांधों के भी खिलाफ हैं। इन बांधों के बन जाने से स्थानीय लोगों के रहन-सहन पर बड़ा असर पड़ेगा। हालांकि इसे लेकर उठाई जा रही मांगों को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। ऐसे में पूर्वोत्तर के लोगों का विश्वास जीतने के लिए केंद्र व राज्य, दोनों सरकारों को मिलकर एक संवेदनशील समग्र नीति बनानी होगी, और उसी पर आगे बढ़ना होगा।
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उत्तर लिखने के अभ्यास के लिए प्रश्न – 153
28 Apr 2018
प्रश्न-153 – “यदि प्रतिनिधित्व नहीं, तो कर नहीं।” अमरीकी स्वतंत्रता आंदोलन के इस आदर्श वाक्य की पृष्ठभूमि में वर्तमान संसद के कामकाज का परीक्षण कीजिये। (200 शब्द)
Question–153 -“No taxation without representation.” Examine the working of the current parliament in the backdrop of this famous slogan which got popular during the American Revolution. (200 words)
नोट: इसका उत्तर आपको हमें नहीं भेजना है, यह आपके स्वयं के अभ्यास के लिए है।
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28-04-2018 (Important News Clippings)
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Date:28-04-18
ET Editorials
The government’s decision to reject the collegium’s recommendation to elevate Chief Justice of the Uttarakhand High Court Justice KM Joseph to the Supreme Court has reignited the debate on the independence of the judiciary. For a robust democracy, an independent judiciary is non-negotiable. As is transparency for such an institution. GoI is well within its right to reject the collegium’s recommendations. In this instance, it has cited ‘seniority’ and ‘diversity’. These reasons are not good enough for the collegium to relent. As the system of appointing judges stands, if the collegium does reiterate its decision, then the government should accept it, instead of jeopardising the system in place.
Transparency in the matter of selection and non-selection of some of the judges may have been in short supply. Which is why it isn’t surprising that the government’s critics are shouting ‘political vendetta’— allegedly retribution for Joseph’s decision to quash the imposition of President’s Rule in Congress-ruled Uttarakhand in 2016. To quash this line of thinking, and what GoI can shrug off as conspiracy theories but others may not, it needs to stop going into a head-on collision with its partners in the process, the collegium.
A quick resolution is then in the offing. A more transparent and accountable system of appointing judges is probably needed to avoid a situation where charges of ‘old boys’ network’ versus ‘political appointments’ keep popping up. But perhaps more importantly, a more amicable way of dealing with each other – even if there was disagreement in the choice of judges made or ‘stalled’ – must be maintained.
The government could have avoided this fracas if it had presented its position with better form. It would control the damage done once it accepts the collegium’s decision. This won’t impose on the independence of the judiciary, even as it provides for the vetting and accountability of the collegium system to remain intact. Which is, and should be, of paramount interest to all parties.
Date:28-04-18
ET Editorials
The Prime Minister’s Office has reportedly cleared the labour ministry’s proposal to launch a universal social security cover for 500 million workers, which includes farmers. The intent is laudable, given that most of our workforce is in the unorganised sector without any right to use institutional social security.But implementation costs and fiscal capacity to absorb the scheme must be weighed in. Estimates suggest that GoI will require about Rs 2 lakh crore when the scheme is fully rolled out for the lower 40% of the country’s workforce.
The remaining 60% is expected to make contributions out of their own pocket, either fully or partially. But any sharp cutback in public investment for this purpose will depress growth at a time when the private sector’s animal spirits are still dormant. The investment rate, stuck at about 28.5% in current prices, should rise to spur growth. The need is also for fiscal discipline to make growth sustainable.
Any widening of the fiscal deficit will fuel inflation and slow down growth. The social security scheme must be funded by axing inefficient subsidies—such as subsidised urea and free power to farmers offered by many states. Maximising investment, and not consumption out of public finances, will help lower the fiscal deficit. The implementation of the goods and services tax (GST)—that will lead to an increase in the taxpayer base and boost collections—offers hope.Public finances will improve as large swathes of the informal sector come under GST, providing fiscal space to meet welfare commitments. Reforms in direct taxes should complement this effort.
Many developed countries extend coverage to the unorganised sector under separate funds, or bring them gradually under the general system. In some countries, non-covered workers become eligible for the right to an eventual pension if they make voluntary contributions at a specified level.With greater formalisation of the Indian economy, workers should contribute to the National Pension System (NPS). Employers’ contribution, too, would go to the NPS, which provides a regulated institutional framework for pension funds to manage retirement savings and generate superior returns. This will lower the burden on the exchequer.
Date:28-04-18
न्याय और शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी सुधार के साथ इंटरनेट, फिल्मों व विज्ञापनों में अश्लीलता रोकनी होगी।
वेदप्रताप वैदिक , (भारतीय विदेष नीति परिषद के अध्यक्ष)
पहले जम्मू-कश्मीर के दो भाजपा मंत्रियों के इस्तीफे, फिर उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायक की गिरफ्तारी और अब आसाराम को मिली उम्र-कैद ने दुष्कर्म को इतनी राष्ट्रीय चिंता का विषय बना दिया है कि सरकार को दुष्कर्म-विरोधी अध्यादेश जारी करना पड़ा। दुष्कर्मियों के साथ सरकार की भी कड़ी निंदा होने लगी। संयुक्त राष्ट्र तक भारत की शिकायत गई। न्यूयॉर्क और लंदन के अखबारों ने संपादकीय लिखकर इन दुष्कर्मों की भर्त्सना की। 2013 में हुए ‘निर्भया कांड’ के बाद अब दुष्कर्म पर देश का गुस्सा फिर फूटा है। यदि इन घटनाओं से नेताओं और कुख्यात ‘संत’ का संबंध नहीं होता तो ये भी दरी के नीचे सरक जातीं। 2016 में बच्चियों के साथ हुए दुष्कर्मों की संख्या 64,138 थी। ये वे हैं, जिनकी रिपोर्ट लिखवाई गई है। डर और बदनामी के मारे हजारों दुष्कर्मों को छिपा लिया जाता है। दुष्कर्म के मुकदमों में मुश्किल से 3-4 प्रतिशत को सजा मिलती है। बच्चियों से दुष्कर्म करने वालों में 98 प्रतिशत लोग उनके रिश्तेदार होते हैं या परिचित! ‘निर्भया कांड’ के बाद बने सख्त कानून के बावजूद 2015-16 में बाल-दुष्कर्म में 82 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
दुष्कर्म रोकने के लिए सरकार ने अब कानून को पहले से भी ज्यादा सख्त बना दिया है। यह स्वागत योग्य है लेकिन, क्या सिर्फ कानून को सख्त बना देना काफी है? पहले इस कानून पर ही विचार करें। यह प्रावधान तो सराहनीय है कि दुष्कर्म के लिए न्यूनतम सजा 7 वर्ष की बजाय 10 वर्ष कर दी गई है और मृत्युदंड को अधिकतम सजा कर दिया गया है। लेकिन, अलग-अलग उम्र की लड़कियों से दुष्कर्म करने पर अलग-अलग सजा का प्रावधान क्यों? 12 वर्ष से कम की लड़की से दुष्कर्म पर मृत्युदंड, 16 वर्ष से कम हो तो उम्र-कैद! यदि वह महिला 70 वर्ष की हो तो दुष्कर्मी की सजा क्या बहुत कम हो जाएगी? उम्र से दुष्कर्म का क्या लेना-देना? हर दुष्कर्मी को कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। यह प्रावधान बहुत अच्छा है कि दुष्कर्मी को अग्रिम जमानत नहीं दी जाएगी लेकिन, यह देखना होगा कि इसकी आड़ में निर्दोष लोगों का फंसाया न जाए। यह भी प्रावधान है कि दो माह में उनकी जांच होगी और दो माह में मुकदमे का फैसला आ जाएगा। अपील भी छह माह से ज्यादा नहीं खिंचेगी। ये प्रावधान देखने में अच्छे लगते हैं लेकिन, इन्हें सरकार लागू कैसे करेगी? हर जिले में विशेष अदालत कैसे बनाएगी? इतने जज व कारकून कहां से लाएगी? दुष्कर्म के मौजूदा मुकदमे निपटाने में ही कम से कम 20 साल लगेंगे। देश की अदालतों में लगभग तीन करोड़ मुकदमे अधर में लटके हुए हैं।
यूं भी दुष्कर्मियों को सजा देना आसान नहीं है। दुष्कर्म कौन करता है? बलवान करता है। प्रायः मालदार, नेता, अधिकारी, रसूखदार, प्रभावशाली, बलशाली लोग ही ज्यादातर ऐसे कर्म करते हैं। वे अपने बचाव के लिए साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग करते हैं। आसाराम के मामले को ही लगभग पांच साल लग गए। सजा से बचने के लिए क्या-क्या गोटियां नहीं खेली गईं? तीन गवाहों की हत्या कर दी गई। शेष की जान खतरे में डाल दी गई। उन्हें करोड़ों रुपए की रिश्वत देने की कोशिश की गई। जमानत के लिए सर्वोच्च न्यायालय पर डोरे डाले गए। खराब स्वास्थ्य के फर्जी प्रमाण-पत्र पेश किए गए। सरकार और अदालतों पर दबाव डालने के लिए प्रदर्शन करवाए गए। जब इन हथकंडों से भी बात नहीं बनी तो कुछ नेताओं से कहकर सारे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गईं किसी हिंदू संत को ही क्यों फंसाया जा रहा है। यदि कोई दुष्कर्मी सचमुच का संत हो और उससे एेसा अपराधा हो गया हो तो वह खुद प्रायश्चित करेगा, अपने लिए सजा-ए-मौत मांगेगा और सजा के पहले ही वह आत्महत्या कर लेगा।
मैं तो शाहजहांपुर की उस बहादुर बेटी, उसके माता-पिता और उन सब गवाहों की हिम्मत की दाद देता हूं, जिन्होंने जान की परवाह किए बिना यह मुकदमा लड़ा। लेकिन, मैं पूछता हूं कि देश में ऐसे बहादुर लोग कितने हैं? कानून तो आपने कठोर बना दिया लेकिन, लोग तो नरम हैं। दुष्कर्मी रिश्तेदार को सजा-ए-मौत होगी, यह सुनकर ही लोग अपनी बच्ची के मुंह पर क्या पट्टी नहीं बांध देंगे? यदि मुकदमा लड़ने का इरादा बना भी लिया तो वे पैसा कहां से लाएंगे? जिन लड़कियों और महिलाओं के साथ दुष्कर्म होता है, उनमें से ज्यादातर गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, पिछड़ी और अनुसूचित जाति की होती हैं। उनकी रक्षा भारत की यह खर्चीली न्याय-प्रणाली कैसे कर सकती है? यह न्याय-प्रणाली खर्चीली ही नहीं है बल्कि जादू-टोने की तरह है। यह ऊपर से नीचे तक अंग्रेजी के कीचड़ में सनी हुई है। वकील क्या बहस कर रहा है और जज क्या फैसला कर रहा है, यह मुवक्किल को पता ही नहीं चलता यदि देश में दुष्कर्म-जैसे अपराध घटाने हैं तो सबसे पहले न्याय-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करने होंगे। इसके साथ-साथ दुष्कर्म की सजा ऐसी भयंकर बनानी होगी कि किसी भी भावी दुष्कर्मी की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ने लगे। दुष्कर्म पर किसी को उम्र-कैद या फांसी की सजा दी जाए और उसे जेल में ही चुपचाप भुगता दिया जाए तो उसका असर क्या होगा? उसका समाज में गहरा और व्यापक असर हो, इसके लिए जरूरी है कि यह सजा दिल्ली के लाल किले या विजय चौक पर दी जाए। जो लोग मृत्युदंड का विरोध इसलिए करते हैं कि उसका कोई स्पष्ट असर समाज पर दिखाई नहीं पड़ता, वे ठीक कहते हैं। समाज पर असर का रास्ता मैंने सुझाया है।
इसके बावजूद दुष्कर्मों पर नियंत्रण सिर्फ कानून से नहीं हो सकता। क्या हमने कभी सोचा कि इन बढ़ते हुए दुष्कर्मों के लिए इंटरनेट, अर्धनग्न विज्ञापनों, अश्लील फिल्मों, साहित्य और दृश्यावलियों तथा संस्काररहित शिक्षा की जिम्मेदारी कितनी है? सबसे ज्यादा है। इन पर कठोर प्रतिबंध की जरूरत है। अफ्रीका के कुछ देशों में व्याप्त दुष्कर्म को रोकने के लिए पाठशालाओं में लड़कियों को मुठभेड़ करने का प्रशिक्षण दिया जाता है और लड़कों से उनकी रक्षा का व्रत लिवाया जाता है। उसके चमत्कारी परिणाम सामने आए हैं। भारत की प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में ब्रह्मचर्य का अत्यधिक महत्व था लेकिन, अब तो उसका नाम लेने में भी हमारे नेताओं को संकोच होता है। उस शिक्षा-प्रणाली में बच्चों को सिखाया जाता है कि ‘मातृवत परदारेषु’ यानी पराई स्त्री को माता के समान समझो। जब तक हमारी न्याय व्यवस्था और शिक्षा-व्यवस्था में बुनियादी सुधार नहीं होंगे, दुष्कर्म पर नियंत्रण कर पाना लगभग असंभव ही होगा।
Date:28-04-18
संक्रान्त सानू , (माइक्रोसॉफ्ट में काम कर चुके लेखक आइआइटी स्नातक हैं)
संप्रग सरकार ने 2009 में शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम पारित किया। तब अन्य विपक्षी दलों के साथ भाजपा ने भी इसका साथ दिया। भला नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का विरोध कौन कर सकता था, पर क्या आप जानते हैं कि शिक्षा अधिकार के नाम पर बने इस अधिनियम से देश भर में हजारों स्कूल बंद हो गए हैं? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि आरटीई निजी विद्यालयों की स्वतंत्रता पर आघात करता है। इस अधिनियम के जरिये एक शहरी सोच सब स्कूलों पर लागू की गई। स्कूल में इतने कमरे होने चाहिए, इस प्रकार का प्लेग्राउंड होना चाहिए और उसमें चारों ओर बाड़ इत्यादि होनी चाहिए। शायद यह भूल जाया गया कि हमारे गुरुकुल पेड़ के नीचे भी शिक्षा दे देते थे। उक्त अधिनियम के तहत स्कूल होने के लिए दो शिक्षकों की आवश्यकता तय की गई। यह कोई मुश्किल नियम नहीं लगता, पर यह भी तो हो सकता है कि किसी दूरस्थ इलाके में कोई एक शिक्षक एकल विद्यालय चलाए। आखिर इसमें रोक क्यों? स्कूल के लिए केवल दो आवश्यकताएं हैं-एक शिक्षक और एक शिक्षार्थी। 1931 में गांधी जी ने अंग्रेजी राज की आलोचना करते हुए कहा था, भारत आज पचास साल पहले से कहीं अधिक अनपढ़ हैं।
दरअसल जब अंग्रेज शासक भारत आए तो वे यहां की पूरी व्यवस्था बदलने लगे। गांव के स्कूलों में भी उन्होंने अपने नियम जड़ दिए। एक तो अंग्रेजी सोच वाले स्कूल गांवों में नहीं थे और जो थे उन्हें अमान्य कर दिया गया। जो स्कूल यूरोपीय सोच पर आधारित थे वे आम लोगों के लिए बहुत महंगे थे। आरटीई को उपनिवेशवाद का दूसरा चरण कहना अनुचित न होगा। पहले तो यह अधिनियम सब स्कूलों को एक ही माप से तौलता है और दूसरे इसका शिक्षा से लेना-देना नहीं नजर आता। आठवीं के बच्चे को आठ साल की शिक्षा के बाद क्या सीखना चाहिए, यह इस अधिनियम में कहीं नहीं है। इसमें कुछ न सीखने पर जोर है।
आरटीई के अनुसार कुछ न सीखने पर भी बच्चे को कक्षा में रोका नहीं जा सकता और उसे निकाला भी नहीं जा सकता। न कुछ सीखने की चाह रखने में भी उसे कक्षा में रखना अनिवार्य है। आरटीई अधिनियम की सोच में स्कूल एक चिड़ियाघर समान है, जिसमें बच्चों को बाड़ और दीवारों में बंद रखकर आठ साल बाद जंगल में छोड़ दिया जाए, चाहे वह कुछ सीखे या नहीं। कहने को आरटीई शिक्षा का अधिकार है, लेकिन आखिर यह कौन सा अधिकार है जो जबरन लागू किया जा रहा है और जिसमें अभिभावकों के पास कोई विकल्प नहीं? पश्चिमी देशों में जहां शिक्षा की अनिवार्यता है वहां होम-स्कूलिंग यानी घर पर शिक्षण-प्रशिक्षण का विकल्प भी है। आरटीई यह अधिकार भी अभिभावकों से छीन लेता है। आज की शिक्षा का हाल यह है कि बच्चा 12 साल पढ़ाई करने के बाद प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लग जाता है। 12 साल की शिक्षा के बाद भी वह किसी काम का नहीं होता। अभिभावक बहुत आशा से पैसा खर्च कर उसे कॉलेज भेज देते हैं, लेकिन वहां पढ़ने के बाद भी उसे नौकरी मिलना दुर्लभ होता है। एक तरह से 15-16 साल की शिक्षा व्यर्थ जाती है और छात्र कुछ सीख नहीं पाता।
मुझे एक ऐसी युवती मिली जो पीजी करके भी किसी के घर में खाना बनाने की नौकरी कर रही है। जो उसने अपनी मां से घर में सीखा वह उसकी सारी औपचारिक शिक्षा से कहीं अधिक लाभदायक सिद्ध हुआ। ऐसा नहीं है कि शिक्षा व्यर्थ है, पर उसकी अनिवार्यता लादना अधिकार नहीं, अधिकारों का हरण है। अभिभावकों और विद्यार्थियों के पास यह विकल्प होना चाहिए कि वे किस प्रकार की शिक्षा का चयन करें। हर छात्र के लिए एक ही ढर्रे की स्कूली शिक्षा उपयुक्त नहीं। बच्चे घर पर भी अपनी पसंद के व्यवसाय के अच्छे हुनर सीख सकते हैं।
पुरातन काल में ऐसा ही होता था। मैं एक ऐसी मां को जानता हूं जो अमेरिका से लौटी और उसने अपने बच्चों को कई साल घर पर ही पढ़ाया। इस दौरान उसने अपनी बच्चों को संस्कृत आधारित शिक्षा दी। इसकेआधार पर उन बच्चों को अमेरिका के स्टैनफोर्ड जैसे सर्वोच्च विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया। कहने का मतलब है कि सबको एक प्रकार की शिक्षा में, एक प्रकार के नियमित विद्यालय में शिक्षा अधिकार के नाम पर जबरन डालना उपयुक्त नहीं। आरटीई का यह पहलू लाभदायक हो सकता है कि निजी स्कूल कुछ प्रतिशत बच्चे गरीब वर्ग से अवश्य लें और उन्हें नि:शुल्क शिक्षा दें, लेकिन इसमें दो समस्याएं हैं। पहला तो सरकार ने मान लिया है कि उसके चलाए विद्यालय शिक्षा देने में असमर्थ हैं। हर उन्नत देश में सरकारी स्कूल अच्छे से चल रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी 95 फीसद बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। वहां सबसे अच्छे स्कूलसरकारी हैं और एक क्षेत्र के सभी बच्चे इन्हीं स्कूलों में जाते हैं। चीन में भी करीब सब बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं और अपनी ही भाषा में सभी विषय पढ़ते हैं। आखिर भारत में ही क्यों निजी स्कूलों का चलन है और क्यों अभिभावक ऐसे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना पसंद करते हैं? सरकार अच्छे स्कूल चला पाने की विफलता निजी स्कूलों पर क्यों लाद रही है?
आरटीई में एक सांप्रदायिक समस्या भी है। आरटीई निजी स्कूलों पर बोझ डालता है और जो उसके मानदंड पूरे नहीं करते उन्हें बंद करने का अधिकार सरकार को देता है। शिक्षा अधिकार अधिनियम के दायरे में वे ही स्कूल हैं जिन्हें बहुसंख्यक यानी हिंदू चलाते हैं। अल्पसंख्यक स्कूलों पर शिक्षा अधिकार अधिनियम लागू नहींहोता। आखिर अल्पसंख्यकों के स्कूल बच्चों के भविष्य निर्माण में हाथ क्यों नहीं बंटा सकते? ऐसे नियमों से सांप्रदायिक भेद पनपता है। दरअसल आरटीई भी एक कारण है जिसके चलते कर्नाटक का लिंगायत समाज खुद को हिंदू समाज से इतर अल्पसंख्यक समाज का दर्जा पाना चाहता है। माना जाता है कि जैन समाज ने भी इसी कारण खुद को अल्पसंख्यक घोषित कराना उचित समझा ताकि उसके स्कूल सरकारी दखल से मुक्त हो जाएं।
विश्व का कोई भी सेक्यु लर देश संप्रदाय के आधार पर भेदभाव करने वाले नियम नहीं बनाता, लेकिन आरटीई भेदभाव को ही बयान करता है। इसका हल क्या है? पहले तो सरकार को स्कूलों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की नजर से देखना बंद करना चाहिए। दूसरे, यदि सरकार स्कूली शिक्षा प्रदान करने में अपने को असफल मानती है तो फिर वह हर अभिभावक को एक निश्चित रकम के वाउचर दे सकती है जिसका इस्तेमाल वे किसी भी निजी स्कूल में कर सकते हैं।सरकार को चाहिए कि वह निजी स्कूलों को और अधिक स्वतंत्रता दे और उनका मूल्यांकन दीवारों एवं खेल के मैदान आदि से नहीं, बल्कि उनमें पढ़ रहे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा से करे। मातृभाषा माध्यम के स्कूलों को अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए, क्योंकि इससे बच्चे के विकास में सहूलियत मिलती है। आरटीई को बच्चों पर शिक्षा थोपने की जगह, उनके प्रतिभा के विकास के लिए अलग- अलग प्रयोग करने चाहिए। सरकार का काम निजी शिक्षा को प्रोत्साहन देने और शिक्षा का स्तर बढ़ाने का होना चाहिए। शिक्षा के नाम पर चलाया जा रहा शिक्षा अधिकार अधिनियम इसके विपरीत है।
Date:27-04-18
शशांक, पूर्व विदेश सचिव
अमेरिका में एच-4 वीजाधारकों को काम करने की अनुमति देने वाला प्रावधान अब खत्म किया जा रहा है। यह वीजा एच-1बी वीजाधारक के जीवनसाथी को दिया जाता है। यदि यह प्रस्ताव कांग्रेस (अमेरिकी संसद) में मंजूर हो जाता है, तो एच-1बी वीजाधारक की पत्नी या पति अमेरिका में काम नहीं कर सकेंगे। साफ है, यह फैसला भविष्य में अमेरिका जाने या अमेरिकी कंपनियों में काम करने का सपना पालने वाले भारतीयों को हतोत्साहित करने वाला है, जबकि एच-1बी वीजा के कोटे में पहले ही कटौती हो चुकी है। हालांकि अमेरिकी कंपनियां भी इसके असर से अछूती नहीं रहेंगी। फैसले से उन्हें भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में खासा धक्का लगने वाला है, इसीलिए वे भी इसका मुखर विरोध कर रही हैं। मगर उन्हें सफलता तभी मिलेगी, जब कांग्रेस में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट सांसद यह समझेंगे कि पुराने अधिनियम को खत्म करना अमेरिका की आर्थिक सेहत के लिए ठीक नहीं। इतना ही नहीं, अमेरिकी कंपनियों को अब एच-4 वीजाधारकों की जगह न सिर्फ नई नियुक्ति करनी होगी, बल्कि उन्हें उचित प्रशिक्षण भी देना पड़ेगा। जाहिर तौर पर इस काम में काफी समय लगेगा।
इस फैसले से एक और संदेश निकल रहा है। यह बताता है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप काफी जल्दी में हैं, इसलिए ताबड़तोड़ फैसले कर रहे हैं। साल 2020 में वहां राष्ट्रपति चुनाव होना तय है। ट्रंप संभवत: ऐसे फैसलों से चुनाव में सियासी फायदा उठाने की सोच रहे होंगे। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में भी उन्होंने ‘अमेरिका को फिर से महान बनाने’ का भरोसा दिलाते हुए तमाम तरह के वायदे किए थे। यह अलग बात है कि उनमें से कई अब तक अधूरे हैं, और वह शायद उन्हें ही पूरा करने की जल्दबाजी में हैं। अमेरिका को ऐसे फैसले इसलिए भी लेने पड़ रहे हैं, क्योंकि वहां का पारंपरिक उद्योग खत्म होता जा रहा है। ‘रस्ट बेल्ट’ यानी उन इलाकों का दायरा लगातार बढ़ रहा है, जहां उद्योग सिमट रहे हैं। रोजगार भी अब ज्यादातर पूर्वी व पश्चिम तटीय इलाकों में सीमित होते जा रहे हैं। संभवत: इसीलिए अमेरिकी मुखिया विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की खुली अर्थव्यवस्था वाली नीति से हटने की वकालत भी करते हैं। हालांकि संरक्षणवाद की ओर उनका इस कदर तेज कदम बढ़ाना दुनिया में ‘ट्रेड वार’ की शुरुआत भी करा सकता है।
ऊपरी तौर पर यह फैसला भले ही भारतीयों के खिलाफ दिखे, मगर मैं इसमें एक उम्मीद भी देख रहा हूं। मेरी नजर में भारतीय व अमेरिकी कंपनियां भारत के अंदर या उन देशों में, जहां ऐसा कोई प्रावधान न हो, मिलकर काम करें, तो दोनों को काफी फायदा हो सकता है। भारत में ‘मेक इन इंडिया’ या ‘स्किल डेवलपमेंट’ जैसे अभियान गति पकड़ सकते हैं। वहीं, दूसरे देशों में भी ऐसा कोई सिस्टम तैयार किया जा सकता है, जहां से अमेरिकी कंपनियों को कुशल हाथ मिल सकें और हमें रोजगार। ‘इंडो पैसिफिक रीजन’ (हिंद और प्रशांत महासागर का हिस्सा) या एशिया-अफ्रीका विकास गलियारा ऐसे ही क्षेत्र हैं। वैसे भी, चीन जिस तेजी से अपनी आर्थिक और सामरिक गतिविधियां आगे बढ़ा रहा है, उसके मद्देनजर भारत के लिए जरूरी है कि मित्र देशों के साथ मिलकर क्षेत्रीय संतुलन बनाए।
अच्छी बात यह है कि हमारी सरकार ने इस दिशा में संस्थागत फ्रेमवर्क बना लिया है और राजनीतिक घोषणाएं भी कर रही है, लेकिन जमीन पर उतनी तेजी से काम होता नहीं दिख रहा। हालांकि हमारे पक्ष में एक बात यह भी है कि चीन अन्य देशों में जमीन आदि लीज पर लेकर काम करता है, लेकिन हम ऐसी नीतियों का पोषण नहीं करते। ऐसे में, हम एक ऐसा वैकल्पिक रास्ता तलाश सकते हैं, जिसमें मेजबान देशों के हितपोषण के साथ ही तकनीकी दक्ष हमारे नौजवानों को रोजगार भी मिलता रहे और यह संदेश भी जाए कि हम लोकतांत्रिक तरीके से एक पारदर्शी व्यवस्था के पैरोकार हैं।
अमेरिकी प्रशासन के इस फैसले का असर भारत के साथ द्विपक्षीय रिश्तों पर भी पड़ सकता है। स्वाभाविक रूप से भारत सरकार पर जनता के इस सवाल का जवाब देने का दबाव बढ़ेगा कि अमेरिका के साथ ‘कूटनीतिक साझेदारी’ करने के बाद भी आखिर भारतीयों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों उनकी नौकरियां छीनी जा रही हैं? अपने देश में हर वर्ष दो करोड़ आबादी देश की जनगणना का हिस्सा बनती है, पर दुर्भाग्य से रोजगार के आंकड़े आज भी सुखद नहीं हैं। इन दिनों यह मसला कुछ ज्यादा ही गरम है। अगले साल यहां भी आम चुनाव होने वाले हैं और विपक्ष बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार को घेरने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। स्थानीय स्तर के साथ-साथ जब भारतीयों को विदेशों में भी काम नहीं मिलेगा, तो उनमें स्वाभाविक तौर पर गुस्सा पनपेगा। मौजूदा सरकार के लिए यह परेशानी का सबब बन सकता है। इसलिए हमारे हुक्मरानों को जल्द ही इस स्थिति से मुक्ति पाना होगा। वे चाहें, तो इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों में नौजवानों को काम देकर उन्हें संतुष्ट कर सकते हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने यही नीति अपनाई थी। इस दिशा में तेजी से काम किए जाने की जरूरत है। इसके अलावा, अफगानिस्तान, म्यांमार, दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य पड़ोसी देश, ईरान आदि के साथ भी हमें अपने रिश्ते और मजबूत करने होंगे। तभी हम चीन से मिल रही चुनौतियों का सामना कर सकेंगे।
क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) भी इस राह में हमारी मदद कर सकती है। आरसीईपी असल में आसियान के सभी 10 देशों और ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया व न्यूजीलैंड जैसे छह देशों के साथ होने वाला एक प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता है। अगर यह साकार हो जाता है, तो हम अमेरिका को भी मुक्त अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने और संरक्षणवाद को हतोत्साहित करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। कुल मिलाकर, राष्ट्रपति ट्रंप का ताजा फैसला अभी परेशान जरूर कर रहा है, पर यदि हम घर के भीतर और बाहर (पड़ोस में), दोनों जगह कुशल रणनीति बनाकर संजीदगी से काम करें, तो इसका लाभ भी उठा सकते हैं।
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Yojana : Inclusive Growth in the North East (28-04-2018)
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योजना : पूर्वोत्तर में समावेशी विकास (28-04-2018)
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Kurukshetra: New Dimensions of Blue Revolution (28-04-2018)
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कुरुक्षेत्र: कृषि संबद्ध क्षेत्र : किसानों की आय बढ़ाने में मददगार (28-04-2018)
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30-04-2018 (Important News Clippings)
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Date:30-04-18
TOI Editorials
The historic meeting between North Korea’s Kim Jong-un and South Korean President Moon Jae-in, just months after Kim tested his nukes and missiles and irked US President Donald Trump enough to pose the threat of a nuclear war, resembles the rush achieved in a roller coaster ride. Indeed, Kim’s sweeping promise to “put an end to the history of confrontation” and the joint statement confirming the goal of a nuclear-free Korean peninsula is a breakthrough. But until Kim’s meeting with Trump, tripartite talks between US and both Koreas, and four-party talks also involving China happen, it would be naïve to assume there’s no fine print to Pyongyang’s offer of denuclearisation.
Washington will need to allay North Korean security fears in exchange, and Beijing will need to play honest broker. It’s possible that Beijing may conclude a settlement of the Korean dispute is not in its interest, and block it. Moreover, if Trump decides to pull the US out of the nuclear deal with Iran next month, that could nuke US credibility with North Korea. Kim’s prolific missile tests followed by Trump’s tough talk, Moon’s diplomatic outreach, and the secret Kim-Xi summit make up a decidedly odd mix of developments. Yet these have improved understanding of each other’s motives.
Interestingly, the Panmunjom Declaration also broached reunification of Korea. This could be optimistic in the near term given Kim’s stranglehold over North Korea and Chinese concerns of a united capitalist Korea at its doorstep. Moreover younger South Koreans – unhappy that the economy has plateaued in recent times – are hesitant to shoulder the North’s developmental deficit. But even if the Panmunjom Declaration paves the way towards a peace treaty between the Koreas, leaving reunification for a later date, it will be a monumental achievement.
Date:30-04-18
TOI Editorials
Both President Xi Jinping and Prime Minister Narendra Modi like to reflect on the antiquity of Chinese and Indian civilisations respectively. But that won’t necessarily resolve problems between the two countries in the present. More of this approach was evident in the informal summit between the two leaders in Wuhan last week, when Xi took Modi on a guided tour of the Hubei provincial museum storing antiquities. Gains from the trip were not confined, however, to Xi’s hospitality, the face-time between the two leaders, or the bonhomie and symbolism on display. There were tangible outcomes as well, which could alleviate some of the stress in the India-China relationship.
The two sides agreed, for example, to undertake a joint economic project in Afghanistan. If such projects do indeed come to fruition – especially in Afghanistan where Pakistan is keen to exorcise any Indian presence – they would work wonders in terms of lowering distrust between New Delhi and Beijing. Also promising is the “strategic guidance” given by Xi and Modi to their countries’ respective militaries to build trust and predictable engagements in managing the border. If this means heading off future confrontations between the two armed forces, as was witnessed in Doklam last year, it’s indeed welcome.
The tone of the summit was best summed up by Modi’s enunciation of his own five mantras (akin to the 1954 Panchsheel Treaty) – thinking, contact, cooperation, determination and dreams – that he said could define the new India-China relationship. However, in that context it’s worthwhile remembering that the earlier Panchsheel came apart, and that talks and bonhomie have been experienced before only to disappoint later. Xi’s visit to India in 2014 was similarly cordial but also saw incursion of Chinese troops in Ladakh. Plus, mechanisms to resolve the border issue appear to have ground to a halt.
To be sure, special representatives of both countries have been “urged” to intensify their efforts to settle the border issue. But such efforts have been ongoing for decades without result. If the two leaders really wish to think big about the future of the India-China relationship, they must take control of the process and settle the border. After all, an undefined border is the fundamental reason confrontations between the two militaries arise. It makes little sense for the Chinese to claim Arunachal Pradesh now, as they overran and then relinquished it in 1962.
Date:30-04-18
संजय गुप्त ,(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)
वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच अनौपचारिक शिखर वार्ता में किसी समझौते की घोषणा न होने के बावजूद उसकी अहमियत इसलिए बढ़ जाती है, क्योंकि दोनों देशों ने सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए संचार तंत्र को मजबूत करने और आपसी समझ विकसित करने के लिए अपनी-अपनी सेनाओं को रणनीतिक मार्गदर्शन जारी करने का फैसला किया। इसके अलावा चीन ने संकेत दिए कि वह अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट-वन रोड में भारत की भागीदारी पर जोर नहीं देगा। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से गुजरने वाला चीन निर्मित आर्थिक गलियारा इसी परियोजना का हिस्सा है।
यह भी खासा उल्लेखनीय है कि दोनों देशों में अफगास्तिान में मिलकर काम करने की समझबूझ बनी। बीते वर्ष डोकलाम में 73 दिनों के गतिरोध के बाद दोनों देशों के बीच इस तरह आपसी समझ कायम होना एक कूटनीतिक कामयाबी है। इस कामयाबी तक इसीलिए पहुंचा जा सका, क्योंकि डोकलाम विवाद के बाद दोनों देशों ने अपने-अपने स्तर पर संबंध सुधारने की पहल की और आखिरकार भारतीय प्रधानमंत्री जून में चीन के अपने प्रस्तावित दौरे के पहले ही चीनी राष्ट्रपति से मिलने वुहान गए। ऐसे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन दुर्लभ ही होते हैं। चीन भारत का सबसे बड़ा पड़ोसी देश ही नहीं, एशिया की एक ऐसी बड़ी ताकत है जो दुनिया में अपनी छाप छोड़ने को तत्पर है, लेकिन वह इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत भी एक उभरती हुई ताकत और सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद एक पेचीदा मसला बना हुआ है। डोकलाम में टकराव इसी सीमा विवाद की उपज था। हालांकि 1962 के युद्ध के बाद चीन सीमाओं पर शांति बनाए हुए है, लेकिन उसकी आक्रामकता किसी से छिपी नहीं। भारत ने तिब्बत को चीन के स्वायत्तशासी क्षेत्र के रूप में मान्यता देकर यह समझा था कि इससे चीन अपने विस्तारवादी रवैये का परित्याग करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिछले साल डोकलाम में भूटान के इलाके में सड़क निर्माण की चीन की कोशिश उसके विस्तारवादी रवैये के साथ ही इसका भी सूचक थी कि वह भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है। इस खतरे को भांपकर ही भारत ने डोकलाम में अपनी सेनाएं भेजीं और चीन की तमाम धमकियों के बाद भी अपने कदम पीछे खींचने से इन्कार किया। भारत की दृढ़ता के आगे चीन कोे पीछे लौटना पड़ा।
जब यह आशंका थी कि चीन फिर से डोकलाम अथवा अरुणाचल या लद्दाख में अतिक्रमण की कोशिश कर सकता है तब उसने अपना रुख नरम किया। इसके जवाब में भारत ने भी दलाई लामा को लेकर उसकी चिंताओं को समझा। इसके बाद दोनों देशों ने संबंध सुधार की जो कोशिश की उसका ही नतीजा वुहान में अनौपचारिक बैठक के रूप में देखने को मिला। वुहान में दोनों देशों के नेताओं ने भारत-चीन के प्राचीन संबंधों का स्मरण किया। चूंकि चीन में प्रचलित बौद्ध धर्म भारत की ही देन है इसलिए दोनों देशों के बीच एक आध्यात्मिक रिश्ता भी है। इस रिश्ते के बाद भी दोनों देशों के संबंधों में वैसी मधुरता नहीं जैसी होनी चाहिए। इसका मूल कारण पुराने समझौतों को नकारने की चीन की आदत है। वह अन्य किसी से अपने लिए जैसे आचरण की अपेक्षा करता है वैसा दूसरों के प्रति प्रदर्शित करने से इन्कार करता है।
शी चिनफिंग के आजीवन राष्ट्रपति के तौर पर स्थापित होने के बाद यह माना गया था कि चीन के विस्तारवादी रुख में और आक्रामकता देखने को मिलेगी और इसके चलते सीमा विवाद सुलझाने में कहीं मुश्किल हो सकती है। इसमें दोराय नहीं कि वुहान में दोनों देशों के बीच विभिन्न मसलों पर बनी सहमति ने सीमा विवाद पर टकराव की आशंका को कम तो किया है, लेकिन अभी उसे पूरी तौर पर दूर करना शेष है। बावजूद इसके वुहान में दोनों देशों के नेताओं की मुलाकात के विरोध का कोई औचित्य नहीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस मुलाकात को लेकर कटाक्ष करने से बाज नहीं आए। इससे कूटनीति के प्रति उनकी खोखली सोच और राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय मिला। पता नहीं कैसे वह यह भूल गए कि डोकलाम विवाद के वक्त उन्होंने चीनी राजदूत से मुलाकात कर अपनी किरकिरी कराई थी? कांग्रेस को इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि चीन की ओर से मिल रही चुनौती के कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से पूर्वोत्तर के विकास के प्रति विशेष ध्यान दिया है।
पूर्वोत्तर के राज्य न केवल शेष देश से कटे-कटे से रहे हैं, बल्कि विकास में भी पिछड़ गए हैं। मोदी सरकार ने इस कमी को दूर करने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। इसका उसे राजनीतिक फायदा भी मिला है। आज पूर्वोत्तर के पांच राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगियों की सरकार है। चीन केवल अरुणाचल पर ही नजरें नहीं गड़ाए, वह पूर्वोत्तर के कुछ अन्य क्षेत्रों को लेकर भी विवाद उत्पन्न करता रहा है। भारत को परेशान करने के लिए वह कभी ब्रह्मपुत्र नदी के पानी का सहारा लेता है तो कभी सिक्किम के नाथू ला दर्रे पर समस्याएं खड़ी करता है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि भारत सरकार पूर्वोत्तर के विकास के साथ उसकी सुरक्षा पर भी विशेष ध्यान दे। चूंकि आज के युग में सैन्य टकराव कोई विकल्प नहीं इसलिए इसका औचित्य नहीं कि भारत और चीन सेना के जरिये किसी विवाद का समाधान करने के बारे में सोचें।
चीन एक बड़ी ताकत के तौर पर उभरने के बाद भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत अब 1962 जैसी स्थिति में नहीं। विडंबना यह है कि इसके बावजूद वहां के मीडिया का एक हिस्सा उकसावे वाली बातें करता रहता है। उसे पता होना चाहिए कि छोटा सा भी सैन्य टकराव आर्थिक- व्यापारिक रिश्तों पर गहरा असर डालेगा। इसके चलते चीन के विश्व महाशक्ति बनने के सपने को धक्का पहुंच सकता है। आज चीन के पास भारत जैसा विशाल बाजार और कोई नहीं और यह किसी से छिपा नहीं कि अमेरिका के साथ व्यापार संघर्ष ने उसकी समस्याएं बढ़ा दी हैं। चीन इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत के साथ व्यापार संतुलन कुल मिलाकर उसके ही पक्ष में है। चीन को होने वाला भारत का निर्यात बहुत ज्यादा नहीं।
दरअसल भारत के पास कृषि उत्पादों के अलावा ऐसा बहुत कुछ है भी नहीं जो चीन को निर्यात किया जा सके और चीन अपना कृषि बाजार खोलने के लिए तैयार नहीं है। इसके विपरीत चीन बड़े पैमाने पर भारत में बुनियादी ढांचे में निवेश करने का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा तभी पूरी हो सकती है जब रिश्ते सामान्य बने रहें और वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल करना छोड़े। चीन की रणनीति अक्सर हठधर्मिता वाली होती है और वह जब भी ऐसे रवैये का परिचय देता है, संबंध सुधार में बाधा आती है और अविश्वास बढ़ता है। उम्मीद है कि वुहान शिखर वार्ता के बाद चीनी नेतृत्व को यह समझने में आसानी हुई होगी कि भारत से बेहतर संबंध उसके अपने हित में हैं।
Date:29-04-18
ओंकारेश्वर पांडेय , वरिष्ठ समूह संपादक
अप्रैल 2018 का आखिरी हफ्ता दुनिया के इतिहास में दो अहम मुलाकातों के लिए याद किया जाएगा। एक तरफ दो कोरियाई देशों के नेताओं ने करीब छह दशक पुरानी दुश्मनी भुलाकर दोस्ती के लिए सीमाएं लांघ दीं। वहीं डोकलाम विवाद के बाद आये तनाव को भुलाते हुए दो बड़े एशियाई देश चीन और भारत के नेता आपसी रिश्तों का नया पंचशील रचते नज़र आये। पहले बात भारत और चीन की। नरेन्द्र मोदी और शी जिनपिंग की। करीब 64 साल पहले 29 अप्रैल 1954 को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन के पहले प्रीमियर (प्रधानमंत्री) चाऊ एन लाई के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किया था, जो महज आठ साल यानी सन 1962 तक ही भारत-चीन रिश्तों की ठोस बुनियाद रह पाया।
सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर पंचशील समझौते की धज्जियां उड़ा दी थीं। तब से दोनों देशों के बीच विास में जो कमी आयी, उसकी भरपाई कोई समझौता आज तक नहीं कर पाया। उसके बाद दोनों देशों में कोई युद्ध तो नहीं हुआ। पर चीन की शत्रुतापूर्ण हरकतों ने भारत की निगाहों में उसे बकौल जॉर्ज फर्नाडीस दुश्मन नंबर-वन बनाये रखा। चीन के साथ रिश्तों में जमी बर्फ वर्ष 1988 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के चीन दौरे से पिघली। तब से भारत-चीन रिश्तों में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद क्रमिक सुधार तो आया है, पर कभी भी ये रिश्ता पंचशील के दौर के भाईचारे को हासिल नहीं कर पाया क्योंकि बात तो तुम शांति और विकास की करते रहे चीन। पर आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान को संरक्षण तो तुम ही दे रहे हो न चीन। जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध के खिलाफ वीटो तुम ही कर देते हो चीन। भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने से तुम ही रोक रहे हो चीन। एनएसजी में भी तुम ही रोक रहे हो चीन।
जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से समेत भारत की हजारों वर्ग मील जमीन अवैध रूप से कब्जाये बैठा चीन अरु णाचल प्रदेश के तवांग और अक्साई-चिन क्षेत्र को अपना दक्षिण तिब्बत कहता है और इन इलाकों में अक्सर घुसपैठ व अतिक्रमण के अलावा सड़कें और स्थायी निर्माण भी करता रहता है। डोकलाम में भारत के साथ विवाद उसके सड़क बनाने के कारण ही पैदा हुआ था। पाक कब्जे वाले कश्मीर के रास्ते चीन-पाक आर्थिक गलियारा और ग्वादर बंदरगाह बनाकर उसने भारत की चिंताएं और बढ़ायी हैं। अप्रैल 2017 में दलाई लामा की अरु णाचल यात्रा से बौखलाये चीन ने अरु णाचल प्रदेश के छह जगहों के नाम भी बदल डाले थे।
इस पृष्ठभूमि में पीएम मोदी की चीन यात्रा को देखें तो भले ही इस दो दिवसीय दौरे में उनकी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से छह बार मुलाकातें हुई हों, झील से लेकर नाव तक और म्यूजियम से लेकर टेबल तक पर। वुहान शिखर सम्मेलन में पीएम मोदी ने चीन के परंपरागत वाद्य यंत्रों पर मिले सुर मेरा-तुम्हारा जैसी धुन निकालने की कोशिश की हो और नेहरू के पंचशील की तरह चीन के साथ मजबूत रिश्तों के लिए ‘‘स्ट्रेन्थ’ का नया सिद्धांत दिया हो, बावजूद इसके चीन के साथ रिश्तों में विास की कमी अभी तो है और रहेगी भी। हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा देते हुए नेहरू ने बीजिंग में जिस पंचशील समझौते पर चीन के साथ हस्ताक्षर किये थे, उसके पांच मुख्य बिंदु थे-1.एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान, 2. परस्पर अनाक्रमण, 3. एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना, 4. समान और परस्पर लाभकारी संबंध और 5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व। इसी समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार किया था, जिससे भारत-चीन संबंध सामान्य हो गये थे।
डोकलाम के दौरान चीन ने भारत को इसी पंचशील समझौते को तोड़ने का आरोप लगाया था।अब बुहान शिखर सम्मेलन में पीएम मोदी ने चीन पर अपना जो नया पांच सूत्री सिद्धांत पेश किया है, उसके पांच बिंदु हैं 1) समान दृष्टिकोण, 2) बेहतर संवाद, 3) मजबूत रिश्ता, 4) साझा विचार और 5) साझा समाधान।इसका पहला ही बिंदु अगर चीन मान ले तो भारत के साथ रिश्ता सुधर सकता है। पाकिस्तान और आतंकवाद के प्रति उसकी भूमिका, मसूद अजहर पर प्रतिबंध, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता और एनएसजी में भारत के प्रवेश तथा चीन-पाक आर्थिक गलियारे पर भारत का दृष्टिकोण अगर चीन मान ले तो दोनों देशों में मित्रता संभव है। पर क्या यह सब मान लेगा चीन? शायद नहीं।क्योंकि बात चाहे सीमा विवाद की हो, या भारत की किसी अन्य चिंता की, चीन अपनी ओर से कोई रियायत नहीं देना चाहता और उम्मीद करता है कि भारत अपने सभी दावे छोड़ दे, जो भारत के लिए कतई संभव नहीं है। फिर भी नेहरू के पंचशील समझौते के छह दशक बाद मोदी ने अपने ‘‘स्ट्रेन्थ’ की पंचशील से भारत-चीन रिश्तों को एक नया नज़रिया तो दे ही दिया है। इस नाते अप्रैल अंत की इन नेताओं की मुलाकात की खास अहमियत रहेगी ही।
वैसे सन 1988 में राजीव गांधी ने अपने शासन के चौथे वर्ष में अचानक चीन की ऐतिहासिक यात्रा की थी, जो उनके लिए भाग्यशाली साबित नहीं हुई। 1989 में वह सत्ता से बाहर हो गए थे। इस बार मोदी ने भी अपने शासन के चौथे साल में चीन की यात्रा की है, देखना यह उनके लिए लकी साबित होता है, या नहीं।
कोरिया प्रसंग
बीते शुक्रवार को उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन ने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन के साथ ऐतिहासिक मुलाकात कर दुनिया को चौंका दिया। 1953 के समझौते के बाद पहली बार उत्तर और दक्षिण कोरिया के नेताओं ने विभिन्न मुद्दों पर र्चचा की और एक साझा घोषणा पत्र जारी कर कोरियाई प्रायदीप में स्थायी शांति बहाली के साथ निरस्त्रीकरण करने पर भी सहमति जताई। दोनों कोरियाई नेता एक-दूसरे के गले भी लगे। यह सब कैसे हुआ? उत्तर कोरिया की इस रणनीति के पीछे चीन का दिमाग है। इसी महीने ट्रेन से गुपचुप चीन पहुंचे किम को राष्ट्रपति शी जिनपिंग यह समझाने में कामयाब रहे कि प्रतिबंधों से जर्जर उसका देश अमेरिका के हमले को कतई नहीं झेल पाएगा और परमाणु मिसाइल दागने पर तो पूरी दुनिया मिलकर उसे बर्बाद कर देगी। बेहतर है कि वह इराक और सीरिया बनने की गलती न करे। चीन ने यह सलाह अमेरिका को कोरियाई प्रायद्वीप से दूर रखने के लिए भी दी क्योंकि युद्ध होने पर अमेरिका चीन की सीमा पर आ पहुंचता, जो चीन को बर्दाश्त नहीं होता।
इसके बाद हुई दोनों देशों के नेताओं की मुलाकात ने कोरियाई प्रायद्वीप में युद्ध और शत्रुता के माहौल का अंत करते हुए शांतिपूर्ण संबंधों के नये अध्याय की भूमिका लिख डाली। निकट भविष्य में मून जे-इन उत्तरी कोरिया का दौरा करेंगे। दोनों देशों के नेता टेलीफोन पर भी नियमित बात करते रहेंगे। कोरियाई शिखर वार्ता पर पूरी दुनिया की निगाहें थीं, क्योंकि बीते साल उत्तर कोरिया ने छठा परमाणु परीक्षण करने के साथ अमेरिका तक मार कर सकने वाली मिसाइल का भी परीक्षण किया था और अपना परमाणु कार्यक्रम तेजी से बढ़ा रहा था। कोरियाई शिखर वार्ता ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और किम जोंग-उन के बीच होने वाली मुलाक़ात का एजेंडा ही बदल दिया है। अब ट्रंप क्या कहेंगे किम से? क्योंकि परमाणु निरस्त्रीकरण की घोषणा तो किम ने पहले ही कर दी। अब तो अमेरिका को उत्तर कोरिया से प्रतिबंध हटाने की बात करनी होगी। बड़ी चालाकी से चीन ने उत्तर कोरिया की पीठ पर हाथ रखकर अमेरिका को जतला दिया कि दुनिया के दादा तुम अकेले नहीं हो। बात साफ है, बहुध्रुवीय दुनिया बनने का यह एक बड़ा संकेत है। कोरियाई प्रायद्वीप और भारत-चीन में दोस्ती का नया अध्याय शुरू हो गया है।
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वन नीति मसौदे से उपजी आशंकाएं
Date:01-05-18 To Download Click Here.
सभी सरकारी नीतियां किसी न किसी प्रकार के लक्ष्य, प्राथमिकताओं और रणनीतियों को लेकर चलती हैं। बदलते दौर के साथ-साथ इन्हें भी संशोधित करने की आवश्यकता होती है। हमारी वन नीति की यही स्थिति है। इसमें पिछला संशोधन 1988 में हुआ था। सन् 2018 में वन नीति का जो मसौदा तैयार किया गया है, वह पिछले 30 वर्षों के दौरान आए परिवर्तनों को नजरअंदाज करता जान पड़ता है।
भारत की लगभग 25 करोड़ आबादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से वन पर निर्भर करती है। लकड़ी, चारा, बाँस, बीड़ी पत्ते के अलावा कई ऐसे वनोपज हैं, जो लोगों की आजीविका का साधन हैं। इमारती लकड़ी सरकारी खजाने में वृद्धि करती है। वन, जलधाराओं के प्रवाह को सुगम बनाते हैं, और गाद को संरक्षण देते हैं। इससे जल के किनारे बसने वाले समुदायों को बहुत लाभ मिलता है। वैश्विक रूप से ये कार्बन के अवशोषण के द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र को भी नियंत्रित करते हैं। अतः वन नीति का निर्धारण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह वांछित को प्राथमिकता से लाभ पहुँचाए। कहाँ और कैसे का भी ध्यान रखा जाए। इसके दूसरे पक्ष में वन भूमि का खनन आदि गतिविधियों में उपयोग के निर्णय को देखा जाना चाहिए।
1988 से पूर्व की वन नीति
औपनिवेशिक काल की वन नीति का उद्देश्य, सरकार को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाने का हुआ करता था। दुर्भाग्य यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात् भी वनों को उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने का साधन मात्र समझा गया। वनवासियों को श्रमिक ही समझा गया।
1988 में वन नीति की पुनः समीक्षा के साथ वन की भूमिका को जलवायु संरक्षक की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाने लगा। वनोपज पर वनवासियों का पहला अधिकार माना जाने लगा। वनों के संरक्षण में जनता की भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया।
1988 के बाद की स्थिति
1990 में संयुक्त वन प्रबंधन ने वनों में लोगों की भागीदारी बढ़ाने के लिए ग्रामीण वन समुदायों का निर्माण तो किया, परन्तु उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिए। दान राशि से पौधारोपण किया जाने लगा।
2006 के वनाधिकार कानून ने स्थानीय वन समुदायों को वन से संबंधित अधिकार प्रदान किया। महाराष्ट्र और ओड़ीशा में अनेक समुदाय इस अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
2018 की वन नीति का मसौदा
वन विकास निगम ने वन भूमि पर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के अंतर्गत कार्पोरेट निवेश करने का निर्णय लिया है।
अगर पूर्व की वन नीतियों के अनुसार वन को उत्पादकता से ही जोड़कर देखा जाने लगा जाए, तो जिस प्रकार प्राकृतिक ओक के वनों का स्थान देवदार ने, साल के वनों का स्थान सागौन ने और बारहमासी वनों का स्थान यूकेलिप्टस और एकेसिया ने ले लिया है, उसी प्रकार प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप से वनों के नाश की ही अधिक संभावना दिखाई देती है। अंततः कार्पोरेट जगत तो अपने लाभ की ही सोचेगा।
इस मसौदे में स्थानीय वन समुदायों को कोई खास अधिकार नहीं दिए गए हैं। ग्राम सभा और संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के बीच तालमेल सुनिश्चित करने का प्रावधान एक उम्मीद जगाता है।
पेरिस समझौता और कैम्पा
2015 में हुए पेरिस समझौते में भारत ने 3 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड को कम करने की प्रतिबद्धता दिखाई थी। इसका बहुत-सा दारोमदार वनों पर है। कार्बन का नाश करने वाले पेड़ों के कारण वनों को प्राथमिकता देनी ही होगी। कैम्पा या कम्पनसेटरी अफॉरसटेशन फंड मेनेजमेंट एण्ड प्लानिंग अथॉरिटी अधिनियम और हाल ही में जारी किए गए अन्य नियम राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए राज्य प्रबंधित वानिकी पर वापस आने के सरकार के इरादे की ओर इंगित कर रहे हैं। इससे कार्बन के लक्ष्य की पूर्ति और वन-प्रबंधन में विकेन्द्रीकरण नहीं हो सकेगा।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित शरत्चन्द्र लेले के लेख पर आधारित।
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Today's Life Management Audio Topic-"अकड़ का नतीजा"
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